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(जैन इतिहास, साहित्य, तत्त्वज्ञान आदि विषयक सचित्र पत्र)
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ॐ अहम् नमः ।
संपादकमुनि श्रीजिनविजयजी (एम्. आर. ए. एस्.)
लेख सूचि १ योग दर्शन-ले० श्रीयुत पं. सखलालजी २. कुंरपाल सोणपाल प्रशस्ति-ले० प्रो. बनारसी दासजी जैन एम्. ए. २६ ३. सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत-ले. श्रीयुत . नाथूरामजी प्रेमी... ३६ ४. कीरग्रामनो जैन शिलालेख-संपादकीय ... ५. महाकवि पुष्पदंत और उनका महापुराण-ले० श्रीयुत पं. नाथूरामजी प्रेमी ५७ ६. प्रो० ल्युमन अने आवश्यकसूत्र-ले० मुनि जि० वि० वकील के० प्रे० मोदी ८१ ७. स्वाध्याय-समालोचन ... ... ... ... ...
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प्रकाशक
जैन साहित्य संशोधक कार्यालय.
ठि. भारत जैन विद्यालय-पूना शहर.
पर- शाठिकाऊ
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ज्येष्ठ, विक्रम सं. १९७९] महावीर नि. सं. २४४९ [जुलाई १९२३. पर जोडxvdoctatogodeedo.dat.dootodtatta * जीना ना ना ना H
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ग्राहक वर्गने निवेदन
पहेला खंडनो छेल्लो अंक बहार पड्यां पछी आजे लगभग दोढ वर्ष करतांए वधारे समय पछी आ अंक ग्राहकोना हाथमां मुकतां अमारे ग्राहक वर्गने शुं निवेदन करवुं ते कांई सूझतुं नथी. आ अंक छपाववानी शरुआत संवत् १९७८ ना आखा त्रजिना दिवसे थई हती पण तेनी समाप्ति सं० १९७९ ना जेठमां थाय छे. आटला बधा विलंबनां कारणो आपी देवाथी पण अगने के प्राहकवर्गने सन्तोष थाय. तेंष लागतुं नथी तेथी असे ए संबन्धमां 'मौनं सर्वार्थसाधकं नी नीतिनं अनुसरी भूतकालने भूली जवानी भलामण करिए छीए; अने भविष्य सांट आशा आपीए छीए के, हवे पछी जेम बनशे तेम वेळासर ज ग्राहकांना हाथमां अंक पहुंची जाय तेवी दरेक कोशीश करवामां आवशे.
—मुनि जिनविजय.
MONROW WOW
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जैन साहित्य संशोधकना द्वितीय खण्डमां
केवा केवा विषयो आवशे ते जाणवुं होय
तो आ नीचेनी नोंध ध्यानपूर्वक वांचो
बीजा खण्डसां, जैन धर्मना प्राचीन गौरव उपर अपूर्व प्रकाश पाडनारा अनेक प्राचीन शिलालेखो अने ताम्रपत्रो प्रकट थशे.
बीजा खण्डमां, जैन संघना संरक्षक जुदा जुदा गच्छोनी पट्टावलियो प्रसिद्ध थशे.
बीजा खण्डसां, जैन साहित्यना आभूषणभूत प्रन्थोना परिचयो अने तेनी प्रशस्तिओ प्रसिद्ध थशे. वीजा खण्डम, जैन अने बौद्ध साहित्यनी तुलना करनारा प्रौढ अने गंभीर लेखो आवशे. बीजा खण्डमा, भगवान् महावीर देवना निर्वाण समय संबंधी जुदा जुदा विद्वानोए लखेला लेखोनां भाषान्तरो तथा स्वतंत्र लेख आवशे.
बीजा खण्डमा, प्रो० वेबरनी लखला जन आगमोनी विस्तृत समालोचना आपवामां आवशे. बीजा खण्डमा, जैन साहित्यसां उल्लिखित प्राचीन स्थळोनां वर्णनो आवशे.
बीजा खण्डमां, बौद्ध साहित्यसां जैनधर्मविषये शाशा विचारो लखाएला छे तेना विचित्र अने अज्ञातपूर्व उल्लेखो अवशे
बीजा खण्डमां, जैन संघमां आजपर्यंत थई गएला प्रसिद्ध पुरुषोना परिचय आपवामां आवशे. आ सिवाय बीजा पण अनेक नाना मोटा अपूर्वं अपूर्व लेखो प्रकट करवामां आवशे अने साथे तेवां ज सुन्दर, मनहर, दर्शनीय अने संग्रहणीय अनेक चित्रो पण यथायोग्य आपवामां आवशे.
वळी, आ खण्डमा कटेलाक ऐतिहासिक प्राचीन प्रबन्धो, अने पट्टावलिओ पण मूळ रूपे आपवामां आवनार छे. उदाहरण तरीके सेरुतुंगाचार्य विरचित विचारश्रेणि; उपकेशगच्छ, तपागच्छ, खरतरगच्छ, बृहत्पोशालिक गच्छ आदिनी पट्टावली; जुना रासा; चैत्य परिपाटि; तीर्थ पाळा. अने विज्ञप्ति इत्यादि. इत्यादि.
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॥ ॐ अहम् ॥ ॥ नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते महावीराय ॥
जै न सा हि त्य सं शोध क
'पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि । सच्चस्साणाए उवठ्ठिए मेहावी मारं तरइ ।' 'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ।' दिलै, सुयं, मयं, विण्णायं जं एत्य परिकहिज्जइ ।'
-निम्रन्थप्रवचन-आचारांगसूत्र ।
खंड २ ]
हिंदी लेख विभाग.
[ अंक १
यो ग दर्शन
+00+ ( लेखकः-पं. सुखलालजी न्यायाचार्य)
प्रत्येक मनुष्य व्याक्त अपरिमित शक्तियोंके तेजका पुञ्ज है, जैसा कि सूर्य । अत एव राष्ट तो मानों अनेक सूर्योका मण्डल है। फिर भी जब कोई व्यक्ति या राष्ट्र असफलता या नैराश्यके भँवर में पटता है तब यह प्रश्न होना सहज है कि इसका कारण क्या है ? । बहुत विचार कर देखनेसे मालूम पडता है कि असफलता व नैराश्यका कारण योगका ( स्थिरताका) अभाव है, क्यों कि योग न होनेसे बुद्धि संदेहशील बनी रहती है, और इससे प्रयत्नकी गति अनिश्चित हो जानेके कारण शक्तियां इधर उधर टकरा कर आदमीको बरबाद कर देती है । इस कारण सब शक्तियोंको एक केन्द्रगामी बनाने तथा साध्यतक पहुंचानके लिये अनिवार्यरूपसे सभीको योगकी जरूरत है। यही कारण है कि प्रस्तुत व्याख्यानमालामें योगका विषय रक्खा गया है।
• भूजरात पुरातत्त्व मंदिरकी ओरसे होनेवाली आर्यविद्याव्याख्यानमालामें यह व्याख्यान पढा गया था ।
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जन साहित्य संशोधक
[ खंड २:
इस विषयकी शास्त्रीय मीमांसा करनेका उद्देश यह है कि हमें अपने पूर्वजोंकी तथा अपनी सभ्यताकी प्रकृति ठीक मालूम हो, और तद्द्वारा आर्यसंस्कृतिके एक अंशका थोडा, परः निश्चित रहस्य विदित हो।
योगदर्शन यह सामासिक शब्द है । इसमें योग और दर्शन ये दो शब्द मौलिक हैं ।।
योग शब्दका अर्थ--योग शब्द युज् धातु और घञ् प्रत्ययसे सिद्ध हुवा है ।' युज् धातु दो हैं । एकका अर्थ है जोडना और दूसरेका अर्थ है ममाधि2-मनःस्थिरता । सामान्य रीतिसे योगका अर्थ संबन्ध करना तथा मानसिक स्थिरता करना इतना ही है, परंतु प्रसंग व प्रकरणके अनुसार उसके अनेक अर्थ हो जानेसे वह बहुरूपी' बन जाता है । इसी बहुरूपिताके कारण लोकमान्यको अपने गीतारहस्यमें गीताका तात्पर्य दिखानेके लिये योगशब्दार्यनिर्णयकी विस्तृत भूमिका रचनी पडी है । परंतु योगदर्शनमें योग शब्दका अर्थ क्या है यह बतलानेके लिये उतनी गहराई में उतरनेकी कोई आवश्यकता नहीं है; क्यों कि योगदर्शनविषयक सभी ग्रन्थोंमें जहां कहीं योग शब्द आया है वहां उसका एक ही अर्थ है, और उस अर्थका स्पष्टीकरण उस उस ग्रन्थमें ग्रन्थकारने स्वयं ही कर दिया है । भगवान् पांजलिने अपने योगसूत्रमें4 चित्तवृति निरोधको ही योग कहा है, और उस ग्रन्थमें सर्वत्र योग शब्दका वही एक मात्र अर्थ विवक्षित है । श्रीमान् हरिभद्र सूरिने अपने योग विषयक सभी ग्रन्थामा मोक्ष प्राप्त कराने वाले. धर्मव्यापारको ही योग कहा है; और उनके उक्त सभी ग्रन्थों में योग शब्दका वहीं एक मात्र अर्थ विवक्षित है । चित्तवृत्तिनिरोध और मोक्षप्रापक धर्मव्यापार इन दो वाक्योंके अर्थमें स्थूल दृष्टिसे देखने पर बडी: भिन्नता मालूम हो ती हैं, पर सूक्ष्म दृष्टिसे देखने पर उनके अर्थकी अभिन्नता स्पष्ट मालूम हो जाती है । क्यों कि 'चित्तवृत्तिनिरोध' इस शब्दसे वही क्रिया या व्यापार विवक्षित है जो मोक्षके लिये अनुकूल हो और जिससे चित्तकी संसाराभिमुख वृत्तियां रुक जाती हों ।' मोक्षप्रापक. धर्मव्यापार' इस. शब्दसे भी वही क्रिया विवक्षित है । अत एव प्रस्तुत विषयमें योग शब्दका अर्थ स्वाभाविक समस्त आत्मशक्तियोंका पूर्ण विकास करानेवाली क्रिया अर्थात् आत्मोन्मुख चेष्टा इतना ही समजना चाहिये । योगविषयक वैदिक, जैन और बौद्ध ग्रन्थों में योग, ध्यान, समाधि ये शब्द बहुधा समानार्थक देखे जाते हैं ।
दर्श न शब्द का अर्थ-नेत्रजन्यज्ञान, निर्विकल्प (निराकार) बोध,8 श्रद्धा, मत10 आदि अनेक अर्थ दर्शन शब्दके देखे जाते हैं । पर प्रस्तुत विषयमें दर्शन शब्दका अर्थ मत यही एक विवक्षित है।
योगके आविष्कारका श्रेय–जितने देश और जितनी जातियों के आध्यात्मिक महार पुरुषोंकी जीवनकथा तथा उनका साहित्य उपलब्ध है उसको देखनेवाला कोई भी यह नहीं कह सकता है कि आध्यात्मिक विकास अमुक देश और अमुक जातिकी ही बपौती है, क्यों कि सभी देश और सभी जातियों में न्यूनाधिक रूपसे आध्यात्मिक विकासवाले महात्माओंके पाये जानेके प्रमाण मिलते हैं11 । योगका संबन्ध आध्यात्मिक विकाससे है। अत एव यह स्पष्ट है कि
१ युपी योगे,-७ गण हेमचंद्र धातुपाठ. २ युजिच् समाधौ,-४ गण हेमचंद्र धातुपाठ, ३ देखो पृष्ठ ५५ से ६०। ४ पा. १ सू. २-योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । ५ योगबिन्दु श्लोक ३१अध्यात्म भावनाऽऽध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षेण योजनाद्योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ॥ योगविशिका गाथा ॥१॥
६ लोर्ड एवेबरीने जो शिक्षाकी पूर्ण व्याख्या की है वह इसी प्रकारकी है:- " Education is the harmonious developement of all our faculties.” ७ दृशं प्रेक्षणे-१ गण हेमचन्द्र धातुपाठ. ८ तत्त्वार्थ अध्याय २ सूत्र ६-श्लोक वार्तिक. ९ तत्त्वार्थ अध्याय १ सूत्र २. १० षड्दर्शन समुच्चय-श्लोक २-"दर्शनानि षडेवात्र" इत्यादि. ११ उदाहरणार्थ जरथोस्त, इसु, महम्मद आदि.
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योगदर्शन
[ ३
योगका अस्तित्व सभी देश और सभी जातियोंमें रहा है । तथापि कोइ भी विचारशील मनुष्य इस बातका इनकार नहीं कर सकता है कि योगके आविष्कारका या योगको पराकाष्ठा तक पहुंचानेका श्रेय भारतवर्ष और आर्यजातिकोी है। इसक सबूतमें मुख्यतया तीन बातें पेश की जा सकती हैं । १ योगी, ज्ञानी, तपस्वी आदि आध्यात्मिक महापुरुषोंकी बहुलता; २ साहित्य के आदर्शकी एकरूपता; और ३ लोकरुचि ।
अंक १ ]
१. योगी, ज्ञानी, तपस्वी आदि आध्यात्मिक महापुरुषोंकी संख्या भारतवर्ष में पहिलेसे आज तक इतनी बड़ी रही है कि उसके सामने अन्य सब देश और जातियोंके आध्यात्मिक व्यक्तियोंकी कुल संख्या इतनी अल्प जान पडती है जितनी कि गंगा के सामने एक छोटीसी नदी |
२. साहित्यके आदर्शकी एकरूपता - तत्त्वज्ञान, आचार, इतिहास, काव्य, नाटक आदि साहित्यका कोई भी भाग लीजिये उसका अन्तिम आदर्श बहुधा मोक्ष ही होगा । प्राकृतिक दृश्य और कर्मकाण्डके वर्ण - नने वेदका बहुत बडा भाग रोका है सही, पर इसमें संदेह नहीं कि वह वर्णन वेदका शरीर मात्र है; उसकी आत्मा कुछ ओर ही है - और वह है परमात्मचिंतन या आध्यात्मिक भावोंका आविष्करण । उपनिषदोंका प्रासाद तो ब्रह्मचिन्तनकी बुनियाद पर ही खडा है । प्रमाणविषयक, प्रमेयविषयक कोई भी तत्त्वज्ञान संबन्धी सूत्रग्रन्थ हो; उसमें भी तत्त्वज्ञानके साध्यरूपसे मोक्षका ही वर्णन मिलेगा 1 । आचारविषयक सूत्र स्मृति आदि सभी ग्रन्थोंमें आचारपालनका मुख्य उद्देश मोक्ष ही माना गया 2 है । रामायण, महाभारत आदिके मुख्य पात्रोंकी महिमा सिर्फ इस लिये नहीं कि वे एक बडे राज्यके स्वामी थे, पर वह इस लिये है कि अंतमें वे संन्यास या तपस्याके द्वारा मोक्षके अनुष्ठानमें ही लग जाते हैं । रामचन्द्रजी प्रथम ही अवस्थामें वशिष्ठसे योग और मोक्षकी शिक्षा पा लेते हैं । युधिष्ठिर भी युद्ध रस लेकर बाण शय्यापर सोये हुए भीष्मपितामह से शान्तिका ही पाठ पढते 4 हैं। गीता तो रणांगण में भी मोक्षके एकतम साधन योगका ही उपदेश देती है । कालिदास जैसे शृंगारप्रिय कहलानेवाले कवि भी अपने मुख्य पात्रोंकी महत्ता मोक्षकी और झुकनेमें ही देखते हैं । जैन आगम और बौद्ध पिटक तो 1 निवृत्तिप्रधान होनेसे मुख्यतया मोक्षके सिवाय अन्य विषयों का वर्णन करनेमें बहुत ही संकुचाते हैं । शब्दशास्त्र में
- 1 वैशेषिकदर्शन, अ० १ सू० ४ धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां 'साधर्म्य वैधर्म्याभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम् । - न्यायदर्शन अ० १ सू० १ प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतकीनर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम् ॥ सांख्यदर्शन, अ. १ अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः ॥ - वेदान्तदर्शन अ०४, पा० ४, सू० २२ अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात् ॥ जैनदर्शन तत्त्वार्थ अ० १ सू० १ सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः || 2 याज्ञवल्क्यस्मृति अ. ३ यतिधर्मानिरूपणम् ; मनुस्मृति अ. १२ श्लोक ८३. 3 देखो योगवाशिष्ठ 4 देखो महाभारत–शान्तिपर्व. 5 कुमारसंभव -सर्ग ३ तथा ५ तपस्या वर्णनम् . शाकुन्तल नाटक अंक ४ कण्वोक्ति.
भूत्वा चिराय चतुरन्तमहीसपत्नी, दौष्यन्तिमप्रतिरथं तनयं निवेश्य ।
भर्त्रा तदर्पितकुटुम्बभरेण सार्थ, शान्ते करण्यास पदं पुनराश्रमेऽस्मिन् ॥
शैशवेऽभ्यस्तविद्यानाम् यौवने विषयैषिणाम् । वार्द्धके मुनिवृत्तीनाम् योगेनान्ते तनुत्यजाम् ||८|| सर्ग १
अथ स विषयव्यावृत्तात्मा यथाविधि सूनवे, नृपतिककुदं दत्त्वा यूने सितातपवारणम् । मुनिवनतरुच्छायां देव्या तया सह शिश्रिये, गलितवयसामिध्वाणामिदं हि कुल्व्रतम् ॥ ७० ॥ रघुवंदा. ३
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जैन साहित्य संशोधक
भी शब्दशुद्धिको तत्त्वज्ञानका द्वार मान कर उसका अन्तिम ध्येय परम श्रेय ही माना है। विशेष क्य कामशास्त्र तकका भी आखिरी उद्देश मोक्ष है। इस प्रकार भारतवर्षीय साहित्यका कोई भी स्रोत देखिये उसकी गति समुद्र जैसे अपरिमेय एक चतुर्थ पुरुषार्थकी ओर ही होगी।
३ लोकाच-आध्यात्मिक विषयकी चर्चावाला और खासकर योगविषयक कोई भी ग्रन्थ किसीने भी लिखा कि लोगोंने उसे अपनाया । कंगाल और दीन हीन अवस्थामें भी भारतवर्षीय लोगोंकी उक्त आभाचे यह सूचित करती है कि योगका सम्बन्ध उनके देश व उनकी जातिमें पहलेसे ही चला आता है। इसी कारणसे भारतवर्षकी सभ्यता अरण्यमें उत्पन्न हुई कही जाती है 1। इस पैत्रिक स्वभावके कारण जब कभी भारतीय लोग तर्थियात्रा या सफरके लिये पहाडों, जंगलों और अन्य तीर्थस्थानामें जाते हैं तब वे डेरा तंबू डालनेसे पहले ही योगियोंको, उनके मठांको और उनके चिन्ह तकको भी ढूंढा करते हैं। योगकी श्रद्धाका उद्रेक यहां तक देखा जाता है कि किसी नंगे बावेको गांजेकी चिलम फूंकते या जटा बढाते देखा कि उसके मुंहके धुंएमें या उसकी जटा व भस्मलेपमें योगका गन्ध आने लगता है । भारतवर्षके पहाड, जंगल और तीर्थस्थान भी बिलकुल योगिशून्य मिलना दुःसंभव है। ऐसी स्थिति अन्य देश और अन्य जातिम दुर्लभ है। इससे यह अनुमान करना सहज है कि योगको आविष्कृत करनेका तथा पराकाष्ठा तक पहुंचानका श्रेय बहुधा भारतवर्षको और आर्यजातिको ही है। इस बातकी पुष्टि मेक्षमूलर जैसे विदेशीय और भिन्न संस्कारी विद्वान्के कथनसे भी अच्छी तरह होती है।2
आर्यसंस्कृतिकी जड और आर्यजातिका लक्षण--ऊपरके कथनसे आर्यसंस्कृतिका मूल आधार क्या है, यह स्पष्ट मालूम हो जाता है । शाश्वत जीवनकी उपादेयता ही आर्यसंस्कृतिकी भित्ति है । इसी पर आर्यसंस्कृ. तिके चित्रोंका चित्रण किया गया है । वर्णविभाग जैसा सामाजिक संगठन और आश्रमव्यवस्था जैसा वैयक्तिक जीवनविभाग उस चित्रणका अनुपम उदाहरण है। विद्या, रक्षण, विनिमय और सेवा ये चार जो वर्णविभागके उद्देश्य हैं, उनके प्रवाह गार्हस्थ्य जीवनरूप मैदानमें अलग अलग बह कर भी वानप्रस्थके मुहानेमें मिलकर अंतमें संन्यासाश्रमके अपरिमेय समुद्र में एकरूप हो जाते हैं । सारांश यह है कि सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक आदि सभी संस्कृतियोंका निर्माण, स्थूल जीवनकी परिणामविरसता और आध्यात्मिक-जीवनकी परिणामसुन्दरता ऊपर ही किया गया है । अत एव जो विदेशीय विद्वान् आर्यजातिका लक्षण स्थूलशरीर, उसके डीलडोल, व्यापार-व्यवसाय, भाषा, आदिमें देखते हैं वे एकदेशीय मात्र हैं । खेतीबारी, जहाजखेना, पशुओंको चराना आदि जो जो अर्थ आर्यशब्दसे निकाले गये हैं वे आर्यजातिके असाधारण लक्षण नहीं है।
आर्यजातिका असाधारण लक्षण तो परलोकमात्रकी कल्पना भी नहीं है, क्यों कि उसकी दृष्टि में वह लोक भी त्याज्य है। उसका सच्चा और अन्तरंग लक्षण स्थूल जगत्के उसपार वर्तमान परमात्मतत्त्वकी एकाग्रबुद्धिसे उपासना करना यही है। इस सर्वव्यापक उद्देश्यके कारण आर्यजाति अपनेको अन्य सब जातियोंसे श्रेष्ठ समझती आई है।
१ द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् । शब्दब्रह्माण निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ व्याकरणात्पदसिदिः पदसिद्धरर्थनिर्णयो भवति । अर्थात्तत्त्वज्ञानं तत्त्वज्ञानात्परं श्रेयः ।।
श्रीहेमशब्दानुशासनम् अ. १ पा. १ सू. २ लधुन्यास, २ " स्थाविरे धर्म मोक्षं च " कामसूत्र अ. २ पृ. ११ Bombay Edition.
1 देखो कविवर टागोर कृत " साधना" पृष्ठ ४.. “ Thus in India it was in the forests that our civilization had its birth......etc"
2 This concentrtion of thought (एकाग्रता) or one-pointedness as the Hindus called it, Is something to us almost unknown.
इत्यादि देखो. पृ. २३-वोल्युम १-सेक्रेड बुक्स ओफ धि ईस्ट, मेक्षमूलर-प्रस्तावना.
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अंक १]
योदगर्शन
ज्ञान और योगका संबन्ध तथा योगका दरजा--व्यवहार हो या परमार्थ, किसी भी विषयका ज्ञान तभी परिपक्व समझा जा सकता है जब कि ज्ञानानुसार आचरण किया जाय । असलमें यह आचरण ही योग है। अत एव ज्ञान योगका कारण है । परन्तु योगके पूर्ववर्ति जो शान होता है वह अस्पष्ट होता है। और योगके बाद होनेवाला अनुभवात्मक ज्ञान स्पष्ट तथा परिपक्व होता है। इसीसे यह समझ लेना चाहिये कि स्पष्ट तथा परिपक्व ज्ञानकी एक मात्र कुंजी योग ही है। आधिभौतिक या आध्यात्मिक कोई भी योग हो, पर वह जिस देश या जिस जातिमें जितने प्रमाणमें पुष्ट पाया जाता है उस देश या उस जातिका विकास उतना ही अधिक प्रमाणमें होता है। सच्चा ज्ञानी वही है जो योगी है। जिसमें योग या एकाग्रता नहीं होती वह योगवाशिष्ठकी परिभाषामें ज्ञानबन्धु है। । योगके सिवाय किसी भी मनुष्यकी उत्क्रान्ति हो ही नहीं सकती, क्यों कि मानसिक चंचलताके कारण उसकी सब शक्तियां एक ओर न बह कर भिन्न भिन्न विषयोंमें टकराती हैं. और क्षीण हो कर यों ही नष्ट हो जाती हैं। इसलिये क्या किसान, क्या कारीगर, क्या लेखक, क्या शोधक, क्या त्यागी सभीको अपनी नाना शक्तियोंको केन्द्रस्थ करेनेके लिये योग ही परम साधन है।
व्यावहारिक और पारमार्थिक योग--योगका कलेवर एकाग्रता है, उसकी आत्मा अहत्व ममत्वका त्याग है । जिसमें सिर्फ एकाग्रताका ही संबन्ध हो वह व्यावहारिक योग, और जिसमें एकाग्रताके साथ साथ अहंत्व ममत्वके त्यागका भी संबन्ध हो वह पारमार्थिक योग है । यदि योगका उक्त आत्मा किसी भी प्रवत्तिमें-चाहे वह दुनियाकी दृष्टिमें बाह्य ही क्यों न समझी जाती हो-वर्तमान हो तो पारमार्थिक योग ही समझना चाहिये । इसके विपरीत स्थूलदृष्टिवाले जिस प्रवृत्तिको आध्यात्मिक समझते हों, उसमें भी यदि योगका उक्त आत्मा न हो तो उसे व्यवहारिक योग ही कहना चाहिये । यही बात गीताके साम्यगर्भित कर्मयोगमें कही गई है।
यो ग की दो धारा ये व्यवहारम किसी भी वस्तुको परिपूर्ण स्वरूपमें तैयार करनेके लिये पहले दो बातोंकी आवश्यकता होती है। जिनमें एक ज्ञान और दूसरी क्रिया है। चितेरेको चित्र तैयार करनेसे पहले उसके स्वरूपका, उसके साधनोंका और साधनोंके उपयोगका ज्ञान होता है, और फिर वह ज्ञान के अनुसार क्रिया भी करता है। तभी वह चित्र तैयार कर पाता है। वैसे ही आध्यात्मिक क्षेत्रमें भी मोक्षके जिशासके लिये बन्धमोक्ष, आत्मा और बन्धमोक्षके कारणोंका, तथा उनके परिहार, उपादानका ज्ञान होना जरूरी है। एवं ज्ञानानुसार प्रवृत्ति भी आवश्यक है । इसी से संक्षेपमें यह कहा गया है कि " ज्ञानाक्रियाभ्यां मोक्षः "। योग क्रियामार्गका नाम है । इस मार्गमें प्रवृत्त होनेसे पहले अधिकारी, आत्मा आदि आध्यात्मिक विषयोंका आरंभिक ज्ञान शास्त्रसे, सत्संगसे, या स्वयं प्रतिभा द्वारा कर लेता है । यह तत्त्वविषयक प्राथमिक ज्ञान प्रवर्तक ज्ञान कहलाता है। प्रर्वतक ज्ञान प्राथमिक दशाका ज्ञान होनेसे सबको एकाकार और एकसा नहीं हो सकता । इसीसे योगमार्गमें तथा उसके परिणामस्वरूप मोक्षस्वरूपमें तात्विक भिन्नता न होने पर भी योगमा--
1 इसी अभिप्रायसे गीता योगिको ज्ञानीसे अधिक कहती है। गीता अ. ६ श्लोक ४६तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद योगी , गीता अ. ५ श्लोक ५-- यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योभैरपि गम्यते । एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ 3 योगवाशिष्ठ निर्वाण प्रकरण, उत्तरार्ध, सर्ग २१-- व्याचष्टे यः पठति च शास्त्र भोगायः शिस्सिवत् । यततेन त्वनुष्ठाने शानबन्धुः स उच्यते ।। आत्मस्थानमनासाचशानान्तरलवेन ये । सन्तुष्टाः कष्टं चेष्टते ते स्मृता शानबान्धवः ॥ इत्यादि । 4 अ. २ श्लोक ४योगस्थः कुरु कर्माणि संमं त्यक्त्वा धनञ्जय सिसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग. उच्यते ॥
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६]
जैन साहित्य संशोधक
र्गके प्रवर्तक प्राथमिक ज्ञानमें कुछ भिन्नतां अनिवार्य है । इस प्रवर्तक ज्ञानका मुख्य विषय आत्माका अस्तित्व है । आत्माका स्वतंत्र अस्तित्व माननेवालोंमें भी मुख्य दो मत हैं - पहला एकात्मवादी और दूसरा नानात्मवादी । नानात्मवादमें भी आत्माकी व्यापकता, अव्यापकता, परिणामिता, अपरिणामिता माननेवाले अनेक पक्ष हैं। पर इन वादोंको एकतरफ रख कर मुख्य जो आत्माकी एकता और अनेकताके दो वाद हैं उनके आधार पर योगमार्ग की दो धारायें हो गई हैं। अत एव योगविषयक साहित्य भी दो मार्गों में विभक्त हो जाता है । कुछ उपनिषदें, 1 योगवाशिष्ठ, हठयोगप्रदीपिका आदि ग्रन्थ एकात्मवादको लक्ष्यमें रख कर रचे गये हैं । महाभारतगत योग प्रकरण, योगसूत्र तथा जैन और बौद्ध योगग्रन्थ नानात्मवादके आधार पर रचे गये हैं ।
योग और उस के साहित्य के विकास का दिग्दर्शन- आर्यसाहित्यका भाण्डार मुख्यतया तीन भागों में विभक्त है- वैदिक, जैन और बौद्ध । वैदिक साहित्यका प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद है । उसमें आधिभौतिक और आधिदैविक वर्णन ही मुख्य है । तथापि उसमें आध्यात्मिक भाव अर्थात् परमात्मचिन्तनका अभाव नहीं है 2 | परमात्मचिंतनका भाग उसमें थोडा है सही, पर वह इतना अधिक स्पष्ट, सुन्दर और भावपूर्ण है कि उसको ध्यानपूर्वक देखनेसे यह साफ मालूम पड जाता है कि तत्कालीन लोगोंकी दृष्टी केवल बाह्य न थी
ध्यानबिन्दु, तेजोबिन्दु, शिखा,
1 ब्रह्मविद्या, क्षुरिका, चूलिका, नादबिन्दु, ब्रह्मबिन्दु, अमृतबिन्दु, योगतत्त्व, हंस, इत्यादि ।
"
2 देखो " भागवताचा उपसंहार पृष्ठ २५२.
3 उदाहरणार्थ कुछ सूक्त दिये जाते हैं। ऋग्वेद मं. १ सू. १६४-४६
[ खंड २
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् । एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः || भाषांतरः- लोग उसे इन्द्र, मित्र, वरुण, या अभि कहते हैं । वह सुंदर पांखवाला दिव्य पक्षी है । एक । ही सत्का विद्वान् लोग अनेक प्रकारसे वर्णन करते हैं। कोई उसे अभि, यम या वायु भी कहते हैं ।
ऋग्वेद मण्ड. ६ सू. ९
विमे कर्णो पतयतो वि चक्षुर्वीदं ज्योतिर्हृदय आहितं यत् ।
वि मे मनश्वरति दूर आधीः किंस्विद् वक्ष्यामि किमु नु मनिष्ये ॥ ६ ॥
विश्वे देवा अनमस्यन् भियानास्त्वाम ! तमसि तस्थिवांसम् । वैश्वानरोऽवतूतये नोऽमर्त्योऽवतूतये नः ॥ ७ ॥
भाषांतरः- मेरे कान विविध प्रकारकी प्रवृत्ति करते हैं । मेरे नेत्र, मेरे हृदयमें स्थित ज्योति और मेरा दूरवर्ती मन [भी] विविध प्रवृत्ति कर रहा है । मैं क्या कहुं और क्या विचार करूं ? । ६ । अंधकार-स्थित हे अनि ! तुजको अंधकारसे भय पानेवाले देव नमस्कार करते हैं । वैश्वानर हमारा रक्षण करे । अमर्त्य हमारा रक्षण करे । ७ ।
ऋग्वेदः - पुरुषसूक्त, मण्डल १० सू० ९०
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १ ॥
पुरुष एवेदं सर्वे यद्भूतं यच्च भव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ २ ॥
एतावानस्य महिमाSतो ज्यायांश्च पूरुषः । पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३ ॥
भाषांतरः-( जो ) हजार सिरवाला, हजार आंखवाला, हजार पाँववाला पुरुष ( है ) वह भूमिको चारों ओरसे घेर कर ( फिर भी ) दस अंगुल बढ कर रहा है । १ । पुरुष ही यह सब कुछ है - जो भूत और जो भाबि । ( वह ) अमृतत्वका ईश अन्नसे बढ़ता है । २ । इतनी इसकी महिमा - इससे भी वह पुरुष अधिकतर है। सारे भूत उसके एक पाद मात्र है-इसके अमर तीन पाद स्वर्गमें हैं । ३
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योगदर्शन
अंक १]
इसके सिवा उसमें ज्ञान 1, श्रद्धा 2, उदारता, ब्रह्मचर्य 4, आदि आध्यत्मिक उच्च मानसिक भावोंके चित्र भी बडी खूबीवाले मिलते हैं। इससे यह अनुमान करना सहज है कि उस जमानेके लोगों का झुकाव अध्यात्मिक अवश्य था । यद्यपि ऋग्वेद में योगशब्द अनेक स्थानोंमें आया है 5, पर सर्वत्र उसका अर्थ प्रायः जोडना इतना ही है, ध्यान या समाधि अर्थ नहीं है । इतना ही नहीं बल्कि पिछले योग विषयक साहित्यमें ध्यान, वैराग्य, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि जो योगप्रक्रिया - प्रसिद्ध शब्द पाये जाते हैं वे ऋग्वेदमें बिलकूल नहीं हैं । ऐसा होनेका कारण sो कुछ हो, पर यह निश्चित है कि तत्कालीन लोगोंमें ध्यानकी भी रुचि थी । ऋग्वेदका ब्रह्मस्फुरण जैसे जैसे विकसित होता गया और उपनिषदके जमाने में उसने जैसे ही विस्तृत रूप धारण किया वैसे वैसे ध्यानमार्गभी अधिक पुष्ट और साङ्गोपाङ्ग होता चला । यही कारण है कि प्राचीन उपनिषदोंमें भी समाधि अर्थ में योग ध्यान आदि शब्द पाये जाते हैं6 । श्वेताश्वतर उपनिषद में तो स्पष्ट रूपसे योग तथा योगोचित स्थान, प्रत्याहार, धारणा आदि योगाङ्गों का वर्णन है 7 । मध्यकालीन और अर्वाचीन अनेक उपनिषदें तो सिर्फ योगविषयक ही
ऋग्वेदः -- पु० सूक्त मं. १९ सू. १२१
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः ।
१ ॥
[७
यस्य च्छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ २ ॥
भाषांतरः --- पहले हिरण्यगर्भ था । वही एत भूत मात्रका पति बना था । उसने पृथ्वी और इस आकाशको धारण किया । किस देवको हम हविसे पूजें १ । १ । जो आत्मा और बलको देनेवाला है । जिसका विश्व है। जिसके शासनकी देव उपासना करते हैं । अमृत और मृत्यु जिसकी छाया है । किस देवको हम हविसे पूजें ? । २।
ऋग्वेद मं. १० -१२९-६ तथा ७
को अद्धा वेद क इह प्रवोचन् कुत आ जाता कुत इयं विसृष्टिः । अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आ बभूव ॥ इयं विसृष्टिर्यत आ बभूव यदि वा दधे यदि वा न । यो अस्याध्यक्ष परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥ भाषांतरः- कौन जानता है - कौन कह सकता है कि यह विविध सृष्टि कहाँसे उत्पन्न हुई ? | देव इसके विविध सर्जनबाद ( ) हैं। कोन जान सकता है कि यह कहांसे आई ? यह विविध सृष्टि कहांसे आई और स्थिति है वा नहीं है ? यह बात परम व्योम में जो इसका अध्यक्ष है वही जाने - कदाचित् वह भी न जानता हो ।
1 मं. १० सू. ७१ । 2 मं. १० सू. १५१ । 3 मं. ११ सू. ११७ | 4 मं. १४ सू. १०
5 मंडल १ सूक्त ३४ मंत्र ९ । मं. १० सू. १६६ मं. ५ । मं. १ सू. १८ मं. ७ । मं. १ सू. ५ मं. ३ । मं. २ सू. ८ मं. १ । मं. ९ सू. ५८ मं. ३ ।
6 ( क ) तौत्तरिय २-४ । कठ २-६-११। श्वेताश्वतर २ – ११, ६-३ । ( ख ) छान्दोग्य ७–६–१, ७–६–२, ७–७–१, ७-२६-१ | श्वेताश्वतर १-१४ । कोशीतकि ३-२, ३-३, ३–४, ३–६। 7 श्वेताश्वतरोपनिषद् अध्याय २
त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिरुध्य । ब्रह्मोपेन प्रतरेत विद्वान्त्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि ॥ ८ ॥ प्राणान्प्रपङियेह सयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोसीत । दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं विद्वान्मनो धारयताप्रमत्तः ॥ ९ ॥ समे शुचौ शर्करावन्हिवालुकाविवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः । मनोनुकूले न तु चक्षुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत् ॥ १० ॥ इत्यादि.
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जैन साहित्य संशोधक
[ खंड २
हैं, जिनमें योगशास्त्रकी तरह सांगोपांग योगप्रक्रियाका वर्णन है । अथवा यह कहना चाहिये कि ऋग्वेदमें जो परमात्मचिन्तन अंकुरायमाण था वही उपनिषदोंमें पल्लवित-पुष्पित हो कर नाना शाखा-प्रशाखाओंके साथ फल अवस्थाको प्राप्त हुवा । इससे उपनिषदकालमें योगमार्गका पुष्टरूपमें पाया जाना स्वाभाविक ही है।
उपनिषदोंमें जगत, जवि और परमात्मसम्बन्धी जो तात्त्विक विचार है, उसको भिन्न भिन्न ऋषियोंने अपनी दृष्टि से सूत्रोंमें ग्रथित किया, और इस तरह उस विचारको दर्शनका रूप मिला। सभी दर्शनकारोंका आखिरी उद्देश मोक्ष* ही रहा है, इससे उन्होंने अपनी अपनी दृष्टिसे तत्त्वविचार करनेके बाद भी संसारसे छुट कर मोक्ष पानेके साधनोंका निर्देश किया है। तत्त्वविचारणामें मतभेद हो सकता है, पर आचरण यानी चारित्र एक ऐसी वस्तु है जिसमें सभी विचारशील एकमत हो जाते हैं । विना चारीत्रका तत्त्वज्ञान कोरी बातें हैं। चारित्र यह योगका किंवा योगांगोंका संक्षिप्त नाम है । अत एव सभी दर्शनकारोंने अपने अपने सूत्रग्रंथोंमें साधन रूपसे योगकी उपयोगिता अवश्य बतलाई है। यहां तक कि-न्यायदर्शन, जिसमें प्रमाण पद्धतिका ही विचार मुख्य है,उसमें भी महर्षि गौतमने योगको स्थान दिया है।। महर्षि कणादने तो अपने वैशेषिक दर्शनमें यम, नियम, शौच आदि योगांगाका भी महत्त्व गाया है। सांख्यसूत्रमें योगप्रक्रियाके वर्णनवाले कई सूत्र हैं। ब्रह्मसूत्रमें महर्षि बादरायणने तो तीसरे अध्यायका नाम ही साधन अध्याय रक्खा है, और उसमें आसन ध्यान आदि योगांगोंका वर्णन किया है4। योगदर्शन तो मुख्यतया योगविचारका ही ग्रन्थ ठहरा, अत एव उसमें सांगोपांग योगप्रक्रियाकी मीमांसाका पाया जाना सहज ही है। योगके स्वरूपके सम्बन्धमें मतभेद न होनेके कारण और उसके प्रतिपादनका उत्तरदायित्व खासकर योगदर्शनके उपर होनेके कारण अन्य दर्शनकारोंने अपने अपने सूत्र ग्रन्थोंमें थोडासा योगविचार करके विशेष जानकारकेि लिये जिज्ञासुओंको योगदर्शन देखनेकी सूचना दे दी है51 पूर्वमीमांसामें महर्षि जैमिनिने योगका निर्देश तक नहीं किया है सो ठीक ही है, क्यों कि उसमें सकाम कर्मकाण्ड अर्थात् धूम-मार्गकी ही मीमांसा है । कर्मकाण्डकी पहुंच
8 ब्रह्मविद्योपनिषद् , क्षुरिकोपनिषद्, चूलिकोपनिषद्, नादबिन्दु, ब्रह्मबिन्दु, अमृतबिन्दु, ध्यानबिन्दु, तेजोबिन्दु, योगशिखा, योगतत्त्व, हंस इत्यादि । देखो झुसेनकृत-Philosphy of the Upanishads . *-प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः। गौ० सू० १, १,१॥-धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधाभ्यां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसम् ॥ वै० सू० १, १, ४॥ अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः। सां. द० १,१॥-पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति। यो• सू० ४, ३३ ॥-अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात् । ब्र. सू. ४, ४,२२ ।-सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्त्वार्थ सू० १-१ जैन० द० ।-बौद्ध दर्शनका तीसरा निरोध नामक आर्यसत्य ही मोक्ष है।
1 समाधिविशेषाभ्यासात् ४-२-३८ । अरण्यगुहापुलिनादिषु योगाभ्यासोपदेशः ४-२-४२ । तदर्थ यमनियमाभ्यासात्मसंस्कारो योगाच्चाध्यात्मविध्युपायैः ४-२-४६ ॥
2 अभिषेचनोपवासब्रह्मचर्यगुरुकुलवासवानप्रस्थयज्ञदानप्रोक्षणदिनक्षत्रमन्त्रकालनियमाश्चादृष्टाय । ६-२ -२ । अयतस्य शुचिभोजनादभ्युदयो न विद्यते, नियमाभावाद्, विद्यते. वाऽर्थान्तरत्वाद् यमस्य । ६-२-८ ।
3 रागोपहतिर्ध्यानम् ३-३० । वृत्तिनिरोधात् तत्सिद्धिः ३-३१ । धारणासनस्वकर्मणा तसिद्धिः ३-३२ । निरोधश्छर्दिविधारणाभ्याम् ३-३३ । स्थिरसुखमासनम् ३-३४।
4 आसीनः संभवात् ४-१-७ । ध्यानाच्च ४-१-८ । अचलत्वं चापेक्ष्य ४-१-९। स्मरन्ति च ४-१-१०। यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् ४-१-११।
5 योगशास्त्राचाध्यात्मविधिः प्रतिपत्तव्यः । न्यायदर्शन ४-२-४६ भाष्य ।
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अंक १ ]
वर्गतक ही है, मोक्ष उसका साध्य नहीं । और योगका उपयोग तो मोक्षके लिये ही होता है ।
जो योग उपनिषदों में सूचित और सूत्रोंमें सूत्रित है, उसीकी महिमा गीतामें अनेक रूपसे गाई गई है । उसमें योगकी तान कभी कर्मके साथ, कभी भक्तिके साथ और कभी शानके साथ सुनाई देती है 1। उसके छठे और तेरहवें अध्यायमें तो योगके मौलिक सब सिद्धान्त और योगकी सारी प्रक्रिया आ जाती है 2 । कृष्णके द्वारा अर्जुनको गीताके रूपमें योगशिक्षा दिला कर ही महाभारत सन्तुष्ट नहीं हुआ । उसके अथक स्वरको देखते हुए कहना पडता है कि ऐसा होना संभव भी न था । अत एव शान्तिपर्व और अनुशासनपर्व में योगविषयक अनेक सर्ग वर्तमान हैं, जिनमें योगकी अथेति प्रक्रियाका वर्णन पुनरुक्तिकी परवा न करके किया गया है 31 उसमें बाणशय्यापर लेटे हुए भीष्मसे बार बार पूछने में न तो युधिष्ठिर को ही कंटाला आता है, और न उस सुपात्र धार्मिक राजाको शिक्षा देने में भीष्म को ही थकावट मालूम होती है ।
योगदर्शन
[ ९
योगवाशिष्ठका विस्तृत महल तो योगकी ही भूमिकापर खडा किया गया है। उसके छह 4 प्रकरण मानों उसके सुदीर्घ कमरे हैं, जिनमें योगसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी विषय रोचकतापूर्वक वर्णन किये गये हैं । योगकी जो जो बातें योगदर्शन में संक्षेप में कही गई हैं, उन्हींका विविधरूप में विस्तार करके ग्रन्थकारने योगवाशिष्ठका कलेवर बहुत बढा दिया है, जिससे यही कहना पडता है कि योगवाशिष्ठ योगका ग्रन्थराज है ।
पुराण में सिर्फ पुराणशिरोमणि भागवतको ही देखिये, उसमें योगका सुमधुर पद्योंमे पूरा वर्णन है5 |
योगविषयक विविध साहित्यसे लोगोंकी रुचि इतनी परिमार्जित हो गई थी कि तान्त्रिक संप्रदायवालोंने भी तन्त्रग्रन्थों में योगको जगह दी, यहां तक कि योग तन्त्रका एक खासा अंग बन गया । अनेक तान्त्रिक ग्रन्थोंमें योगकी चर्चा है, पर उन सबमें महानिर्वाणतन्त्र, षट्चक्रनिरूपण आदि मुख्य हैं6 ।
1 गीताके अठारह अध्यायोंमें पहले छह अध्याय कर्मयोग प्रधान, बीचके छह अध्याय भक्तियोग प्रधान और अंतिम छह अध्याय ज्ञानयोग प्रधान हैं ।
2 योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥ १० ॥ शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥ ११ ॥ तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः । उपविश्यासने युञ्ज्याद् योगमात्मविशुद्धये || १२ || समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः । संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥ १३ ॥ प्रशान्तात्मा विगतभर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः । मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः || १४ || अ० ६ 3 शान्तिपर्व १९३, २१७, २४६, २५४, इत्यादि । अनुशासनपर्व ३६, २४६ इत्यादि । 4 वैराग्य, मुमुक्षुव्यवहार, उत्पत्ति, स्थिति, उपशम और निर्वाण । 5 स्कन्ध ३ अध्याय २८; स्कन्ध ११अ० १५, १९, २० आदि । 6 देखो महानिर्वाणतन्त्र ३ अध्याय । देखो षट्चक्रनिरूपण
ऐक्यं जीवात्मनोराहुर्योगं योगविशारदाः । शिवात्मनोरभेदेन प्रतिपत्तिं परे विदुः ॥ पृष्ट ८२ Tantrik Texts में छपा हुआ । समत्वभावनां नित्यं जीवात्मपरमात्मनोः । समाधिमाहुर्मुनयः प्रोक्तमष्टाङ्गलक्षणम् ॥ पृ० ९१,, यदत्र नात्र निर्भासः स्तिमितोदधिवत् स्मृतम् । स्वरूपशून्यं यद् ध्यानं तत्समाधिर्विधीयते || १० ९०,, त्रिकोणं तस्यान्तः स्फुरति च सततं विद्युदाकाररूपं ।
तदन्तः शून्यं तत् सकलसुरगणैः सेवितं चातिगुप्तम् ॥ पृ. ६०
"
“ आहारनिर्हारविहारयोगाः सुसंवृता धर्मविदा तु कार्याः । पृ० ६१ 32
यै चिन्तायाम् स्मृतो धातुश्चिन्ता तत्त्वेन निश्चला । एतद् ध्यानमिह प्रोक्तं सगुणं निर्गुणं द्विधा । सगुणं वर्णभेदेन निर्गुणं केवलं तथा ॥ पृ० १३४,,
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जैन साहित्य संशोधक
[ खंड २
अब नदीमें बाढ आती है तब वह चारों ओर से बहने लगती है। योगका यही हाल हुवा, और वह आसन, मुद्रा, प्राणायाम आदि बाह्य अंगोंमें प्रवाहित होने लगा । बाह्य अंगोंका भेद प्रभेद पूर्वक इतना अधिक वर्णन किया गया और उसपर इतना अधिक जोर दिया गया कि जिससे यह योगकी एक शाखा ही अलग बन गई, जो हठयोगके नामसे प्रसिद्ध है ।
१० ]
हठयोगके अनेक ग्रंथोंमें हठयोगप्रदीपिका, शिवसंहिता, घेरंडसंहिता, गोरक्षपद्धति, गोरक्षशतक आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं, जिनमें आसन, बन्ध, मुद्रा, षट्कर्म, कुंभक, रेचक, पूरक आदि बाह्य योगांगोंका पेट भर भरके वर्णन किया है; और घेरण्डने तो चौरासी आसनको चौरासी लाख तक पहुंचा दिया है ।
उक्त हठयोगप्रधान ग्रन्थों में हठयोगप्रदीपिका ही मुख्य है, क्यों कि उसीका विषय अन्य ग्रन्थोंमें विस्तार रूपसे वर्णन किया गया है। योगविषयक साहित्यके जिज्ञासुओंको योगतारावली, बिन्दुयोग, योगबीज और योगकल्पदुमका नाम भी भूलना न चाहिये। विक्रमकी सत्रहवी शताब्दी में मैथिल पण्डित भवदेवद्वारा रचित योगनिबन्ध नामक हस्तलिखित ग्रन्थ भी देखनेमें आया है, जिसमें विष्णुपुराण आदि अनेक ग्रन्थोंके हवाले देकर योगसम्बन्धी प्रत्येक विषय पर विस्तृत चर्चा की गई है ।
संस्कृत भाषा में योगका वर्णन होनेसे सर्व साधारणकी जिज्ञासाको शान्त न देखकर लोकभाषाके योगियोंने भी अपनी जबानमें योगका आलाप करना शुरू कर दिया ।
महाराष्ट्रीय भाषामें गीताकी ज्ञानदेवकृत ज्ञानेश्वरी टीका प्रसिद्ध है, जिसके छट्ठे अध्यायका भाग बडा ही हृदयहारी है। निःसन्देह ज्ञानेश्वरी द्वारा ज्ञानदेवने अपने अनुभव और वाणीको अवन्ध्य कर दिया है। सुहीरोबा अंबिये रचित नाथसम्प्रदायानुसारी सिद्धान्तसंहिता भी योगके जिज्ञागुओंके लिये देखनेकी वस्तु है ।
कबीरका बजिक ग्रन्थ योगसम्बन्धी भाषासाहित्यका एक सुन्दर मणका है ।
अन्य योगी सन्तोंने भी भाषामें अपने अपने योगानुभवकी प्रसादी लोगोंको चखाई है, जिससे जनताका बहुत बडा भाग योगके नाम मात्रसे मुग्ध बन जाता है ।
अत एव हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि प्रसिद्ध प्रत्येक प्रान्तीय भाषामें पातञ्जल योगशास्त्रका अनुवाद तथा विवेचन आदि अनेक छोटे बडे ग्रन्थ बन गये हैं । अंग्रेजी आदि विदेशीय भाषामें भी योगशास्त्रका अनुवाद आदि बहुत कुछ बन गया है 1, जिसमें वूडका भाष्यटीका सहित मूल पातञ्जल योगशास्त्रका अनुवाद विशेष उल्लेख योग्य है ।
जैन सम्प्रदाय निवृत्ति - प्रधान है। उसके प्रवर्तक भगवान् महावीरने बारह सालसे अधिक समय तक मौन धारण करके सिर्फ आत्मचिन्तनद्वारा योगाभ्यास में ही मुख्यतया जीवन बिताया। उनके हजारों शिष्य 2 तो ऐसे थे जिन्होंने घरबार छोड कर योगाभ्यासद्वारा साधुजीवन बिताना ही पसंद किया था ।
जैन सम्प्रदायके मौलिक ग्रन्थ आगम कहलाते हैं। उनमें साधुचर्याका जो वर्णन है, उसको देखनेसे यह स्पष्ट जान पडता है कि पांच यमः तप, स्वाध्याय आदि नियम; इन्द्रिय-जय-रूप प्रत्याहार इत्यादि जो योगके खास अङ्ग हैं, उन्हींको साधुजीवनका एक मात्र प्राण माना है ।
1 प्रो० राजेन्द्रलाल मित्र, स्वामी विवेकानंद, श्रीयुत रामप्रसाद आदि कृत ।
2 “ चउद्दसहिं समणसाहस्सीहिं छत्तीसाहिं अजिआसाहस्सीहिं " उववाइसूत्र ।
3 देखो आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, मूलाचार, आदि ।
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अंक १ ]
जैनशास्त्रमें योगपर यहां तक भार दिया गया है कि पहले तो वह मुमुक्षुओं को आत्मचिंतन के सिवाय दूसरे काय में प्रवृत्ति करनेकी संमति ही नहीं देता, और अनिवार्य रूपसे प्रवृत्ति करनी आवश्यक हो तो वह निवृत्तिमम प्रवृत्ति करनेको कहता है । इसी निवृत्तिमय प्रवृत्तिका नाम उसमें अष्टप्रवचनमाता 1 है। साधुजीवनकी दैनिक और रात्रिक चर्या में तीसरे प्रहरके सिवाय अन्य तीनों प्रहरोंमें मुख्यतया स्वाध्याय और ध्यान करनेको ही कहा गया है 2 ।
योगदर्शन
[ ११
यह बात भूलनी न चाहिये कि जैन आगमोंमें योग अर्थमें प्रधानतया ध्यानशब्द प्रयुक्त है। ध्यानके लक्षण, भेद प्रभेद, आलम्बन आदिका विस्तृत वर्णन अनेक जैन आगमों में है 3 । आगमके बाद नियुक्तिका नंबर है 4 । उसमें भी आगमगत ध्यानका ही स्पष्टीकरण है । वाचक उमास्वाति कृत तत्त्वार्थसूत्रमें 5 भी ध्यानका वर्णन है, पर उसमें आगम और नियुक्तिकी अपेक्षा कोई अधिक बात नहीं है । जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणका ध्यानशतक 6 आगमादि उक्त ग्रन्थोंमें वर्णित ध्यानका स्पष्टीकरण मात्र है। यहां तकके योगविषयक जैन विचारोंमें आगमोक्त वर्णनकी शैली ही प्रधान रही है । पर इस शैलीको श्रीमान् हरिभद्रसूरिने एकदम बदलकर तत्कालिन परिस्थिति व लोकरुचीके अनुसार नवीन परिभाषा दे कर और वर्णनशैली अपूर्वसी बनाकर जैन योग - साहित्यमें नया युग उपस्थित किया । इसके सबूतमें उनके बनाये हुए योगबिन्दु, योगदृष्टीसमुच्चय, योगविंशिका, योगशतक 7, षोडशक ये ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इन ग्रन्थोंमें उन्होंने सिर्फ जैन-मार्गानुसार योगका वर्णन करके ही संतोष नहीं माना है, किन्तु पातंजल योगसूत्रमें वर्णित योगप्रक्रिया और उसकी खास परिभाषाओंके साथ जैन संकेतोंका मिलान भी किया है8 | योगदृष्टिसमुच्चयमें योगकी आठ दृष्टियोंका9 जो वर्णन है, वह सारे योगसाहित्य में एक नवीन दिशा है ।
श्रीमान् हरिभद्रसूरिके योगविषयक ग्रन्थ उनकी योगाभिरुचि और योगविषयक व्यापक बुद्धिके खासे
नमुने हैं ।
इसके बाद श्रीमान् हेमचन्द्रसूरिकृत योगशास्त्रका नंबर आता है । उसमें पातञ्जल योगशास्त्र निर्द्दिष्ट आठ योगांगोंके क्रमसे साधु और गृहस्थ जीवनकी आचार प्रक्रियाका जैन शैलीके अनुसार वर्णन है, जिसमें आसन तथा
1 देखो उत्तराध्ययन अ० २४ ।
2 दिवसस्स चउरो भाए, कुज्जा भिक्खु विअक्खणो । तओ उत्तरगुणे कुजा, दिणभागेसु चउसु वि ॥ ११ ॥ पढमं पोरिसि सज्झायं, बिइअं झाणं झिआयह । तइआए गोअरकालं, पुणो चउत्थिए सज्झायं ॥ १२ ॥ रत्तिं पि चउरो भाए, भिक्खु कुजा विअक्स्वणो । तओ उत्तरगुणे कुजा, राईभागेसु चउसु वि ॥
१७ ॥
पढमं पोरिसि सज्झायं, बिइअं झाणं झिआयइ ।
तइआए निद्दमोक्खं तु, चउत्थिए भुजो वि सज्झायं ॥ १८ ॥ - उत्तराध्ययन अ० २६ । 3 देखो स्थानाङ्ग अ० ४ उद्देश १ । समवायाङ्ग स० ४ । भगवती शतक २५ - उद्देश ७ | उत्तराध्ययन अ० ३०, गा० ३५ | 4 देखो आवश्यक नियुक्ति कायोत्सर्ग अध्ययन गा. १४६२ - १४८६ ।
5 देखो अ० ९ सू० २७ से आगे । 6 देखो हारिभद्रीय आवश्यक वृत्ति प्रतिक्रमणाध्ययन पृ० ५८१ 7 यह ग्रन्थ जैन ग्रन्थावलिमें उल्लिखित है, पृ० ११३ ।
8 समाधिरेष एवान्यैः संप्रज्ञातोऽभिधीयते । सम्यक्प्रकर्शरूपेण वृत्यर्थज्ञानतस्तथा ॥ ४१८ ॥ असंप्रज्ञात एषोऽपि समाधिर्गीयते परैः । निरुद्धाशेषवृत्त्यादितत्स्वरूपानुवेधतः || ४२० ॥ इत्यादि, योगबिन्दु |
9 मित्रा तारा बला दिप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा । नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ॥ १३ ॥ इन आठ दृष्टियोंका स्वरूप, दृष्टान्त आदि विषय, योगजिज्ञासुओंके लिये देखने योग्य है । इसी विषपर यशोविजयजीने २१, २२, २३, २४ ये चार द्वात्रिंशिकायें लिखी हैं। साथ ही उन्होंने संस्कृत न जाननेवालोंके हितार्थ आठ दृष्टियोंकी सज्झाय भी गुजराती भाषा में बनाई है ।
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१२]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
प्राणायामसे संबन्ध रखनेवाली अनेक बातोंका विस्तृत स्वरूप है; जिसको देखनेसे यह जान पडता है कि तत्कालीन लोगोंमें हठयोग-प्रक्रियाका कितना अधिक प्रचार था । हेमचन्द्राचार्यने अपने योगशास्त्रमें हरिमद्रसूरिके योगविषयक ग्रन्थोंकी नवीन परिभाषा और रोचक शैलीका कहीं भी उल्लेख नहीं किया है, पर शुभचन्द्रचार्यके ज्ञानार्णवगत पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ, और रूपातीत ध्यानका विस्तृत व स्पष्ट वर्णन किया है1। अन्तमें उन्होंने स्वानुभवसे विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन ऐसे मनके चार भेदोंका वर्णन करके नवीनता लानेका भी खास कौशल दिखाया है2 । निस्सन्देह उनका योगशास्त्र जैन तत्त्वज्ञान और जैन आचारका एक पाठ्य ग्रन्थ है।
इसके बाद उपाध्याय-श्रीयशोविजयकृत योगग्रन्थोंपर नजर ठहरती है। उपाध्यायीका शास्त्रज्ञान, तर्ककौशल और योगानुभव बहुत गम्भीर था । इससे उन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद तथा सटीक बत्तीस बत्तीसीयाँ योग संबन्धी विषयोंपर लिखी हैं, जिनमें जैन मन्तव्योंकी सूक्ष्म और रोचक मीमांसा करनेके उपरांत अन्य दर्शन और जैनदर्शनका मिलान भी किया है। इसके सिवा उन्होंने हरिभद्रसरिकृत योगविंशिका तथा षोडशकपर टीका लिख कर प्राचीन गूढ तत्त्वोंका स्पष्ट उद्घाटन भी किया है। इतना ही करके वे सन्तुष्ट नहीं हुए, उन्होंने महर्षि पतञ्जलिकृत योगसूत्रोंके उपर एक छोटीसी वृत्ति भी लिखी है । यह वृत्ति जैन प्रक्रियाके अनुसार लिखी हुई है, इसलिये उसमें यथासंभव योगदर्शनकी भित्ति-स्वरूप सांख्य-प्रक्रियाका जैन
के साथ मिलान भी किया है, और अनेक स्थलों में उसका सयुक्तिक प्रतिवाद भी किया है । उपाध्या यजीने अपनी विवेचनामें जो मध्यस्थता, गुणग्राहकता, सूक्ष्म समन्वयशक्ति और स्पष्टभाषिता दिखाई है। ऐसी दूसरे आचार्यों में बहुत कम नजर आती है।।
एक योगसार नामक ग्रन्थ भी श्वेताम्बर साहित्यमें है । कर्ताका उल्लेख उसमें नहीं है, पर उसके दृष्टान्त आदि वर्णनसे जान पडता है कि हेमचन्द्राचार्यके योगशास्त्रके आधारपर किसी श्वेताम्बर आचार्यके द्वारा वह रचा गया है । दिगम्बर साहित्यमें ज्ञानार्णव तो प्रसिद्ध ही है, पर ध्यानसार और योगप्रदीप ये दो हस्तलिखित ग्रन्थ भी हमारे देखनेमें आये हैं, जो पद्यबन्ध और प्रमाणमें छोटे हैं। इसके सिवाय श्वेताम्बर दिगम्बर संप्रदायके योगविषयक ग्रन्थोंका कुछ विशेष परिचय जैन ग्रन्थावाल पृ. १०६ से भी मिल सकता है । बस यहां तकहीमें जैन योगसाहित्य समाप्त हो जाता है।
बौद्ध सम्प्रदाय भी जैन सम्प्रदायकी तरह निवृत्तिप्रधान है । भगवान् गौतम बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त होनेसे पहले छह वर्षतक मुख्यतया ध्यानद्वारा योगाभ्यास ही किया । उनके हजारों शिष्य भी उसी मार्ग पर चले । मौलिक बौद्धग्रन्थोंमें जैन आगमोंके समान योग अर्थमें बहुधा ध्यान शब्द ही मिलता है, और उनमें ध्यानके
1 देखो प्रकाश ७-१० तक । 2 १२ वाँ प्रकाश श्लोक २-३-४ ।। 3 अध्यात्मसारके योगाधिकार और ध्यानाधिकारमें प्रधानतया भगवद्गीता तथा पातञ्जलसूत्रका उपयोग करके अनेक जैनप्रक्रियाप्रसिद्ध ध्यानविषयोंका उक्त दोनों ग्रन्पोंके साथ समन्वय किया है, जो बहुत ध्यानपूर्वक देखने योग्य है । अध्यात्मोपनिषद्के शास्त्र, ज्ञान, क्रिया और साम्य इन चारों योगोंमें प्रधानतया योगवाशिष्ठ तथा तैत्तिरीय उपनिषदके वाक्योंका अवतरण दे कर तात्त्विक ऐक्य बतलाया है। यागावतार बत्तीसीमें खास कर पातञ्जल योगके पदार्थोंका जैन प्रक्रियाके अनुसार स्पष्टीकरण किया है।
___4 इसके लिये उनका ज्ञानसार ग्रन्थ जो उन्होंने अंतिम जीवनमें लिखा मालुम होता है वह ध्यानपूर्वक देखना चाहिए । शास्त्रवार्तासमुच्चयकी उनकी टीका (पृ. १०) भी देखनी आवश्यक है।
5 इसके लिए उनके शास्त्रवार्तासमुच्चयादि ग्रन्ध ध्यानपूर्वक देखने चाहिए, ओर खास कर उनकी पातञ्जल सूत्रवृत्ति मननपूर्वक देखनेसे हमारा कथन अक्षरशः विश्वसनीय मालूम पड़ेगा।
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अंक १]
योगदर्शन
[१३
चार भेद नजर आते हैं। उक्त चार भेदके नाम तथा भाव प्रायः वही हैं, जो जैनदर्शन तथा योगदर्शनकी प्रक्रियामें हैं1 । बोंद्ध सप्रदायमें समाधि राज नामक ग्रन्थ भी है । वैदिक, जैन और बौद्ध संप्रदायके योगविषयक साहित्यका हमने बहुत संक्षपमें अत्यावश्यक परिचय कराया है, पर इसके विशेष परिचयके लिये-कट्लोगस् कॅटलॉगॉरम् 2, वो० १ पृ. ४७७ से ४८१ पर जो योगविषयक ग्रन्योंकी नामावलि है वह देखने योग्य है।
यहां एक बात खास ध्यान देनके योग्य है, वह यह कि यद्यपि वैदिक साहित्यमें अनेक जगह हठयोगकी प्रथाको अग्राह्य कहा है, तथापि उसमें हठयोगकी प्रधानतावाले अनेक ग्रन्थोंका और मार्गोंका निर्माण हुआ है । इसके विपरीत जैन और बौद्ध साहित्यमें हठयोगने स्थान नहीं पाया है, इतना ही नहीं, बल्कि उसमें हठयोगका स्पष्ट निषेध भी किया है।
1. सो खो अहं ब्राह्मण विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्महि सवितकं सविचारं विवेकजं पीतिसु खं पढमज्झानं उपसंपज्ज विहासि; वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं संपसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितकं अविचारं समाधिज पीतिसुखं दुतियज्झानं उपसंपज्ज विहार्सि; पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहासिं; सतो. च संपजानो सुखं च कायेन पाटसंवेदोस, यं तं अरिया आचिक्खन्ति-उपेक्खको सतिमा सुखविहारीऽति ततियज्झानं उपसंपज विहासि; सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बऽव सोमनस्स दोमनस्सानं अत्थंगमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासति पारिसुद्धिं चतुत्थज्झानं उपसंपज मज्झिमनिकाये भयभेखसुत्तं विहासिं ।
___इन्हीं चार ध्यानोंका वर्णन दीघनिकाय सामञ्जकफलसुत्तमें है। देखो प्रो. सि. वि. राजवाडे कृत मराठी अनुवाद पृ. ७२ ।
यही विचार प्रो. धर्मानंद कौशाम्बी लिखित बद्धलीलासारसंग्रहमें है। देखो प्र१२८।
जैनसूत्रमें शुक्लध्यानके भेदोंका विचार है, उसमें उक्त सवितर्क आदि चार ध्यान जैसा ही वर्णन है। देखो तत्त्वार्थ अ. ९ सू० ४१-४४ ।
योगशास्त्रमें संप्रशात समाधि तथा समापत्तिओंका वर्णन है। उसमें भी उक्त सवितर्क निर्वितर्क आदि ध्यान जैसा ही विचार है। पा. सू. पा. १-१७, ४२, ४३, ४४।।
2 थिआडोर आउफ्रेटकृत, लिप्झिगमें प्रकाशित १८९१ की आवृत्ति । 3 उदाहरणार्थःसतीषु युक्तिष्वेतासु हठानियमयन्ति ये । चेतस्ते दीपमुत्सृज्य विनिघ्नन्ति तमोऽअनैः ॥ ३७॥
विमूढाः कर्तुमुद्युक्ता ये हठाच्चेतसो जयम् । ते निबध्नन्ति नागेन्द्रमुन्मत्तं बिसतन्ततुभिः ॥ ३८ ॥ चित्तं चित्तस्य वाऽदरं संस्थितं स्वशरीरकम् । साधयान्त समुत्सृज्य युक्ति ये तान्हतान् विदुः ॥ ३९ ॥
योगवाशिष्ठ-उपशम प्र० सर्ग ९२. 4 इसके उदाहरणमें बौद्ध धर्ममें बुद्ध भगवान्ने तो शुरुमें कष्टप्रधान तपस्याका आरंभ करके अंतमें मध्यमप्रतिपदा मार्गका स्वीकार किया है-देखो बुद्धलीलासारसंग्रह.
जैनशास्त्रमें श्रीभद्रबाहस्वामिने आवश्यकनियुक्तिमें " ऊसासं ण णिरुंभइ" १५२० इत्यादि उक्तिले हठयोगका ही निराकरण किया है। श्रीहेमचन्द्राचार्यने भी अपने योगशास्त्रमें
"तन्नाप्नोति मनःस्वास्थ्यं प्राणायामैः कदार्थतं । प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यातू चित्तविप्लवः ॥" इत्यादि उक्तिसे उसी बातको दोहराया है। श्रीयशोविजयजीने भी पातञ्जलयोगसूत्रकी अपनी वृत्तिमें (१-३४) प्राणायामको योगका आनिश्चित साधन कह कर हठयोगका ही निरसन किया है।
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१५]
जैन साहित्य संशोधक
[संड२
- योगशास्त्र-उपरके वर्णनसे मासूम से जाता है कि योगप्रक्रियाका वर्णन करनेवाले छोटे बडे अनेक ग्रन्थ है। इन सब उपलब्ध ग्रन्थोंमें महर्षि पतञ्जलिकृत योगशास्त्रका आसन उंचा है। इसके तीन कारण है -१ अन्यकी संक्षिप्तता तथा सरलता, २ विषयकी स्पष्टता तथा पूर्णता, ३ और मध्यस्वभाव तथा अनुभवसिद्धता
। कारण है कि योगदर्शन यह नाम सुनते ही सहसा पातञ्जल योगसूत्रका स्मरण हो आता है। श्रीशंकरा--- चार्यने अपने ब्रह्मसूत्रभाष्यमें योगदर्शनका प्रतिवाद करते हुए जो " अथ सम्यग्दर्शनाम्पुपायो योगः " ऐसा उल्लेख किया है, उससे इस बातमें कोई संदेह नहीं रहता कि उनके सामने पातञ्जल योगशास्त्रसे भिन्न दूसरा कोई योगशास्त्र रहा है। क्यों कि पातञ्जल योगशास्त्रका आरम्भ " अथ योगानुशासनम् ” इस सूत्रसे होता है, और उक्क भाष्योल्लिखित वाक्यमें भी ग्रन्थारम्भसूचक अथ शद्ध है, यद्यपि उक्त भाष्यमें अन्यत्र और भी योगसम्बन्धी दो उल्लेख हैं2 जिनमें एक तो पातञ्जल योगशास्त्रका संपूर्ण सूत्र ही है 3 और दूसरा उसका अविकल सूत्र नहीं, किन्तु उसके सूत्रसे मिलता जुलता है4 । तथापि ॥ अथ सम्यग्दर्श नाभ्युपायो योगः" इस उल्लेखकी शब्दरचना और स्वतन्त्रताकी और ध्यान देनसे यही कहना पडता है कि पिछले दो उल्लेख भी उसी मिन्न योगशास्त्रके होने चाहिये, जिसका अंश " अथ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः " यह वाक्य माना जाय । अस्तु, जो कुछ हो, आज हमारे सामने तो पतञ्जालका ही योगशास्त्र उपस्थित है, और वह सर्वप्रिय है; इसलिये बहुत संक्षेपमें भी उसका बाह्य तथा आन्तरिक परिचय कराना अनुपयुक्त न होगा। - इस योगशास्त्रके चार पद और कुल १९५ सूत्र है । पहले पादका नाम समाधि, दूसरेका साधन, तीसरेका विभूति, और चोथेका कैवल्यपाद है । प्रथमपादमें मुख्यतया योगका स्वरूप, उसके उपाय और चित्त. स्थिरताके उपायोंका वर्णन है। दूसरे पादमें क्रियायोग, आठ योगाङ्ग, उनके फल तथा चतुर्दूहका मुख्य वर्णन है॥
तीसरे पादमें योगजन्य विभूतियोंके वर्णनकी प्रधानता है। और चौथे पादमें परिणामवादके खापन, विज्ञानवादके निराकरण तथा कैवल्य अवस्थाके स्वरूपका वर्णन मुख्य है । महर्षि पतञ्जालने अपने योगशास्त्रकी नीव सांख्यसिद्धान्तपर डाली है। इसलिये उसके प्रत्येक पादके अन्तमें " योगशास्त्रे सांख्यप्रवचने " इत्यादि उल्लेख मिलता है। " सांख्यप्रवचने” इस विशेषणसे यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि सांख्यके सिवाय अन्यदर्शनके सिद्धांतोंके आधारपर भी रचे हुए योगशास्त्र उस समय
1 ब्रह्मसूत्र २-१-३ भाष्यगत ।
2 " खाण्याचादिष्टदेवतासंप्रयोगः " ब्रह्मसूत्र १-३-३३ भाष्यगत । योगशास्त्रप्रसिद्धाः मनसः पश्च वृत्तयः परिगृह्यन्ते, " प्रमाणविपर्वयविकसनिद्रालमृतयः नाम" २-४-१२ भाष्यगत ।
पं. वासुदेव शास्त्री अभ्यंकरने अपने ब्रह्मसूत्रके मराठी अनुवादके परिशिष्टमें उक्त दो उल्लेखोंका योगसूत्ररूपसे निर्देश किया है, पर " अथ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः " इस उल्लेखके संबंधमें कहीं भी ऊहापोह नहीं किया है।
3 मिलाओ पा. २ तू. ४४ । 4 मिलाओ पा. १ स. ६। 5 हेय, हेयहेतु, हान, हानोपाय ये चतुयूँह कहलाते है। इनका वर्णन सूत्र १६-२६ तकमे है ।
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अंक ]
योगदान
मौजुद थे या रचे जाते थे। इस योगशास्त्रके ऊपर अनेक छोटे बडे टीका ग्रन्थी हैं, पर व्यासकृत भाष्य और वाचस्पतिकृत टीकासे उसकी उपादेयता बहुत बढ़ गई है।
सब दर्शनोंके अन्तिम साध्यके सम्बन्धमें विचार किया जाय तो उसके दो पक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। प्रथम पक्षका अन्तिम साध्य शाश्वत सुख नहीं है । उसका मानना है कि मुक्तिमें शाश्वत सुख नामक कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, उसमें जो कुछ है वह दुःखकी आत्यान्तक निवृत्ति ही । दुसरा पक्ष शाश्वतिक सुखलाभको ही मोक्ष कहता है। ऐसा मोक्ष हो जानेपर दुःखकी आत्यन्तिक निवृत्ति आप ही आप हो जाती है। वैशेषिक नेयायिक2, सांख्य3, योग4, और बौद्धदर्शन प्रथम पक्षके अनुगामी हैं । वेदान्त और जैनदर्शना, दूसरे पक्षके अनुगामी है।
योगशास्त्रका विषय-विभाग उसके अन्तिमसाध्यानुसार ही है। उसमें गौण मुख्य रूपसे अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित हैं, पर उन सबका संक्षेपमें वर्गीकरण किया जाय तो उसके चार विभाग हो जाते हैं । १ हेय, २ हेय-हेतु, ३ हान, ४ हानोपाय । यह वर्गीकरण खयं सूत्रकारने किया है; और इससे भाष्यकारने योगशास्त्रको चतुर्दूहात्मक कहा है8। सांख्यसूत्रमें भी यही वर्गीकरण है। बुद्ध भगवारने इसी चतुर्दूहको आर्य सत्य नामसे प्रसिद्ध किया है; और योगशास्त्रके आठ योगाङ्गोंकी तरह उन्होंने चौथे आर्य-सत्यके साधनरूपसे आर्य अष्टाङ्गमार्गका उपदेश किया है।
दुःख हेय है10, अक्द्यिा हेयका कारण है11, दुःखका आत्यन्तिक नाश हान है12, और विवेक-ख्याति हानका उपाय है13।
उक्त वर्गीकरणकी अपेक्षा दूसरी गीतसे भी योगशास्त्रका विषय-विभाग किया जा सकता है। जिससे कि उसके मन्तव्योंका ज्ञान विशेष स्पष्ट हो। यह विभाग इस प्रकार है-१ हाता, २ ईश्वर, ३ जगत् , ४ संसारमोक्षका स्वरूप, और उसके कारण ।
१. हाता दुःखसे छुटकारा पानेवाले द्रष्टा अर्थात् चेतनका नाम है। योग-शास्त्र में सांख्य14
1 व्यास कृत भाष्य, वाचस्पतिकृत तत्त्ववैशारदी टीका, भोजदेवकृत राजमार्तड, नागोजीभट्ट कृत वृत्ति, विज्ञानाभिक्षु कृत वार्तिक, योगचन्द्रिका, मणिप्रभा, भावागणेशीय वृत्ति, बालरामोदासीन कृत टिप्पण आदि ।
2" तदत्यन्तविमोशोऽपवर्गः " न्यायदर्शन १-१-२२ । 3 ईश्वरकृष्णकारिका १ । 4 उसमें हानतत्व मान कर दुःखके आत्यन्तिक नाशको ही हान कहा है। 5 बुद्ध भगवानके तीसरे निरोध नामक आर्यसत्यका मतलब दुःख नाशते है। 6 वेदान्त दर्शनमें ब्रह्मको सच्चिदानंदस्वरूप माना है, इसीलिये उसमें नित्यसुखकी अभिव्याक्तिका नाम हि मोक्ष है। 7 जैन दर्शनमें भी आत्माको सुखस्वरूप माना है, इसलिये मोक्षमें स्वाभविक सुखकी अभिव्यक्ति ही उस दर्शनको मान्य है।
8 यथा चिकित्साशास्रं चतुव्यूहम्-रोगो रोगहेतुरारोग्यं भैषज्यमिति, एवमिदमपि शास्रं चतु हमेव । तद्यथा-संसारः संसारहेतुर्मोक्षो मोक्षोपाय इति । तत्र दुःखबहुलः संसारो हेयः । प्रधानपुरुषयोः संयोगो हेयहेतुः । संयोगस्यात्यन्तिकी निवृत्तिनम् । हानोपायः सम्यग्दर्शनम् । पा. २ सू० १५ भाष्य ।
9 सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाचा, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि । बुद्धलीलासार संग्रह. पृ. १६० । 10 " दुःखं हेयमानागतम् " २-१६ यो. सू। 11 " द्रष्ट्रहश्ययोः संयोगो हेयहेतुः २-१७ । " तस्य हेतुरविद्या"२-२४ यो. सू. ।
12 " तदभावात् संयोगाभावो हानं तद् दृशेः कैवल्यम् ” २०-२६ यो. सू । 13 " विवेकख्यातिरविप्लषा हानोपायः " २-२६. यो. सू । 14 " पुरुषबहुत्वं सिद्ध " ईश्वरकृष्णकारिका- १८ ।
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१६ ]
जैन साहित्य संशोधक
वैशेषिक 1- नैयायिक, बौद्ध, जैन 2 और पूर्णप्रज्ञ ( मध्व 3 ) दर्शनके समान द्वैतवाद अर्थात् अनेक चेतन माने गये हैं 4 |
[ खंड २
योगशास्त्र चेतनको जैन दर्शनकी तरह 5 देहप्रमाण अर्थात् मध्यमपरिमाणवाला नहीं मानता, और मध्वसम्प्रदायकी तरह अणुप्रमाण भी नहीं मानता 6 किन्तु सांख्य 7 वैशेषिक 8, नैयायिक और शांकरवेदान्तकी 9 तरह वह उसको व्यापक मानता है10 ।
इसी प्रकार वह चेतनको जैनदर्शनकी तरह 11 परिणामि नित्य नहीं मानता, और न बौद्ध दर्शनकी तरह उसको क्षणिक-अनित्य ही मानता है, किन्तु सांख्य आदि उक्त शेष दर्शनोंकी तरह 12 वह उसे कूटस्थ - नित्य मानता 13 है ।
२. ईश्वरके सम्बन्धमें योगशास्त्रका मत सांख्य दर्शनसे भिन्न है । सांख्य दर्शन नाना चेतनोंके अतिरिक्त ईश्वरको नहीं मानता 14, पर योगशास्त्र - सम्मत ईश्वरका स्वरूप नैयायिक - वैशेषिक आदि दर्शनों में माने गये ईश्वरस्वरूपसे कुछ भिन्न है । योगशास्त्राने ईश्वरको एक अलग व्यक्ति तथा शास्त्रोपदेशक माना है सही, पर उसने नैयायिक आदिकी तरह ईश्वरमें नित्यज्ञान, नित्यईच्छा और नित्यकृतिका सम्बन्धन मान कर इसके स्थान में
1 “व्यवस्थातो नाना” ३-२-२० वैशेषिकदर्शन । 2 " पुद्गलजी वास्त्वनेकद्रव्याणि " ५-५ तत्त्वार्थसूत्र - भाष्य । 3 जीवेश्वरभिदा चैव जडेश्वरभिदा तथा । जीवभेदो मिथश्चैव जडजविभिदा तथा ॥
मिथश्च जडभेदो यः प्रपञ्चो भेदपञ्चकः । सोऽयं सत्योऽप्यनादिश्च सादिश्चेन्नाशमाप्नुयात् ॥ - सर्वदर्शनसंग्रह पूर्ण प्रशदर्शन ।
4" कृतार्थ प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात् " २-२२ यो. सू. । 5 असंख्येयभागादिषु जीवा
36
नाम् । १५ । “ प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत् ” १६ – तत्त्वार्थसूत्र अ० ५ ।
"
6 देखो “ उत्क्रान्तिगत्यागतीनाम् ” । ब्रह्मसूत्र २ - ३ - १८ पूर्णप्रज्ञ भाष्य । तथा मिलान करो अभ्यंकरशास्त्री कृत मराठी शांकरमाष्य अनुवाद भा. ४ पृ. १५३ टिप्पण ४६ ।
7 " निष्क्रियस्य तदसम्भवात् ,"
विज्ञानभिक्षु ।
सां. सू. १–४९, निष्क्रियस्थ - विभोः पुरुषस्य गत्यसम्भवात्--भाष्य
8 विभवान्महानाकाशस्तथा चात्मा । ” ७-१-२२- वै. द. । 9 देखो ब्र. सू. २-३-२९. भाष्य 1 10 इसलिये कि योगशास्त्र आत्मस्वरूपके विषयमें सांख्यसिद्धान्तानुसारी है ।
11 "नित्यावस्थितान्यरूपाणि " ३ । “ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ” । २९ । “ तद्भावाव्ययं नित्यम् ३० । तत्त्वार्थसूत्र अ० ५ भाष्य सहित.
12 देखो ई० कृ० कारिका ६३ सांख्यतत्त्वकौमुदी । देखो न्यायदर्शन ४ - १ - १० | देखो बह्मसूत्र २-१-१४ । २- १ - २७; शांकरभाष्य सहित ।
13 देखो योगसूत्र. “ सदाज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्य अपरिणामित्वात् ” ४–१८ । " चितेरप्रतिसंक्रमायास्तदाऽकारापत्तौ स्वबुद्धिसंवेदनम् " ४-२२ । तथा " द्वयी चेयं नित्यता, कूटस्थनित्यता, परिणा मिनित्यता च । तत्र कूटस्थनित्यता पुरुषस्य, परिणामिनित्यता गुणानाम् ” इत्यादि ४- ३३ भाष्य ।
14 देखो सांख्यसूत्र १-९२ आदि ।
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अकं १ ]
योगदर्शन
सत्त्वगुणका परमप्रकर्ष मान कर तद्द्वारा जगतउद्धारादिकी सब व्यवस्था घटा दी है।
३ योगशास्त्र दृश्य जगत्को न तो जैन, वैशेषिक, नैयायिक दर्शनोंकी तरह परमाणुका परिणाम मानता है, न शांकरवेदान्त दर्शनकी तरह ब्रह्मका विवर्त या ब्रह्मका परिणाम ही मानता है, और न बौद्ध दर्शनकी तरह शून्य या विज्ञान्यत्मक ही मानता है: किन्तु सांख्य दर्शनकी तरह बह उसको प्रकृतिका परिणाम तथा अनादि -अनन्त-प्रवाहस्वरूप मानता है ।
४ योगशास्त्रमें वासना क्लेश और कर्मका नाम ही संसार है, तथा वासनादिका अभाव अर्थात् चेतनके स्वरूपावस्थानका नाम मोक्ष2 है। उसमें संसारका मूल कारण अविद्या और मोक्षका मुख्य हेतु सम्यग्दर्शन अर्थात् योगजन्य विवेकख्याति माना गया है।
महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टिविशालता-यह पहले कहा जा चुका है कि सांख्य सिद्धान्त और उसकी प्रक्रियाको ले कर पतञ्जलिने अपना योगशास्त्र रचा है, तथापि उनमें एक ऐसी विशेषता अर्थात् दृष्टिविशालता नजर आती है जो अन्य दार्शनिक विद्वानों में बहुत कम पाई जाती है । इसी विशेषताके कारण उनका योगशास्त्र मानों सर्वदर्शनसमन्वय बन गया है। उदाहरणार्थ सांख्यका निरीश्वरवाद जब वैशेषिक, नैयायिक आदि दर्शनोंके द्वारा अच्छी तरह निरस्त हो गया और साधारण लोक-स्वभावका झुकाव भी ईश्वरोपासनाकी ओर विशेष मालूम पड़ा, तब अधिकारिभेद तथा रूचिविचित्रताका विचार करके पतञ्जलिने अपने योगमार्गमें ईश्वरोपासनाको भी स्थान दिया, और ईश्वरके स्वरूपका उन्होंने निष्पक्ष भावसे ऐसा निरूपण4 किया है जो सबको मान्य हो सके।
पतञ्जलिने सोचा कि उपासना करनेवाले सभी लोगोंका साध्य एक ही है, फिर भी वे उपासनाकी. भिन्नता और उपासनामें उपयोगी होनेवाली प्रतीकोंकी भिन्नताके व्यामोहमें अज्ञानवश आपस आपसमें लड मरते हैं, और इस धार्मिक कलहमें अपने साध्यको लोक भूल जाते हैं। लोगोंको इस अज्ञानसे हटा कर सतू. पथपर लानेके लिये उन्होंने कह दिया कि तुम्हारा मन जिसमें लगे उसीका ध्यान करो । जैसी प्रतीक तुम्हें पसंद आवे वैसी प्रतीककी ही उपासना करो, पर किसी भी तरह अपना मन एकाग्र व स्थिर करो, और तद्द्वारा परमात्म-चिन्तनके सच्चे पात्र बनों। इस उदारताकी मूर्तिस्वरूप मतभेदसहिष्णु आदेशके द्वारा पतञ्जलिने सभी उपासकोंको योग-मार्गमें स्थान दिया, और ऐसा करके धर्मके नामसे होनेवाले कलहको कम कर
1 यद्यपि यह व्यवस्था मूल योगसूत्रमें नहीं है, परन्तु भाष्यकार तथा टीकाकारने इसका उपपादन किया है । देखो पातञ्जल यो. पा. १ सू. २४ भाष्य तथा टीका ।
2 तदा द्रष्टुः स्वरुपावस्थानम् । १-३ योगसूत्र । 3 " ईश्वरप्रणिधानाद्वा: १-३३ ।
4 " क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः " " तत्र निरशितयं सर्वशबीजम् "। " पूर्वेषामपि गुरुः कालेनाऽनवच्छेदात्"। (१-२४, २५, २६)
5 " यथाऽभिमतध्यानाद्वा” १-३९ इसी भावकी सूचक महाभारतमेंध्यानमुत्पादयत्यत्र, संहिताबलसंश्रयात् । यथाभिमतमन्त्रेण, प्रणवाद्यं जपेत्कृती ॥ (शान्तिपर्व प्र. १९४ श्लो. २०) यह उक्ति है। और योगवाशिष्ठमेंयथाभिवाञ्छितध्यानाच्चिरमेकतयोदितात् । एकतत्त्वघुनाभ्यासात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥
(उपशम प्रकरण सर्ग ७८ श्लो. १६ ।) यह उक्ति है।
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१८]
जैन साहित्य संशोधक
नेका उन्होंने सच्चा मार्ग लोगोंको बतलाया । उनकी इस दृष्टिविशालताका असर अन्य गुण-ग्राही आचार्योंपर भी पडा1, और वे उस मतभेदसहिष्णुताके तत्त्वका मर्म समझ गये।
वैशेषिक, नैयायिक आदिकी ईश्वरविषयक मान्यताका तथा साधारण लोगोंकी ईश्वरविषयक श्रद्धाका योगमार्गमें उपयोग करके ही पतञ्जलि चुप न रहे, पर उन्होंने वैदिकेतर दर्शनोंके सिद्धान्त तथा प्रक्रिया जो योगमार्गके लिये सर्वथा उपयोगी जान पडी उसका भी अपने योगशास्त्रमें बडी उदारतासे संग्रह किया । यद्यपि बौद्ध विद्वान् नागार्जुनके विज्ञानवाद तथा आत्मपरिणामित्ववादको युक्तिहीन समझ कर या योगमार्गम अनुपयोगी समझ कर उसका निरसन चोथें पादमें किया2 है, तथापि उन्होंने बुद्धभगवान्के परमप्रिय चार आर्यसत्योंका हेय, हेयहेतु, हान और हानोपाय रूपसे स्वीकार निःसंकोच भावसे अपने योगशास्त्र में किया है।
1 पुष्पैश्च बलिश चैव कौः स्तोत्रैश्च शोभनैः । देवानां पूजनं शेयं शौचश्रद्धासमन्वितम् ।। अविशेषेण सर्वेषामधिमुक्तिवशेन वा । गृहिणां माननीया यल्सर्वे देवा महात्मनाम् ॥ सर्वान्द्रवान्नमस्यन्ति नैकं देवं समाश्रिताः । जितेन्द्रिया जितक्रोधा दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ चारिसंजीवनीचारन्याय एष सतां मतः । नान्यथाष्टसिद्धिः स्याद्विशेषेणादिकर्मणाम ।। गणाधिक्यपरिज्ञानादिशेषेऽप्यतादिष्यते । अद्वेषेण तदन्येषां वृत्ताधिक्ये तथात्मनः ।।
योगबिन्दु श्लो. १६-२० . जो विशेषदर्शी होखे हैं, वे तो कीसी प्रतीक विशेष या उपासना विशेषको स्वीकार करते हुए भी अन्य प्रकारकी प्रतीक माननेवालों या अन्य प्रकारकी उपासना करनेवालोंसे द्वेष नहीं रखते, पर जो धर्माभिमानी प्रथमाधिकारी होते हैं वे प्रतीकभेद या उपासनाभेदके व्यामोहसे ही आपसमें लड मरते हैं। इस अनिष्ट तत्वको दर करनेके लिये ही श्रीमान हरिभद्रसूरिने उक्त पद्योंमें प्रथमाधिकारीके लिये सब देवोंकी उपासनाको लाभदायक बतलानेका उद्दार प्रयत्न किया है । इस प्रयत्नका अनुकरण श्रीयशोविजयजीने भी अपनी " पूर्व सेवाद्वात्रिंशिका" "आठदृष्टियोंकी मझाय" आदि ग्रन्थों में किया है । एकदेशीय सम्प्रदायाभिनिवेशी लोगोंको समजानेके लिये 'चारिमंजीवनीचार' न्यायका उपयोग उक्त दोनों आचार्यों ने किया है। यह न्याय बड़ा मनोरञ्जक और शिक्षाप्रद है। - इस समभावसूचक दृष्टान्तका उपनय श्रीज्ञानविमलने आठदृष्टिकी सज्झाय पर किये हुए अपने गूजराती टबमें बहुत अच्छी तरह घटाया है, जो देखने योग्य है । इसका भाव संक्षेपमें इस प्रकार है । कीसी स्त्रीने अपनी सखीसे कहा कि मेरा पति मेरे अधीन न होनेसे मुझे बडा कष्ट है। यह सुन कर उस आगन्तुक सखीने कोई जडी खिला कर उस पुरुषको बैल बना दिया, और वह अपने स्थानको चली गई। पतिके बैल बन जानेसे उसकी पत्नी दुःखित हुई, पर फिर वह पुरुषरूप बनानेका उपाय न जाननेके कारण उस बैलरूप पतिको चराया करती थी, और उसकी सेवा किया करती थी। कीसी समय अचानक एक विद्याधरके मुखसे ऐसा सना कि अगर बैलरूप पुरुषको संजीवनी नामक जडी चराई जाय तो वह फिर असली रूप धारण कर सकता है। विद्याधरसे यह भी सुना कि वह जडी अमुक वृक्षके नीचे है। पर उस वृक्षके नीचे अनेक प्रकारकी वनस्पति होनेके कारण वह स्त्री संजीवनीको पहचाननेमें असमर्थ थी । इससे उस दुःखित स्त्रीने अपने बैलरूप. धारि पतिको सब वनस्पतियाँ चरा दीं। जिनमें संजीवनीको भी वह बैल चर गया । जैसे विशेष परीक्षा न होने के कारण उस स्त्रीने सब वनस्पतियों के साथ संजीवनी 'खिला कर अपने पतिका कृत्रिम बैलरूप छुडाया,
और असली मनष्यत्वको प्राप्त कराया, वैसे ही विशेष परीक्षाविकल प्रथमाधिकारी भी सब देवोंकी समभावसे उपासना करते करते योगमार्गमें विकास करके इष्ट लाभ कर सकता है। ... 2 देखो सू० १५, १८। 3दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग ।
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अंक.]
योगदान
[९
S
जैन दर्शनके साथ योगशास्त्रका माहश्य तो अन्य सब दर्शनोंकी अपेक्षा अधिक ही देखने में आता है। यह बात स्पष्ट होनेपर भी बहुतोंको विदित ही नहीं है । इसका सबब यह है कि जैनदर्शनके खास अभ्यासी ऐसे बहुत कम है जो उदारता पूर्वक योगशास्त्रका अवलोकन करनेवाले हौं, और योगशास्त्रके खास अभ्यासी भी ऐसे बहुत कम है जिन्होंने जैनदर्शनका बारीकीसे ठीक ठीक अवलोकन किया। इसलिये इस विषयका विशेष खुलासा करना यहाँ अपामयिक न होगा।
योगशास्त्र और जैनदर्शनका मादृश्य मुख्यतया तीन प्रकारका है। १ शब्दका, २ विषयका और ३ प्रक्रियाका ।
१ मूल योगसूत्रमें ही नहीं किन्तु उसके भाष्यतकमें ऐसे अनेक शब्द हैं जो जैनेतर दर्शनोमें प्रसिद्ध नहीं है, या बहुत कम प्रसिद्ध है, किन्तु जैन शानमें खास प्रसिद्ध है । जैसे-भवप्रत्यय,1 सवितर्क-सविचारनिर्विचार2, महावत, कृत-कारित-अनुमोदित4, प्रकाशावरण5, सोपक्रम-निरूपक्रम6, वनसंहनना, केवली, कुशल, ज्ञानावरणीयकर्म10, सम्यग्ज्ञान,11 सम्यग्दर्शन,12 सर्वश,13 क्षीणक्लेश,15 चरमदेह16 आदि ।
1 " भवप्रत्ययो विदेइप्रकृतिलयानाम् " योगसू. १-१९। “भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् " तत्त्वार्य अ. १-२२।
2 ध्यानविशेषरूप अर्थमें ही जैनशास्त्र में ये शन्द इस प्रकार है "एकाश्रये सवितकें पूर्वे" ( तत्त्वार्थ अ. ९-४३) “तत्र सविचारं प्रथमम्" भाष्य " अविचारं द्वितीयम्" तत्त्वा० अ० ९-४४ । योगसूत्रमें ये शब्द इस प्रकार आये हैं-" तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः" "स्मृतिपरिशची स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का" " एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता" १-४२, ४३, ४४ ।
3 जैनशास्त्र में मुनिसम्बन्धी पाँच यमाके लिये यह शब्द बहुत ही प्रसिद्ध है। " सर्वतो विरतिर्महाव्रतमिति तत्वार्थ " अ०७-२ भाष्य । यही शन्द उसी अर्थमें योगसूत्र २-३१ में है।
4 ये शब्द जिस भावके लिये योगसूत्र २-३१ में प्रयुक्त हैं, उसी भावमें जैनशास्त्रमें भी आते हैं, अन्तर सिर्फ इतना है कि जैनग्रन्थोंमें अनुमोदितके स्थानमें बहुधा अनुमतशब्द प्रयुक्त होता है। देखोतत्त्वार्थ, अ. ६-९।
5 यह शब्द योगसूत्र २-५२ तथा ३-४३ में है। इसके स्थानमें जैनशास्त्रमें 'ज्ञानावरण' शन्द प्रसिद्ध है । देखो तत्त्वार्थ, ६-११ आदि।
6 ये शन्द योगसूत्र ३-२२ में हैं । जैन कर्मविषयक साहित्यमें ये शब्द बहुत प्रसिद्ध है । तत्त्वार्थमें भी इनका प्रयोग हुआ है, देखो-अ.२-५२ भाष्य ।
7 यह शब्द योगसूत्र ३-४६ में प्रयुक्त है। इसके स्थानमें जैन ग्रन्थोंमें 'वज्रऋषभनाराच संहनन' ऐसा शब्द मिलता है। देखो तत्त्वार्थ अ०८-१२ भाष्य ।
8 योगसूत्र २-२७ भाष्य, तत्त्वार्थ अ०६-१४ ।
9 देखो योगसूत्र २-२७ भाष्य, तथा दशवैकालिकनियुक्ति गाथा १८६ । -10 देखो योगसूत्र २-१६ भाष्य, तथा आवश्यकनियुक्ति गाथा ८९३ ।
11 योगसूत्र २-२८ माम्य, तत्त्वार्थ अ० १-१ । 12 योगसूत्र ४-१५ भाष्य, तत्त्वार्थ अ० १-२ । 13 योगसूत्र ३-४९ भाष्य, तत्त्वार्थ ३-४९ ।
14 योगसूत्र १-४ भाष्य । जैन शास्त्रमें बहुधा ' क्षीणमोह ' 'क्षीणकषाय' शन्द मिलते हैं। दे तत्त्वार्थ अ. ९-३८ ।
15 योगसूत्र २-४ भाष्य, तत्त्वार्थ अ० २-५२
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२०]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
२ प्रसुप्त, तनु आदिक्लेशावस्थाl, पाँच यम,2 योगजन्य विभूति, सोपक्रम निरुपमक्रम कर्मका स्वरूप, तथा उसके दृष्टान्त, अनेक कार्योंका निर्माण आदि ।
1 प्रसुप्न, तनु, विछिन्न और उदार इन चार अवस्थाओंका योगसूत्र २-४ में वर्णन है। जैनशास्त्रमें वही भाव मोहनीयकर्मकी सत्ता, उपशमक्षयोपशम, विरोधिप्रकृतिके उदयादिकृत व्यवधान और उदयावस्थाके वर्णनरूपसे वर्तमान है। देखो योगसूत्र २-४ की यशोविजयकृत वृत्ति ।
2 पाँच यमोंका वर्णन महाभारत आदि ग्रन्थोमें है सही, पर उसकी परिपूर्णता " जातिदेशकालसमयाऽनवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ” योगसूत्र २-३१ में तथा दशवकालिक अध्ययन ४ आदि जैनशास्त्रपतिपादित महाव्रतोंमें देखनेमें आती है।
3 योगसूत्रके तीसरे पादमें विभूतियोंका वर्णन है, वे विभूतियाँ दो प्रकारकी हैं । १ वैज्ञानिक २ शारीरिक । अतीताऽनागतज्ञान, सर्वभूतरुतज्ञान, पूर्वजातिज्ञान, परचित्तज्ञान, भुवनज्ञान, ताराव्यूहज्ञान. आदि ज्ञानविभूतियाँ हैं । अन्तर्धान, हस्तिबल, परकायप्रवेश, अणिमादि ऐश्वर्य तथा रूपलावण्यादि कायसंपत् , इत्यादि शारीरिक विभूतियाँ हैं । जैनशास्त्रमें भी अवधिज्ञान, मनःपर्यायशान, जातिस्मरणज्ञान, पूर्वज्ञान आदि ज्ञानलखियाँ हैं, और आमौषधि, विप्रडौषधि, श्लेष्मौषधि, सौंषधि, जंघाचारण-विद्याचारण, वैक्रिय, आहारक आदि शारीरिक लब्धियाँ हैं । देखो गा. ६९, ७० आवश्यकनियुक्ति लब्धि यह विभूतिका नामान्तर है।
4 योगभाष्य और जैनग्रन्थों में सोपक्रम निरुपक्रम आयुष्कर्मका स्वरूप बिल्कुल एकसा है. इतना ही नहीं बाल्कि उस स्वरूपको दिखाते हुए भाष्यकारने यो. सू. ३-२२ के भाष्यमै आर्द्र वस्त्र और तुणराशिके जो दो दृष्टान्त लिखे हैं, वे आवश्यकनियुक्ति (गाथा-९५६) तथा विशेषावश्यक भाष्य (गाथा-३०६१) आदि जैनशास्त्रमें सर्वत्र प्रसिद्ध हैं, पर तत्त्वार्थ ( अ० -२५२) के भाष्यमें उक्त दो दृष्टान्तोंके उपरान्त एक तीसरा गणितविषयक दृष्टान्त भी लिखा है । इस विषयमें उक्त व्यासभाष्य और तत्त्वार्थभाष्यका शाब्दिक सादृश्य भी बहुत अधिक और अर्थसूचक है । .. " यथाऽऽर्द्रवस्त्रं वितानितं लघीयसा कालेन शुध्येत् तथा सोपक्रमम् । यथा च तदेव सपिण्डितं चिरेण संशयेद एवं निरुपक्रमम् । यथा चाग्निः शुष्के कक्षे मुक्तो वातेन वा समन्ततो युक्तः क्षेपीयसा कालेन दहेत तथा सोपक्रमम् । यथा वा स एवाऽग्निस्तृणराशौ क्रमशोऽवयवेषु न्यस्तश्चिरेण दहेत् तथा निरुपक्रमम् , योग ३-२२ भाष्य । यथाहि संहतस्य शुष्कस्यापि तृणराशेरवयवशः क्रमेण दह्यमानस्य चिरेण दाहो भवति, तस्यैव शिथिलप्रकीर्णोपचितस्य सर्वतो युगपदादीपितस्य पवनोपक्रमाभिहतस्याशु दाहो भवति, तद्वत् । यथा वा संख्यानाचार्यः करणलाघवार्थ गुणकारभागहाराभ्यां राशि छेदादेवापवर्तयति न च संख्येयस्यार्थस्याभावो भवति, तद्वदुपक्रमाभिहतो मरणसमुद्घातदुःखार्त्तः कर्मप्रत्ययमनाभोगयोगपूर्वकं करणविशेषमुत्पाद्य फलोपभोगलाघवार्थ कर्मापातयति न चास्य फलाभाव इति ॥ किं चान्यत् । यथा वा धौतपटो जलार्द्र एव संहतश्चिरेण शोषमुपयाति । स एव च वितानितः सूर्यरश्मिवाय्वभिहतः क्षिप्रं शोषमुपयाति । ” तत्त्वा० अ० २-५२ भाष्य ।
5 योगबलसे योगी जो अनेक शरीरोंका निर्माण करता है, उसका वर्णन योगसूत्र ४-४ में है, यही विषय वैक्रिय-आहारक-लब्धिरूपसे जैनग्रन्थों में वर्णित है।
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अकं १]
योगदर्शन
[२१
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३ परिणामि-नित्यता अर्थात् उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूपसे त्रिरूप वस्तु मान कर तदनुसार धर्मधर्मीका विवेचना इत्यादि।
इसी विचारसमताके कारण श्रीमान् हरिभद्र जैसे जैनाचायोंने महर्षि पतञ्जलिके प्रति अपना हार्दिक आदर प्रकट करके अपने योगविषयक ग्रन्थों में गुणग्राहकताका निभीक परिचय पूरे तोरसे दिया है2. और जगह जगह पतञ्जलिके योगशास्त्रगत खास साङ्केतिक शब्दोंका जैन सङ्केतोंके साथ मिलान करके सङ्कीर्णदृष्टिवालोंके लिये एकताका मार्ग खोल दिया है। जैन विद्वान् यशोविजयवाचकने हरिभद्रसूरिसूचित एकताके मार्गको विशेष विशाल बनाकर पतञ्जलिके योगसूत्रको जैन प्रक्रियाके अनुसार समाझनेका थोडा किन्तु मार्मिक प्रयास किया है4। इतना ही नहीं बल्कि अपनी बत्तीसियोंमें उन्होंने पतञ्जलिके योगसूत्रगत कुछ विषयोंपर खास बत्तीसियाँ भी रची हैं। । इन सब बातोंको संक्षेपमें बतलानेका उद्देश्य यही है कि महर्षि पतञ्ज- . लिकी दृष्टिविशालता इतनी अधिक थी कि सभी दार्शनिक व साम्प्रदायिक विद्वान् योगशास्त्रके पास आते ही अपना साम्प्रदायिक अभिनिवेश भूल गये और एकरूपताका अनुभव करने लगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टि-विशालता उनके विशिष्ट योगानुभवका ही फल है, क्योंकि-जब कोई भी मनुष्य शब्द ज्ञानकी प्राथमिक भूमिकासे आगे बढ़ता है तब वह शब्दकी पूंछ न खींचकर चिन्ताज्ञान तथा भावनाज्ञानके6 उत्तरोत्तर अधिकाधिक एकतावाले प्रदेशमें अभेद आनंदका अनुभव करता है।
आचार्य हरिभद्रकी योगमार्गमें नवीन दिशा-श्रीहरिभद्र प्रसिद्ध जैनाचार्यों में एक हुए । उनकी बहुश्रुतता, सर्वतोमुखी प्रतिभा, मध्यस्थता और समन्वयशक्तिका पूरा परिचय करानेका यहाँ प्रसंग नहीं है। इसके लिए
1 जैनशास्त्रमें वस्तुको द्रव्यपर्यायस्वरूप माना है। इसीलिये उसका लक्षण तत्त्वार्थ ( अ० ५-२९) में “ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् " ऐसा किया है। योगसूत्र (३-१३, १४ ) में जो धर्मधर्मीका विचार है वह उक्त द्रव्यपर्यायउभयरूपता किंवा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इस त्रिरूपताका ही चित्रण है। भिन्नता सिर्फ दोनोंमें इतनी ही है कि-योगसूत्र सांख्यसिद्धान्तानुसारी होनेसे "ऋते चितिशक्तः परिणामिनो भावाः " यह सिद्धान्त मानकर परिणामवादका अर्थात् धर्मलक्षणावस्था परिणामका उपयोग सिर्फ जडभागमें अर्थात् प्रकृतिमें करता है. चेतनमें नहीं । और जैनदर्शन तो " सर्वे भावाः परिणामिनः " ऐसा सिद्धान्त मानकर परिणामवाद अर्थात् उत्पादव्ययरूप पर्यायका उपयोग जड चेतन दोनोंमें करता है। इतनी भिन्नता होनेपर भी परिणामवादकी प्रक्रिया दोनोंमें एक सी है।
2 उक्तं च योगमार्ग स्तपोनिधूतकल्मषैः । भावियोगहितायोचर्मोहदीपसमं वचः ॥
(योगबिं. श्लो. ६६) टीका 'उक्तं च निरूपितं पुनः योगमार्गशैरध्यात्मविद्भिः पतञ्जलिप्रभृतिभिः ॥ "एतत्प्रधानः सश्छ्राद्धः शीलवान् योगतत्परः । जानात्यतीन्द्रियानोंस्तथा चाह महामतिः" ॥ (योगदृष्टिसमुच्चय श्लो. १००) टीका 'तथा चाह महामतिः पतञ्जलिः '। ऐसा ही भाव गुणग्राही श्रीयशोविजयजीने अपनी योगावतारद्वात्रिंशिकामें प्रकाशित किया है। देखो-श्लो. २० टीका।
देखो योगबिन्दु श्लोक ४ १८, ४२० । 4 देखो उनकी बनाई हुई पातञ्जलसूत्रवृत्ति । ...-.-5 देखो पातञ्जलयोगलक्षणविचार, ईशानुग्रहविचार, योगावतार, क्लेशहानोपाय और योगमाहात्म्य द्वात्रिंशिका ।
___6 शब्द, चिन्ता तथा भावनाशानका स्वरूप श्रीयशोविजयजीने अध्यात्मोपनिषद्में लिखा है, जो आध्यात्मिक लोगोंको देखने योग्य है। अध्यात्मोपनिषदू श्लो. ६५, ७४ ।
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२२]
जैन साहित्य संशोधक
[ मंडर
जिज्ञासु महाशय उनकी कृतियोंको देख लेवें। हरिभद्रसूरिकी शतमुखी प्रतिभाके स्रोत उनके बनाये हुए चार अनुयोगविषयक1 ग्राथोंमें ही नहीं बल्कि जैन न्याय तथा भातवर्षीय तत्कालीन समग्र दार्शनिक सिद्धांतोंकी चर्चावाले2 ग्रन्थोंमें भी बहे हुए हैं। इतना करके ही उनकी प्रतिभा मौन न हुई; उसने योगमार्गमें एक ऐसी दिशा दिखाई जो केवल जैन योगसाहित्यमें ही नहीं बल्कि आर्यजातीय संपूर्ण योगविषयक साहित्यमें एक नई वस्तु है। जैनशास्त्रमें आध्यात्मिक विकासके क्रमका प्राचीन वर्णन चौदह गुणस्थानरूपसे, चार ध्यान रूपसे और बहिरात्म आदि तीन अवस्थाओंके रूपसे मिलता है। हरिभद्रसूरिने उसी आध्यात्मिक विकासके क्रमका योगरूपसे वर्णन किया है। पर उसमें उन्होंने जो शैली रक्खी है वह अभीतक उपलब्ध योगविषयक साहित्यमेंसे किसी भी ग्रंथमें कमसे कम हमारे दखनेमें तो नहीं आई है। हरिभद्रसूरि अपने ग्रन्थोंमें अनेक योगि. योंका नामनिर्देश करते हैं3, एवं योगविषयक4 ग्रन्थोंका उल्लेख करते हैं जो अभी प्राप्त भी नहीं हैं। संभव है उन अप्राप्य ग्रन्थोंमें उनके वर्णनकीसी शैली रही हो, पर हमारे लिये तो यह वर्णनशैली और योग विषयक वस्तु बिल्कुल अपूर्व है। इस समय हरिभद्रसूरिके योगविषयक चार ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं जो हमारे देखनेमें आये हैं। उनमेंसे षोडशक और योगविंशिकाके योगवर्णनकी शैली और योगवस्तु एक ही है। योगबिंदुकी विचारसरणी और वस्तु योगविंशिकासे जुदा है। योगदृष्टिसमुच्चयकी विचारधारा और वस्तु योगबिंदुसे भी जुदा है। इस प्रकार देखनेसे यह कहना पडता है कि हरिभद्रसूरिने एक ही आध्यात्मिक विकासके क्रमका चित्र भिन्न भिन्न ग्रन्थों में भिन्न भिन्न वस्तुका उपयोग करके तीन प्रकारसे खींचा है।
कालकी अपरिमित लंबी नदीमें वासनारूप संसारका गहरा प्रवाह बहता है, जिसका पहला छोर [ मूल] तो अनादि है, पर दूसरा [ उत्तर ] छोर सान्त है । इसलिये मुमुक्षुओंके वास्ते सबसे पहले यह प्रश्न बडे महत्त्वका है कि उक्त अनादि प्रवाहमें आध्यात्मिक विकासका आरंभ कबसे होता है ? और उस आरंभके समय आत्माके लक्षण कैसे हो जाते हैं ? जिनसे कि आरंभिक आध्यात्मिक विकास जाना जा सके । इस प्रश्नका उत्तर आचार्यने योगबिंदुमें दिया है। वे कहते हैं कि-" जब आत्माके ऊपर मोहका प्रभाव घटनेका आरंभ होता है तभीसे आध्यात्मिक विकासका सूत्रपात हो जाता है। इस सूत्रपातका पूर्ववर्ती समय जो आध्यात्मिकविकासरहित होता है, वह जैनशास्त्रमें अचरमपुद्गलपरावर्तके नामसे प्रसिद्ध है। और उत्तरवर्ती समय जो आध्यात्मिक विकासके क्रमवाला होता है, वह चरमपुद्गलपरावर्तके नामसे प्रसिद्ध है। अचरमपुद्गलपरावर्तन और चरमपुद्गलपरावर्तनकालके परिमाणके बीच सिंधु5 और बिंदुका सा अंतर होता है। जिस आत्माका संसारप्रवाह चरमपुद्गलपरावर्त्तपरिमाण शेष रहता है, उसको जैन परिभाषामें 'अपुनर्बधक ' और सांख्यपरिभाषामें 'निवृत्ताधिकार प्रकृति' कहते हैं । अपुनर्बन्धक या निवृत्ताधिकारप्रकृति आत्माका आंतरिक परिचय इतना ही है कि उसके ऊपर मोहका दबाव कम होकर उलटे मोहके ऊपर उस आत्माका दबाव शुरू होता है । यही आध्यात्मिक विका
1 द्रव्यानुयोगविषयक-धर्मसंग्रहणी आदि १, गणितानुयोगविषयक-क्षेत्रसमास टीका आदि २, चरणकरणानुयोगविषयक-पञ्चवस्तु, धर्मबिंदु आदि ३, धर्मकथानुयोगविषयक-समराइच्चकहा आदि ४ ग्रन्थ मुख्य हैं।
2 अनेकान्तजयपताका, षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि ।
3 गोपेन्द्र ( योगबिन्दु श्लोक २०० ) कालातीत ( योगविन्दु श्लोक ३०० )। पतञ्जलि, भदन्तभास्करबन्धु, भगवदन्त (त्त) वादी ( योगदृष्टि० श्लोक १६ टीका )।
4 योग-निर्णय आदि ( योगदृष्टि० श्लोक १ टीका ) 5 देखो मुक्त्यद्वेषद्वात्रिंशिका २८। 6 देखो योगबिंदु १७८, २०१।
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अंक १ ]
सका बीजारोपण है । यहींसे योगमार्गका आरंभ हो जानेके कारण उस आत्माकी प्रत्येक प्रवृत्ति में सरलता, नम्रता, उदारता, परोपकारपरायणता आदि सदाचार वास्तविक रूपमें दिखाई देते हैं; जो उस विकासोन्मुख आत्माका बाह्य परिचय है " । इतना उत्तर देकर आचार्यने योगके आरंभसे लेकर योगकी पराकाष्ठा तकके आध्यात्मिक विकासकी क्रमिक वृद्धिको स्पष्ट समझानेके लिये उसको पाँच भूमिकाओं में विभक्त करके हर एक भूमिकाके लक्षण बहुत स्पष्ट दिखाये हैं 1, और जगह जगह जैन परिभाषाके साथ बौद्ध तथा योगदर्शन की परिभाषाका मिलान करके 2 परिभाषाभेदकी दिवारको तोड़कर उसकी ओट में छिपी हुई योगवस्तुकी भिन्नभिन्नदर्शनसम्मत एकरूपताका स्फुट प्रदर्शन कराया है । अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय ये योगमार्ग की पाँच भूमिकायें हैं । इनमें से पहली चारको पतंजलि संप्रज्ञात, और अन्तिम भूमिकाको असंप्रज्ञात कहते हैं । यही संक्षेप में योगबिन्दुकी वस्तु है ।
यागदर्शन
[ २३
।
योगदृष्टियुच्चय में आध्यात्मिक विकासके क्रमका वर्णन योगन्त्रिदुकी अपेक्षा दूसरे ढंग से है । उसमें आध्यात्मिक विकासके प्रारंभके पहलेकी स्थितिको अर्थात् अचरमपुद्गलपरावर्त्तपरिमाण संसारकालीन आत्माकी स्थितिको दृष्टि कहकर उसके तरतम भावको अनेक दृष्टांत द्वारा समझाया है4, और पीछे आध्यात्मिक विकासके आरंभ से लेकर उसके अंततकमें पाई जानेवाली योगावस्थाको योगदृष्टि कहा है । इस योगावस्थाकी क्रमिक वृद्धिको समझानेके लिये संक्षेपमें उसे आठ भूमिकाओं में बाँट दिया है । वे आठ भूमिकायें उस ग्रन्थमें आठ योगदृष्टिके नामसे प्रसिद्ध हैं इन आठ दृष्टियों का विभाग पातंजलयोगदर्शन - प्रसिद्ध यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि आठ योगांगों के आधार पर किया गया है, अर्थात् एक एक दृष्टिमें एक एक योगांगका सम्बन्ध मुख्यतया बतलाया है। पहली चार दृष्टियां योगकी प्रारम्भिक अवस्थारूप होने से उनमें अविद्याका अल्प अंश रहता । जिसको प्रस्तुत ग्रंथ में अवेद्यसंवेद्यपद कहा है 6 । अगली चार दृष्टियों में अविद्याका अंश बिल्कुल नहीं रहता । इस भावको आचार्यने वेद्यसंवेद्यपद शब्दसे जनाया 7 है । इसके सिवाय प्रस्तुत ग्रंथ में पिछली चार दृष्टियोंके समय पाये जानेवाले विशिष्ट आध्यात्मिक विकासको इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग ऐसी तीन योग भूमिकाओं में विभाजित करके उक्त तीनों योगभूमिकाओंका बहुत रोचक वर्णन किया है 8 ।
आचार्यने अन्तमें चार प्रकारके योगियोंका वर्णन करके योगशास्त्र के अधिकारी कौन हो सकते हैं, यह भी बतला दिया है । यही योगदृष्टिसमुच्चयकी बहुत संक्षिप्त वस्तु 1
योगविंशिकामें आध्यात्मिक विकासकी प्रारंभिक अवस्थाका वर्णन नहीं हैं, किन्तु उसकी पुष्ट अवस्थाओंका ही वर्णन है । इसीसे उसमें मुख्यतया योगके अधिकारी त्यागी ही माने गये हैं ! प्रस्तुत ग्रन्थ में त्यागी गृहस्थ और साधुकी आवश्यक - क्रियाको ही योगरूप बतलाकर उसके द्वारा आध्यात्मिक विकासकी क्रमिक वृद्धिका वर्णन किया है। और उस आवश्यक क्रियाके द्वारा योगको पाँच भूमिकाओं में विभाजित किया है । ये पांच भूमिकायें उसमें स्थान, शब्द, अर्थ, सालंबन और निरालंबन नामसे प्रसिद्ध हैं । इन पाँच भूमिकाओं में कर्मयोग और ज्ञानयोगकी घटना करते हुए आचार्यने पहली दो भूमिकाओंको कर्मयोग और पिछली तीन भूमिकाओंको ज्ञानयोग कहा है । इसके सिवाय प्रत्येक भूमिकामें इच्छा, प्रवृत्ति, स्थैर्य और सिद्धिरूपसे आध्यात्मिक विकासके तरतम भावका प्रदर्शन कराया है; और उस प्रत्येक भूमिका तथा
1 योगबिंदु, ३१, ३५७, ३५६, ३६१, ३६३, ३९६ ।
2 ‘“यत्सम्यग्दर्शनं बोधिस्तत्प्रधानो महोदयः । सत्त्वोऽस्तु बोधिसत्त्वस्तद्धन्तैषोऽन्वर्थतोऽपि हि ।। २७३॥ बरबोधिसमेतो वा तीर्थकृद्यो भविष्यति । तथाभव्यत्वतोऽसौ वा बोधिसत्त्वः सतां मतः " ॥ २७४ ॥ योगबिन्दु |
3 देखो योगबिंदु ४१८, ४२० । 4 देखो, योगदृष्टिसमुच्चय १४ ।
5 १३ । 6 ७५ ।
7 ७३ । ४२-१२ ।
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२४ ]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
इच्छा, प्रवृत्ति आदि अवान्तर स्थितिका लक्षण बहुत स्पष्टतया वर्णन किया है।। इस प्रकार उक्त पाँच भूमिकाओंकी अन्तर्गत निन्न भिन्न स्थितियोंका वर्णन करके योगके अस्सी भेद किये हैं, और उन सबके लक्षण बतलाये हैं,जिनको ध्यानपूर्वक देखनेवाला यह जान सकता है कि मैं विकासकी किस सीढीपर खडा हूँ। यही .. योगविंशिकाकी संक्षिप्त वस्तु है।
उपसंहार-विषयकी गहराई और अपनी अपूर्णताका खयाल होते हुए भी यह प्रयास इस लिये किया गया है कि अबतकका अवलोकन और स्मरण संक्षेपमें भी लिपिबद्ध हो जाय, जिससे भविष्यत्में विशेष प्रगति करना हो तो इस विषयका प्रथम सोपान तैयार रहे। इस प्रवृत्तिमें कई मित्र मेरे सहायक हुए है जिनके नामोल्लेख मात्रसे मैं कृतज्ञता प्रकाशित करना नहीं चाहता। उनकी आदरणीय स्मृति मेरे हृदयमें अखंड रहेगी।
पाठकोंके प्रति एक मेरी सूचना है। वह यह कि इस निबंधमें अनेक शास्त्रीय पारिभाषिक शब्द आये हैं। खासकर अन्तिम भागमें जैन-पारिभाषिक शब्द अधिक हैं, जो बहुतोंको कम विदित होंगे; उनका मैने विशेष खुलासा नहीं किया है, पर खुलासावाले उस उस ग्रन्थके उपयोगी स्थलोंका निर्देश कर दिया है जिससे विशेष जिज्ञासु मूलग्रन्थद्वारा ही ऐसे कठिन शब्दोंका खुलासा कर सकेंगे। अगर यह संक्षिप्त निबंध न हो कर खास पुस्तक होती तो इसमें विशेष खुलासोंका भी अवकाश रहता ।
इस प्रवृत्तिके लिये मुझको उत्साहित करनेवाले गुजरात पुरातत्त्व संशोधन मंदिरके मंत्री परीख रसिकलाल छोटालाल हैं जिनके विद्याप्रेमको मैं नहीं भूल सकता ।
संवत् १९७८ पौष
वदि ५ भावनगर.
लेखकसुखलाल संघजी.
1 योगविंशिका गा०५, ६।
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कुंरपाल सोणपाल प्रशस्ति ।
( लेखक-बनारसी दास जैन, एम० ए०, ओरियंटल कालेज, लाहोर.)
१. सन १९२० में एस० एस० जैन कानफ्रेन्स की तरफ से इन्दौर वासी सेठ केसरी चन्द भण्डारी ने मुझे लिखा कि उक्त कान्फ्रेन्स का जो प्राकृत कोश बन रहा है आप उसे देखकर उस के विषय में अपनी तथा अन्य प्राकृत विद्वानों की सम्मति लेकर लिखे । इस सम्बन्ध में मुझे उस साल कई नगरों में जाना पड़ा । जब मैं आगरे में था तो मेरा समागम पं० सुखलालजी से हुआ, उन्हों ने मुझे बतलाया कि यहां के मन्दिर में एक नया शिला लेख निकला है 1 जिसको अभी किसी ने नहीं देखा। मैं मनि प्रतापविजयजी को साथ लेकर उसे देखने गया। परन्त उस समय छाप उतारने की सामग्री विद्यमान न थी इस लिये उस समय मैं वहां अधिक ठहरा भी नहीं क्योंकि लेख को देखने के दो तीन घंटे पीछे मैं वहां से चल पड़ा था।
२. फिर अप्रैल सन १९२१ में मैं पंजाब यूनिवर्सिटी के एम. ए. तथा बी. ए. क्लासों के संस्कृत विद्यार्थियों को लेकर कलकत्ता, पटना, लखनऊ आदि बडे बडे नगरों के अजायब घर (Museums) देखने जा रहा था, तब आगरे में भी ठहरा और उपरोक्त शिलालेख की छाप तय्यार की, परन्तु अब वहां न तो पं. सुखलालजी थे न ही मुनि प्रतापविजयजी थे । बाबू दयालचन्दजी भी कारण वश बाहिर गए हुए थे। इन के अतिरिक्त और कोई श्रावक मुझ से परिचित न थे इसलिये उस वक्त वह छाप मुझ को न मिल सकी । अब कलकत्ता निवासी श्रीयुत बाबू पूरणचन्द नाहर द्वारा मैं ने वह छाप प्राप्त की है और उसी के आधारपर पाठकों को इस शिलालेख का परिचय दे रहा हूं।
३. यह लेख लाल पत्थर की शिला पर खुदा हुआ है जो लग भग दो फुट लम्बी और दो फुट चौड़ी है। लेख खोदने से पहिले शिला के चारों और दो दो इंच का हाशिया ( margin ) छोड कर रेखा डाल दी गई है। रेखा के बाहिर ऊपर की तरफ " पातसाहि श्री जहांगीर " उभरे हुए अक्षरों में खुदा हुआहै । बाकी का सारा लेख गहिरे अक्षरों में खुदा हुआ है। रेखाओं के अन्दर लेख की ३३ पंक्तियां हैं मगर उन में लेख समाप्त न हो सका इस लिये रखाओं के बाहिर नीचे दो पंक्तयां (नं ३४ और ३८) दाई ओर क पंक्ति ( नं० ३५ )
और बाई ओर दो पंक्तियां [ नं० ३६-३७ ] और खोदी गई हैं। शिला के दाई ओर नीचे का कुछ भाग टूट गया है जिस से लेख की पंक्ति २८-३४ और ३८ के अन्त के आठ नौ अक्षर
और पंक्ति ३५ के आदि के १४, १५ अक्षर टूट गए हैं । इस से कुँवरपाल सोनपाल के उस समय वर्तमान परिवार के प्रायः सब नाम नष्ट हो गए हैं । पंक्ति ३६-३७ के भी कुछ अक्षर ढ़े नहीं गए।
1 मन्दिर की एक कोठडी में बहुत से पत्थर पडे थे। जब अप्रैल मई सन् १९२० में उन पत्थरों को निकालने लगे तो उन में से यह लेख भी निकला । अब यह शिला लेख मन्दिर में ही पड़ा है।
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[ खंड २
,
४. लेख के अक्षर शुद्ध जैन लिपि के हैं जो कि हस्त लिखित पुस्तकों ( Mss. ) में पाए जाते हैं । पुस्तकों की भांति लेख की आदि में 'र्द ० ' यह चिन्ह है जो शायद 'ओम् शब्द का द्योतक है, क्योंकि प्राचीन शिलालेख तथा ताम्रशासनों में 'ओम्' के लिये कुछ ऐसा ही चिन्ह हुआ करता था । ' च ' और ' व ' की आकृति बहुत कुछ मिलती जुलती है । पंक्ति ६ और में मार्ग और वर्ग शब्दों में 'ग' के लिये ' ग्र' 1 चिन्ह आया है जो जैन लिपि का खास चिन्ह है |
८
२६ ]
जैन साहित्य संशोधक
५. वर्णविन्यास ( Spelling ) में विशेषता यह है कि “ परसवर्ण " कहीं नहीं किया गया अर्थात् स्पर्शीय अक्षरों के पूर्व नासिक्य के स्थान में सर्वदा अनुस्वार लिखा गया है जैसे पंक्ति २ में पङ्कज, बिम्ब, चन्द्र के स्थान में पंकज, बिंब, चंद्र लिखे हैं । इसी प्रकार श्लोकार्ध वा श्लोक के अन्त में म् के स्थान में अनुस्वार ही लिखा है जैसे पंक्ति १६ में अठारहवें अर्धश्लोक के अन्त में ' श्रुत्वा कल्याणदेशनां ।' पंक्ति २० अर्धश्लोक २१ 'वित्तबीजमनुतरं । ' पंक्ति २२ श्लोकान्त २३ ' चित्तरंजकं । ' पंक्ति २६ श्लोकान्त २८ ' कारितं ।' इत्यादि । पंक्ति १
त्रिंशत के स्थान में षट्त्रिंशत् लिखा है । विराम का चिन्ह ' । ' श्लोकपादों के अन्त में भी लगाया है, कहीं कहीं पंक्ति के अन्त में अक्षर के लिये पूरा स्थान न होने से विराम लिख दिया है जैसे पंक्ति ७, ९, १२, ११ आदि में ।
६. पट्टावलि को छोड़ कर बाकी तमाम लेख श्लोकबद्ध है । इसकी भाषा शुद्ध संस्कृत है परन्तु पंक्ति १५ में पति शब्द का सप्तमी एक वचन ' पतौ' लिखा है जो व्याकरण की रीति ' पत्यौ ' होना चाहिये था । यद्यपि पंक्ति १६ में 'कारिता ' और पंक्ति २६ में ' कारितं ' शब्द आए हैं तथापि पंक्ति ३२ में कारिता के लिये ' कारापिता ' लिखा है । यह शब्द जैन लेखकों के संस्कृत ग्रन्थों में बहुधा पाया जाता है और प्राकृत से संस्कृत प्रयोग बना है । पंक्ति १७ में प्राकृत शैली से आनन्द श्रावक का नाम ' आणंद ' लिखा है और पंक्ति ११ में 'उत्सुकौ' के स्थान में उच्छुकौ ' शब्द प्रतीत होता है ।
७. यह प्रशस्ति जहांगीर बादशाह के समय की है। विक्रम सं० १६७१ में आगरा निवासी कुंरपाल सोनपाल नाम के दो भाइयों ने वहां श्री श्रेयांस नाथ जी का मन्दिर बनवाया था जिस की प्रतिष्ठा अंचल गच्छ के आचार्य श्री कल्याणसागर जी ने कराई थी । उस समय यह प्रशस्ति लिखी गई । मन्दिर की प्रतिष्ठा के साथ ४५० अन्य प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा भी हुई थी जिन में से ६, ७ प्रतिमाओं के लेख बाबू पूर्णचन्द नाहर ने अपने " जैन लेख संग्रह में दिये हैं । (देखिये उक्त पुस्तक, लेख नं० ३०७ - ३१२, ४३३ ) । इन लेखों से कुंरपाल सोनपाल के पूर्वजों का कुछ हाल मालूम नहीं होता लेकिन प्रशस्ति में उन की वंशावलि इस प्रकार दी है ।
""
1 डाक्टर वेबर ( Weber ) इसको ग्र ( ग्र) पढते हैं जैसा कि बर्लिन नगर के जैन पुस्तकों की सूचि के पृष्ट ५७६ पर आए pograla. शब्द से स्पष्ट प्रतीत होता हैं, वास्तव में यह शब्द पोग्गल ( Poggla. ) हैं । इसी प्रकार पृष्ठ ५२५ पर मियग्गाम को miyagrama. ( मियग्राम ) लिखा हैं। Weber's datalogue of Crakrit Mss in the Royal Lidrary at Berlin.
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अंक १]
कुरपाल सोणपाल प्रशस्ति
[ २७
mpurnomwwwwwe
श्रीश्रंग
वेसराज
श्रीरंग
राजपाल
जीणासीह
मल्लसीह
ऋषभदास (अपर नाम रेषा, भार्या रेषश्री) प्रेमन (वा पेमा)
कुंरपाल
सोनपाल
?
घेतसी
नेतसी
( पुत्री ) जादो कुंरपाल सोनपाल ओसवाल जाति के लोढा गोत्रीय थे । इन को जहांगीर बादशाह का अमात्य ( मंत्री) करके लिखा है। जहांगीर के राज्य सम्बन्धी एक दो फारसी किताबें देखीं परन्तु उन में इन का नाम उपलब्ध नहीं हुआ ।
८. मूर्तियों के लेखों से मालूम होता है कि कुंरपाल सोनपाल के वंश को गाणी वंश कहते थे और इन लेखों से उन के परिवार के कुछ नामों का भी पता चलता है जो प्रशस्ति में पढ़े नहीं जाते जैसे किः-- ऋषभदास के कुंरपाल सोनपाल के सिवाय रूपचंद, चतुर्भुज, धनपाल, दुनीचंद आदि और भी पुत्र थे।
प्रेमन की भार्या का नाम शक्ता देवी था।
षेतसी की भार्या का नाम भक्ता देवी था उन का पुत्र० सांग था । ९. इस के अतिरिक्त " जैनसाहित्य संशोधक " खण्ड १ अंक ४ में जो सं.१६६७ का " आगरा संघनो सचित्र सांत्वसरिक पत्र" प्रकाशित हुआ है, उस में कुछ नाम प्रशस्ति के नामों से मिलते हैं परन्तु यहसत निश्चयपूर्वक नहीं कही जा सक्ती कि दोनों लेखों में एक ही व्यक्ति का उल्लेख है या भिन्न २ काः
1 येह लेख पैरेग्राफ १३ मे उध्दृत किये गए हैं ।
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२८ ]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
सांवत्सरिक पत्र पंक्ति ३० साः पेमन, संः नेतसी " " " ३३ साः षेतसी
" " ३४ साः नेतसी, संः रीषभदास " " " ३५ " रीषभदास सोनी
१०. प्रशस्ति के समय के संबंध में यह बात बडी ध्यान देने योग्य है कि प्रशस्ति में तो साफ तौर पर वैशाख शुदि ३, विक्रम सं० १६७१ गुरुवासर ( बृहस्पतिवार ) लिखा है परंतु मूर्तियों के लेखों में वैशाख शुदि ३ विक्रम सं. १६७१ शनि ( सनीचर वार ) लिखा है 1 । यह ऐसा विरोध है कि इस के लिये कोई हेतु नहीं दिया जा सक्ता; क्योंकि एक ही स्थान पर एक ही तिथि में वारभेद कैसे हो सक्ता है । यदि तृतीया वृद्धि तिथि होती तो भी कह सक्ते कि वृहस्पति वार की रात्रि के पिछले पहर में और शनि को दिन के पहिले पहर में तृतीया थी। मगर तृतीया वृद्धि तिथि न थी जैसा कि इंडियन् कैलेंडर में दी हुई सारिणी ( Tables ) के अनुसार गाणत करने पर गत संवत् ( Expired ) १६७१ वैशाख सुदि ३ शनिवार २ अप्रैल सन् १६१४ (Old Style ) को आती है और उस दिन वह तिथि १७ घडी के अनुमान बाकी थी । रोहिणी नक्षत्र सूर्योदय से १३ घडी पीछे लगा । वैशाख वदि १३ ( अमान्त मासों से चैत्र वदि १३ ) वृद्धि तिथि आती है ।
११. प्रशस्ति में दी हुई अंचल गच्छ की पट्टावलि से ज्ञात होता है कि उस गच्छ के प्रवर्तक आचार्य, श्री आर्यरक्षित सरि, भगवान महावीर स्वामी से ४८ वें पट्ट पर बैठे थे और श्री कल्याण सागर मार गच्छ के १८ वें आचार्य थे। अंचल गच्छ की पट्टावलि डा. भांडारकर और डा. ब्यूलर ने भी छापी है। इन में डा. भांडारकर तो पांचवें आचार्य श्री सिंहप्रभ सरि का नाम छोड़ गए हैं 3 और डा. ब्यूलर छठे आचार्य श्री अजितसिंहसूरि अपरनाम श्री जिनसिंह सूरि का नाम छोड़ गए हैं 4 । हालां कि जिन आधारों परसे उन्हों ने यह पट्टावलि छापी है उन में साफ़ तौर पर उक्त दोनों आचार्यों के नाम यथास्थान दिये हुए हैं। 5
1 जैन लेख संग्रह, लेख नं. ३०८-११ " श्री मत्संवत १६७१ वर्षे वैशाष सुदि ३ शनौ " -2 The Indian Calendar dy Sewel and Balkrishna Dikshit, 1896.
3 Report on the Search for Sanskrit manuscripts for the year 1883-84 Bomday 1887 p. 130
4 Epigraphia Indica p.39 5 भांडारकर-उक्त पुस्तक पृष्ठ ३२१ ४८ श्रीआर्यरक्षितसूरिः चंद्रगच्छे श्रीअंचलगच्छस्थापना शुद्धविधिप्रकाशनात् सं. ११५९ ४९ श्रीविजयसिंह सूरिः ५० श्रीधर्मघोष सूरिः - ५१ श्रीमहेंद्रसिंह मूरिः ५२ श्रीसिंहप्रभ सूरिः ५३ श्रीअजितसिंहसूरिः पारके चित्रावालगच्छतो निर्गता सं. १२८५ तपगच्छमतं वस्तुपालतः
गच्छस्थापना
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अक १ ]
कुंरपाल सोमपाल प्रशस्ति
[ २९
१२. अंत में मैं यह निवेदन करना चाहता हूं कि इस प्रशस्ति के संबंध में दो बातों की अधिक खोज आवश्यक है एक तो यह कि मुगल बादशाहों के इतिहास में कुं[ व ] पाल और सोनपाल या उन के पिता का नाम ढूंडना चाहिये, और दूसरी यह कि वैसाख सुदि २ को बृहस्पति और शनि क्योंकर हो सक्ते हैं; इस का समाधान करना चाहिये ||
[ - १३. मूर्तियों के लेख: जैन लेख संग्रहः पृष्ठ ७८, ७९, १०५
नं० २०७. सम्बत १६७१ आगरावास्तव्य ओसवाल ज्ञातीय लोढा गोत्रे गाणी वंसे सं० ऋषभदास भार्या रेष श्री तत्पुत्र संघराज सं० रूपचन्द चतुर्भुज सं० धनपालादि युते श्री मदंचलगच्छे पूज्य श्री ५ धर्ममूर्ति सूरि तत् पट्टे पूज्य श्री कल्याणसागर सूरीणामुपदेशेन विद्यमान श्री विसाल जिनबिंब प्रति ....
नं० ३०८. संक्त १६७१ वर्षे ओसवाल ज्ञातीय लोढा गोत्रे गाणी वंसे साह क्रुरपाल 1 सं० सोनपाल प्रति० अंचलगच्छे श्री कल्याणसागर सूरीणामुपदेशेन वासुपूज्यबिंबं प्रतिष्ठापितं ॥ नं० ३०९. ॥ श्रीमत्संवत १६७१ वर्षे वैशाष सुदि ३ शनैौ आगरा वास्तव्यो सवाल ज्ञातीय लोढा गोत्रे गावंसे संघपति ऋषभदास भा० रेषश्री पुत्र सं० कुंरपाल सं० सोनपाल प्रवरौ स्वपितृ ऋषभदास पुन्यार्थ श्रीमदंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री पदमप्रभु जिनर्विबं प्रतिष्ठापितं सं० चागाकृतं ॥
नं० ३१०. श्रीमत्संवत १६७१ वर्षे वैशाष सुदि ३ शनौ श्री आगरावास्तव्य उप ज्ञातीय लोढा गोत्र सा० प्रेमन भार्या शक्तादे पुत्र सा० घेतसी लघुभ्राता सा० नेतसी सुतेन श्री - मदंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री वासपूज्यबिंबं प्रतिष्ठापितं सं० कुंरपाल सं० सोनपाल प्रतिष्ठितं ।
ब्यूलर - उक्त ( Epig. Ind. ) Jaina inscriptions from Satrunjaya, Nos. XXI, XXVII, और Cv.
XXI यह लेख स० १-६७५ का है
श्रीसिंहप्रभसूरीशाः सूरयोऽजितसिंहकाः । श्रीमद्देवेन्द्रसूरीशाः श्रीधर्मप्रभसूरयः ॥ ८ ॥
श्रीसिंहतिलकाव्हाश्च श्रीमहेन्द्रप्रभाभिधाः । श्रीमन्तो मेरुतुङ्गाख्या बभूवुः सूरयस्ततः ॥ ९ ॥ XXVII यह लेख सं० १६८३ का है
तेभ्यः क्रमेण गुरवो जिनसिंहगोत्राः बभूवुरथ पूज्यतमा गणेशाः ॥ देवेन्द्रसिंहगुरवोऽखिललोकमान्याः धर्मप्रभा मुनिवरा विधिपक्षनाथाः ॥ ९ ॥ पूज्याश्च सिंहतिलकास्तदनु प्रभूत - भाग्या महेन्द्रविभवा गुरवो बभूवुः ॥ चक्रेश्वरी भगवती विहितप्रसादाः श्रीमेरुतुङ्गसूरो नरदेववन्द्याः ॥ १० ॥ CV यह लेख सं १९२१ का है । इस में आचार्य कल्याणसागर तक लेख नं XXVII के ही
श्लोक उद्धृत किये हैं । इन लेखों की भाषा जैन संस्कृत है ।
1 सिवाय लेख ४३३ के और सब जगह कुंर को कुंर या क्रूर पढा है ।
2 प्रशस्ति में तथा मूर्ति के अन्य लेखों मे नेतसी ।
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३०]
जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
नं० ३११. श्रीमत्संवत् १६७१ वैशाष सुदि ३ शनौ श्री आगरानगरे ओसवाल ज्ञाती लोढा गोते-गावंसे सा० पेमन भार्या श्री शक्तादे पुत्र सा० षेतसी भा० भक्तादे पुत्र सा०-सांगश्रा अंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री विमलनाथ बिंब प्रतिष्ठापितं सा० Qरपाल....।
नं. ३१२. [सं० १६७१ ] ॥ संघपति श्री कुंरपाल सं०-सोनपालैः स्वमातृपुन्यार्थ श्री अंचलगच्छे पूज्य श्री ५ श्री धर्ममूर्तिसूरि पट्टाम्बुजहंस श्री ५ श्री कल्याणसागरसरीणामुपदेशेन श्रीपार्श्वनाथबिंब प्रतिष्ठापितं पूज्यमानं चिरं नंदतु ॥
नं० ४३३. श्रीमत्संवत १६७१ वर्षे वैशाष सुदि ३ शनौ श्री आगरावास्त-योसवाल ज्ञातीय लोढा गोत्रे गावं-ज्रा स० ऋषभदास भार्या रेषश्री तत्पुत्र श्री कुंरपाल सोनपाल संघाधिपे स्वानुजवर दुनीचंदस्य पुण्यार्थ उपकाराय श्री अंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री आदिनाथबिंब प्रतिष्ठापितं ॥ ]
प्रशस्ति की नकल
( नोट:- [ ] इन चिन्हों में दिये अक्षर टूट गए हैं या साफ नहीं पढे जाते )
॥ पातसाहि श्री जहांगी[२] ॥ १. ॥ ॐ ॥ श्री सिद्धेभ्यो नमः ॥ स्वस्ति श्री विष्णुपुत्रो निखिलगुणयुतः पारगो वीत
रागः । पायाद् वः क्षीणका सुरशिखरिसमः क [ल्प]२. तीर्थप्रदाने ॥ श्री श्रेयान् धर्ममूर्ति विकजनमन: पंकजे बिम्बlभानुः । कल्याणाम्भोधिचन्द्रः
सुरनरनिकरैः सेव्य [ मा]३. नः कृपालुः ॥ १ ॥ ऋषभप्रमुखाः सार्वा । गौतमाद्या मुनीश्वराः । पापकर्मविनिर्मुक्ताः
क्षेमं कुर्वन्तु सर्वदा ॥ २ ॥ कुंर४. पालस्वर्णपालौ । धर्मकृत्यपरायणौ । स्ववंशकुजमार्तण्डौ । प्रशस्तिलिख्यते तयोः ॥ ३॥
श्रीमति हायने रम्ये चन्द्रर्षिरस५. भूमिते १६७१ । षड् त्रिंशत्तिथिशाके १९३६ विक्रमादित्यभूपतेः॥ ४ ॥राधमासे वस
तत्तौ शुक्लायां तृतीयातिथौ । युक्ते तु ६. रोहिणीभेन निर्दोषे गुरुवासरे ॥ ५ ॥ श्री मदञ्चल गच्छाख्ये । सर्वगच्छावतंसके ।
सिद्धान्ताख्यातमार्गेण । राजिते विश्वविस्तृते । ६ । उग्रसे1 लेख में विव 2 विसर्ग खोदकर काटी गई है जिस से विसम सा प्रतीत होता है । 3 षट् चाहिये। 4 "ल" खोदने से रह गया था। पीछे च ग के नीचे खोदा गया है। 5 ग्ग के लिये प्र चिन्ह लिखा गया है।
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अंक १]
कुरपाल सोणपाल प्रशस्ति
[३१
Imaanuman
७. नपुरे रम्ये निरातङ्करसाश्रये । प्रासादमन्दिराकीणे । सद्ज्ञातौ ह्युपकेशवे । ७ । लोढा ___ गोत्रे विवस्वाँस्त्रिजगति सुयशा ब्रह्मच८. र्यादियुक्तः । श्रीश्रङ्गख्यातनामा गुरुवचनयुतः कामदेवादितुल्यः । जीवानीवादितत्वे पर
रुचिरमतिर्लोकवर्गेष याव- जीया९. श्चन्द्रार्कबिम्बं परिकरभृतकैः सेवितस्त्वं मुदा हि । ८ । लोढा सन्तानविज्ञातो । धनराजो
गुणान्वितः । द्वादशव्रतधारी च । शुभ१०. कर्मणि तत्परः । ९ । तत्पुत्रो वेसराजश्च । दयावान् सुजनप्रियः । तूर्यव्रतधरः श्रीमान्
__चातुर्यादिगुणैर्युतः । १० । तत्पुत्रौ द्वा११. वभूतां च। सुरागावर्धितौ सदा। जेठू श्रीरङ्गगोत्रौ च । जिनाज्ञापालानोच्छुकौ । ११ ।
तौ जाणासीहमल्लाख्यौ नेट्वात्मजौ बभूवतु१२. : । धर्मविदौ च दक्षौ च । महापूज्यौ यशोधनौ। १२ । आसीच्छ्रीरङ्गजो नूनं जिन___ पादार्चने रतः । मनीषी सुमना भव्यो राजपा१३. ल उदारधीः । १३ । आर्या । धनदौ चर्षभदास । पेमाख्यौ विविधसौख्यधनयुक्तौ ।
__ आस्तां प्राज्ञौ दौ च तत्त्वज्ञौ तौ तु तत्पु१४. त्रौ। १४ । रेषाभिधस्तयोर्येष्ठः । कल्पद्रुरिव सर्वदः । राजमान्यः कुलाधारो ।
दयालुर्धर्मकर्मठः । १५ । रेषश्रीस्तत्प्रिया १५. भव्या । शीलालङ्कारधारिणी । पतिव्रता पतौ3 रक्ता । सुलशारेवतीनिमा । १६ । श्री
पद्मप्रभबिम्बस्य नवीनस्य जिनाल१६. ये । प्रतिष्ठा कारिता येन सत्श्राद्धगुणशालिना4 । १७ । ललौ तूर्यव्रतं यस्तु । श्रुत्वा
कल्याणदेशनां । राजश्रीनन्दनः १७. श्रेष्ठ । आनन्द श्रावकोपमः । १८ । तत्सूनुः कुंरपालः । किल विमलमतिः स्वर्णपालो
द्वितीय- श्चातुर्यौदार्यधैर्यप्रमु१८. खगुणनिधिर्भाग्यसौभाग्यशाली। तौ द्वौ रूपाभिरामौ । विविधजिनवृषध्यानकृत्यैकनिष्ठौ ।
त्यागैः कर्णावतारौ निज१९. कुलतिलको वस्तुपालोपमाहौँ । १९ । श्री जहांगीरभूपालामात्यौ धर्मधुरन्धरौ । धनिनौ
पुण्यकर्तारौ । विख्यातौ भ्रा२०. तरौ भुवि । २० । याभ्यामुप्तं नवक्षेत्रे । वित्तबीजमनुत्तरम् । तौ धन्यौ कामदौ लोके ।
लोढागोत्रावतंसकौ । २१ । अवा
1 च्छ के लिये जैन लिपि का चिन्ह । 2 लेख में आसीझीरंग० लिखा है। 3 पस्यौ होना चाहिये था। 4 सच्श्राद्ध. या सच्छाद्ध होना चाहिये था। 5 लेख में आणंद० लिखा है।
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जैन साहित्य संशोधक
[खंड २
mnnnnnnnirmanirmaamannaamananewmananamangaonmanner
२१. प्य शासनं चारु । जहांगीरपतेर्ननु । कारयामासतुर्म । क्रियासर्व सहोदरौ । २२ ।
शाला पोषधपूर्वा वै यकाभ्यां सा1 २२. विनिर्मिता । अधित्यकात्रिकं यत्र राजते चित्तरञ्जकम् । २३ । समेतशिखरे भव्ये
शत्रुञ्जयेर्बुदाचले । अन्येष्वपि च तीर्थेषु गि२३. रिनारिगिरीश तथा । २४ । सङ्घाधिपत्यमासाद्य । ताभ्यां यात्रा कृता मुदा । महध्दा
सर्वसामग्र्या । शुद्धसम्यक्त्त्वहेतवे । २५ । तुरङ्गा२४. णां शतं कान्तं । पञ्चविंशतिपूर्वकम् । दत्तं तु तीर्थयात्रायै । गजानां पञ्चविंशतिः
।२६ । अन्यदपि धनं वित्तं । प्रत्तं संख्यातिगं खलु २५. अर्जयामासतुः कीर्ति-। मित्थं तौ वसुधातले । २७ । उत्तुङ्ग गगनालम्बि । सच्चित्रं
सध्वजं परम् । नेत्रासेचनकं ताभ्यां । युग्मं चैत्य२६. स्य कारितम् । २८ । अथ गद्यम् । श्री अञ्चलगच्छे । श्री वीसदष्टचत्वारिंशत्तमे पट्टे ।
श्रीपावकगिरौ श्रीसीमन्धरजिनक्चसा श्रीचक्रे [ श्वरीद ]२७. त्तवराः । सिद्धान्तोक्तमार्गप्ररूपकाः। श्रीविधिपक्षगच्छसंस्थापकाः । श्रीआर्यरक्षित
सूरय-१ । स्तत्पदे श्रीजयसिंहसूरि [ २ श्री धर्म घो]२८. पसूरि ३ श्रीमहेन्द्रसूरि ४ श्रीसिंहप्रभसार ५ श्री जिनसिंहसूरि ६ श्रीदेवेन्द्रसिंहमूरि
७ श्रीधर्मप्रभसूरि ८ श्री[ सिंहतिलकसू ]२९. रि ९ श्रीमहेन्द्रप्रभमूरि १० श्रीमेरुतुङ्गसूरि ११ श्रीजयकीर्तिसूरि १२ । श्रीजय
केशरिसूरि १३ श्रीसिद्धान्तसागर [ सूरि १४ श्री भावसा ] ३०. गरसूरि १५ श्रीगुणनिधानसूरि १६ श्रीधर्ममूर्तिसूरय १७ स्तत्पट्टे सम्प्रति विराज
मानाः । श्रीभट्टारक पुरवराः [--------]4 ३१. णयः श्रीयुगप्रधानाः । पूज्य भट्टारक श्री ५ श्री कल्याणसागर सूरय १८ स्तेषामुप
देशेन श्रीश्रेयांसजिनबिम्बा [ दीना ------]5 ३२. कुंरपालसोनपालाभ्यां प्रतिष्ठा कारापिता । पुनः श्लोकाः । श्रीश्रेयांसजिनेशस्य बिम्ब
स्थापितमुत्तमं प्रति [ --------] ३३. णामुपदेशतः । २९ । चत्वारि शतमानानि । सार्धान्युपरि तत्क्षणे । प्रतिष्ठितानि
बिम्बानि । जिनानां सौख्यकारि [ णाम् । ३०।----]
1 सा शब्द का I चिन्ह २२ वीं पंक्ति में है। 2 गिरिनार० चाहिये था क्यों कि यह शब्द गिरिनगर का अपभ्रंश है। 3 चैत्ययोः चाहिये था। 4 यहां से सात आठ अक्षर टूट गए हैं। 5 यहां से पांच अक्षर टूट गए हैं। 6 सार्दा० लिखा है ।
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[३३
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अक १]
कुंरपाल सोनपाल प्रशस्ति ३४. तु लेभाते । प्राज्यपुण्यप्रभावतः देवगुवोंः सदा भक्तौ । शश्वती नन्दतां चिरम् । ३१ ।
मथ तयोः परिवारः । सङ्घराज [ ----1--1 ३५. - - - - - - । - - - - - - - - । - - - - - - - -। ३२ । सूनवः ___ स्वर्णपाल - । - - - - [ चतुर्भुज ] - - - - - - - - [पुत्री ] युगलमुत्तमम्
। ४३ । प्रेमनस्य त्रयः पु[ श्राः - - -] ३६. षेतसी तथा । नेतसी विद्यमानस्तु सच्छोलेन सुदर्शनः। ३४ । धीमतः सङ्घराजस्व ।
तेजस्विनो यशस्विनः । चत्वारस्सनुजन्मान ------ मताः ३५कुंरालस्य स३७. दार्या । - - - - - - - - । - - - - - - - - । - - - - पातप्रिया
। ३६ । तदङ्गजास्ति गभ्भीरा जादो नाम्नी [स]- - - । --------
ज्येष्ठमळो गुणाश्रयः । ३७ । ३८. सङ्घश्रीसुलसश्रीर्दा । दुर्गाश्रीप्रमुखैनिजैः । वधूजनैयुतौ भाता । रेषश्री नन्दनी सदा
। ३८ । भूमण्डलसमारङ्ग । सिन्ध्वर्कयुक्त [- - - । - - - - - - - - - - - - - - - - - । ३८] 2
लेख का सारांश (लेख की भाषा सरल होने के कारण पूरा अनुवाद नहीं दिया ) कि १-३ मंगलाचरण । , ४-५ प्रशस्ति का रचना काल । विक्रम संवत् चन्द्र ऋषि रस भू अर्थात् १६७१,शक
संवत् १५३६, राध ( वैशाख ) मास, वसंत ऋतु, शुक्ल पक्ष, तृतीया तिथी, गुरुवार रोहिणी नक्षत्र । ६ अंचल गच्छ की प्रशंसा ।
७ उप्रसेनपुर (आगरा नगर ) की शोभा का वर्णन । ८-९ उपकेश (ओसवाल ) ज्ञातीय, लोढा गोत्रीय, श्रीमंग की स्तुति । १० उख के पुत्र वेसराज के गुणों का वर्णन ।
११ बेसराज के पुत्र जेठू और श्रीरंग का वर्णन । ११-१२ जेठू के पुत्र जीणाहि और मल्ल[सीह ] का वर्णन ।
१२ श्रीरंग का पुत्र राजपाल, तिस का वर्णन | १३ राजपाल की राजदरबार में बड़ी प्रतिष्ठा थी, और उस के ऋषभदास और
पेमन दो पुत्र थे।
१४ उन में ऋषभदास ( अपरनाम रेषा) बडा था । इस की भार्या रेषश्री । , १५-१६ ऋषभदास ने मंदिर में श्रीपप्रप्रभ के नये बिंब की प्रतिष्ठा कराई थी। और यह निबय पूर्वक नहीं कहा जा सका कि पंक्ति ३४ के अंत और पंक्ति ३५ के आदि में कितने अक्षर
१ प्रतीत होता है कि प्रशस्ति यहाँ समाप्त हो गई।
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३४ ]
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जैन साहित्य संशोधक
[ खण्ड २
किसी आचार्य की कल्याणकारी देशनो को सुनकर राजश्री के पुलने ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया ।
१७-१८ ऋषभदास के पुत्र कुंरपाल स्वर्णपाल ( सोनपाल ) । तिन के गुणों का वर्णन | दान देने में उन की कर्ण से उपमा |
१९- २० ये जहांगीर बादशहा के अमात्य ( मंत्री ) थे; बडे धनवान थे; सदा शुभकाम करते और पुण्य क्षेत्रों में धन लगाते थे ।
२१ जहांगीर की आज्ञा से दोनों भाई धर्म का काम करते थे ।
२२-२३ उन्हों ने तीन भवन वाली एक पौषधशाला बनवाई | संघाधिपति बनकर - शिखर, शत्रुंजय, आबू, गिरनार तथा अन्य तीर्थों की यात्रा की ।
२४ १२५ घोडे, २५ हाथी यात्रा के लिये जुदा कर छोडे थे ।
२५ उन्हों ने दो चैत्य बनवाए जो बहुत ही ऊंचे, चित्रों और झंडों से सजे हुये थे ।
२६ अंचल गच्छ की उत्पत्ति | भगवान महाबीर से ४८ वें पट्ट पर श्री आर्य रक्षित सूरि हुए । उन्हों ने श्री सीमंधर स्वामी की आज्ञा पूर्वक चक्रेश्वरी देवी से वर प्राप्त करके विधिपक्ष अर्थात् अंचलगच्छ चलाय' ।
२७-३० पट्टावलि |
३१-३२ कुंरपाल सोनपालने श्री कल्याणखागरके उपदेश से श्रेयांस नाथजी का मंदिर बनवाया ।
३३-३४ और उसी समय ४५० अन्य प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हुई। इस से उन की बडी कीर्ती हुई।
३५ संघराजे ... बेटे सोनपाल... चतुर्भुज... दो बेटियां । प्रेमन के तीन पुत्र... ३६ वेतसी और नेतसी जो शीलपालने से मानो सुदर्शन ही विद्यमान था । बुद्धिमान, तेजस्वी और यशस्वी संघराज के चार बेटे थे ।
३७ कुंरपाल की भार्या.. . डंख की पुत्री का नाम जादो था । जेष्ठमल्ल गुणों
का धाम
......
"
३८ रेवश्री के दोनो पुत्र ( कुंरपाल सोनपाल ) अपनी पुत्रवधुओं संघश्री सुलसश्री, दुर्ग श्री आदि के गुणों से शोभा पाते रहें । आशीर्वाद ( जिस के बहुत से अक्षर टूट गए है ) |
१ कल्याणदेशना से शायद श्रीकल्याणसागर जी के उपदेश का आशय हो ।
२ शायद ऋषभदास की माता का नाम राजश्री या ।
३ महाविदेह क्षेत्र में वर्तमान तीर्थकर ।
४ इन प्रतिमाओं का पता लगाना चाहिये ।
५ यहाँ से लेव का सम्बंध ठीक नहीं बैठता ।
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अक १
कुरपाल सोनपाल प्रशस्ति
[टिप्पणी-कुंवरपाल सेनपालकी प्रशंसामें किसीएक कविने हिन्दी भाषामें एक कविता लिखी हैबो पाटणके किसीएक भंडारमें हमारे देखनेमें आई थी और जिसकी नकल हमने अपनी नोटबुकमें कर ली थी। उसका संबंध इस लेखके साथ होनेसे हम यहां उसे प्रकट किये देते हैं ।-संपादक ।
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कोरपाल सोनपाल लोढा गुणप्रशंसा
कवित्त सगर भरथ जगि, जगडु जावड भये । पामराय सारंग, सुजश नाम धरणी ।। १ । सेजे संघ चलायो, सुधन सुखेत बायो । संघपतिपद पायो, कवि कोटि किति बरणी ।। २ लाहनि कडाहि ठाम, ठांम दुग भांन कहि । आनंद मंगल घरि परि गावे घरणी ।।३ बस्तपाल तेजपाल, हुये रेखचंद नंद । कोरपाल सोनपाल, कीनी भली करणी ।। ४ .. कहि लखमण लोढा, दूनीकुं दिखाइ देख | लछिको प्रमान जोपे, एसो लाह लीजिये ।। ५ आन संघपति कोउ, संघ जोपे कीयो चाहे । कोरपाल सोनपाल,-को सो संघ कीजिये ।। ६ सबल राय बिभार, निबल थापना चार । बाधा गइ बंदि छोर, अरि उर खाजको ।।. . अडेराय अवठंभ, खितीपती रायखंभ । मंत्रीराय आरंभ, प्रगट सुभ साजको ।। ८ कषि कहि रूप भूप, राइन मुकटमनि । त्यागी राई तिलक, बिरद गज पाजको ।। ९ . हय गय हेमदान, मांन नंदकी समान | हिंदु सुरताण, सोनपाल रेखराजको ॥ १० सैन बर आसनके, पैजपर पाखनके । निजदल रंजन, भंजन पर दलको ॥ ११ मदमतवारे, विकरारे,अति भारे भारे । कारे कारे बादरसे, बाखव सुजलके ।। १२ । कवि कहि रूप, नृप भुपतिनिके सिंगार । अति वडवार ऐरापति समबलके ।। १३ रेखराजनंदकोर पाल सोनपालचंद । हेतवंनि देत ऐसे हाथिनक हलके ।। १४
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सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत ।
(ग्रन्थ परिच य)
[ लेखक-श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी.] [श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीकी देखरेखमें बम्बईसे जो माणिकचन्द्र--दिगम्बर जैनग्रन्थमाला प्रकट होती है, उसमें अभी हाल ही सोपदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत नापका एक अमूल्य ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है । इस प्रन्थके कर्ता और विषय आदिका विस्तृत परिचय करानेके लिए प्रेपीजीने प्रन्थके प्रारंभमें एक पाण्डित्यपूर्ण और अनेक ज्ञातव्य बातोंसे भरपूर सुन्दर प्रस्तावना लिखी है जो प्रत्येक साहित्य और इतिहास प्रेपीके लिए अवश्य पठनीय और मननीय है । इस लिए हम लेखक महाशयकी अनुमति लेकर, जनसाहित्यसंशोधकके पाठकोंके ज्ञानार्थ, उस प्रस्तावनाको अविकलतया यहाँ पर प्रकट करते हैं-संपादक ।]
श्रीमत्सोमदेवसूरिका यह ' नीतिवाक्यामृत' संस्कृत साहित्य-सागरका एक अमूल्य और अनुपम रत्न है। इसका प्रधान विषय राजनीति है। राजा और उसके राज्यशासनसे सम्बन्ध रखनेवाली प्रायः सभी आवश्यक बातोका इसमें विवेचन किया गया है। यह सारा प्रन्थ गद्यमें है और सूत्रपद्धतिसे लिखा गया है । इसकी प्रतिपादनशैली बहुत ही सुन्दर, प्रभावशालिनी और गंभीरतापूर्ण है। बहुत बड़ी बातको एक छोटेसे वाक्यमें कह देनेकी कलामें इसके का सिद्धहस्त हैं । जैसा कि प्रन्यके नामसे ही प्रकट होता है, इसमें विशाल नीतिसमुद्रका मन्थन करके सारभूत अमृत संग्रह किया गया है और इसका प्रत्येक वाक्य इस बातकी साक्षी देता है। नीतिशास्त्रके विद्यार्थी इस अमृतका पान करके अवश्य ही सन्तृप्त होंगे। . यह प्रन्य ३२ समुदेशोंमें x विभक्त है और प्रत्येक समुद्देशमें उसके नामके अनुसार विषय प्रतिपादित है।
प्राचीन राजनीतिक साहित्य। राजनीति, चार पुरुषामिसे दूसरे अर्थपुरुषार्थ के अन्तर्गत है। जो लोग यह समझते हैं कि प्राचीन भारतवासियोंने 'धर्म' और 'मोक्ष' को छोड़कर अन्य पुरुषार्थोकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया, वे इस देशके प्राचीन साहित्यसे अपरिचित हैं। यह सच है कि पिछले समयमें इन विषयोंकी ओरसे लोग उदासीन होते गये, इनका पठन पाठन बन्द होता गया और इस कारण इनके सम्बन्धका जो साहित्य था वह धीरे धीरे नष्टप्राय होता गया। फिर भी इस बातके प्रमाण मिलते हैं कि राजनीति भादि विद्याओंकी भी यहाँ खूब उन्नति हुई थी और इनपर अनेकानेक प्रन्थ लिखे गये थे।
वात्स्यायनके कामसूत्रमें लिखा है कि प्रजापतिने प्रजाके स्थितिप्रबन्धके लिए त्रिवर्गशासन-(धर्म-अर्थ-काम विषयक महाशास्त्र) बनाया जिसमें एक लाख अध्याय थे। उसमेंके एक एक भागको लेकर मनुने धर्माधिकार, बृहस्पतिने अधिकार, और नन्दीने कामसूत्र, इस प्रकार तीन अधिकार बनाये * । इसके बाद इन तीनों विषयोंपर उत्तरात्त
x"समुद्देशश्च संक्षेपाभिधानम"कामसत्रटीका. अ.।
" प्रजापतिर्हि प्रजाः सृष्टा तासां स्थितिनिबन्धनं त्रिर्वगस्य साधनमध्यायानां शतसहस्त्रेणाने प्रोवाच । तस्यैकदेशिकं मनुः स्वायंभुवो धर्माधिकारकं पृथक चकार । बृहस्पीतरर्थििधकारम् । नन्दी सहलेणाध्यायानो पृथक्कामसूत्र चकार ।"-कामसूत्र अ०१।
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अक]
सामदेवसूरिकृत नातिवाक्यामृत
[३७
संक्षिप्त प्रन्योंका निर्माण हुआ। पुराणोंमें भी लिखा है कि प्रजापतिके उक्त एक लाख अध्यायवाले त्रिवर्ग-शासनके नारद, इन्द्र, बृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज, विशालाक्ष, भीष्म, पराशर, मनु, अन्यान्य महर्षि और विष्णुगुप्त ( चाणक्य) ने संक्षिप्त करके पृथक् पृथक् ग्रन्थोंकी रचना की + । परन्तु इस समय उक्त सब साहित्य प्रायः नष्ट हो गया है। कामपुरुषार्थ पर वात्स्यायनका कामसूत्र, अर्थपुरुषार्थ पर विष्णुगुप्त या चाणक्यका अर्थशास्त्र और धर्मपुरुषार्थ - पर मनुके धर्म-शास्त्रका संक्षिप्तसार 'मानव धर्मशास्त्र'--जो कि भृगु नामक आचार्यका संग्रह किया हुआ है और मनुस्मृतिके नामसे प्रसिद्ध है--उपलब्ध है।
उक्त ग्रन्थोंमेंसे राजनीतिका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' अभी १३-१४ वर्ष पहले ही उपलब्ध हुआ है और उसे मैसूरकी यूनीवर्सिटीने प्रकाशित किया है। यह अबसे लगभग २२०० वर्ष पहले लिखा गया था ।सुप्रसिद्ध मौर्यवंशीय सम्राद् चन्द्रगुप्तके लिए -जो कि हमारे कथाप्रन्योंके अनुसार जैनधर्मके उपासक थे और जिन्होंने अन्तमें जिनदक्षिा धारण की थी *--आर्य चाणक्यने इस प्रत्यको निर्माण किया था x। नन्दवंशका समूल उच्छेद करके उसके सिंहासन पर चन्द्रगुप्तको आसीन करानेवाले चाणक्य कितने बड़े राजनीतिज्ञ होंगे, यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है । उनकी राजनीतिज्ञताका सबसे अधिक उज्ज्वल प्रमाण यह अर्थशास्त्र है। यह बड़ा ही अद्भत ग्रन्थ है और उस समयकी शासनव्यवस्था पर ऐसा प्रकाश डालता है जिसकी पहले किसीने कल्पना भी न की थी। इसे पढ़नेसे मालूम होता है कि उस प्राचीन कालमें भी इस देशने राजनीतिमें आश्चर्यजनक उन्नति कर ली थी। इस ग्रन्थमें मनु, भारद्वाज, उशना (शुक्र), बृहस्पति, विशालाक्ष, पिशन, पराशर, वातव्याधि, कौणपदन्त और बाहुदन्तीपुत्र नामक प्राचीन आचार्योंके राजनीतिसम्बन्धी मतोंका जगह जगह उल्लेख मिलता है। आर्य चाणक्य प्रारंभमें ही कहते हैं कि पृथिवीके लाभ और पालनके लिए पूर्वाचार्योंने जितने अर्थशास्त्र प्रस्थापित किये हैं, प्रायः उन सबका संग्रह करके यह अर्थशास्त्र लिखा जाता है । इससे मालूम होता है कि चाणक्यसे भी पहले इस विषयके अनेकानेक ग्रन्थ मौजूद थे और चाणक्यने उन सबका अध्ययन किया था। परन्तु इस समय उन ग्रन्थोंका कोई पता नहीं है।
चाणक्यके बादका एक और प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध है जिसका नाम 'नीतिसार' है और जिसे संभवतः चाणक्यके ही शिष्य कामन्दक नामक विद्वानने अर्थशास्त्रको संक्षिप्त करके लिखा है। अर्थशास्त्र प्रायः गद्यमें है। परन्त नीतिसार श्लोकबद्ध है। यह भी अपने ढंगका अपूर्व और प्रामाणिक ग्रन्थ है और अर्थशास्त्रको समझनेमें इससे बहुत सहायता मिलती है । इसमें भी विशालाक्ष, पुलोमा, यम आदि प्राचीन नीतिग्रन्थकर्ताओंके मतोंका उल्लेख है।
+ ब्रह्माध्यायसहस्राणां शतं चके स्वबुद्धिजम् । तन्नारदेन शक्रेण मुरुणा भार्गवेण च ॥ भारद्वाजविशालाक्षभीष्मपाराशरैस्तथा । संक्षिप्तं मनुना चैव तथा चान्यैर्महर्षिभिः॥ प्रजानामायुषो ह्रासं विशाय च महात्मना । संक्षिप्तं मनुना चैव तथा चान्यैर्महर्षिभिः । प्रजानामायुषो हा विज्ञाय च महात्मना। संक्षिप्तं विष्णुगुप्तेन नृपाणामर्थसिद्धये ॥
ये श्लोक हमने गुजरातीटीकासाहित कामन्दकीय नीतिसारकी भूमिका परसे उद्धृत किये हैं। परन्तु उससे यह नहीं मालूम हो सका कि ये किस पुराणके हैं।
* सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ मि-विन्सेण्ट-स्मिथ आदि विद्वान् भी इस बातको संभव समझते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य जैनधर्मके उपासक थे। त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति' नामक प्राकृत ग्रन्थमें-जो विक्रमकी पाँचवीं शताब्दिके लगभगका है-लिखा है कि मुकुटधारी राजाओंमें सबसे अन्तिम राजा चन्द्रगुप्त था जिसने जिनदीक्षा की।-देखो जैनहितैषी वर्ष १३, अंक १२ ।
- सर्वशास्त्रानुपक्रम्य प्रयोगानुपलभ्य च । कौटिल्येन नरेन्द्राथें शासनस्य विधिः कृतः॥ येन शास्त्रं च शस्त्रं च नन्दराजगता च भूः। अमर्षेणोद्धृतान्याशु तेन शास्त्रमिदं कृतम् ॥ + पृथिव्या लाभे पालने च यावन्त्यर्थशास्त्राणि पूर्वाचार्यैः प्रस्थापितानि प्रायशस्तानि संहत्यैकमिदमर्थशास्त्रं कृतम् । +देखो गुजराती प्रेस बम्बईके 'कामन्दकीय नीतिसार' की भूमिका ।
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जैन साहित्य संशोधक
[ खंड
. कामन्दकके नीतिसारके बाद जहाँ तक हम जानते हैं, यह नीतिवाक्यामृत प्रन्थ ही ऐसा बना है, जो उक्त दोनों प्रन्योंकी श्रेणीमें रक्खा जा सकता है और जिसमें शुद्ध राजनीतिकी चर्चा की गई है। इसका अध्ययन भी कौटिलीय अर्थशास्त्रके समझनमें बड़ी भारी सहायता देता है।
नौतिवाक्यामृतके कोने भी अपने द्वितीय प्रन्य ( यशस्तिलक ) में गुरु,शुक्र,विशालाक्ष, भारद्वाजके नीतिशास्त्रोका उल्लेख किया है। मनुके भी बोसो श्लोकोंको उद्धत किया है + नीतिवाक्यामृतमें विष्णुगुप्त या चाणक्यका और उनके अर्थशास्त्रका उलेख है। बृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज, आदिके अभिप्रायोको भी उन्होंने नीतिवाक्यामृतमें संग्रह किया है जिसका स्पष्टीकरण नीतीवाक्यामृतकी इस संस्कृत टीकासे होता है। स्मृतिकारोंसे भी वे अच्छी तरह परिचित मालूम होते है। इससे हम कह सकते हैं कि नीतीवाक्यामृतके कती पूर्वोक्त राजनीतिक साहित्यसे यथेष्ट परिचित थे। बहुत संभव है कि उनके समयमें उक्त सबका सब साहित्य नहीं तो उसका अधिकांश उपलब्ध होगा। कमसे कम पूर्वोक्त आचायाँके प्रन्योंके सार या संग्रह आदि अवश्य मिलते होंगे।
इन सब बातोसे और नोतिवाक्यामृतको अच्छी तरह पढ़नसे हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि नीतिवाक्यामृत प्राचीन मातिसाहित्यका सारभूत अमृत है। दूसरे शब्दोंमें यह उन सबके आधारसे और कविकी विलक्षण प्रांतभास प्रसत हुआ संग्रह प्रन्थ है। जिस तरह कामन्दकने चाणक्यके अर्थशास्त्रके आधारसे संक्षपमें अपने नातिसारका निर्माण किया है, उसी प्रकार सामदेवमारने उनके समयमे जितना नीतिसाहित्य प्राप्त था उसके आधारसे यह नातिवाक्यामृत निर्माण किया है। दोनों में अन्तर यह है कि नातिसार श्लोकबद्ध है और केवल अर्थशास्त्रके आधारसे लिखा गया है, परन्तु नीतिवाक्यामृत गद्यमें है और अनेकानेक ग्रन्थोके आधारसे निर्माण हुआ है, यद्यपि अर्थशास्त्रको भी इसमें यथेष्ट सहायता ली गई है।
कौटिलीय अर्थशास्त्रको भूमिकामें श्रीयुत शामशास्त्राने लिखा है कि, “ यच यशोधरमहाराजसमकालेन सोमदेवसूरिणा नीतिवाक्यामृतं नाम नीतिशास्त्र विरचितं तदपि कामन्दकीयमिव कौटिलीयार्थशास्त्रादेव सक्षिप्य संगृहीतामति सदान्यपदवाक्यशैलीपरीक्षायां निस्संशयं ज्ञायते ।" अर्थात् यशोधर महाराजके समकालिक सोमदेवसरिने जो नातिवाक्यामृत' नामका प्रन्थ लिखा है उसके पद और वाक्योंकी शैलीको परीक्षासे यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि वह भी कामन्दकके नीतिसारके समान कौटिलीय अर्थशास्त्रसे ही संक्षिप्त करके लिखा गया है *" परन्तु हमारी समझमें
*" न्यायादवसरमलभमानस्य चिरसेवकसमाजस्य विज्ञप्तय इव नर्मसचिवोक्तयः प्रतिपन्नकामचारव्यवहारेषु स्वैरविहारेषु मम गुरुशुक्रविशालाक्षपरीक्षितपराशरभीमभीष्मभारद्वाजादिप्रणीतनीतिशास्त्रश्रवणसनाथं श्रुतपथमभजन्त ।"-- यशस्तिलकचम्पू , आश्वास २, पृ० २३६ ।
+"दूषितोऽपि चरेद्धर्म यत्र तत्राश्रमे रतः । समं सर्वेषु भूतेषु न लिङ्गं धर्मकारणम् ॥
इति कथमिदमाह वैवस्वतो मनुः । " --यशस्तिलक आ० ४, पृष्ठ १०० । यह श्लोक मनुस्मृति अ० ६ का ६६ वौ श्लोक है। इसके सिवाय यशस्तिलक आश्वास ४, पृ. ९०-९१-११६ (प्रोक्षितं भक्षयेत् ), ११७ (क्रीत्वा स्वयं ), १२७ ( सभी श्लोक ), १४९ ( सभी श्लोक ), २८७ (अधीत्य ) के श्लोक भी मनुस्मृति में ज्योंके त्यों मिलते हैं । यद्यपि वहाँ यह नहीं लिखा है कि ये मनुके है । 'उक्तं च ' रूपमें ही दिये है।
x नीतिवाक्यामृत पृष्ठ• ३६ सूत्र ९, पृ० १०७ सूत्र ४, पृ. १७१ सूत्र १४ आदि। ___ + "विप्रकीताबूढापि पुनर्विवाहदीक्षामहतीतिस्मृतिकाराः"-नी०वा पृ०३७७,सू०२७, "श्रुतेःस्मृतेर्बाधवायतरे;" यशस्तिलक आ. ४, पृ० १०५; " श्रुतिस्मृतीभ्यामतीव बाह्ये"-यशस्तिलक आ०४, पृ० १११; "तथा च स्मृतिः" पृ. ११६; और " इति स्मृतिकारकीर्तितमप्रमाणीकृत्य " पृ. २८७ ।
यशस्तिलक आ०४ पृ० १०० में नीतिकार भारद्वाजके पाइगुण्य प्रस्तावके दो श्लोक और विशालाक्षके कुछ वाक्य दिये हैं। ये विशालाक्ष संभवतः वे ही नीतिकार हैं जिनका उल्लेख अर्थशास्त्र और नीतिसारमें किया गया है।
शास्त्रीजीका यह बड़ा भारी भ्रम है, जो सोमदेवसूरिको वे यशोधर महाराजके समकालिक समझते हैं। यशोधर जैनोंके एक पुराणपुरुष हैं। इनका चरित्र सोमदेवसे भी पहले पुष्पदन्त, बच्छराय आदि कवियोंने लिखा है। पुष्पदन्तका समय शकसंवत् ६०६ के लगभग है। और बच्छराय पुष्पदन्तसे भी पहले हुए हैं।
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अंक - १ ]
सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत ।
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शास्त्रीजीने उक्त परीक्षा बारीकीसे या अच्छी तरह विचार करके नहीं की है । यह हम मानते हैं कि नीतिवाक्यामृत की रचनामें अर्थशास्त्रकी सहायता अवश्य ली गई है, जैसा कि आगे दिये हुए दोनों के अवतरणोंसे मालूम होगा । पाठक देखेंगे कि दोनोंमें विलक्षण समता है, कहीं कहीं तो दोनोंके पाठ बिल्कुल एकसे मिल गये हैं । परन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि नीतिवाक्यामृत अर्थशास्त्रका ही संक्षिप्त सार है । अर्थशास्त्रका अनुधावन करनेवाला होकर भी वह अनेक अंशों बहुत कुछ स्वतंत्र है । अर्थशास्त्र के अतिरिक्त अन्यान्य नीतिशास्त्रोंके अभिप्राय भी उसमें अपने ढंगसे समावेशित किये गये हैं । इसके सिवाय ग्रन्थकर्ताने अपने देश-काल पर दृष्टि रखते हुए बहुत सी पुरानी बातोंको -- जिनकी उस समय जरूरत नहीं रही थी या जो उनकी समझमें अनुचित थीं—छोड़ दिया है या परिवर्तित कर दिया है। साथ ही बहुतसी समयोपयोगी बातें शामिल भी कर दी हैं ।
यहाँ हम अर्थशास्त्र और नीतिवाक्यामृतके ऐसे अवतरण देते हैं जिनसे दोनोंकी समानता प्रकट होती है:१ - दुष्प्रणीतः कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वानप्रस्थपरिव्राजकानपि कोपयति, किमङ्ग पुनर्गृहस्थान् । अप्रणीतो हि मात्स्यन्यायमुद्भावयति । बलीयानबलं प्रसते दण्डधराभावे । – अर्थशास्त्र पृ० ९ । दुष्प्रणीत हि दण्डः कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वा सर्वजनविद्वेषं करोति । अप्रणीतो हि दण्डो मात्स्यन्यायमुद्धावयति । बलीयानबलं प्रसते ( इति मात्स्यन्याय : ) । - नीतिवा० पृ० १०४-५ । - अर्थ० पृ० १० । नी० १६७ ।
-
२- ब्रह्मचर्यं चाषोडशाद्वर्षात् । अतो गोदानं दारकर्म च । ब्रह्मचर्यमाषोडशाद्वर्षात्ततो गोदानपूर्वकं दारकर्म चास्य । ३ - गुरोहितमुदितोदितकुलशीलं षडङ्गे वेदे देवे निमित्ते दण्डनीत्यां च अभिविनीतमापदां देवमानुषीणां अथर्वभिरुपायैश्व प्रतिकर्त्तारं कुर्वीत । पुरोहितमुदितकुलशीलं षडंगवेदे दैवे निमित्ते दण्डनीत्यामभिविनीतमापदां दैवीनां मानुषीणां च प्रतिकर्त्तारं कुर्वीत । नीति० पृ० १५९ ।
अर्थ० पृ० १५-१६ ।
४ परमर्मज्ञः प्रगल्भः छात्रः कापटिकः । —अर्थ पृ० १८ । परमर्मज्ञः प्रगल्भः छात्रः कापटिकः । नी० पृ० १७३ ।
५ - श्रूयते हि शुकसारिकाभिः मन्त्रो भिन्नः श्वभिरन्यैश्च तिर्यग्योनिभिः । तस्मान्मम्जोद्देशमनायुक्तो नोपगच्छेत् । अर्थ० पृ० २६ । अनायुक्तो न मन्त्रकाले तिष्ठेत् । श्रूयते हि शुकशारिकाभ्यामन्यैश्च तिर्यग्भिर्मन्त्रभेदः कृतः । —नीति० पृ० ११८| ६- द्वादशवर्षा स्त्री प्राप्तव्यवहारा भवति । षोडशवर्षः पुमान् । — अर्थ० १५४ । —नीति० ३७३ ।
द्वादशवर्षा स्त्री षोडशवर्षः पुमान् प्राप्तव्यवहारौ भवतः ।
इस तरह के और भी अनेक अवतरण दिये जा सकते हैं ।
vic
यहाँपर पाठकों को यह भी ध्यानमें रखना चाहिए कि चाणक्यने भी तो अपने पूर्ववर्ती विशालाक्ष, भारद्वाज, बृहस्पति आदिके ग्रन्थोंका संग्रह करके अपना ग्रन्थ लिखा है। ऐसी दशामें यदि सोमदेवकी रचना अर्थशास्त्र से मिलती जुलती हो, तो क्या आश्चर्य है । क्योंकि उन्होंने भी उन्हीं प्रन्थोंका मन्थन करके अपना नीतिवाक्यामृत लिला है । यह दूसरी बात है कि नीतिवाक्यामृतकी रचनाके समय ग्रन्थकर्ता के सामने अर्थशास्त्र भी उपस्थित था ।
परन्तु पाठक इससे नीतिवाक्यामृतके महत्वको कम न समझ लें। ऐसे विषयोंके ग्रन्थोंका अधिकांश भाग संग्रहरूप ही होता है । क्योंकि उसमे उन सब तत्वोंका समावेश तो नितान्त आवश्यक ही होता है जो प्रन्थकर्ता के पूर्वलेखकों द्वारा उस शास्त्रके सम्बन्ध में निश्चित हो चुकते हैं। उनके सिवाय जो नये अनुभव और नये तत्व उपलब्ध होते हैं उन्हें ही वह विशेषरूपसे अपने प्रन्थ में लिपिबद्ध करता है। और हमारी समझमें नीतिवाक्यामृत ऐसी बातों से खाली नहीं है । प्रन्थकर्ताकी स्वतंत्र प्रतिभा और मौलिकता उसमें जगह जगह प्रस्फुटित हो रही है।
देखो पृष्ठ ५ की टिप्पणी 'पृथिव्या लाभे' आदि ।
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[खंड २
४०]
जैन साहित्य संशोधक ग्रन्थकर्ताका परिचय ।
गुरुपरम्परा। जैसा कि पहले कहा जा चुका है नीतिवाक्यामृतके कर्ता श्रीसोमदेवसूरि हैं। वे देवसंघके आचार्य थे। दिगम्बरसम्प्रदायके सुप्रसिद्ध चार संघों से यह एक है । मंगराज कविके कथनानुसार यह संघ सुप्रसिद्ध तार्किक भट्टाकलंकदेखके बाद स्थापित हुआ था । अकलंकदेवका समय विक्रमकी ९ वीं शताब्दिका प्रथम पाद है।* सोमदेवके गुरुका नाम नेमिदेव और दादागुरुका नाम यशोदेव था। यथाः
श्रीमानस्ति स देवसंघतिलको देवो यशःपूर्वकः,
शिष्यस्तस्य बभूव सद्गुणानिधिः श्रीनेमिदेवाल्यः । तस्याश्चर्यतपः स्थितस्त्रिनवतेजेंतुर्महावादिनां,
शिष्योऽभूदिह सोमदेव इति यस्तस्यैष काव्यक्रमः॥ --यशस्तिलकचम्पू । नातिवाक्यामृतकी गद्यप्रशस्तिसे भी यह मालूम होता है कि वे नेमिदेवके शिष्य थे । साथ ही उसमें यह भी लिखा है कि वे महेन्द्रदेव भट्टारकके अनुज थे । इन तीनों महात्माओं-यशोदेव, मिदेव और महेन्द्रदेवके सम्बन्धमें हमें और कोई भी बात मालूम नहीं है । न तो इनकी कोई रचना ही उपलब्ध है और न अन्य किसी ग्रन्थादिमें इनका कोई उल्लेख ही मिला है। इनके पूर्वके आचायोंके विषयमें भी कुछ ज्ञात नहीं है। सोमदेवसूरिकी शिष्यपरम्परा भी अज्ञात है । यशस्तिलकके टीकाकार श्रीश्रुतसागरसूरिने एक जगह लिखा है कि वादिराज और वादीमसिंह, दोनों ही सोमदेवके शिष्य थेx; परन्तु इसके लिए उन्होंने जो प्रमाण दिया है वह किस प्रन्थका है. इसके जाननेका कोई साधन नहीं है । यशस्तिलककी रचना शकसंवत् ८८१ ( विक्रम १०१६ ) मैं समाप्त हुई है और वादिराजने अपना पार्श्वनाथचरित शकसंवत् ९४७ (वि० १०८२) में पूर्ण किया है। अर्थात् दोनोंके बीचमें ६६ वर्षका अन्तर है । ऐसी दशामें उनका गुरु शिष्यका नाता होना दुर्घट है । इसके सिवाय बादिराजके गुरुका नाम मतिसागर था और वे द्रविड संघके आचार्य थे। अब रहे वादीभसिंह, सो उनके गुरुका नाम पुष्पषण था और पुष्पषण अकलंकदेवके गुरुभाई थे, इसलिए उनका समय सोमदेवसे बहुत पहले जा पड़ता है। एसी अवस्थामें वादिराज और वादीभसिंहको सोमदेवका शिष्य नहीं माना जा सकता। प्रन्थकर्ताके गुरु बड़े भारी तार्किक थे। उन्होंने ९३ वादियों को पराजित करके विजयकीर्ति प्राप्त की थी।
इसी तरह महेन्द्रदेव भट्टारक भी दिग्विजयी विद्वान् थे। उनका 'बादीन्द्रकालानल' उपपद ही इस बातकी घोषणा करता है।
तार्किक सोमदेव। श्रीसोमदेवसरि भी अपने गुरु और अनुजके सदृश बड़े भारी तार्किक विद्वान् थे। वे इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें कहते हैं:अस्पेऽनुग्रहधीः समे सुजनता मान्ये महानादरः, सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्रचरिते श्रीसोमदेवे माया या स्पर्धेत तथापि दर्पडढताप्रौढिप्रगाढाग्रह-स्तस्यास्त्रर्वितगर्वपर्वतपविर्मद्वाक्कृतान्तायते ॥
सारांश यह कि मैं छोटोंके साथ अनुग्रह, बराबरीवालों के साथ सुजनता और बड़ों के साथ महान आदरका
करता है। इस विषयमें मेरा चरित्र बहुत ही उदार है। परन्तु जो मुझे ऐंठ दिखाता है. उसके लिए गर्मी पर्वतको विध्वंस करनेवाले मेरे वज्र-वचन कालस्वरूप हो जाते हैं।
•देखो जैनहितैषी भाग ११, अंक -८॥
x"उक्तं च वादिराजेन महाकविना-...... ....स वादिराजोऽपि श्रीसोमदेवाचार्यस्य शिष्यः-- बादीभासिंहोऽपि मदीयाशिष्यः श्रीवादिराजोऽपि मदीयशिष्यः' इत्युक्तत्वाच ।"
न्यशस्तिलकटीका आ. २, पृ० १६५ । + यशस्तिलकके ऊपर उड़त हुए श्लोकमें उन महावादियोंकी संख्या-जिनको श्रीनमिदेवने पराजित किया थातिरानवे बतलाई है। परन्तु नीतिवाक्यामृतकी गयप्रशस्तिमें पचपन है । मालूम नहीं, इसका क्या कारण है।
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अंक १]
सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत । दर्पान्धबोधबुधसिन्धुरसिंहनादे, वादिद्विपोहलनदुर्धरवाग्विवादे ।
श्रीसोमदेवमुनिपे वचनारसाले, वागीश्वरोऽपि पुरतोऽस्ति न वादकाले॥ भाव यह कि अभिमानी पण्डित गजोंके लिए सिंहके समान ललकारनेवाले और वादिगजोंको दलित करनेवाला दुर्धर विवाद करनेवाले श्रीसोमदेव मुनिके सामने, वादके समय वागीश्वर या देवगुरु बृहस्पति भी नहीं ठहर सकते हैं !
इसी तरहके और भी कई पद्य हैं जिनसे उनका प्रखर और प्रचण्ड तर्कपाण्डित्य प्रकट होता है। यशस्तिलक चम्पूकी उत्थानिकामें कहा है:
- आजन्मकृदभ्यासाच्छुष्कात्तर्कात्तृणादिव ममास्याः ।
मतिसरमेरभवदिदं सूक्तपयः सकृतिनां पुण्यैः॥१७ अर्थात् मेरी जिस बुद्धिरूपी गौने जीवन भर तर्करूपी सूखा घास खाया, उसीसे अब यह काव्यरूपी दुग्ध उत्पन्न हो रहा है। इस उक्तिसे अच्छी तरह प्रकट होता है कि श्रीसोमदेवसूरिने अपने जीवनका बहुत बड़ा भाग तर्कशास्त्रके अभ्यासमें ही व्यतीत किया था। उनके स्याद्वादाचलसिंह, वादभिपंचानन और तार्किकचक्रवर्ती पद भी इसी बातके योतक हैं। परन्तु वे केवल तार्किक ही नहीं थे-काव्य, व्याकरण, धर्मशास्त्र और राजनीति आदिके भी धुरंधर विद्वान थे।
महाकवि सोमदेव ।। उनका यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य-जो निर्णगसागर की काव्यमालामें प्रकाशित हो चुका है-इस बातका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वे महाकवि थे और काव्यकला पर भी उनका असाधारण अधिकार था । समूचे संस्कृत साहित्यमें यशस्तिलक एक अद्भत काव्य है और कवित्वके साथ उसमें ज्ञानका विशाल खजाना संगृहीत है। उसका गद्य भी कादम्बरी तिलकमञ्जरी आदिकी टक्करका है। सुभाषितोंका तो उसे आकर ही कहना चाहिए । उसकी प्रशंसामें स्वयं प्रन्यकर्त्ताने यत्रतत्र जो सुन्दर पद्य कहे हैं, वे सुनने योग्य हैं:
असहायमनादर्श रत्नं रत्नाकरादिव ।
मत्तः काव्यामिदं जातं सतां हृदयमण्डनम् ॥१४-प्रथम आश्वास । समुद्रसे निकले हुए असहाय, अनादर्श और सज्जनोंके हृदयकी शोभा बढ़ानवाले रत्नकी तरह मुझसे भी यह असहाय ( मौलिक ), अनादर्श ( बेजोड़ । और हृदयमण्डन काव्यरत्न उत्पन्न हुआ।
कांजलिपुटैः पातुं चेतः सूक्तामृते यदि।।
श्रूयतां सोमदेवस्य नव्याः काव्योक्तियुक्तयः ॥२४६॥ -द्वितीय आ०। यदि आपका चित्त कानोंकी अंजुलीसे सूक्तामृतका पान करना चाहता है, तो सोमदेवकी नई नई काव्याक्तियाँ सुनिए ।
लोकवित्त्वे कवित्वे वा यदि चातुर्यचञ्चयः।
सोमदेवकवेः मूर्ति समभ्यस्यन्तु साधवः ॥ ५१३॥-तृतीय आ•। यदि सज्जनोंकी यह इच्छा हो कि वे लोकव्यवहार और कवित्वमें चातुर्य प्राप्त करें तो उन्हें सोमदेव कविकी सक्तियोंका अभ्यास करना चाहिए।
- मया घागर्थसंभारे भुक्ते सारस्वते रसे।
____ कवयोऽन्ये भाविष्यन्ति नूनमुच्छिष्टभोजनाः॥ -चतुर्थ आ०, पृ० १६५ । मैं शब्द और अर्थपूर्ण सारे सारस्वत रस ( साहित्य रस ) का स्वाद ले चुका हूँ, अतएव अब जितने दूसरे कवि होंगे, वे निश्चयसे उच्छिष्टभोजी या जूठा खानेवाले होंगे-वे कोई नई बात न कह सकेंगे।
अरालकालव्यालेन ये लीढा साम्प्रतं तु ते।
शब्दाः श्रीसोमदेवेन प्रोत्थाप्यन्ते किमद्भतम् ॥-पंचम आ०, पृ. २६६ । समयरूपी विकट सर्पने जिन शब्दोंको निगल लिया था, अतएव जो मृत हो गये थे, यदि उन्हें श्रीसोमदेवने उठा दिया, जिला दिया-तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ( इसमें सोमदेव' शब्द विष्ट है। सोम चन्द्रवाची है और बन्नकी अमृत-किरणोंसे विषमाञ्छित जीव सचेत हो जाते है।)
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४२]
जैन साहित्य संशोधक
[खं२
उद्धृत्य शास्त्रजलधोनतले निमग्नः
- पर्यागतैरिव चिरादभिधानरत्नैः । या सोमदेवविदुषा पिहिता विभूषा
वाग्देवता वाहतु सम्प्रति तामनर्धाम् ॥-पं. आ०, पृ. २६६ । चिरकालसे शास्त्रसमुद्रके बिल्कुल नीचे डूबे हुए शब्द-रत्नोंका उद्धार करके सोमदेव पण्डितने जो यह बहुमूल्य आभूषण (काव्य ) बनाया है, उसे श्रीसरस्वती देवी धारण करें।
इन उक्तियोंसे इस बातका आभास मिलता है कि आचार्य सोमदेव किस श्रेणीके कवि थे और उनका उक्त महाकाव्य कितना महत्त्वपूर्ण है। पूर्वोक्त उक्तियोंमें अभिमानकी मात्रा विशेष रहने पर भी वे अनेक अंशोंमें सत्य जान पड़ती हैं । सचमुच ही यशस्तिलक शब्दरत्नोंका बड़ा भारी खजाना है और यदि माघकाव्यके समान कहा जाय कि इस काव्यको पढ़ लेने पर फिर कोई नया शब्द नहीं रह जाता, तो कुछ अत्युक्ति न होगी। इसी तरह इसके द्वारा सभी विषयोंकी व्युत्पत्ति हो सकती है। व्यवहारदक्षता बढानेकी तो इसमें ढेर सामग्री है।
महाकवि सोमदेवके वाक्कल्लोलपयोनिधि, कविराजकुंजर और गद्यपद्याविद्याधरचक्रवर्ती विशेषण, उनके श्रेष्ठकवि. स्वके ही परिचायक हैं।
धर्माचार्य सोमदेव। यद्यपि अभीतक सोमदेवसरिका कोई स्वतंत्र धार्मिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। परन्तु यशस्तिलकके अन्तिम दो आश्वास-जिनमें उपासकाध्ययन या श्रावकों के आचारका निरूपण किया गया है-इस बातके साक्षी हैं कि वे धर्मके कैसे मर्मज्ञ विद्वान थे। स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्डके बाद श्रावकोंका आचारशास्त्र ऐसी उत्तमता, स्वाधीनता और मार्मिकताके साथ इतने विस्तृतरूपमें आजतक किसी भी विद्वान्की कलमसे नहीं लिखा गया है। जो लोग यह समझते हैं कि धर्मग्रन्थ तो परम्परासे चले आये हुए प्रन्थों के अनुवादमात्र होते हैं--उनमें ग्रन्थकर्ता विशेष क्या कहेगा, उन्हें यह उपासकाध्ययन अवश्य पढ़ना चाहिए और देखना चाहिए कि धर्मशास्त्रोंमें भी मौलिकता और प्रतिभाके लिए कितना विस्तृत क्षेत्र है । खेद है कि जैनसमाजमें इस महत्त्वपूर्ण प्रन्धके पठन पाठनका प्रचार बहुत ही कम है और अब तक इसका कोई हिन्दी अनुवाद भी नहीं हुआ है। नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिमें लिखा है:
सकलसमयत नाकलंकोऽसि धादिन न भवसि समयोक्तौ हंससिद्धान्तदेवः। न च वचनविलासे पूज्यपादोऽसि तत्त्वं वदसि कथमिदानीं सोमदेवेन सार्धम॥
अर्थात् हे वादी, न तो तु समस्तदर्शन शास्त्रों पर तर्क करनेके लिए अकलंकदेवके तुल्य है, न जैनसिद्धान्तको कहनेके लिए हंससिद्धान्तदेव है और न व्याकरणमें पूज्यपाद है, फिर इस समय सोमदेवके साथ किस बिरते पर बात करने चला है ?* इस उक्तिसे स्पष्ट है कि सोमदेवसरि तर्क और सिद्धान्तके समान व्याकरणशास्त्रके भी पण्डित थे।
राजनीतिश सोमदेव । सोमदेवके राजनीतिज्ञ होनेका प्रमाण यह नीतिवाक्यामृत तो है ही, इसके सिवाय उनके यशस्तिलकमें भी मशोधर महाराजका चरित्रचित्रण करते समय राजनीतिकी बहुत ही विशद और विस्तृत चर्चा की गई है । पाठकोंकोचाहिए कि वे इसके लिए यशस्तिलकका तृतीय आश्वास अवश्य पढ़ें। ____ यह आश्वास राज तिके तत्त्वोंसे भरा हुआ है । इस विषयमें वह अद्वितीय है । वर्णन करनेकी शैली बड़ी ही सुन्दर है। कवित्वकी कमनीयता और सरसतासे राजनीतिकी नीरसता मालूम नहीं कहाँ चली गई है। नीतिवाक्यामृतके
*अकलंकदेव-अष्टशती, राजबार्तिक आदि प्रन्थोंके रचियता । हससिद्धान्तदेव- ये कोई सैद्धान्तिक आचार्य जान पड़ते हैं । इनका अब तक और कहीं कोई उल्लेख देखनेमें नहीं आया । पूज्यपाद-देवनान्द, अनेन्द्र व्याकरणके कर्ता।
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भंक १]
सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्ष्यामृत ।
अनेक अंशोंका अभिप्राय उसमें किसी न किसी रूपमें अन्तर्निहित जान पड़ता है।
जहाँ तक हम जानते हैं जैनविद्वानों और आचार्योंमें-दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनोंमें-एक सोमदेवने ही 'राजनीतिशास्त्र' पर कलम उठाई है। अतएव जनसाहित्यमें उनका नीतिवाक्यामृत अद्वितीय है । कमसे कम अब तक तो इस विषयका कोई दूसरा जैनग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ है।
प्रन्थ-रचना। इस समय सोमदेवसूरिके केवल दो ही अन्य उपलब्ध हैं -नीतिवाक्यामृत और यशस्तिलकचम्पू । इनके सिपाय-जैसा कि नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिसे मालूम होता है- तीन ग्रन्थ और भी हैं-१ युक्तिचिन्तामणि, २त्रिधर्गमहेन्द्रमातलिसंजल्प और ३ षण्णवतिप्रकरण । परन्तु अभीतक ये कहीं प्राप्त नहीं हुए हैं। उक्त प्रन्थोंमेसे युक्तिचिन्तामाणि तो अपने नामसे ही तर्कग्रन्थ मालूम होता है और दूसरा शायद नीतिविषयक होगा। महन्द्र और उसके सारथी मातलिक संवादरूपमें उसमें त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और कामकी चर्चा की गई होगी। सरनामसेसिवाय इसके कि उसमें ९६ प्रकरण या अध्याय है, विषयका कुछ भी अनुमान नहीं हो सकता है।
इन सब ग्रन्थोंमें नीतिवाक्यामृत ही सबसे पिछला ग्रन्थ है। यशोधरमहाराजचरित या यशस्तिलक इसके पहलेका है। क्योंकि नीतिवाक्यामृतमें उसका उल्लेख है । बहुत संभव है कि नीतिवाक्यामृतके बाद भी उन्होंने ग्रन्थरचना की हो और उक्त तीन ग्रन्थोंके समान वे भी किसी जगह दीमक या चूहोंके खाद्य बन रहे हों, या सर्वथा नष्ट ही हो चुके हों।
विशाल अध्ययन । यशस्तिलक और नीतिवाक्यामृतके पढ़नेसे मालूम होता है कि सोमदेवसूरिका अध्ययन बहुत ही विशाल था। ऐसा जान पड़ता है कि उनके समयमें जितना साहित्य-न्याय, व्याकरण,काव्य, नीति,दर्शन आदि सम्बन्धी उपलब्ध था. उस सबसे उनका परिचय था। केवल जैन ही नहीं, जनेतर साहित्यसे भी अच्छी तरह परिचित थे । यशस्तिलकके चौथे आश्वासमें (पृ. ११३ में) उन्होंने लिखा है कि इन महाकवियोंके काव्योंमे नग्न क्षपणक या दिगम्बर साधुओंका उल्लेख क्यों आता है ? उनकी इतनी अधिक प्रसिद्ध क्यों है ?- उर्व, भारधि, भवभति. भर्तहरि. भमेण्ठ, कण्ठ, गुणाढ्य, व्यास, भास, वोस, कालिदासx, बाण+, मयूर, नारायण, कमार माघ और राजशेखर । ___इससे मालूम होता है कि वे पूर्वोक्त कवियोंके काव्योंसे अवश्य परिचित होंगे। प्रथम आश्वासके ९० वें पृष्ठ उन्होंने इन्द्र, चन्द्र, जैनेन्द्र, आपिशल आर पाणिनिके व्याकरणोंका जिकर किया है। पूज्यपाद
+ नीतिवाक्यामृत और यशस्तिलकके कुछ समानार्थक वचनोंका मिलान कीजिए:-- १-बुभुक्षाकालो भोजनकाल:-नी० वा०, पृ. २५३।। चारायणो निशि तिमिः पुनरस्तकाले, मध्ये दिनस्य धिषणश्चरकः प्रभाते। भुक्तिं जगाद नृपते मम चैष सर्गस्तस्याः स एव समयः क्षुधितो यदैव ॥३२८॥-यशस्तिलक,आ० ३। (पूर्वोक्त पद्यमें चारायण, तिमि, घिषण और चरक इन चार आचार्योंके मतोंका उल्लेख किया गया है।) २--कोकवहिवाकामः निशि भुञ्जीत । चकोरवन्नक्तंकामः दिवापक्वम् ।-नी० वा. पृ. २५७ । अन्ये त्विदमाहुः--
यः कोकवहिवाकामः स नक्तं भोक्तुमर्हति।
स भोक्ता वासरे यश्च रात्रौ रन्ता चकोरवत् ॥ ३३०॥ --यशस्तिलक, आ०२ * भास महाकविका 'पेया सुरा प्रियतमामुखमीक्षायं' आदि पद्य भी पाँचवें आश्वसमें (पृ. २५.) उद्धृत है। ४ रघुवंशका भी एक जगह ( आश्वास ४, पृ० १९४) उल्लेख है। + बाण महाकविका एक जगह औ भी (आ.४, पृ.१.१) उल्लेख है और लिखा है कि उन्होंने शिकारकी निन्दा की है।
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जैन साहित्य संशोधक
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(जैनेन्द्र का ) और पाणिनिका उल्लेख्न और भी एक दो जगह हुआ है । मुरु, शुक्र, विशालाक्ष, परी. क्षित, पराशर, भीम, भीष्म, भारद्वाज आदि नीतिशास्त्रप्रणेताओंका भी वे कई जगह स्मरण करते हैं । कौटिलीय अर्थशास्त्रसे तो वे अच्छी तरह परिचित हैं ही। हमारे एक पण्डित मित्रके कथनानुसार नीतिवाक्यामृतमें सौ सवा सौ के लगनग ऐसे शब्द हैं जिनका अर्थ वर्तमान कोशोंमें नहीं मिलता। अर्थशास्त्रका अध्येता ही उन्हें सम्म सकता है। अश्वविद्या, गजैविद्या, रत्नपरीक्षा, कामशास्त्र, वैद्यक आदि विद्याओके आचार्योंका भी उन्होंने कई प्रसंगो कर किया है । प्रजापतिप्रोक्त चित्रकर्म, वराहमिहिरकृत प्रतिष्टाकाण्ड, आदित्यमंत, निमित्ताध्याय, महाभारत, रनरीक्षा, पतंजलिका लोगशास्त्र और वररुचि, व्यास, हरबोध, कुमारिलकी उक्तियोंके उद्धरण दिये हैं। नद्धान्तवैशेषिक, तार्किक वैशेषिक, पाशुपत, कुलाचार्य, सांख्य, दशबलशासन, जैमिनीय, बाईसत्य, वेदान्तवादि, काणाद, ताथागत, कापिल, ब्रह्माद्वैतवादि, अवधूत आदि दर्शनोंके सिद्धान्तोपर विचार किया है । इनके सिवाय मतग, भृगु, भर्ग, भरत, गौतम, गर्ग, पिंगल, पुलह, पुलोम, पुलस्ति, पगशर, मरीचि, विरोवन, धूमध्वज, नीलपट, अहिल, आदि अनेक प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध आचार्योंका नामोबेख किया है । बहुतसे ऐतिहासिक दृष्टान्तोंका भी उल्लेख किया गया है । जैसे यवनदेश (यूनान? ) में मणिकुण्डला रानीने अपने पुत्रके राज्यके लिए विषदूषित शराबके कुरलेसे अजराजाको, सूरसेन (मथुरा) में वसन्तमतिने विषमय आलसे रंगे हुए अधरोंसे सुरतविलास नामक राजाको, दशार्ण ( मिलसा) में वृकोदरीने विषलिप्त करधनीसे मदनार्णव राजाको, मगध देशमें मदिराक्षीने तीखे दर्पणसे मन्मथविनेदको, पाच्य देशमें चण्डरसा रानीने कवरीमे छुपी हुई छुरीसे मुण्डीर नामक राजाको मार डाला * । इत्यादि । पौराणिक आख्यान भी बहुतसे आये हैं। जैसे प्रजापति ब्रह्माका चित्त अपनी लड़की पर चलायमान हो गया, वररुचि या कात्यायनने एक दासीपर रीझकर उसके कहनेसे मयका घड़ा उठाया, आदि । इन सब बातोसे पाठक जान सकेंगे कि आचार्य सोमदेवका ज्ञान कितना विस्तृत और व्यापक था।
उदार विचारशीलता। यशस्तिलकके प्रारंभके २० वें वे कमें सोमदेवसूरि कहते हैं:
लोको युक्तिः कलाश्छन्दोऽलंकाराः समयागमाः ।
सर्वसाधारणाः सद्भिस्तीर्थमार्ग इव स्मृताः ॥ . अर्थात् सज्जनोंका कथन है कि व्याकरण, प्रमाणशास्त्र (न्याय ), कलायें, छन्दःशास्त्र, अलंकारशास्त्र और (आहेत, जैमिनि, कपिल, चार्वाक, कणाद, बौद्धादिके ) दर्शनशास्त्र तीर्थमार्गके समान सर्वसाधारण है। अर्थात् जिस तरह गंगादिके मार्ग पर ब्राह्मण भी चल सकते हैं और चाण्डाल भी, उसी तरह इनपर भी सबका अधिकार है।
१-" पूज्यपाद इव शब्दैतिथेषु...पणिपुत्र इव पदप्रयोगेषु " यश० भा॰ २, पृ० २३६ । -२, ३, ४, ५, -" रोमपाद इव गजविद्यासु रैवत इव हयनयेषु शुकनाश इव रत्नपरीक्षासु, दत्तक इव कन्तुसिद्धान्तेषु "-आ०४, पृ. २३६-२३७ । 'दत्तक' कामशास्त्रके प्राचीन आचार्य हैं । वात्स्यायनने इनका उल्लेख किया है। 'चारायण' भी कामशास्त्रके आचार्य हैं। इनका मत यशस्तिलकके तीसरे आश्वासके ५०९ पृष्ठमें चरकके साथ प्रकट किया गया है।
१, २, ३, ४,५-उक्त पाँचों प्रन्योंके उद्धरण यश. के चौथे आश्वासके पृ. ११२-१३ और ११९ में उद्धत हैं। महाभारतका नाम नहीं है, परन्तु-पुराणं मानवो धर्मः सागो वेदश्चिकित्सितम्' आदि ठोक महाभारतसे ही उद्धृत किया गया है।
६-तदुक्तं रत्नपरीक्षायाम्-'न केवलं' आदि; आश्वास ५, पृ. २५६ । ७-यशस्तिलक आ० ६, पृ. २७६-७७।८--९-आ० ४, पृ. ९९।१०,११-आ० ५, पृ०२५१-५४ । १२-इन सब दर्शनोंका विचार पाँचवें आश्वासके पृ० २६९ से २७७ तक किया गया है। १३-देखो आश्वास ५, पृ. २५२-५५ और २९९।।
* यशस्तिलक आ० ४, पृ. १५३ । इन्हीं आख्यानों का उल्लेख नीतिवाक्यामृत (पृ. २३२) में भी किया गया हे। आश्वास ३. पृ० ४३१ और ५५० में भी ऐसे ही कई ऐतिहासिक दृष्टान्त दिये गये हैं।
४ यश. आ० ४. पृ. १३८-३९ ।
+ "लोको ब्याकरणशास्त्रम् , युक्तिः प्रमाणशास्त्रम् , .....समयागमाः जिनजैमिनिकपिलकणचरचार्वाकशाक्याना सिद्धान्ताः । सर्वसाधारणाः सद्भिः काथताः प्रतिपादिताः। क इव तीर्थ मार्ग इव । यथा तीर्थमागें ब्राह्मणाश्चमन्ति, पाण्डाला भपि गच्छन्ति, नास्ति तत्र दोषः। "-श्रुतसागरी टीका ।
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सोमदेवतारिकत मोतिषाक्यामृत
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इस उक्तिसे पाठक जान सकते हैं कि उनके विचार ज्ञानके सम्बन्धमें कितने उदार थे । उसे थे सर्वसाधारणकी चीज समझते थे और यही कारण है जो उन्होंने धर्माचार्य होकर भी अपने धर्मसे इतर धर्मके माननेवालोंके साहित्यका भी अच्छी तरहसे अध्ययन किया था, यही कारण है जो वे पूज्यपाद और भट्ट अकलंकदेवके साथ पाणिनि आदिका भी आदरके साथ उल्लेख करते हैं और यही कारण है जो उन्होंने अपना यह राजनीतिशास्त्र बीसों जैनेतर आचार्योंके विचारोंका सार खींचकर बनाया है। यह सच है कि उनका जैन सिद्धान्तों पर अचल विश्वास है और इसीलिए. यशस्तिलकमें उन्होंने अन्य सिद्धान्तोका खण्डन करके जैनसिद्धान्तकी उपादेयता प्रतिपादन की है। परन्तु इसके साथ ही वे इस सिद्धान्तके पक्के अनुयायी हैं कि 'युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः।' उनकी यह नीति नहीं थी कि ज्ञानका मार्ग भी संकीर्ण कर दिया जाय और संसारके विशाल ज्ञान-भाण्डारका उपयोग करना छोड़ दिया जाय।
समय और स्थान। नातिवाक्यामृतके अन्तकी प्रशस्तिमें इस बातका कोई जिकर नहीं है कि वह कब और किस स्थानमें रचा गया था; परन्तु यशस्तिलक चम्पूके अन्तमें इन दोनों बातोंका उल्लेख है:
शकनपकालातीतसंवत्सरशतेष्वष्टस्वेकाशीत्यधिकेषु गतेषु अडकतः (८८१) सिद्वार्थसंवत्सरान्तर्गतचैत्रमासमदनत्रयोदश्यां पाण्ड्य-सिंहल-चोल-चेरमप्रभृतीन्महीपतीन्प्रसाध्य मेलपाटीप्रवर्धमानराज्यप्रभावे श्रीकृष्णराजदेवे सति तत्पादपद्मोपजीविनः समधिगतपञ्चमहाशब्दमहासामन्ताधिपतेश्चालुक्यकुलजन्मनः सामन्तचूडामणेः श्रीमदरिकेसरिणः प्रथमपुत्रस्य श्रीमवद्यगराजस्य लक्ष्मीप्रवर्धमानवसुधारायां गङ्गाधारायां विनिर्मापितमितं काव्यामिति ।”
अर्थात् चैत्र सुदी १३, शकसंवत् ८८१ (विक्रम संवत् १०३६) को जिस समय श्रीकृष्णराजदेव पाण्य सिंहल, चोल, चेर आदि राजाओं पर विजय प्राप्त करके मेलपाटी नामक राजधानीमें राज्य करते थे और उनके चरणकमलोपजीवी सामन्त बहिग-जो चालुक्यवंशीय अरिकेसरीके प्रथम पुत्र थे-गंगाधाराका शासन करते थे, यह काव्य समाप्त हुआ। ___दक्षिणके इतिहाससे पता चलता है कि ये कृष्णराजदेव राष्ट्रकूट या राठौर वंशके महाराजा थे और इनका दूसरा नाम अकालवर्ष था। यह वही वंश है जिसमें भगवज्जिनसेनके परमभक्त महाराज अमोघवर्ष (प्रथम) उत्पन्न हुए थे। अमोघवर्षके पुत्र अकालवर्ष (द्वितीय कृष्ण) और अकालवषेके जगत्तुंग हुए । इन जगत्तुगक इन्द्र या नित्यवर्ष और बहिग या अमोघवर्ष ( तृतीय ) मेसे-अमोघवर्ष तृतीयके पुत्र कृष्णराजदेव या तृतीय कृष्ण थे। इनके समयके शक संवत् ८६५, ८७३, ८७६, और ८८१ के चार शिलालेख मिले हैं, इससे इनका राज्यकाल कमसे कम ८६७ से ८८१ तक सुनिश्चित है। ये दक्षिणके सार्वभौमराजा थे और बड़े प्रतापी थे । इनके अधीन अनेक माण्डलिक या करद राज्य थे। कृष्णराजने-जैसा कि सोमदेवसरिने लिखा है-सिंहल, चोल, पाण्य और चेर राजाओंको युद्ध में पराजित किया था। इनके समयमें कनड़ी भाषाका सुप्रसिद्ध कवि पोन हुआ है जो जैन था और जिसने
पाण्ड्य-वर्तमानमें मद्रासका 'तिनेवली'। सिंहलसिलोन या लंका। चोल-मदरासका कारोमण्डल । चेर केरल, वर्तमान त्रावणकोर । २ मुद्रित --अन्यमें 'मेल्याटी' पाठ है। ३ मुद्रित पुस्तकमें 'श्रीमद्वागराजप्रवर्धमान-- पाठ है।
* जगत्तुंग मद्दीपर नहीं बैठे । अकालवर्षके बाद जगत्तुंगके पुत्र तृतीय इन्द्रको गद्दी मिली। इन्द्रके दो पुत्र ये-अमोघवर्ष ( द्वितीय ) और गोविन्द (चतुर्थ ) । इनमेंखे द्वितीय अमोघवर्ष पहले सिंहासनारूढ हुए; परन्तु कुछ, ही समयके बाद गोविन्द चतुर्थने उन्हें गद्दीसे उतार दिया और आप राजा बन बैठे। गोविन्दके बाद उनके काका अर्थात् जगत्तंगके दूसरे पुत्र अमोघवर्ष (तृतीय) गद्दीपर बैठे। अमोघवर्षके बाद ही कृष्णराजदेव सिंहासनासीन हुए । इन सबके विषयमें विस्तारसे जाननेके लिए डा० भाण्डरकरकृत 'हिस्ट्री आफ दी डेक्कन' या उसका मराठी अनुबाद पढ़िए।
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जैन साहित्य संशोधक
[ खंड २
शान्तिपुराण नामक श्रेष्ठ प्रन्थकी रचना की है। महाराज कृष्णराज देवके दरबारसे इसे ' उभयभाषाकविचक्रवर्ती की उपाधि मिली थी ।
निजाम राज्य में मलखेड़ नामका एक प्राम है जिसका प्राचीन नाम 'मान्यखेट' है । यह मान्यखेट ही अमोघ - वर्ष आदि राष्ट्रकूट राजाओंकी राजधानी थी और उस समय बहुत ही समृद्ध थी। संभव है कि सोमदेवने इसको मेलपाटी या मिल्याटी लिखा हो । 'हिस्टरी आफ कनारी लिटरेचर' के लेखकने लिखा है कि पोन कविको उभयभाषाकविचक्रवर्तीकी उपाधि देनेवाले राष्ट्रकूट राजा कृष्णराजने मान्यखेटमें सन् ९३९ से ९६८ तक राज्य किया है । इससे भी मालूम होता है कि मान्यखेटका ही नाम मेलपाटी होगा; परंतु यदि यह मेलपाटी कोई दूसरा स्थान है तो समझना होगा कि कृष्णराज देवके समय में मान्यखेटसे राजधानी उठकर उक्त दूसरे स्थान में चली गई थी। इस बात का पता नहीं लगता कि मान्यखेटमें राष्ट्रकूटाकी राजधानी कब तक रही।
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राष्ट्रकूटोंके समय में दक्षिणका चालुक्यवंश ( सोलंकी ) हतप्रभ हो गया था। क्योंकि इस वंशका सार्वभौमत्व राष्ट्रकूटोंने ही छीन लिया था। अतएव जब तक राष्ट्रकूट सार्वभौम रहे तब तक चालुक्य उनके आज्ञाकारी सामन्त या माण्डलिक राजा बनकर ही रहे । जान पड़ता है कि अरिकेसारका पुत्र बहिग ऐसा ही एक सामन्तराजा था जिसकी गंगाधारा नामक राजधानी में यशस्तिलककी रचना समाप्त हुई है ।
चालुक्योंकी एक शाखा ' जोल' नामक प्रान्तपर राज्य करती थी जिसका एक भाग इस समयके धारवाड़ जिलेमें आता है और श्रीयुक्त आर. नरसिंहाचार्य के मतसे चालुक्य अरिकेसरीकी राजधानी 'पुलगेरी' में थी जो कि इस समय ' लक्ष्मेश्वर' के नामसे प्रसिद्ध है ।
इस अरिकेसरी के ही समय में कनड़ी भाषाका सर्वश्रेष्ठ कवि पम्प हो गया है जिसकी रचना पर मुग्ध होकर अरिकेसरीने धर्मपुर नामका एक ग्राम पारितोषिक में दिया था । पम्प जैन था । उसके बनाये हुए दो ग्रन्थ ही इस समय उपलब्ध है - एक आदिपुराण चम्पू और दूसरा भारत या विक्रमार्जुनविजय । पिछले ग्रन्थ में उसने अरिकेसरीकी बंशावली इस प्रकार दी है- युद्धमल -अरिकेसरी - नारसिंह - युद्धमल्ल बद्दिग युद्धमल्लनारसिंह और अरिकेसरी । उक्त ग्रन्थ शक संवत ८६३ ( वि० ९९८ में ) समाप्त हुआ है, अर्थात् वह यशस्तिलकसे कोई १८ वर्ष पहले बन चुका था । इसकी रचना के समय अरिकेसरी राज्य करता था, तब उसके १८ वर्षबाद-यशस्तिलककी रचनाके समय -- उसका पुत्र राज्य करता होगा, यह सर्वथा ठीक जँचता है ।
काव्यमाला द्वारा प्रकाशित यशस्तिलक में अरिकेसरीके पुलका नाम 'श्रीमद्वागराज ' मुद्रित हुआ है; परन्तु हमारी समझमें वह अशुद्ध है । उसकी जगह ' श्रीमद्वद्दिगराज ' पाठ होना चाहिए। दानवीर सेठ माणिकचंदजीके सरस्वतीभंडारकी वि० सं० १४६४ की लिखी हुई प्रतिमें ' श्रीमद्वयगराजस्य ' पाठ है और इससे हमें अपने कल्पना किये हुए पाठकी शुद्धता और भी अधिक विश्वास होता है । ऊपर जो हमने पम्पकवि-लिखित अरिकेसरीकी वंशावली दी है, उस पर पाठकोंको जरा बारीकी से विचार करना चाहिए। उसमें युद्धमल नामके तीन, अरिकेसरी नाम दो और नारसिंह नामके दो राजा है । अनेक राजवंशोंमें प्रायः यही परिपाटी देखी जाती है कि पितामह और पौत्र या प्रपितामह और प्रपौत्र के नाम एकसे रक्खे जाते थे, जैसा कि उक्त वंशावलीसे प्रकट होता है * । अतएव हमारा अनुमान है कि इस वंशावलीके अन्तिम राजा अरिकेसरी ( पम्पके आश्रयदाता ) के पुलका नाम बद्दिग X ही होगा जो कि लेखकों के प्रमादसे 'वद्यग' या 'वाग' बन गया है ।
* महाराजा अमोघवर्ष ( प्रथम ) के पहले शायद राष्ट्रकूटोंकी राजधानी मयूरखण्डी थी जो इस समय नासिक जिलेमें मोरखण्ड किलेके नामसे प्रसिद्ध है ।
* दक्षिणके राष्ट्रकूटोंकी वंशावलीमें भी देखिए कि अमोघवर्ष नामके चार, कृष्ण या अकालवर्ष नाम के तीन, गोविन्द नामके चार, इन्द्र नामके तीन और कर्क नामके तीन राजा लगभग २५० वर्षके बीच में ही हुए हैं। x श्रद्धेय पं० गौरीशंकर हीराचन्द ओझाने अपने ' सोलंकियों के इतिहास ' ( प्रथम भाग ) में लिखा है कि सोमदेवसूरीने अरिकेसरीके प्रथम पुत्रका नाम नहीं दिया है; परन्तु ऐसा उन्होंने यशस्तिलककी प्रशस्तिके अशुद्ध पाठके कारण समझ लिया है; वास्तवमे नाम दिया है और वह ' वद्दिग' ही है ।
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अंक १]
सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत ।
[४७
'गंगाधारा' स्थान के विषयमें हम कुछ पता न लगा सके जो कि बद्दिगकी राजधानी थी और जहाँ यशस्तिलककी रचना समाप्त हुई है । संभवतः यह स्थान धारवाड़के ही आसपास कहीं होगा।
. श्रीसोमदेवसूरिने नातिवाक्यामृतकी रचना कब और कहाँ पर की थी, इस बातका विचार करते हुए हमारी दृष्टि उसकी संस्कृत टीकाके निम्नलिखित वाक्यों पर जाती है।
" अन तावदखिलभपालमौलिलालितचरणयगलेन रघवंशावस्थायिपराक्रमपालितकस्य ( कृत्स्न) कर्णकब्जेन महाराजश्रीमहेन्द्रदेवेनं पूर्वाचार्यकृतार्थशास्त्रदुरवबोधग्रन्थगौरवखिन्नमानसेन सुबोधललितलघुनीतिवाक्यामृतरचनासु प्रवर्तितः सकलपारिषदत्वान्नतिग्रन्थस्थ नानादर्शनप्रतिबद्धश्रोतृणां तत्तदभीष्टश्रीकण्ठाच्युतविरंच्यर्हता वाचनिकमनस्कृतिसूचनं तथा स्वगुरोः सोमदेवस्य च प्रणामपूर्वकं शास्त्रस्य तत्कर्तृत्वं ख्यापयितुं सकलसत्त्वकृताभयप्रदानं मुनिचन्द्राभिधानः क्षपणकव्रतधती नातिवाक्यामृतकर्ता निर्विघ्नसिद्धिकरं...श्लोकमेकं जगाद-" पृष्ठ २.
इसका अभिप्राय यह है कि कान्यकुब्जनरेश्वर महाराजा महेन्द्रदेवने पूर्वाचार्यकृत अर्थशास्त्र ( कौटिलीय अर्थशास्त्र ? ) की दुर्बोधता और गुरुतासे खिन्न होकर प्रन्थकर्ताको इस सुबोध, सुन्दर और लघु नीतिवाक्यामृतकी रचना करनेमें प्रवृत्त किया।
कन्नौजके राजा महेन्द्रपालदेवका समय वि० संवत् ९६० से ९६४ तक निश्चित हुआ है। कर्पूरमंजरी और काव्यमीमांसा आदिके कर्ता सुप्रसिद्ध कवि राजशेखर इन्हीं महेन्द्रपालदेवके उपाध्याय थे*। परन्तु हम देखते हैं कि यशस्तिलक वि० संवत् १०१६ में समाप्त हुआ है और नीतिवाक्यामृत उससे भी पीछे बना है। क्योंकि नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिमे ग्रन्थकर्त्ताने अपनेको यशोधरमहाराजचरित या यशस्तिलक महाकाव्यका कर्ता प्रकट किया है और इससे प्रकट होता है कि उक्त प्रशस्ति लिखते समय वे यशस्तिलकको समाप्त कर चुके थे। ऐसी अवस्था महेन्द्रपालदेवसे कमसे कम ५०-५१ वर्ष बाद नीतिवाक्यामृतका रचनाकाल ठहरता है। तब समझमें नहीं आता कि टीकाकारने सोमदेवको महेन्द्रपालदेवका सामायक कैसे ठहराया है। आश्चर्य नहीं जो उन्होंने किसी सुनी सुनाई किंवदन्तीके आधारसे पूर्वोक्त बात लिख दी हो।
नीतवाक्यामृतके टीकाकारका समय अज्ञात है; परंतु यह निश्चित है कि वे मूल प्रन्यकर्तासे बहुत पीछे हुए हैं, क्योंकि और तो क्या वे उनके नामसे भी अच्छी तरह परिचित नहीं है। यदि ऐसा न होता तो मंगला. चरणके श्लोककी टीकामें जो ऊपर उद्धृत हो चुकी है, वे ग्रंथकर्ताका नाम 'मुनिचन्द्र ' और उनके गुरुका नाम 'सोमदेव' न लिखते। इससे भी मालूम होता है कि उन्होंने ग्रन्थकर्ता और महेन्द्रदेवका समकालिकत्व किंवदन्तकि आधारसेही लिखा है।
सोमदेवसूरिने यशस्तिलकमें एक जगह जो प्रार्चान महाकवीयोंकी नामावली दी है, उसमें सबसे अन्तिम नाम राजशेखरका है। इससे मालूम होता है कि राजशेखरका नाम सोमदेवके समयमें प्रसिद्ध हो चुका था, अत एव राजशेखर उनसे अधिक नहीं तो ५० वर्ष पहले अवश्य हुए होंगे और महेन्द्रदेवके के उपाध्याय थे। इससे भी नीतिवाक्यामृतका उनके समयमें या उनके कहनेसे बनना कम संभव जान पड़ता है।
और यदि कान्यकुब्जनरेशके कहनेसे सचमुच ही नीतिवाक्यामृत बनाया गया होता, तो इस बातका उल्लेख ग्रन्थकर्ता अवश्य करते; बल्कि महाराजा महेन्द्रपालदेव इसका उल्लेख करनेके लिए स्वयं उनसे आग्रह करते।
पहले बतलाया जा चुका है कि सोमदेवसूरि देवसंघके आचार्य थे और जहाँ तक हम जानते हैं यह संघ दक्षिणमें ही रहा है। अब भी उत्तरमें जो भट्टारकोंकी गहियों हैं, उनमेंसे कोई भी देवसंघकी नहीं है । यशस्तिलक भी दक्षिणमें ही बना है और उसकी रचनासे भी अनुमान होता है कि उसके कर्ता दाक्षिणात्य हैं । ऐसी अवस्थामें उनका
-* देखो नागरीप्रचारिणी पत्रिका (नवीन संस्करण), भाग २, अंक १ में स्वर्गीय पं० चन्द्रधर शर्मा गुलेरीका 'अवन्तिसुन्दरी' शीर्षक नोट ।
x" तथा--उर्व-भारवि-भवभूति-भर्तृहरि-भर्तृमेण्ठ-गुणान्य-व्यास-भास-बोस-कालिदास-बाण-मयूर-नारायण-कुमारमाघ-राजशेखरादिमहाकविकाव्येषु तत्र तत्रावसरे भरतप्रणीते काव्याध्याये सर्वजनप्रसिद्धेषु तेषु तेषूपाख्यानेषु च कथं सविषमा महती प्रसिद्धिः ।"
--यशस्तिलक आ०४, पृ.११३॥
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४८]
जैन साहित्य संशोधक
[ खंड २
निर्मन्थ होकर भी कान्यकुब्ज के राजाकी सभामें रहना और उसके कहनेसे नीतिवाक्यामृतकी रचना करना असंभव नहीं तो विलक्षण अवश्य जान पड़ता 1
मूलग्रन्थ और उसके कत्ती के विषय में जितनी बातें मालूम हो सकीं उन्हें लिखकर अब हम टीका और टीकाकारका परिचय देनेकी ओर प्रवृत्त होते हैं:
टीकाकार |
जिस एक प्रतिके आधारसे यह टीका मुद्रित हुई है, उसमे कहीं भी टीकाकारका नाम नहीं दिया है । संभव है कि टीकाकार की भी कोई प्रशस्ति रही हो और वह लेखकों के प्रमादसे छूट गई हो । परन्तु टीकाकारने ग्रन्थके आरंभमें जो मंगलाचरणका श्लोक लिखा है, उससे अनुमान होता है कि उनका नाम बहुत करके ' हरिबल ' होगा । हरि हरिबलं नत्वा हरिवर्ण हरिप्रभम् । हरीज्यं च ब्रुवे टीका नीतिवाक्यामृतोपरि ॥
यह श्लोक मूल नीतिवाक्यामृतके निम्नलिखित मंगलाचरणका बिल्कुल अनुकरण है:सोमं सोमसमाकारं सोमाभं सोमसंभवम् । सोमदेवं मुनिं नत्वा नीतिवाक्यामृतं ब्रुवे ||
जब टीकाकारका मंगलाचरण मूलका अनुकरण है और मूलकारने अपने मंगलाचरणमें अपना नाम भी पर्यायान्तरसे व्यक्त किया है, तब बहुत संभव है कि टीकाकारने भी अपने मंगलाचरणमें अपना नाम व्यक्त करनेका प्रयत्न किया हो और ऐसा नाम उसमें हरिबल ही हो सकता है जिसके आगे मूलके सोमदेव के समान 'नत्वा' पद पड़ा हुआ है। यह भी संभव है कि हरिबल टीकाकारके गुरुका नाम हो और यह इसलिए कि सोमदेवको उन्होंने मूलप्रन्थकर्ता के गुरुका नाम समझा है । यद्यपि यह केवल अनुमान ही है, परन्तु यदि उनका या उनके गुरुका नाम हरिबल हो, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है ।
टीकाकारने मंगलाचरण में हरि या वासुदेवको नमस्कार किया है। इससे मालूम होता है कि वे वैष्णव धर्मके उपासक होंगे।
वे कहाँ के रहनेवाले थे और किस समय में उन्होंने यह टीका लिखी हैं, इसके जाननेका कोई साधन नहीं है। परन्तु यह बात निःसंशय होकर कही जा सकती है कि वे बहुश्रुत विद्वान् थे और एक राजनीतिके ग्रन्थपर टीका लिखनेकी उनमें यथेष्ट योग्यता थी । इस विषयके उपलब्ध साहित्यका उनके पास काफी संग्रह था और टीकामें उसका पूरा पूरा उपयोग किया गया है । नीतिवाक्यामृतके अधिकांश वाक्योंकी टीकामे उस वाक्यसे मिलते जुलते अभिप्रायवाले उद्धरण देकर उन्होंने मूल अभिप्रायको स्पष्ट करनेका भरसक प्रयत्न किया है । विद्वान् पाठक समझ सकते हैं कि यह काम कितना कठिन है और इनके लिए उन्हें कितने प्रन्थोका अध्ययन करना पड़ा होगा; स्मरणशक्ति भी उनकी कितनी प्रखर होगी ।
यह टीका पचासों ग्रन्थकारों के उद्धरणोंसे भरी हुई है। इसमें किन किन कवियों, आचार्यों या ऋषियों के श्लोक उदधृत किये गये हैं, यह जानने के लिए प्रन्थके अन्तमें उनके नामोंकी और उनके पद्योंकी एक सूची वर्णानुक्रमसे लगा दी गई है, इसलिए यहाँ पर उन नामोंका पृथक् उल्लेख करनेकी आवश्यकता नहीं है । पाठक देखेंगे कि उसमें अनेक
बिल्कुल अपरिचित हैं और अनेक ऐसे हैं जिनके नाम तो प्रसिद्ध हैं; परन्तु रचनायें इस समय अनुपलब्ध हैं । इस दृष्टिसे यह टीका और भी बड़े महत्त्वकी है कि इससे राजनीति या सामान्यनीतिसम्बन्धी प्राचीन ग्रन्थकारोंकी रचनाके सम्बन्ध में अनेक नई नई बातें मालूम होंगी ।
संशोधक के आक्षेप |
इस ग्रन्थकी प्रेसकापी और प्रुफ संशोधनका काम श्रीयुत पं० पन्नालालजी सोनीने किया है । आपने केवल अपने उत्तरदायित्व पर मेरी अनुपस्थितिमें, कई टिप्पणियाँ ऐसी लगा दी हैं जिनसे टीकाकारके और उसकी टीकाके विषमें एक बड़ा भारी भ्रम फैल सकता है अतएव यहाँ पर यह आवश्यक प्रतीत होता है कि उन टिप्पणियों पर भी एक नजर डाल ली जाय । सोनीजीकी टिप्पणियों के आक्षेप दो प्रकार के हैं:
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अंक १] सोमदेवसारिकृत नीतिवाक्यामृत
[४९ १-टीकाकारने जो मनु, शुक्र और याज्ञवल्क्यके श्लोक उधृत किये हैं, वे मनुस्मृति, शुक्रनीति और याज्ञवल्क्यस्मृतिमें, नहीं है। यथा पृष्ठ १६५ की टिप्पणी-“श्लोकोऽयं मनुस्मृतौ तु नास्ति। टीकाकर्ता स्वदौष्टयेन ग्रन्थकर्तृपराभवाभिप्रायेण बहवः श्लोकाः स्वयं विरचय्य तत्र तत्र स्थलेषु विनिवशिताः।' अर्थात् यह श्लोक मनुस्मृतिमें तो नहीं है, टीकाकारने अपनी दुष्टतावश मूलकर्ताको नीचा दिखानेके अभिप्रायसे स्वयं ही बहुतसे श्लोक बनाकर जगह जगह घुसेड़ दिये हैं।।
२-इस टीकाकारने-जो कि निश्चयपूर्वक अजैन है-बहुतसे सुत्र अपने मतके अनुसार स्वयं बनाकर जोड़ दिये हैं । यथा पृष्ठ ४९ की टिप्पणी-"अस्य ग्रन्थस्य कर्त्ता कश्चिदजैनविद्वानस्तीति निश्चितं । अतस्तेन स्वमतानुसारेण बहूनि सूत्राणि विरचय्य संयोजितानि । तानि च तत्र तत्र निवेदयिष्यामः।" ..
पहले आक्षेपके सम्बन्धमें हमास निवेदन है कि सोनीजी वैदिक धर्मके साहित्य और उसके इतिहाससे सर्वथा अनभिज्ञ हैं। फिर भी उनके साहसकी प्रशंसा करनी चाहिए कि उन्होंने मनु या शुक्रके नामके किसी ग्रन्थके किसी एक संस्करणको देखकर ही अपनी अद्भुत राय दे डाली है। खेद है कि उन्हें एक प्राचीन विद्वानके विषयम-केवल इतने कारणसे कि वह जैन नहीं है इतनी बड़ी एकतरफा डिक्री जारी कर देनेमें जरा भी झिझक नहीं हुई :
सोनीजीने सारी टीका मनुके नामके पाँच श्लोकोपर, याज्ञवल्क्यके एक श्लोकपर, और शुक्रके दो श्लोकोपर अपने नोट दिये हैं कि ये श्लोक उक्त आचार्यों के ग्रन्थों में नहीं हैं। सचमुच ही उपलब्ध मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति और शुक्रनीतिम उद्धृत श्लोकोंका पता नहीं चलता। परन्तु जैसा कि सोनीजी समझते हैं, इसका कारण टीकाकारकी दुष्टता या मूलकर्ताको नीचा दिखानेकी प्रवृत्ति नहीं है।
सोनीजीको जानना चाहिए कि हिन्दुओंके धर्मशास्त्रों में समय समय पर बहुत कुछ परिवर्तन होते रहे हैं। अपने निर्माणसमयमें वे जिस रूपमें थे, इस समय उस रूपमे नहीं मिलते हैं। उनके संक्षिप्त संस्करण भी हुए हैं प्रन्थोंके नष्ट हो जानेसे उनके नामसे दूसरोंने भी उसी नामके ग्रन्थ बना दिये हैं । इसके सिवाय एक स्थानकी प्रतिके पाठोंसे दूसरे स्थानोंकी प्रतियोंके पाठ नहीं मिलते। इस विषयमें प्राचीन साहित्यके खोजियोंने बहुत कुछ छानबीन की है और इस विषय पर बहुत कुछ प्रकाश डाला है। कौटिलीय अर्थशास्त्रकी भूमिकामे उसके सुप्रसिद्ध सम्पादक पं. आर. शामशास्त्री लिखते हैं:
“ अतश्च चाणक्यकालकं धर्मशास्त्रमधुनातनाद्याज्ञवल्क्यधर्मशास्त्रादन्यदेवासीदिति प्रतिभाति । एवमेव ये पुनर्मानव-बार्हस्पत्यौशनसा भिन्नाभिप्रायास्तत्र तत्र कौटिल्येन परामृष्टाः न तेऽअधुनोपलभ्यमानेषु ततद्धर्मशास्त्रेषु दृश्यन्त इति कौटिल्यपरामृष्टानि तानि शास्त्राण्यन्यान्येवेति बाढं सुवचम् ।”
अर्थात् इससे मालूम होता है कि चाणक्यके समयका याज्ञवल्क्य धर्मशास्त्र वर्तमान याज्ञवल्क्य शास्त्र (स्मृति) से कोई जुदा ही था। इसी तरह कौटिल्यने अपने अर्थशास्त्रमें जगह जगह बाईस्पत्य, औशनस आदिसे जो अपने भिन्न अभिप्राय प्रकट किये हैं वे अभिप्राय इस समय मिलनेवाले उन धर्मशास्त्रोंमें नहीं दिखलाई देते। अतएव यह अच्छी तरह सिद्ध होता है कि कौटिल्यने जिन शास्त्रोंका उल्लेख किया है, वे इनके सिवाय दूसरे ही थे।
स्वर्गीय बाबू रमेशचन्द्र दत्तने अपने प्राचीन सभ्यताके इतिहास' में लिखा है कि प्राचीन धर्मसूत्रोंको सुधार कर उत्तरकालमें स्मृतियाँ बनाई गई हैं जैसे कि मनु और याज्ञवल्क्यकी स्मृतियाँ । जो धर्मसूत्र खोये गये हैं उनमें एक मनुका सुत्र भी है जिससे कि पीछेके समयमें मनुस्मृति बनाई गई है।
याज्ञवल्क्य स्मृतिके सुप्रसिद्ध टीकाकार विज्ञानेश्वर लिखते हैं:-" याज्ञवल्क्यशिष्यः कश्चन प्रश्नोत्तर. रूपं यात्रवल्क्यप्रणीतं धर्मशास्त्रं संक्षिप्य कथयामास, यथा मनुप्रोक्तं भृगुः ।' अर्थात् याज्ञवल्क्यके किसी शिष्यने याज्ञवल्क्यप्रणीत धर्मशास्त्रको संक्षिप्त करके कहा-जिस तरह कि भृगुने मनुप्रणीत धर्मशास्त्रको संक्षिप्त करके मनुस्मृति लिखी है । इससे मालूम होता है कि उक्त दोनों स्मृतियाँ, मनु और याज्ञवल्क्य के प्राचीन शास्त्रोंके उनके
रमेशबाबूने अपने इतिहासके चौथे भागमें इस समय मिलनेवाली पृथक् पृथक् बीसों स्मृतियों पर अपने विचार प्रकट किये हैं और उसमें बतलाया है कि अधिकांश स्मृतियाँ बहुत पीछे की बनी हुई हैं और बहुतोंमें जो प्राचीन भी हैं-बहुत पीछे तक नई नई बातें शामिल की जाती रही हैं।
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जैन साहित्य संशोधक शिष्यों या परम्पराशिष्यों द्वारा निर्मित किये हुए सार हैं और इस बातको तो सभी जानते हैं कि उपलब्ध मनुस्मृति भूगुप्रणीत हैं-स्वयं मनुप्रणीत नहीं।
बम्बईके गुजराती प्रेसके मालिकोंने कुल्लूकभट्टकी टीकाके सहित मनुस्मृतिका एक सुन्दर संस्करण प्रकाशित किया है। उसके परिशिष्टमे ३५५ श्लोक ऐसे दिये हैं जो वर्तमान मनुस्मृति में तो नहीं मिलते हैं। परन्तु हेमादि, मिताक्षरा, पराशरमाधवीय, स्मृतिरत्नाकर, निर्णयसिन्धु आदि ग्रन्थोंमें मनु, वृद्धमनु और बृहन्मनुके नामसे 'उक्तंच' रूपमें उद्धत किये हैं। इसके सिवाय सैकड़ों श्लोक क्षेपकरूपमें भी दिये है, जिनकी कुल्लक भट्ठने भी टीका नहीं की है।
हमारे जैनप्रन्थोमे भी मनुके नामसे अनेक श्लोक उद्धत किये गये हैं जो इस मनुस्मृतिमें नहीं है। उदाहरणार्थ स्वनामधन्य पं० टोडरमल्लजीने अपने मोक्षमार्गप्रकाशके पाँच अधिकारमें मनुस्मृतिके तीन श्लोक दिये हैं, जो वर्तमान मनुस्मृतिमें नहीं हैं। इसी तरह 'द्विजवदनचपेट' नामक दिगम्बर जैनग्रन्थमे भी मनुके नामसे ७ श्लोक उद्धत हैं जिनमेसे वर्तमान मनुस्मृति केवल २ मिलते हैं, शेष ५ नहीं हैं।*
शुक्रनीति जो इस समय मिलती है उसके विषयमें तो विद्वानोंकी यह राय है कि वह बहुत पीछेकी बनी हुई हैपाँच छः सौ बर्षसे पहलेकी तो वह किसी तरह हो ही नहीं सकती । शुक्रका प्राचीन प्रन्य इससे कोई पृथक् ही था + कौटिलीय अर्थशास्त्र लिखा है कि शुक्रके मतसे दण्डनीति एक ही राजविद्या है, इसमें सब विद्यायें गर्मित है; परन्तु वर्तमान शुक्रनीतिका कर्ता चारों विद्याओको राजविद्या मानता है--विद्याश्चतस्त्र एवेताः' आदि (अ०१ लो०५१)। अतएव इस शुक्रनीतिको शुक्रकी मानना भ्रम है। . इन सब बातों पर विचार करनेसे हम टीकाकार पर यह दोष नहीं लगा सकते कि उसने स्वयं ही श्लोक गढकर मनु आदिके नाम पर मढ़ दिये हैं। हम यह नहीं कहते कि वर्तमान मनुस्मृति उक्त टीकाकारके बादकी है, इस लिए उस समय यह न उपलब्ध होगा। क्योंकि टीकाकारसे भी पहले मुलकर्ता श्रीसोमदेवसरिने भी मनुके बास श्लोक उद्धत किये हैं और वे वर्तमान मनुस्मृति में मिलते हैं। अतएव टीकाकारके समयमें भी यह मनुस्मृति अवश्य होगी; परन्तु इसकी जो प्रति उन्हें उपलब्ध होगी, उसमें टीकोद्धत श्लोकोंका रहना असंभव नहीं माना जा सकता । यह भी संभव है कि किसी दूसरे ग्रन्थकर्ताने इन श्लोकोको मनुके नामसे उद्धृत किया हो और उस प्रन्यके आधारसेरीकाकारने भी उधुत कर लिया हो । जैसे कि अभी मोक्षमार्गप्रकाशके या द्विजवदनचपेटके आधारसे उनमें उद्धत किये हुए मनुस्मृतिक बोकोको, कोई नया लेखक अपने ग्रन्थमें भी लिख दे।
याज्ञवल्क्यस्मृतिक श्लोकके विषयमें भी यही बात कही जा सकती है। अब रही शुक्रनीति, सो उसकी प्राचीनतातो बहतही संदेह है। वह तो इस टीकाकारसे भी पीछेकी रचमा जान पड़ती है। इसके सिवाय शुक्रके नामसे तो टीकाकारने दो चार नहीं १७.लगभग श्लोक उद्धत किये हैं। तो क्या टीकाकारने पे सबके सब ही मूलकत्तोको नीचा दिखानेकी गरजसे गढ़ लिये होंगे? और मुलकर्ता तो इसमें अपनी कोई तौहीन ही नहीं समझते हैं। उन्होंने तो अपने यशस्तिलकमें न जाने कितने विद्वानोंके वाक्य और पद्य जगह जगह उधृत करके अपने विषयका प्रतिपादन किया है।
सोनीजीका दूसरा आक्षेप यह है किटकाकारने स्वयं ही बहुतसे सूत्र (वाक्य ) गढकर मूलमें शामिल कर दिये हैं। विद्यावृद्धसमुद्देशके, नीचे लाले २१ वें, २३ में और २५ वे सूत्रोको आप टीकाकर्ताका बतलाते हैं:
१-"बैवाहिकः शालीनो जायावरोऽघोरो गृहस्थाः॥" २१ २-बालाखिल्य औदुम्बरी वैश्वानराः सद्य प्रक्षल्यकश्चेति वानप्रस्थाः" ॥ २३ ४ देखो मोक्षमार्गप्रकाशका बम्बईका संस्करण, पृष्ठ० २.१।
® 'द्विजवदनचपेट ' संस्कृत ग्रन्थ है, कोल्हापुरके श्रीयुत पं० कल्लाप्पा भरमाप्पा निटवेने 'जैनबोधक' में और स्वतंत्र पुस्तकाकार भी, अबसे कोई १२-१४ वर्ष पहले, मराठी टीकासहित प्रकाशित किया था।
x देखो गुजराती प्रेसकी शुक्रनीतिकी भूमिका ।
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अंक १]
सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत ।
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३ - " कुटीरकबहादक - हंस- परमहंसा यतयः ॥ २५
इसका कारण आपने यह बतलाया है कि मुद्रित पुस्तकमें और हस्तलिखित गूलपुस्तकमें ये सूत्र नहीं हैं। परन्तु इस कारण में कोई तथ्य नहीं दिखलाई देता । क्योंकि
१ - जब तक दश पाँच हस्तलिखित प्रतियाँ प्रमाणमें पेश न की जासकें, तब तक यह नहीं माना जा सकता कि मुद्रित और मूलपुस्तकमें जो पाठ नहीं हैं वे मूलकर्त्ता नहीं हैं - ऊपरसे जोड़ दिये गये हैं । इस तरहके हॉन अधिक पाठ जुदी जुदी प्रतियोंमें अकसर मिलते हैं ।
२-मूलकत्तीने पहले वर्णोंके भेद बतलाकर फिर आश्रमोंके भेद बतलाये हैं- ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति । फिर ब्रह्मचारियोंके उपकुर्वाण, नैष्ठिक, और ऋतुप्रद ये तीन भेद बतलाकर उनके लक्षण दिये हैं । इसके आगे गृहस्थ, वानप्रस्थ और यतियोके लक्षण क्रमसे दिये हैं; तब यह स्वाभाविक और क्रमप्राप्त है कि ब्रह्मचारियो के समान गृहस्थों, वानप्रस्थों और यतियों के भी भेद बतलाये जाय और वे ही उक्त तीन सूत्रोंमें बतलाये गये हैं । तब यह निश्वय पूर्वक कहा जा सकता है कि प्रकरणके अनुसार उक्त तीनों सूत्र अवश्य रहने चाहिए और मूलकतने ही उन्हें रचा होगा। जिन प्रतियोंमे उक्त सूत्र नहीं हैं; उनमें उन्हें भूलसे ही छूटे हुए समझना चाहिए ।
३ - यदि इस कारण से ये मूलकत्तांके नहीं है कि इनमें बतलाये हुए भेद जैनमतसम्मत नहीं हैं, तो हमारा प्रश्न है कि उपकुर्वाण, कृतुप्रद आदि ब्रह्मचारियोंके भेद भी किसी जैनमन्यमें नहीं लिखे हैं, तब उनके सम्ब न्धके जितने सूत्र हैं, उन्हें भी मूलकत्तांके नहीं मानने चाहिए । यदि सूत्रोंके मूलकर्ताकृत होनेकी यही कसौटी सोनीजी ठहरा देव, तब तो इस ग्रन्थका अघसे भी अधिक भाग टीकाकारकृत ठहर जायगा। क्योकि इसमें सैकड़ों ही सूत्र ऐसे है जिनका जनधमक साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है और कोई भी विद्वान् उन्हें जनसम्मत सिद्ध नहीं कर सकता ।
४ -- जिसतरह टीकापुस्तकमें अनेक सूत्र अधिक हैं और जिन्हें सोनाजी टाकाकताकी गढ़न्त समझते हैं, उसी प्रकार मुद्रित और मूलपुस्तक में भी कुछ सूत्र अधिक है ( जो टीकापुस्तकमे नहीं है ), तब उन्हें किसकी गढ़न्त समझना चाहिए ? विद्यावृद्धसमुद्देशके ५९ वे सूत्रके आगे निम्नलिखित पाठ छूटा हुआ है जो मुद्रित और मूलपुस्तकमें मौजूद है:
"C
'सांख्य योगो लोकायतं चान्वीक्षिकी । बौद्धार्हताः श्रुतेः प्रतिपक्षत्वात् ( नान्वीक्षिकीत्वं ), प्रकृतिपुरुषशेो हि राजा सत्त्वमवलम्बते । रजः फलं चाफलं च परिहरति, तमाभिनाभिभूयंत ।'
भला इन सूत्रोंको टीकाकारने क्यों छोड़ दिया ? इसमें कही हुई बातें तो उसके प्रतिकूल नहीं थी ? और मुद्रित तथा मूलपुस्तक दोनों ही यदि जनोंके लिए विशेष प्रामाणिक मानी जावे तो उनमें यह अधिक पाठ नहीं होना चाहिए था । क्योंकि इसमें वेदविरोधी होनेके कारण जैन और बौद्धदर्शनको आन्वीक्षिकीस बाहर कर दिया है । और मुद्रित पुस्तकमें तो मूलकतीक मंगलाचरण तकका अभाव है। वास्तविक बात यह है कि न इसमे टीकाकारका दोष है। और न मुद्रित करानेवालका । जिसे जैसी प्रति मिली है उसने उसीके अनुसार टीका लिखी है और पाठ छपाया है। एक प्रतिसे दूसरी ओर दूसरीसे तीसरी इस तरह प्रतियां होते होते लेखकों के प्रमादसे अकसर पाठ छूट जाते हैं और टिप्पण आदि मूलमें शामिल हो जाते हैं ।
हम समझते हैं कि इन बातोंसे पाठकोका यह भ्रम दूर हो जायगा कि टीकाकारने कुछ सूत्र स्वयं रचकर मूलमें जोड़ दिये हैं । यह केवल सोनीजीके मस्तककी उपज है और निस्सार है । खेद है कि हमें उनकी भ्रमपूर्ण टिप्पणियों के कारण भूमिकाका इतना अधिक स्थान रोकना पड़ा ।
एक विचारणीय प्रश्न ।
इस आशासे अधिक बढ़ी हुई भूमिकाको समाप्त करनेके पहले हम अपने पाठकोंका ध्यान इस और विशेषरूपसे आकर्षित करना चाहते हैं कि वे इस प्रन्थका जरा गहराईके साथ अध्ययन करें और देखें कि इसका जैनधर्मके साथ क्या सम्बन्ध है | हमारी समझमें तो इसका जैनधर्मसे बहुत ही कम मेल खाता है । राजनीति यदि धर्मनिरपेक्ष है, अर्थात् वह किसी विशेष धर्मका पक्ष नहीं करती, तो फिर इसका जिस प्रकार जैनधर्मसे कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है
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जैन साहित्य संशोधक
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उसी प्रकार और धर्मोंसे भी नहीं रहना चाहिए था। परंतु हम देखते हैं कि इसका वर्णाचार और आश्रमाचारकी व्यवस्थाके लिए वैदिक साहित्यकी ओर बहुत अधिक झुकाव है । इस ग्रन्थके विद्यावृद्ध, आन्वीक्षिकी और त्रयी समुद्देशोंको अच्छी तरह पढ़नेसे पाठक हमारे अभिप्रायको अच्छी तरह समझ जावेंगे । जैनधर्मके मर्मज्ञ विद्वानोंको चाहिए कि वे इस प्रश्नका विचारपूर्वक समाधान करें कि एक जनाचार्यको कृतिमें आन्वीक्षिकी और त्रयीको इतनी अधिक प्रधानता क्यों दी गई है। यशस्तिलकके नीचे लिखे पद्योंको भी इस प्रश्नका उत्तर सोचते समय सामने रख लेना चाहिए:
द्वौ हि धर्मा गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः। - - लोकाश्रयो भवेदाद्यः परस्यादागमाश्रयः॥ जातयोऽनादयः सर्वास्तक्रियापि तथाविधा। श्रुतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र न क्षतिः॥ स्वजात्यैव विशुद्धानां वर्णानामिह रत्नवत् । तक्रियाविनियोगाय जैनागमाविधिः परम् ॥ यद्भवभ्रान्तिनिर्मुक्तिहेतुधीस्तत्र दुलेभा ।
संसारव्यवहारे तु स्वतःसिद्ध वृथागमः ॥ तथा च-- सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः।
यत्र सम्यक्त्वहानिन यत्र न व्रतदूषणम् ॥ कहीं श्रीसोमदेवसूरि वर्णाश्रमव्यवस्था और तत्सम्बन्धी वैदिक साहित्यको लौकिक धर्म तो नहीं समझते हैं ? और इसी लिए तो यह नहीं कहते हैं कि यदि इस विषय में श्रुति (वेद) और शास्त्रान्तर (स्मृतिया) प्रमाण मान जायें तो हमारी क्या हानि है ? राजनीति भी तो लौकिक शास्त्र ही है। हमको आशा है कि विद्वज्जन इस प्रश्नको ऐसा ही न पड़ा रहने देंगे।
मुद्रण-परिचय। अबसे कोई २५ वर्ष पहले बम्बईकी मेसर्स गोपाल नारायण कम्पनीने इस ग्रन्थको एक संक्षिप्त व्याख्याके साथ प्रकाशित किया था और लगभग उसी समय विद्याविलासी बडोदानरेशने इसके मराठी और गुजराती अनुवाद प्रकाशित कराये थे । उक्त तीनों संस्करणोंको देखकर-जिन दिनों में स्वर्गीय स्याद्वादवारिधि पं० गोपालदासजीकी अधांनतामें जैनमित्रका सम्पादन करता था—मेरी इच्छा इसका हिन्दी अनुवाद करनेकी हुई और तदनुसार मैंने इसके कई समुद्देशोका अनुवाद जैनमित्रमें प्रकाशित भी किया; परन्तु इसके आन्वीक्षिकी और त्रयां आदि समुद्देशोंका जैनधर्मके साथ कोई सामजस्य न कर सकनेके कारण में अनुवादकार्यको अधूरा ही छोड़ कर इसकी संस्कृत टीकाको खोज करने लगा।
तबसे, इतने दिनोंके बाद, यह टीका प्राप्त हुई और अब यह माणिकचन्द्रग्रन्थमालाके द्वारा प्रकाशित की जा रही है। खेद है कि इसके मध्यके २५-२६ पत्र गायब हैं और वे खोज करनेपर भी नहीं मिल । इसके सिवाय इसकी कोई दूसरी प्रति भी न मिल सकी और इस कारण इसका संशोधन जैसा चाहिए वैसा न कराया जा सका। दृष्टिदोष और अनवधानतासे भी बहुतसी अशुद्धियाँ रह गई हैं। फिर भी हमें आशा है कि मूलग्रन्थके समझनेमें इस टीकासे काफी सहायता मिलेगी और इस दृष्टिसे इस अपूर्ण और अशुद्धरूपमें भी इसका प्रकाशित करना सार्थक होगा।
हस्तलिखित प्रतिका इतिहास। पहले जैनसमाजमें शास्त्रदान करनेकी प्रथा विशेषतासे प्रचलित थी। अनेक धनी मानी गृहस्थ ग्रन्थ लिखा लिखाकर जैनसाधुओं और विद्वानोंको दान किया करते थे और इस पुण्यकृत्यसे अपने ज्ञानावरणीय कर्मका निवारण करते थे। बहुतोंने तो इस कार्यके लिए लेखनशालायें ही खोल रक्खी थी जिनमें निरन्तर प्राचीन अवाचीन ग्रन्थोंकी प्रतियाँ होती रहती थीं। यही कारण है जो उस समय मुद्रणकला न रहने पर भी प्रन्योंका यथेष्ट प्रचार रहता था और ज्ञानका प्रकाश मन्द नहीं होने पाता था। स्त्रियोंका इस ओर और भी अधिक लक्ष्य था। हमने ऐसे पचासों हस्तलिखित ग्रन्थ देखे हैं जो धर्मप्राणा स्त्रियोंके द्वारा ही दान किये गये हैं।
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अंक१]
सोमदेवमूरिकृत नीतिवाक्यामृत । इस शास्त्रदान प्रथाको उत्तेजित करने के लिए उस समयके विद्वान् प्रायः प्रत्येक दान किये हुए प्रन्थके अन्तमें दाताकी प्रशस्ति लिख दिया करते थे जिसमें उसका और उसके कुम्बका गुणकर्तिन रहा करता था। हमारे प्राचीन पुस्तक-भंडारोंके ग्रन्थों से इस तरहको हजारों प्रशस्तियाँ संग्रह की जा सकता है जिनसे इतिहास-सम्पादनके कार्यमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है।
नीतिवाक्यामृतटीकाकी वह प्रति भी जिसके आधारसे यह प्रन्थ मुद्रित हुआ है इसी प्रकार एक धनी गृहस्थकी धर्मप्राणा स्त्रोके द्वारा दान की गई थी। ग्रन्थके अन्तम जो प्रशस्ति दी हई है, उससे मालूम होता है कि कार्तिक सुदी ५ विक्रमसंवत् १५४१ को, हिसार नगरके चन्द्रप्रभचैत्यालयमें, सुलतान बहलोल (लोदी)के राज्यकालमें, यह प्रति दान की गई थी।
__नागपुर या नागौरके रहनेवाले खण्डेलवालवंशीय क्षेत्रपालगोत्रीय संघपति कामाकी भार्या साध्वी कमलधीन हिसार निवासी पं० मेहा या माहाको इसे भक्तिभावपूर्वक भेट किया था।
कलह नामक मंघपतिको भायांका नाम राणी था। उसके चार पुत्र थे-हवा. धारा. कामा और सरपति। इनमेसे तीसरे पुत्र संघपति कामाको भाया उक्त साध्वी कमलश्री था जिसन प्रन्य दान किया था। कमलश्रीसे भीषा औवच्छूक नामके दो पुत्र थे। इनमें से भीवाकी भायां भिउंसिरिके मुरुदास नामक पुत्र या जिसकी गुणश्री भायांके गर्भस रणमल और जट्ट नामक दो पुत्र थ। दसरे वच्छककी भाया वासारिक रावणदास पत्र था जिसकी स्त्रीका नाम सरस्वती था। पाठक देखें कि यह परिवार कितना बड़ा और कितमा दीर्घजीवी था। कमलश्रीके सामने उसके प्रपौत्र तक मौजूद थे।
पण्डित मेहा या माहाका दूसरा नाम पं. मेधावी था। ये वही मेधावी हैं जिन्होंने धर्मसंग्रहश्रावकाचार नामका प्रन्थ बनाया है और जो मुद्रित हो चुका है। पं. मीहा अपनी गुरुपरम्पराके विषयमें कहते हैं कि नन्दिसंघ, बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छके भट्टारक पननन्दिके शिष्य भ० शुभचन्द्र और उनके शिष्य भ० जिनचन्द्र मेरे गुरु थे। जिनचन्द्रके दो शिष्य और थे-एक रत्ननन्दि और दूसरे विमलकीर्ति ।
यह पुस्तकदाताकी प्रशस्ति पं. मेधावीकी ही लिखी हुई मालूम होती है । उन्होंने लोक्यप्राप्ति. मूलाचारकी वसुनन्दिवृत्ति आदि प्रन्योंमें और भी कई बड़ी बड़ी प्रशस्तियाँ लिखी हैं । वसुनन्दि वृत्तिकी प्रशस्ति वि० सं० १५१६ की और त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति की १५१९ की लिखी हुई है *। धर्मसंग्रहश्रावकाचार उन्होंने कार्तिक वदी १३ सं० १५४१ को समाप्त किया है। नौतिवाक्यामृतटीकाकी यह प्रशस्ति धर्मसंग्रहके समाप्त होनेके कोई आठ दिन बाद ही लिखी गई है।
धर्मसंग्रहमें पं० मेधावीने अपने पिताका नाम उद्धरण, माताका भीषही और पुत्रका जिनदास लिखा है। वे अग्रवाल जातिके थे और अपने समयके एक प्रसिद्ध विद्वान थे। उन्होंने दक्षिणके पुस्तकगच्छके आचार्य श्रुतमुनिसे अन्य कई विद्वानोंके साथ अष्टसहस्त्री (विद्यानन्दस्वामीकृत पढी थी। जान पड़ता है कि उस समय हिसारमें जैन विद्वानोंका अच्छा समूह था। भट्टारकोंकी गद्दी भी शायद वहाँ पर थी।
यह टीकापुस्तक हिसारसे आमेरके पुस्तक भंडारमें कब और कैसे पहुंची, इसका कोई पता नहीं है । आमेरके भंडारमेसे सं० १९६४ में भट्टारक महेन्द्रकीर्ति द्वारा यह बाहर निकाली गई और उसके बाद जयपुर निवासी पं. इन्द्रलालजी शास्त्रीके प्रयत्नसे हमको इसकी प्राप्ति हुई। इसके लिए हम भारकजी और शास्त्रीजी दोनोंके कृतज्ञ हैं।
इस प्रतिमें १३३ पत्र हैं और प्रत्येक पृष्ठम प्रायः २० पंक्तियाँ हैं । प्रत्येक पत्रकी लम्बाई 190 इंच और चौड़ाई पारंचसे कुछ कम है। ५० से ७५ तकके पृष्ठ मौजुद नहीं हैं।
निवेदकपौषशुक्ला तृतीया १९७९ वि।
नाथूराम प्रेमी। * देखो जनहितैषी भाग १५, अंक ३-४ ।
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५४]
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[नोटः- भारतीय वाड्यय ' का जर्मन भाषामें विस्तृत और परिपूर्ण इतिहास लिखनेवाले प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ. विष्टरनित्स्, जो वर्तमानमें बड्गीय साहित्य सम्राट् कवीन्द्र रवीन्द्रमाय ठाकुर संस्थापित शांतिनिकेतमकी विश्वभारती संस्थाको अपने ज्ञानका दान कर रहे है। उनके पास 'नौतिवाक्यामृत' की १ प्रति अभिप्रायार्थ भेट की गई थी। इस भेटके स्वीकाररूपमें डॉ. महाशयने प्रन्थमालाके मंत्री और इस प्रस्तावनाके लेखक श्रीयुत प्रेमीजीके पास जो एक पत्र भेजा है वह यहाँपर मुद्रित किया जाता है । इससे, सोमदेवसूरिके नीतिवाक्यामृतके बारेमें डॉ. महाशयका कैसा अभिप्राय है वह थोडेमें ज्ञात हो जाता है। इस ग्रन्थके बारेमें, जैसा कि डॉ. महाशयने अपने इस पत्रमें सूचित किया है. विशेष उल्लेख, उन्होंने अपने भारतीय वाध्ययके इतिहासके तीसरे भाग, (जो हालहीमें प्रकाशित हुआ है) पृ० ५०२५-५३० में किया है। -संपादक ।
(Santiniketana, Birbhum, Bengal)
Srinagar ( Kashmir ) 28-4-23, To Nathurama Premi, Mantri, Manikachanda-Jaina Granthamala,
Bombay.
Dear Sit beg to aoknowbee Saing Granth Literatura
I beg to acknowledge the receipt of one copy of Nitivakyamritam Satikam, published in the Jaina Granthamala. As I have pointed out in the third volume of my 'History of Indian Literature,' the work is of the greatest importance both on account of its contents and especially as the date of its author is well known. Though quoting largely from the Kautilya Arthssastra, Somadeva is yet quite on original writer and treats his subject from a different point of view. The late Jaibacharya Vijaya Dharma Suri had lent me a copy of the old edition of the book which is very rare. I often urged upon him the necessity of a new edition of this important work. I am very glad that the work is now accessible in such a handy and excelent edition, and I am very mucb obliged to you for sending me a copy.
It is a pity that the introduction is not in English or in Sanskrit, as few Europeans read the Vernacular.
Yours truly,
M. WINTERNITZ. (शान्तिनिकेतन, बीरभूम बंगाल)
श्रीनगर (काश्मीर ) ता. २५-४-२१ नाथूराम प्रेमी, मंत्री
माणिकचन्द्र जैन ग्रंथमाला मुंबई. प्रिय महाशय,
आपकी जैन ग्रंथमाळामें प्रकाशितक सटीक नीतिवाक्यामृती पुस्तक मुझे मिली । जैसा कि मैंने अपने 'भार तीय वाध्ययका इतिहास' नामक ग्रन्थके तीसरे भागमें लिखा है, यह ग्रन्थ, अन्दरके विषय और इसके कर्ताके समयकी दृष्टिसे बहुत महत्वका है । यद्यपि कौटिल्यके ग्रन्थका इसमें अनुसरण किया गया है तथापि सोमदेवसूरि स्वतंत्र लेखक हो कर विषय प्रतिपादनकी शैली उनकी निराली ही है। जैनाचार्य विजयधर्मसूरिने इस ग्रन्थकी अत्यंत दुर्लभ्य ऐसी एक प्रति मुझे दी थी और इस महत्त्वके ग्रन्थकी दूसरी आवृत्ति प्रकट करनी चाहिए ऐसा मैंने आग्रह भी उनसे किया था। अब इस प्रन्यकी सुन्दर आकारमें उत्तम रीतीसे प्रकट की हुई इस आवृत्तिको देख कर मुझे आनंद होता है और भापने जो इसकी एक प्रति मुझे भेजी इस लिए मैं आपका बहुत ही उपकृत हूं।
इसकी प्रस्तावना इंग्रेजी या संस्कृतमें नहीं लिखी गई इस लिए मुझे खेद होता है, क्यों कि देशभाषा जानने वाला युरपियन कचित् ही होता है।
आपका, एम. विंटरनित्स्
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अंक १
कीरग्रामनो जनै शिलालेख कीर ग्रामनो जैन शिलालेख.
[पंजाब प्रांतना कांगडा जिल्लामा कीरणाम करीने एक स्थान छे अने त्यां शिव-वैद्यनाथनुं प्राचीन अने प्रख्यात धाम छे. ए वैद्यनाथना मंदिरमां कोई जैन प्रतिमानुं पाषाणनुं सिंहासन क्यांएथी आवी गएल छ जना उपर नीचे आपेलो लेख कोतरेलो छ. ए लेख एपिग्राफिआ इंडिकाना, १ ला भागना, ११८ पान उपर डॉ० जी. बुल्हरे संक्षिप्त विवेचन साथे प्रकट करलो छे. ए विवेचन अने लेख आ प्रमाणे छे.-- संपादक ]
नीचे आपेलो लेख कांगडानों कीरग्राममां आवेला शिव-वैद्यनाथना देवालयाथी मळी आवेलो छ. ए लेख जैन नागरी अक्षरोमां बे लीटिओमां लखेलो छ. आ लीटिओ महावारनी प्रतिमानी बेठकनी त्रण बाजुए चार मोटा अने बे नाना भागमां हेंचाएली छे. लेख लगभग सारी स्थितिमा छे. ए। दोल्हण अने आल्हण नामना बे व्यापारिओए आ प्रतिमा बनाव्या विष तथा देवभद्रसूरिए एनी, प्रतिष्ठा कर्या विष उल्लेख करेलो छे. वळी कारणापमा आ बंने भाईओए महावीनुं एक मंदिर बंधाव्यानी नोंध पण एमां करेली छे. वर्तमानमां, कारग्राममां कोई पण जना जैन मंदिरनी हयाती जणाती नथी तेथी एम लागे छे के ए मंदिर नष्ट थई गयु छे अने आ बेसणी कोईए त्यांथी उपाडी लावी शिवना देवालयमा मूकी दीधी छे. ए देवालयना अधिकारिओनी अजाणताने लीधे आ लेख सही सलामत रहेवा पाम्यो होय एम लागे छे.
मूर्ति अने मंदिर बनावनारा गुजराती होवा जोईए ; पंजाबी नहीं. प्रतिष्ठा करनार भि पण गुजरातना हता. कारण के दोल्हण अने आल्हण ब्रह्मक्षत्र गोत्र अगर ज्ञातिना हता के जे ज्ञाति गुजरातमां वधारे छे. १८८१ ना सेन्सस रीपोर्ट प्रमाणे पंजाबमां ते ज्ञाति जणाती नथी. सरी देवभद्रनो गुजरात साथे संबंध तेमना गुरु अभयदेवना लीधे छे. आ अभयदेवने 'रुद्र पल्लीय ' कहेवासां आवे छे; अने ते जिनवल्लभ सूरिनी शिष्यसंततिमांना हता. आ जिनवल्लभ ते खरतर गच्छनी पट्टावलीमां कला जे ४३ मां पट्टधर अने युगप्रधान पदधारी छे ते ज.. तेओ एक नवो संप्रदाय जेने अहीं संतान' ना विशेषणथी उल्लेखेलो छे ते चलाव्या पछी वि. सं. ११६७ मा स्वर्गस्थ थया हता. तेमना पछी थएला आचार्य जिनदत्वना वखतमा खरतर गच्छनी रुद्रपल्लीय शाखानी स्थापना जिनशेखराचार्य वि. सं. १२०४ मां करी हती. तेथी आ लेखमा जणावेला देवभद्रसूरि श्वेतांबर मतना खरतर गच्छनी एक शाखाना हता. जनी परंपरा प्रमाणे खरतर गच्छनी स्थापना गुजरातना अणहिलवाड पाटणमां थई हती. लेखनी मिति · संवत एटले वि.सं. १९९६ फाल्गुण वदि ५, रविवार ' ते डॉक्टर स्केम (Dr. Sohram) मी गणना प्रसाणे ई. स. १२४० नी १५ जान्यूआरी बराबर थाय छे. जनरल सर कनिंगहाम जेणे आ लेख प्रथम शोधी कान्यो हतो तेमणे पोताना आर्किओलॉजिकल रीपोर्टस् (पु. ५ पान १८३) मां प लेखनी जे नकल आपी छे, ते अधरी छे. कारण के तेमा क्षेत्रगोत्रो थी 'पुत्राभ्यां अने 'प्रति
अहीं आपली लेखनी नकल-पंजाब आर्किआलॉजिकल म्हसें तरफथी मळेली एक सारी छाप उपरथी पाडेली छे. १ जुओ-क्लॅट (klata) ई. ए., पु.१, पा. २४० अने २५४.
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जैन साहित्य संशोधक
खंड ष्ठितं ' थी 'संतानीय' सूधीनी बे लीटिओ मूकी दीधेली छे. आने लीधे तेम ज केटलाक खोटापाठोने लीधे तेमनी नकल उपरथी भाषांतर कर केवळ अशक्य छे'.
मूळ लेख १. ओ० संवत् १२९६ वर्षे फाल्गुण वदि ५ रवी कीरपाले ब्रह्मक्षत्र गोत्रोत्पन्न व्यव० मानू पुत्राभ्यां व्य० दोल्हण आल्हणाभ्यां स्वकारित श्रीमन्महावीर देव चैत्य ॥ ..
___२. श्रीमहावीर जिन मूल बिंबं आत्मश्रेयो []] कारितं । प्रतिष्ठितं च श्रीजिनवल्लभ सूरिसंतानीय रुद्रपल्लीय श्रीमदभयदेवसूरि शिष्यैः श्रीदेवभद्र सूरिभिः ॥
भाषांतर ॐ. (लौकिक) वर्ष १२९६ ना फाल्गुण वदि पंचमीने [ दिवसे] -कारप्राममा ब्रह्मक्षत्र ज्ञातिना व्यापारी मानूना बे पुत्रो व्यापारी दोल्हण अने आल्हणे पोते बंधावेला श्रीमन्महावीर देवना मन्दिरमा श्री महावीर जिननी मुख्य प्रतिमा, पोताना कल्याणमाटे करावी. तेनी प्रतिष्ठा श्रीजिनवल्लभ सूरिना — संतानीय' रुद्रपल्लीय श्रीमत्सूरि अभयदेवना शिष्य श्रीसूरि देवभद्रे करी'.
३. जनरल कनिंगहाम कहे शिववैद्यनाथना देवालयना इतिहास साये आ लेखनो कोई संबंध नथी.
पक्ति १ली-बांच कीरग्रामे नार तथा प्रजोडेला छे ते भल छे ब्रह्म वाचवं झ नी उपर एक भालपी करेल मात्र काढी नाखेल छे कदाच 'मातपत्राभ्यां खरोपाठ होय. कारण के त तथा न ओळखाय तेवा नथी.
पण ते बराबर नयी; 'मान' शब्द जबराबर छे. कारण के तेनी पहेला व्य यवहारी शब्द पडेलो छ जे मातृात्रा. पाठ केता निरर्थक भने असंबद्ध भई जाय छे-संपादक.]
..पंक्ति १ जी-श्रेयोथै नो यजतो रह्यो छे; संतानीय नो ता स्पष्ट नथी.
वर्षेने भाषांतर लौकिक वर्षे कर डूं, कारण के विक्रम संवत् पछी वर्षेने बदले घणीवार लौकिक वर्षे वापर. हास भावे के. पश्चिम तथा उत्तर पश्चिम हिंदुस्थानमा विक्रम संवतनां वर्षोंने कौकिक वर्षों कहेछ. अने शक संवतने शास्त्रीय वर्षों को छे. कारण के ते ज्योतिष विगेरे विषयोमा आवे छे.
..लेखमा जे फागुण लख्युं छे ते अर्ध प्राकृत अने अर्ध संस्कृत कप छे.
महबिब शब्दने भाष'तर कर्या शिवाय जहुँ रहेवा दऊं छं. तेमो खास शो छ तेनी खबर नथी. हुं भाछ केबीजी नानी मोटी प्रतिमाओषी तेने खास भोळसावा माटे तेमुं माम आवं पाब्यु हशे. एनो अर्थ कदाच मध्य प्रतिमा'थई शके.[ अर्थ थाय छे..1
९. प्रतिष्ठितं च ए संस्कृतना नियम प्रमाणे शुद्ध नयी. पण जैन पुस्तकोमा ए पणा ठेकाणे जोवामा भावे छे. खरी ते प्रतिष्ठापित व भगर प्रतिहा कतार एषो पाठ जोईए.
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महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण |
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[ अपभ्रंश भाषा का एक महाकवि और महान् ग्रन्थ । ]
( लेखक - श्रीयुत पं. नाथूरामजी प्रेमी । )
भारत में अनेक शताब्दियों तक जो श्रार्य भाषायें प्रचलित रही हैं, वे सब प्राकृत कहलाती हैं । प्राकृत शब्द का अर्थ है स्वाभाविक - कृत्रिमता के दोष से रहित और संस्कृत का अर्थ है संस्कार की हुई मार्जित भाषा । वैदिक सूक्त जिस सरल और प्रचलित भाषा में लिखे गये थे, उस भाषा को प्राकृत ही कहना चाहिए । इस श्रादि प्राकृत भाषा से जिन सब श्रार्य भाषाओं का विकास हुआ है, उनकी गणना दूसरी श्रेणी की प्राकृत में होती है । यह द्वितीय श्रेणी की प्राकृत अशोक के शिलालेखों में मिलती है । बौद्धशास्त्रों की प्रधान भाषा पाली भी इसी दूसरी श्रेणी की प्राकृतों में से है । इस समय प्राकृत कहने से पाली की अपेक्षा उन्नत भाषा का बोध होता है ।
।
अशोक के समय की आर्य भाषा की दो प्रधान शाखायें थीं, एक पश्चिमी प्राकृत और दूसरी पूर्वीय प्राकृत । पश्चिमी प्राकृत को सौरसेनी या सूरसेन (मथुरा) की भाषा कहते थे और पूर्वीय को मागधी या मगध की भाषा । इन दोनों पूर्वीय और पश्चिमी भाषाओं के बीचों बीच एक और भाषा बोली जाती थी जो श्रर्ध मागधी के नाम से प्रसिद्ध थी । कहा जाता है कि भगवान् महावीर ने इसी भाषा के द्वारा अपने सिद्धांतों का प्रचार किया था। प्राचीन जैन ग्रन्थ इसी भाषा में लिखे गये थे । प्राचीन मराठी के साथ इस भाषा का बहुत ही निकट सम्बन्ध है । प्राचीन प्राकृत काव्य इसी प्राचीन मराठी में लिखे गये हैं ।
उक्त दूसरी श्रेणी की प्राकृत भाषाओं के बाद की भाषा अपभ्रंश कहलाती है । जो दूसरी श्रेणी की प्राकृत का पिछला और विशेष विकसित रूप है । यो अपभ्रंश का साधारण श्रर्थ दुषित या विकृत होता है; परन्तु भाषा के सम्बन्ध में प्रयुक्त होने पर इस का अर्थ उन्नत या विकसित होता है। वर्तमान प्रचलित आर्य भाषायें जिन भाषाओं से निकली हैं, उनकी गणना अपभ्रंश में होती है । इन अपभ्रंश भाषाओं में भी एक समय अनेकानेक ग्रन्थ लिखे गये थे जिनमें से बहुत से इस समय भी मिलते हैं। जान पड़ता है, इन भाषाओं का साहित्य बहुत प्रौढ़ हो गया था और सर्वसाधारण में बहुत ही आदर की दृष्टि से देखा जाता था । इस साहित्य में हम उस समय की बोलचाल की भाषाओं की अस्पष्ट छाया पा सकते हैं। विक्रम की सातवीं शताब्दि तक के अपभ्रंश साहित्य का पता लगा है। इसके बाद जान पड़ता है कि इस भाषा का प्रचार नहीं रहा । अपभ्रंश के पहले की प्राकृत भाषाओं का प्रचार दसवीं शताब्दि के बाद नहीं रहा । उक्त अपभ्रंश भाषाओं की गणना दूसरी श्रेणी की ही प्राकृत में की जाती है उनके बाद श्रधुनिक भाषाओं का काल श्राता है जिन्हें हम तीसरी श्रेणी की प्राकृत में गिनते हैं । इन भाषाओं का निदर्शन हम तेरहवीं शताब्दि के लगभग पाते हैं । श्रतएव मौटे हिसाब से कहा जा सकता है कि दशवीं शताब्दि से श्राधुनिक श्रार्य भाषाओं का प्रचलन आरम्भ हुआ है और अपभ्रंश से ही इन सब का विकास हुआ है । संक्षेप में प्राकृत भाषाओं का यही इतिहास है ।
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जैन साहित्य संशोधक
[खण्ड २ इस लेख में हम जिस महाकवि का परिचय देना चाहते हैं, उसकी रचना इन्हीं अपभ्रंश भाषाओं में की एक भाषा में हुई है जिसे हम दक्षिण महाराष्ट्र की अपभ्रंश कह सकते हैं। दक्षिण की होने पर भी पाठक देखेंगे कि इसकी प्रकृति हमारी हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी भाषाओं से कितनी मिलती जुलती हुई है। ___हमें पुष्पदन्त से भी पहले के अपभ्रंश साहित्य के कुछ ग्रन्थ मिले हैं जिन का परिचय हम आगे के किसी अंक में देना चाहते हैं।
महाकवि पुष्पदन्त कहां के रहनेवाले थे, इसका पता नहीं लगता। उनके ग्रन्थों में जो कुछ लिखा है उसके अनुसार हम उन्हें सब से पहले मेलाडि नगर में जो संभवतः मान्यखेट का ही दुसरा नाम है, पाते हैं। वहां वे पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए श्रा पहुंचते हैं और वहीं से उनके कवि-जीवन का प्रारम्भ होता है।
वे काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम केशव और माता का मुग्धादेवी था । एक जगह उन्होंने अपने पिता का नाम कन्हड़ लिखा है* जो केशव के ही पर्यायवाची शब्द कृष्ण का अपभ्रंश रूप है। 'खण्ड' यह शायद उनका प्रचलित नाम था जो उनके ग्रन्थों में जगह २ व्यवहृत हुआ है । अभिमानमरु, काव्यरत्नाकर, कव्वापसल्ल (काव्यापशाच) या काव्यराक्षस, कविकुलतिलक, सरस्वतीनिलय आदि उनके उपनाम थे । ___ वे शरीर से कृश थे, कृष्णवर्ण थे, कुरूप थे परन्तु सदा प्रसन्नमुख रहते थे। उन्होंने आपको स्त्रीपुत्र हीन लिखा है; परन्तु संभव है यह उस समय की ही अवस्था का द्योतक हो जब वे मान्यखेटपुर में थे और अपने (उपलब्ध ) ग्रन्थों की रचना कर रहे थे। इसके पहले जहां के वे रहनेवाले थे वहां शायद वे गृहस्थ रहें हों और विवाह आदि भी हुआ हो। यद्यपि अपने ग्रन्थों में उन्होंने अपना बहुत कुछ परिचय दिया है; परन्तु उससे यह नहीं मालूम होता है कि मान्यखेट में आने के पहले उनकी क्या अवस्था थी और न यही स्पष्ट होता है कि वास्तव में उन्होंने अपनी जन्मभूमि क्यों छोड़ी थी। केवल यही मालूम होता है कि दुष्टों ने उनको अपमानित किया था और उन्हीं से संत्रस्त होकर वे भटकते भटकते बड़े ही दुर्गम और लम्बे रास्ते को तय करके मान्यखेट तक आये थे । उनके हृदय पर कोई बड़ी ही गहरी ठेस लगी थी और इस से उन्हें सारी पृथ्वी दुर्जनों से ही भरी हुई दिखलाई देती थी। लोगों की इस दुर्जनता का और संसार की नीरसता का उन्होंने अपने ग्रन्थों की उत्थानिकाओं में बार बार और बहुत अधिक वर्णन किया है। अपने समय को भी उन्होंने खूब ही कोसा है, उसे कलिमलमलिन, निर्दय, निर्गुण, दुर्नीतिपूर्ण और विपरीत विशेषण दिये हैं और कहा है कि “जो जो दीसई सो सो दुजणु, णिष्फलु नीरसु णं सुक्कड वणु।" अर्थात् जो जो दिखते हैं वे सब दुर्जन हैं, सूखे हुए बन के समान निष्फल और नीरस हैं।
ऐसा जान पड़ता है कि वे किसी राजा के द्वारा सताये हुए थे और उसी के कारण उन्हें अपनी जन्मभूमि छोड़नी पड़ी थी। इसी कारण उन्होंने कई जगह गजाओं पर गहर कटाक्ष किये हैं। उनके भ्रकुटित नेत्रों और प्रभुवचनों को देखने सुनने की अपेक्षा मर जाना अच्छा बतलाया है । वे भरत मंत्री से कहते हैं कि-"वह लक्ष्मी किस काम को जिसने दुरते हुए चँवरों की हवा से सारे गुणों को उड़ा दिया है, अभिषेक के जल से सुजनता को धो डाला है, और जो विद्वानों से विरक्त रहती है। x x इस समय लोग नीरस और निर्विशेष हो गये ह, वे गुणीजनों से द्वेष करते हैं, इसी लिए मुझे इस वन को शरण लेनी पड़ी है।"
* गंधव्वेकण्हडणं दणेण आयई भवाइं किय थिर मणण।-यशोधरचारत्र।
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अक 1]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण जिस राजासे संत्रस्त होकर पुष्पदन्तकवि मान्यखेट में आये वह शायद वीरराव था। आदिपुराण के प्रभाचन्द्रकृत टिप्पण में इस शब्द पर 'शूद्रक' और 'कावीपति ' टिप्पण दिया है और हमारी समझ में 'कांची' की जगह कावी लिपिकर्ता के दोष से लिख गया है। इस से मालूम होता है कि वीरराव कांची (काञ्जीवरम् ) का राजा होगा और शूद्रक उसका नामान्तर होगा। यह संभवतः पल्लववंशका था। आदिपुराणको उत्थानिका के 'णिय सिरि विसेस'
और 'पइमराणा' आदि दो पद्यों का अभिप्राय अच्छी तरह स्पष्ट नहीं होता है. फिर भी ऐसा भास होता है कि पुष्पदन्त का उक्त वोरराव से पहले सम्बन्ध था और उस के सम्बन्ध में उस ने कुछ काव्य रचना भी की थी। शायद इसी कारण भरतमंत्री ने पुष्पदन्त से कहा है कि घोरराव का वर्णन करने से जो मिथ्यात्व भाव उत्पन्न हुआ है, उस के प्रायश्चित्तस्वरूप यदि तुम आदिनाथ के चरित की रचना करो तो तुम्हारा परलोक सुधर जाय*। जान पड़ता है कि वारराव कोई दुष्ट और जैनधर्म का द्वेषी राजा था। ___पुष्पदन्त भ्रमण करते करते मान्यखेट के बाहर किसो उद्यान में पड़े हुए थे। वहां अम्मइया
और इन्द्रराज नामक दो पुरुषों ने आकर उनसे कहा कि आप इस निर्जन स्थान में क्यों पड़े हुए हैं, पास ही यह बड़ा नगर है वहां चलिए । वहां शुभतुंगराजा के महामात्य भरत बड़े विद्याप्रेमी और कवियों के लिए कामधेनु हैं भरत को लाकोत्तर प्रशंसा सुन कर पुष्पदन्त नगर में गये। वहां भरतमंत्री ने उनका बहुत ही सत्कार किया और उन्हें अपने पास रक्खा । कुछ दिनों के बाद भरत ने उन से काव्यरचना करने के लिए कहा। इस पर कवि ने कहा कि यह समय बहुत बुरा है । संसार दुर्जनों से भरा हुआ है । जहां तहां छिद्रान्वेषी ही दिखलाई देते हैं। प्रवरसेन के सेतुबन्ध जैसे उत्कृष्ट काव्य की भी जब लोग निन्दा करते हैं, तब मुझे इस कार्य में कोर्ति कैसे मिलेगी? इस पर भरत ने कहा कि दुर्जनों का तो यह स्वभाव ही है, उल्ल । भी अच्छा नहीं लगता। उनकी श्राप को परवा न करनी चाहिए। इस के उत्तर में कवि ने अपनी लघुता प्रकट की और कहा कि मैं दर्शन, व्याकरण, काव्य, छन्दशास्त्र आदि के ज्ञान से कोरा हूं, ऐसी दशा में मुझ से महापुराण की रचना कैसे होगी, यह तो समुद्र को एक कुंडे में भरने जैसा अशक्य कार्य है, फिर भी आप के आग्रह से और जिन भक्ति वश मैं इस की रचना में प्रवृत्त होता हूं, मधुकर जैसा क्षुद्र प्राणी भी विशाल आकाश में भ्रमण कर सकता है।
उक्त सब बातें आदिपुराण की उत्थानिका से ली गई हैं। इस के बाद उत्तरपुराण का प्रारंभ होता है । उस समय कविराज का चित्त उद्विग्न हो उठा। रचना से उन का जी उचट गया । तब एक दिन सरस्वतो देवी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिया और कहा कि अरिहंत भगवान् को नमस्कार करो। यह सुनते ही कविराज जाग उठे। उन्हों ने चारों और देखा; परन्तु कहीं कोई भी देिखलाई न दिया । बड़ा आश्चर्य हुआ। इस के बाद भरतमंत्री उन से मिले । उन्हों ने कहा कि, क्या आप सचमुच हो पागल हो गये हैं ? आप का मुख उतरा हुआ है, चित्त ठिकाने नहीं है। ग्रन्थरचना क्यों नहीं करते ? क्या मुझसे श्राप का कोई अपराध बन पड़ा? क्या बात है । मैं हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता हूँ। मैं आपका चाहा हुआ सब कुछ देने के लिए तैयार हूँ। यह जोवन अस्थिर और असार है। जब आप को सरस्वती कामधेनु सिद्ध है, तब श्राप उसका नवरसरूप दूध क्यों नहीं दोहते? इस पर कविराज ने फिर वही समय
x पुरानी लिपि में 'व' और ' च ' लगभग एक से लिखे जाते हैं और इस कारण पीछे के लेखकों ने इन दोनों के भेद को अच्छी तरह न समझने के कारण अकसर 'च' को 'व' लिखा है।
*पई मण्णिउं वण्णिउं वीर राउ, उप्पण्णउं जो मिच्छत्त भाउ । पच्छितु तासु जइ करहि अज्ज, ता घई तुज्झ परलोयकज्जु ॥
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जैन साहित्य संशोधक
की और दुर्जनों की शिकायत की और कहा कि इस कारण मुझ से एक पद भी नहीं लिखा जाता है। अन्त में उन्हों ने कहा कि फिर भी मैं तुम्हारी प्रार्थना को नहीं टाल सकता । तुम मेरे मित्र हो और शालिवाहन तथा श्रीहर्ष से भी बढ़कर विद्वानों का आदर करनेवाले हो । तुमने मुझे सदा प्रसन्न रक्खा है। परन्तु जो यह कहा कि मैं सब कुछ देने के लिए तैयार हूँ, सो मैं तुम से अकृत्रिम धर्मानुराग के सिवाय और कुछ भी नहीं चाहता हूँ। धन को मैं तिनके के समान गिनता हूँ। मेरा कवित्व केवल जिनचरणों की भक्ति से ही प्रस्फुटित होता हैजीविका की मुझे जरा भी परवा नहीं है । ये सब बातें कविने उत्तरपुराणकी उत्थानिका में प्रकट की है।
पुष्पदन्त दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के अनुयायी थे; परन्तु वे अपने किसी गुरु का कहीं कोई उल्लेख नहीं करते हैं। इसका कारण यही हो सकता है कि वे गृहत्यागी साधु नहीं थे । यह भी संभव है कि पहले वे वेदानुयायो रहे हों और पीछे किसी कारण से जैनधर्म पर उनकी श्रद्धा हो गई हो, अथवा भरतमंत्री के संसर्गसे ही वे जैनधर्म के उपासक बन गये हों, किसी जैन साधु या मुनिसे उनका परिचय न हुआ हो। उन्होंने अपने को जगह जगह जिनपदभक्त, धर्मासक्त, व्रतसंयुक्त (व्रतीश्रावक ) और विगालेतशंक (शंका हित सम्यग्दृष्टी) आदि विशेषण दिये हैं, इस लिए उनके दृढ़ जैन होने में कोई सन्देह नहीं हो सकता। अपने ग्रन्थों में जैनधर्म के तत्त्वों का भी उन्होंने बड़ी योग्यतासे प्रतिपादन किया है।
पुष्पदन्त का स्वभाव एक विचित्र ही प्रकार का मालूम होता है। उनका 'अभिमानमेरु' नाम उनके स्वभाव को और भी विशेषता से स्पष्ट करता है। 'मान' के सिवाय वे और किसी चीज के भूखे नहीं जान पड़ते । एक बड़े भारी राजा के वैभवशाली मन्त्री का आश्रय पाकर भी वे धन वैभव से अलिप्त ही रहे जान पड़ते हैं। महापुराण के अन्त में उन्होंने अपने लिये जो विशेषण दिये हैं, वे ध्यान देने योग्य है-शून्यभवन और देवकुलिकाओं में रहनेवाले, बिना घर-द्वार के, स्त्री-पुत्र रहित, नदी वापी और तालावों में स्नान करनेवाले,
और वल्कल पहिननेवाले, धूलिधूसरित, जमीन पर सोनेवाले तथा अपने हाथों को हो ओढ़ना बनानेवाले, और समाधि मरण की आकांक्षा रखनेवाले । ये विशेषण इस अकिञ्चन महाकवि के चित्र को आँखों के सामने खड़ा कर देते हैं।
सचमुच ही पुष्पदन्त अद्भुत कवि थे। वे अपने हृदय के आवेगों को रोक नहीं सकते हैं। वे जिसे हृदय से चाहते हैं उसकी प्रशंसा के पुल बांध देते हैं और जिससे घृणा करते हैं उस की निन्दा करने में भी कुछ उठा नहीं रखते। अपनी प्रशंसा करने में भी उनकी कविता क. प्रवाह स्वछन्द गति से प्रवाहित हुआ है। इस प्रशंसा के औचित्य अनौचित्य का विचार भी उनका स्वेच्छाचारी कविहृदय नहीं कर सका है। जी खोलकर उन्होंने अपनी प्रशंसा को है। संभव है, इस समय की दृष्टि से वह ठीक मालूम न हो; परन्तु उन की सरस और सुन्दर रचना को देखते हुए तो उस में कोई अत्युक्ति नहीं जान पड़ती।
पुष्पदन्तने अपना आदिपुराण सिद्धार्थसंवत्सर में लिखना शुरू किया था जिस समय तुडिगु नाम के राजा राज्य करते थे और उन्होंने किसी चोल राजा का मस्तक काटा था। इस 'तुडिगु' शब्द पर इस ग्रन्थ की प्रायः सभी प्रतियों में 'कृष्णराजः' टिप्पणी दी हुई है। इसी ग्रन्थ में उक्त राजा का एक जगह 'समतुंगदेव ' और दूसरी जगह 'भैरवनरेन्द्र ' नाम से उल्लेख किया गया है और दोनों जगह उ सी पर टिप्पणी दे कर ‘कृष्णराजः' लिखा है। इसी तरह यशोधर चरित्र में 'वल्लमनरेन्द्र नाम उल्लेख किया है और वहां भी टिप्पणी में 'कृष्णराजः' लिखा है। अर्थात् तुडिगु, शुभतुंगदेव, भैरवनरेन्द्र, वल्लभनरेन्द्र और कृष्णराज ये पाँचों एक ही
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अंक १]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण राजा के नाम हैं और इन्हीं के समय में पुष्पदन्तने अपने ग्रन्थों की रचना की है। एक जगह डिग को 'भुवनैकराम' विशेषण दिया है, जो कि उसकी एक विरुद थी। इसके सिवाय उसे 'राजाधिराज' लिखा है। श्रादिपुराण के २७ वे परिच्छेद के प्रारंभ में भरतमन्त्री की प्रशंसा करते हुए उसे 'भारत' ( महाभारत ) की उपमा दी है:-"गुरु धर्मोद्भवपावनमभिनन्दितकृष्णार्जुनगुणोपेतं । भीमपराकमसारं भारतमिव भरत तव चरितम् ॥” इसका 'अभिनन्दित कृष्णार्जुनगुणोपेतम् ' विशेषण निश्चय से कृष्णराज को लक्ष्य करके ही लिखा गया है।
उत्तरपुराण के अन्त में ग्रन्थ के समाप्त होने का समय संवत् ६०६, आसाढ़ सुदी १०, क्रोधनसंवत्सर लिखा है। क्रोधनसंवत्सर से ६ वर्ष पहले सिद्धार्थसंवत्सर आता है, अतः
आदिपुराण की रचना का समय संवत् ६०० होना चाहिए । दक्षिण में शक संवत् का ही प्रचार अधिक रहा है, अतएव उक्त ६०० और ६०६ को शक संवत् ही मानना चाहिए।
उत्तरपुराण की प्रशस्ति से मालूम होता है कि उक्त ग्रन्थ मान्यखेट नगर में बनाया गया था, जो इस समय मालखेड नाम से प्रसिद्ध है और निजाम के राज्य में है। उत्तरपुराण के ५० वें परिच्छेद के प्रारंभ में लिखा है:
दीनानाथधनं सदाबहुजनं प्रोत्फुल्लवल्लीवनम्,
___ मान्याखेटपुरं पुरंदरपुरीलीलाहरं सुन्दरम् । धारानाथनरेन्द्रकोपशिखिना दग्धं विदग्धप्रियम्,
क्वेदानी वसतिं करिष्यति पुनः श्री पुष्पदन्तः कविः॥ इससे मालूम होता है, शक संवत् ६०० और ६०६ के बीच में किसी समय धारानगरी के किसी राजा ने इस बड़े भारी वैमवशाली नगर को बरबाद किया था। _ पुष्पदन्तने अपना महापुराण पूर्वोक्त शुभतुंग या कृष्णराज के महामात्य भरत के आग्रह से और यशोधर चरित भरतमंत्री के पुत्र गएण या णण्णराज के लिए कर्णाभरणस्वरूप बनाया है । णरण भी अपने पिता के सदृश वल्लभनरेन्द्र या कृष्णराज का महामात्य हो गया था । भरत और णण्ण की पुष्पदन्तने बहुत ही प्रशंसा की है और उन के लोकोत्तर गुणों का वर्णन किया है। महापुराण के सब मिलाकर १०२ परिच्छेद हैं, जिन में से कोई ४० परिच्छेदों के प्रारंभ में पुष्पदन्त ने भरतमंत्री की प्रशंसा के सूचक सुन्दर संस्कृत पद्य दिये हैं जिन्हें हमने इस लेख के अन्त में उद्धत कर दिया है। उन्हें पढ़ने से पाठकों का भरत की महिमा का बहुत कुछ परिचय हो जायगा। इसी तरह यशोधर चरित के चार परिच्छेदों में गएणराज की प्रशंसा के जो पद्य हैं, वे भी उध्दत कर दिये गये हैं।
उक्त प्रशस्ति-पद्यों के सिवाय पष्पदन्तने श्रादि और उत्तरपुराण की उत्थानिकानों में भरतमंत्री को निःशेष कलाविज्ञानकुशल, प्राकृतकविकाव्यरसावलुब्ध, अमत्सर, सत्यप्रतिज्ञ, योद्धा परस्त्रोपराकमुख, त्यागभोगभावोद्गमशक्तियुक्त, कविकल्पवृक्ष आदि अनेक विशेषण दिये हैं। ___ यशोधरचारित में भरत के पुत्र नन्न का गोत्र कौण्डिण्य बतलाया है । अतः संभवतः ये
ही होंगे: परन्तु जैनधर्म के प्रगाढ़ भक्त थे । भरत के पिता का नाम ऐयण या अण्णय्या और माता का श्रीदेवी था। उन के सात पुत्र थे–१ देवल, २ भोगल्ल, ३ णण्ण, ४ सोहण, ५ गुणवर्म, ६ दंगइया,
और ७ संतइया। इन में तीसरा पुत्र णण्ण था, और भरत के बाद, इसी ने महामात्य या प्रधानमंत्री के पद को सुशोभित किया था। आदिपुराण के ३४ चे परिच्छेद के प्रारंभ में नीच लिखा दुमा एक संस्कृत पद्य दिया है:
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जैन साहित्य संशोधक
तीव्रापद्दिवसेषु बन्धुरहितेनैकेन तेजस्विना
सन्तानक्रमतो गतापि हि रमाऽऽकृष्टा प्रभोः सेवया । यस्याचारपदं वदन्ति कवयः सौजन्यसत्यास्पदं
सोऽयं श्रीभरतो जयत्यनुपमः काले कलौ साम्प्रतम् ॥
[ खण्ड २
अर्थात् बड़ी ही विपत्ति के दिनों में जिस अकेले और बन्धुरहित तेजस्वी ने सन्तानक्रम से चली गई हुई भी लक्ष्मी को अपने प्रभु की सेवा से फिर श्राकुष्ट कर ली और कविगण जिस के चरित्र को सौजन्य और सत्य का स्थान बतलाते हैं, वह भरत इस कलिकाल में अपनी जोड़ नहीं रखता ।
इससे जान पड़ता है कि भरत के पूर्वजों के हाथ से उक्त मंत्रीपद चला गया था और उसे भरत ने ही अपनी योग्यता से फिर से प्राप्त किया था। अपनी पूर्वावस्था में उन्होंने बड़ी विपत्ति भोगी थी और उस समय उन का कोई बन्धु या सहायक नहीं या ।
यशोधरचरित की रचना महापुराण के कितने समय बाद हुई, इस के जानने का कोई साधन नहीं है । यशोधरचरित में समय सम्बन्धी कोई उल्लेख नहीं है; परन्तु यह निश्चय है कि उस समय राजसिंहासन को वल्लभनरन्द्र या कृष्णराज हो सुशोभित करते थे । हाँ, मंत्री का पद भरत के पुत्र गण को मिल गया था । गरण के उस समय कई पुत्र भी मौजूद थे जिन को यशोधरचरित्र के दूसरे परिच्छेद के प्रारंभ में आशीर्वाद दिया गया है। मालूम नहीं उस समय भरत जीते थे या नहीं । महापुराण जिस समय बनाया गया है उस समय पुष्पदन्त - भरत के ही घर रहते थे - " देवीसुश्र सुदणिहि तेरा हउं लिए तुहारप श्रच्छमि । ६७ वें परिच्छेद के प्रारंभ में कहा है:
ܕܙ
इह पठितमुदारं वाचकैर्गीयमानं इह लिखितमजस्त्रं लेखकैश्चारुकाव्यम् । गतवति कविमित्रे मित्रतां पुष्पदन्ते भरत तव गृहेऽस्मिन्भाति विद्याविनोदः ॥ इस से भी श्रभास मिलता है कि कविराज भरत के ही गृह में रहते थे और उन का काव्य वहीं पढ़ा, गाया और लिखा जाता था ।
इस के बाद यशोधरचरित जब लिखा गया है, तब वे गण्ण के ही घर रहते थे-गण्णहु मंदिरणिवसंतु संतु, हिमाणमेरु कविपुप्फयंतु । " परन्तु इसी ग्रन्थ के अन्त में लिखा है कि गन्धर्व ( नगर ? ) में कन्हड़ (केशव) के पुत्र ने पूर्वभवों का वर्णन स्थिर मन होकर किया -" गंधव्वें कण्हडरांदणेण " इत्यादि । तब क्या यह गन्धर्व नगर कोई दूसरा स्थान है ? संभव है, यह मान्यखेटका ही दूसरा नाम अथवा कोई दूसरा स्थान हो जहाँ कुछ समय टिककर कविने ग्रन्थ का उक्त अंश लिखा हो । यह भी संभव है कि गरण के महल का ही नाम गन्धर्व या गन्धर्वभवन हो ।
यशोधरचरित जिस समय समाप्त हुआ है उस समय कोई बड़ा भारी दुर्भिक्ष पड़ा था जिस का वर्णन कविने इन शब्दों में किया है— जगह जगह मनुष्यों की खोपड़ियां और ठठरियां पड़ी थीं, रंक ही रंक दिखलाई पड़ते थे। बड़ा भारी दुष्काल था । ऐसे समय में भी गणने मुझे रहने को अच्छा स्थान, खाने को सरस श्राहार, पहिनने को स्वच्छ वस्त्र देकर उपकृत किया । " जान पड़ता है यह घटना उस समय की होगी जब धारानरेशने मान्यखेट को लूट कर बरबाद कर दिया था। ऐसी सैनिक लूटों के बाद अक्सर दुर्भिक्ष पड़ा करते हैं ।
महापुराण में कविने नीचे लिखे ग्रन्थकारों और ग्रन्थों का उल्लेख किया है । कवि के समय निरूपण में इन नामों से बहुत सहायता मिल सकती है
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अंक १]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण
१अकलंक,२ कपिल, ३ फवार या कणाद, ४ द्विज (ब्राह्मण), ५ सुगत (बौद्ध), ६ पुरन्दर (चाक), ७दन्तिल, ८ मिशाख, १ लुद्धाचार्य, १० भरत ( नाट्य शास्त्र कर्ता ), ११ पतंजलि ( व्याकरण भाष्यकार ), १२ इतिहासपुराण, १३ व्यास, १४ कालिदास, १५ चतुर्मुख स्वयंभू. १६ श्रीहर्ष, १७ द्रोण, १८ कवि ईशान बाण, १६ धवल जय धवल सिद्धान्त, २० रुद्रट, २१ न्यासकार, और २२ जसचिन्ह (प्राकृत लक्षण कर्ता), २३ जिनसेन, २४ वीरसेन। ___ यशोधर चरित के अन्त में केवल एक ही ग्रन्थकार कवि 'वच्छराय' (वत्सराज) का उल्लेख किया गया है जिस के कथासूत्र के आधार पर उक्त चरित की रचना की गई है"महु दोसु ण दिजइ पुवे कइइ कइवच्छराय तं सुत्त लइइ ” यह तो कहने की आवश्यकता नहीं कि ये वच्छराय कोई जैनकवि ही थे । क्योंकि यशोधर को कथा जैनसाहित्य की ही चीज है।
उत्तरपुराण के अन्त में महावीर भगवान् के निर्वाण के बाद की गुरुपरम्परा दी गई है। उसमें लोहाचार्य तक की परम्परा त्रिलोकप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, गुणभद्रकृत उत्तरपुराण, इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार के ही समान है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में जहां जसबाहु नाम है, वहां इसमें भद्रबाहु है। एक बडा भारी अन्तर यह है कि इसमें गोवर्धन के बाद भद्रबाहु का नाम ही नहीं है, साथ उसके बदले कोई दूसरा नाम भी नहीं दिया है । इतिहासकों के लिए यह बात खास ध्यान देने योग्य है। सब के बाद इसमें जिनसेन और वीरसेन का नाम दिया हुआ है, जो अाचारांग के एकदेश के ज्ञाता थे। जान पड़ता है ये जिनसेन संस्कृत आदिपुराण के कर्ता से भिन्न है।
श्रादिपुराण (पुष्पदन्तकृत) के पांचवे परिच्छेद में नीचे लिखे देशों के नाम दिये हैं जिन्हें भगवान् ऋषभदेव ने बसाया था
पल्लव, सैन्धव (सिन्ध), कोकण, कौशल, टक्क, आभीर, कीर, खस, केरल, अंग, कलिंग, बंग, जालंधर, वत्स, यवन, कुरु, गुर्जर, बर्बर, द्रविड, गौड, कर्णाट, वराडिव (वैराट ?), पारस, पारियात्र, धुन्नाट, सूर, सोरठ, विदेह, लाड, कोग, वैगि, मालव, पांचाल, मगध, भट्ट, भोट (भूटान ), नेपाल, ओण्ट, पौण्डू, हरि, कुरु, मंगाल।
पुष्पदन्त के बनाये हुए दो ग्रन्थ हमें प्राप्त हुए हैं, एक तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकार जिस का दूसरा नाम महापुराण है और जिसके आदिपुराण और उत्तरपुराण ये दो भाग हैं । इसकी श्लोकसंख्या १३ हजार के लगभग है और इसमें सब मिलाकर १०२ परिच्छेद हैं । श्रादिपुराण में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का और उत्तरपुराण में शेष २३ तीर्थंकरों का और अन्य शलाकापुरुषों का चरित्र है । उत्तरपुराण में पद्मपुराण और हरिवंशपुराण भी शामिल हैं और ये पृथक् रूप में भी अनेक पुस्तकभण्डारों में मिलते हैं । पुष्पदन्त का दूसरा ग्रन्थ यशोधर चरित है जिस के चार परिच्छेद हैं और छोटा है। इसमें यशोधर नामक राजा का चरित्र वर्णित है जो कोई पुराण पूरुष था।
उक्त दो ग्रन्थों के सिवाय नागकुमार चारत नाम का एक ग्रन्थ है जो कारंजा (बरार) के पुग्तकभण्डार में है और जिस के प्राप्त करने के लिए हम प्रयत्न कर रहे हैं।
१ यह एक जैन कवि है। इस के बनाये हुए दो ग्रन्थ हमें प्राप्त हुए है-'पउमचरिय' या रामायण जिसके पिछले कुछ सर्ग उस के पुत्र त्रिभुवन स्वयंभुदेवने पूर्ण किए हैं और दूपरा हरिवंशपुराण जिस का उद्धार विक्रम की १६ वी शताब्दि के एक दूसरे विद्वान्ने किया है। शायद इसका अधिकांश नष्ट हो गया था। ये दोनों प्रन्थ अपभ्रंश भाषा में ही हैं। इनका विस्तृत परिचय शीघ्र ही दिया जायगा ।
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जैन साहित्य संशोधक
[खण्ड २ हमें सब से पहले बंबई के सुप्रसिद्ध सठे सुखानन्दजी की कृपा से पुष्पदन्त का आदिपुराण देखने को मिला और उसी को देखकर हमें इस कवि का परिचय लिखने का उत्साह हुआ । सेठजी इस ग्रन्थ को फतेहपुर (जयपुर) के सरखतीभण्डार से लाये थे । उक्त सरखताभण्डार का यह ८६ ३ नम्बर का ग्रन्थ है और बहुत ही शुद्ध है। उसमें कहीं कहीं टिप्पणी भी दी है, वि० संवत्१५२८ का लिखा हुआ है उसमें प्रति करानेवाले की एक विस्तृत प्रशस्ति दी हुई है जो उपयोगी समझ कर इस लेख के परिशिष्ट में दे दी गई है।
इस ग्रन्थ की दो प्रतियां हमे पूने के भाण्डारकर श्रोरियण्टल रिसर्च इन्स्टिटयट में मिलीं जिनमें से एक वि० सं० १९२५ की लिखी हुई है और दूसरी वि० सं० १८८३ की लिखी हुई है । इस ग्रन्थ का एक टिप्पण भी हमें उक्त संस्था में मिला जो प्रभाचन्द्र कृत है और जिसकी श्लोकसंख्या १६५० हे* । इसमें प्रति लिखने का और टिप्पणकार का समय आदि नहीं दिया है।
इसके बाद उक्त इन्स्टि० में हमें उत्तरपुराण की भी एक शुद्धप्रति मिल गई जो बहुत ही शुद्ध है और सं० १६३० की लिखी हुई है। इस पर यत्र तत्र टिप्पणियां भी दी हुई हैं।
यशोधर चरित की एक प्रति हमें बंबई के तेरहपन्थी मन्दिर के पुस्तकभण्डार से प्राप्त हुई जो बहुत ही पुरानी है अर्थात् १३६० की लिखी हुई है और प्रायः शृद्ध है, और दुसरी भाण्डारकर इन्स्टि० से, जो वि० संवत् १६१५ को लिखी हुई है।।
इस इन्स्टिटयूट में हरिवंशपुराण की भी एक बहुत ही शुद्ध, टिप्पणयुक्त, और प्राचीन प्रति है, मिलान करने से मालूम हुआ कि यह उत्तरपुराण का ही एक अंश है।
पुष्पदन्त के ग्रन्थ पूर्वकाल में बहुत प्रसिद्ध रहे हैं और इस कारण उनकी प्रतियां अनेक भण्डारों में मिलती हैं। उन पर टिप्पणपंजिकायें और टिप्पणग्रन्थ भी लिखे गये हैं और तलाश करने से अब भी प्राप्त हो सकते हैं । जयपुर के पाटोदी के मन्दिर में उत्तरपुराण का एक टिप्पण ग्रन्थ है जिसके कर्ता श्रीचन्द्र (?) मुनि मालूम होते है और जो विक्रम संवत १०८०में भोजदेव के राज्य में बनाया गया है। जयपुर के बाबा दुलीचन्दजी के भण्डार में पुष्पदन्त के प्रायः सभी ग्रन्थों की पंजिकायें हैं; आगरे के मोतीकटरे के मन्दिर में उत्तरपुराण की पंजिका है । प्रयत्न करने पर भी हम इन्हें प्राप्त नहीं कर सके।
इस समय हम पुष्पदन्त के नागकुमार चरित और उनके ग्रन्थों को पंजिकाओं को प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं। उनके मिल जाने पर आगामो अंक में पुष्पदन्त का समय निर्णय किया जायगा और उनके ग्रन्थों में जिन जिन व्यक्तियों का उल्लेख हुआ है उन सब के समय पर विचार करके निश्चित किया जायगा कि वास्तव में पुष्पदन्त के ग्रन्थ कब बने हैं।
आगामी अंक में पुष्पदन्त की भाषा और उनके कवित्व को भी आलोचना करने का विचार है।
परिशिष्ट में पुष्पदन्त के ग्रन्थों के वे सब अंश दे दिये गये हैं जो महत्वपूर्ण हैं और जिनके आधार से यह लेख लिखा गया है। अधिक प्रयोजनीय अंशों का अनुवाद भी टिप्पणी में दे दिया है।
इस लेख के तैयार करने में श्रीमान् मुनिमहोदय जिनावजयजी से बहुत अाधक सहायता मिली है। इसकी बहुत कुछ सामग्री भी उन्हीं की कृपा से प्राप्त हुई है, अतएव में उनका बहुत ही कृतज्ञ हूं।
* नं. ११३९ आफ १८९१-९५४ नं. १०५० आफ १८८७-९१ ।
* नं. ५६३ आफ १८७५-७६ x नं ११०६ आफ १८८४-८७ । नं. ११६३ आफ १८९१-९५। ११३५ आफ १८८४-८७ । . देखा जैनमित्र, गुरुवार, आश्विन सुदी ५ वीर सं. २४४७ में श्रीयुत पं. पन्नालालजी वाकलीवाल का “सं. वि. १०८० के प्रभाचन्द्र " शीर्षक लेख ।
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अक १]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण
परिशिष्ट नं. १ (आदिपुराण के प्रारंभ का कुछ अंश ।)
ओं नमो वतिरागाय । सिद्धिवर्मणरंजणु परमनिरंजणु भुषणकमलसरणेसरु । पणवेवि विग्धविणासणु निरुवमसासणु रिसहणाहपरमेसरु॥ ध्रुवकम् ॥ तं कहमि पुराणु पसिद्धणामु, सिद्धत्यवरिसे भुवणाहिरामु । उवद्धज्जड भूभंगभीस, तोडेप्पिण चोडहो तणउं सीस ॥१॥ भुवणेकराम रायाहिराउ, जहिं अच्छा तुडिणू महाणुभाउ । तं (बं?) दीण दिण्ण घणकणयपयरु, महिपरिभमंत मेवाडिणयरु ॥२॥ अवहेरिय खलयणु गुणमहंतु, दियहेहिं पराइउ पुप्फयंतु । दुग्गमदीहरपंथेणरीd, णव इंदु जेम देहेण खीणु ॥ ३॥ तरुकुसुमरेणुरंजियसमीर, मायंदगुंछ गुंदलियकीर । णंदणवणे किर वोसमइ जाम, तहिं विण्णि पुरिस संपत्त ताम ॥ ४॥ पणवेप्पिणु तेहिं पवुत्त एव, भो खण्डै गलिय पावावलेव । परिभमिरभमररवगुमुगुमंत, किं किर णिवसहि णिज्जणवणंत ॥ ५ ॥ करिसरबहिरिय दिश्चकैघाले, पइसरहिण किं पुरवरविसाले। तं सुणेवि भणई अहिमाणमेरु, बरि खज्जउ गिरकंदरकसेरु ॥६॥ णउ दुजणभउंहा वंकियांई, दसिंतु कलुसभावंकियाई ॥
पत्ता । वरु णरवरु धवलच्छिह, होउ मकुच्छिह, मरउ सोणिमुहणिग्गमे । खलकुच्छियपहुवयणई, भिउडियणयणई, म णिहालउ सूरुम्गमे ॥ ७ ॥
चमराणिलउड्डावियगुणाएं, अहिसेयधोयसुयणतणाएं । भावार्थ-इस प्रसिद्ध पुराणको मैं सिद्धार्थ संवत्सर में कहता हूं जब राजाधिराज भुवनैकराम तुडिगुने चोड राजा का सुन्दर जटायुक्त और भ्रकुटि भंगिसे भीषण मस्तक काटा ॥ १ ॥ उन्हों ने दीन दुखियों को प्रचुर धन दिया । इसी समय पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए और खलजनों द्वारा अपमानित हुए पुष्पदन्त कवि मेवाडि या मेलाटी नगरी में आये । दुर्गम और लम्बा रास्ता तय करते करते उनका शरीर नवीन चन्द्रमा के समान क्षीण हो गया था। २-३॥ वे नन्दन वन नामक उद्यान में विश्राम ले रहे थे जहां का वायु पुष्यों के पराग से महक रहा था और आम्रवृक्षों पर शुकों के झुण्ड क्रीडा कर रहे थे। इतने में ही वहां दो पुरुष पहुंचे ॥ ४ ॥ उन्होंने प्रणाम करके कहा कि हे निष्पाप खंडकवि, आप इस निर्जन वन में जो भ्रमरों के गुंजार से गूंज रहा है क्यों ठहरे हैं ? हाथियों के शब्दों से दिशाओं को बधिर करनवाले इस विशाल नगर में क्यों नहीं चलते ? यह सुन कर आभिमानमेरु पुष्पदन्तने कहा कि गिरिकन्दराओं के जंगली फल खा लेना अच्छा, परन्तु दुर्जनों की कलुषित टेढी भोंहें देखना अच्छा नहीं ॥ ५-६ ॥ उज्ज्वल नेत्रोंवाली माता की कूख से जन्म लेते ही मर जाना अच्छा परन्तु प्रभु के दुष्ट वचन और भ्रकुटित नयन सवेरे सवेरे देखना अच्छा नहीं ॥ ५॥
वह लक्ष्मी किस मतलब की जिसने दुरते हुए चैवरों की हवा से सारे गुणों को उड़ा दिया हो, आभिषेक के जल
१सिद्धार्थ संवत्सरे । २ विरुदः। ३ कुष्णराजः । ४ दुर्गमदीर्घतराकाशमार्गेणागतः। ५ मन्दतेजः। ६ मिलित ७ पुष्पदन्तः। ८ हस्तिशब्दात् । दिक्चवक्रवलये।
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जैन साहित्य संशोधक
(खण्ड २ अविवेयएं दप्पुत्तालियाएं, मोहंधयाएं मारणसीलयाएं ॥८॥ सत्तंगरजभरभारियाएं, पिउपुत्तरमणरसयारियाएं । विससहजम्मएं जडरत्तियाएं, किं लच्छिए विउसविरत्तियाएं ॥४॥ संपइ जणु णीरसु णिव्विसेसु, गुणवंतउ जहिं सुरगुरुवि देस। तहिं अम्हहं लइ काणणु जे सरणु, अहिमाणे सहूं वरि होउ मरणु ॥ १० ॥ अम्मइय इंदरापहि तेहिं, आयरिणय तं पहसिय मुहहिं । गुरुविणयपणयपणवियसिरेहिं, पडिषयणु दिण्णु णायरणरोहिं ॥११॥
घत्ता । जणमणतिमिरोसारण, मयतरुवारण, णियकुलगयणदिवायर । भो भो केसवतगुरुह, णवसररुहमुह, कव्वरयणरयणायर ॥१२॥ बंभंडमंडवारूढकित्ति, अणवरय रहय जिणणाहभत्ति । सुहतुंगदवकमकमलभसलु, गीसेसकलाविएणाणकुसलु ॥ १३॥ पाययकइकव्व रसावलुदु, संपीय सरासइसुराहिदुधु। कमलच्छु अमच्छरु सञ्चसंधु, रणभरधुरधरणुग्घिटखंधु ॥१४॥ सविलासविलासिणिहियय येणु, सुपसिद्ध महाकइकामधेणु । काणीणदीणपरिपूरियासु, जसपसरपसाहियदसदिसासु ॥१५॥ पररमणिपरम्मुह सुद्धसीलु, उण्णयमइ सुयाद्धरणलीलु । · गुरुयणपयपणवियउत्तमंगु, सिरिदेविधवगम्भुब्भवंगु ॥१६॥ अण्णइयतण तणुरुहु पसत्थु, हत्थिवदाणोल्लियदीहहत्थु ।
महमत्तवं सधयवडु गहीरु, लक्खणलक्खकिय वरसरीरु ॥ १७॥ से सुजनता को धो डाला हो, अविवेक से दर्प को बढ़ाया हो, जो मोहसे अन्धी हो, मारणशील हो, सप्तांग राज्य के भार से लदी हुई हो, पिता और पुत्र दोनों में रमण करनेवाली (घृणितव्याभचारिणी) हो, विषके साथ जिसका जन्म हुआ हो, जो जड़ ( या जल) में रक्त हो, और जो विद्वानों से विरत रहती हो ॥८-९॥
इस समय लोग नीरस और विशेषतारहित हो गये हैं। अब तो गुणवन्त बृहस्पति का भी द्वेष किया जाता है। इसी लिए मैंने इस वन का शरण लिया है । मैंने सोचा है कि इस तरह अभिमान के साथ मर जाना भी अच्छा है ॥१०॥
कवि के ये वचन सुनकर उन दो आगत नागरिकोंने-अम्मइय (?) और इन्द्रराजने-प्रसन्न मुख से और बड़े विनय से मस्तक झुकाकर कहा-“हे मनुष्यों के हृदयान्धकार को दूर करनेवाले, नवीन कमलसदृश मुखवाले, मदरहित, अपने कुलरूपी आकाश के चन्द्रमा, काव्यरत्नरत्नाकर, और केशव के पुत्र पुष्पदन्तजी, क्या आपने भरत ( मंत्री) का नाम नहीं सुना ? जिस की कीर्ति ब्रम्हाण्डरूपमण्डपपर आरूढ हो रही है, जो निरन्तर जिन भगवान की भक्ति में अनुरक्त रहता है, शुभतुंगदेव ( राजा और इस नाम का मन्दिर ) के चरणकमलों का भ्रमर है, सारी कला और विद्याओं में कुशल है, प्राकृत कवियों के काव्यरसपर लुब्ध रहता है और जिसने सरस्वतीरूप सुराभि का खूब दूध पिया है, लक्ष्मी जिसे चाहती है, जो मत्सर रहित है, सत्यप्रतिज्ञ है, युद्धों के बोझे को ढोते ढोते जिस के कन्धे घिस गये हैं, जो विलासवती सुन्दरियों के हृदय का चुरानेवाला है, बड़े बंड़ प्रसिद्ध महाकवियों के लिए कामधेनु है, दीन दुखियाओं की आशाओं को पूरा करनेवाला है, जिस के यश ने दशों दिशाओं को जीत लिया है, जो परास्त्रियों की ओर कभी नजर नहीं उठाता, शुद्ध शीलयुक्त है, जिस की मति उन्नत है, लीला मात्र से जो सुजनों का उद्धार कर देता है, गुरुजनों के चरणोंपर जिस का मस्तक सदैव झुका रहता है, जो श्रीदेवी माता और अण्णय पिता का पुत्र है, जिस के हाथ हाथी के समान दान (या मदजल) से आई रहते हैं, जो महामात्यवंशका ध्वजपट है, गंभीर है, जिस का शरीर शुभ लक्षणों से युक्त है और जो दुर्व्यसनरूपी सिंहों के लिए जो अष्टापद के समान है ॥११-१७ ॥ आइए, उसके नेत्रों
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अंक १]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण दुव्वसण सीहसंघायसरहु, णधियाणहि किं णामेण भरहु ।
- घत्ता। आउ जाहुंतहो मंदिरु णयणाणंदिरु सुकाकइत्तणु जाण । सो गुणगणतत्तिल्लउ तिहुप्रणिभल्लड णिच्छउ पई सम्माणई॥ १८ ॥ जो विहिणा णिम्मिउं कव्वपिडु, तं णिसुणेवि सो संचलिउ खंडु । आवंतु दिछु भरहेण केम, वाईसरिसरिकल्लोलु जेम ॥ १६ ॥ पुणु तासु तेण विरहउ पहाणु, घरु प्रायहो अब्भागयविहाणु । संभासणु पियवयसेहिं रम्मु, हिम्मुक्कडंभु णं परमधम्मु ॥२०॥ तुहुं आयउ णं गुणमणि णिहाणु, तुहुं पायउ णं पंकयहो भाणु । पुणु एम भणेप्पिणु मणहराई, पहखीणरीणतणु सुहयराई ॥२१॥ वर राहाणविलेवणभूसणाई, दिएणई देवंगइणिवसणाई। अञ्चंत रसालई भोयणाई, गलियाई जाम कावय दिणाइं ॥ २२॥ देवीसुपण कइ भाणउं ताम, भो पुप्फयंत ससिलिहियणाम । णियसिरिविसेसणिज्जियसुरिंदु, गिरिधर्धारु वीरु भइरव परिंदु ॥ २३ ॥ पइ मारिणउं वरिणउं वीरराउ, उप्पण्णउं जो मिच्छत्तभाउ । पच्छिन्तु तासु जइकरहि अज, ता घडा तुज्म परलोयकज्जु ॥२४॥ तुई देउ कोवि भव्वयणबंधु, पुरुएवचरियभारस्स खंधु। अभत्थिनोसि देदेहि तेम, णिव्विग्धे लहु णिवहा जेम ॥ २५ ॥
घत्ता। अइललियएं गंभीरएं सालंकारएं वायएं ता किं किजइ ।
जइ कुसुमसरवियारउ अरुहु भडारउ सम्भावेण शुणिज्जह ॥ २६ ॥ को आनन्द देनेवाले मन्दिर में चालिए । वह सुकवियों के कवित्वका मर्मज्ञ है, गुणगणों से तृप्त है और तीनों भुवनों के लिए भला है, वह निश्चय से आप का सम्मान करेगां ॥ १८॥
यह सुन कर वह खण्ड कवि-जिस के शरीर को मानों विधाताने काव्य का मूर्तिमान पिण्ड ही बनाया हैउस ओर को चल दिया। उस समय भरत मंत्रीने उस को इस तरह आते देखा जिस तरह सरस्वतीरूपी सरिता की एक तरंग ही आ रही है ॥ १९ ॥ तब उस ने अभ्यागत विधान के अनुसार उस का सब प्रकार से अतिथिसत्कार किया और बहुत ही प्रिय, दंभरहित धर्मवचनों से संभाषण किया ॥२०॥ कहा-हे गुणमणिनिधान, आप भले पधारे, कमल के लिए जैसे सूर्य प्रसन्नताका कारण है, उसी तरह आप मेरे लिए हैं। ऐसा कहकर उस के मार्ग श्रम से क्षीण हुए शरीर को सुख देनेवाले मनोहर स्नान, विलेपन और आभूषणों से उस का सत्कार किया और देवों के निवास करने योग्य स्थान में ठहराया। इसके बाद अत्यन्त रसाल भोजन से उसे तृप्त किया । इस तरह कुछ दिन बीत गये ॥२१-२२॥ देवी सुत (भरत ) ने कहा-हे श्लाघनीय नामधारी पुष्पदन्त, भैरव नरेन्द्र ( कृष्णराज ) अपने वैभव से सरेन्द्र को भी जीतनेवाले और पर्वत के समान धीर वीर हैं ॥ २३ ॥ तुमने कांची नरेश वीरराज शूद्रक (१) का वर्णन किया है, और उसे माना है अतः इस से जो मिथ्यात्वभाव उत्पन्न हुआ है उस का यदि तुम आज प्रायश्चित्त कर डालो तो इस से तुम्हारा परलोक का कार्य बन जाय ॥ २४ ॥ भव्यजनों के लिए बन्धुतुल्य तुम्हें परुदेव ( आदिनाथ) चरित्र की रचना करनी चाहिए। मैं तुम्हारी अभ्यर्थना करता हूं। इस काव्यरचना से तुम निर्विघ्नता पूर्वक निवृति प्राप्त करोगे ॥ २५॥ वह अतिशय ललित, गंभीर और अलंकारयुक्त रचना भी किस काम की जिस में कामबाणों को व्यर्थ करनेवाले अईत भटारक की सद्भावपूर्वक स्तुति न की गई हो ? ॥२६॥
१ भइरव-कृष्णराजः।
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[खण्डं २
सियदंतपंतिधवलीकयासु, ता जंपइ घरवायाविलासु। भो देवीणंदण जयसिरीह, किं किज्जइ कन्यु सुपुरिससीह ॥२७॥ गोवजिएहिं णं घणदिणोहिं, सुरवरचावहिं वणिग्गुणोहं । मइलियचित्तहिं णं जरघरेहिं, छिहण्णेसिहिं णं विसहरोहिं ॥ २८ ॥ जडवाइएहिं णं गयरसेहिं, दोसायरेहिं णं रक्खसोहिं । - आचक्खिय परपुढीपलेहिं, वर का णिदिज्जइ हयखलेहिं ॥ २६ ॥ जो वाल बुद्ध संतोसहेउ,रामाहिरामु लक्खणसमेउ। जो सुम्मई कोवह विहियेसेड, तासु वि दुजणु किं परे म होउ ॥ ३० ॥
घत्ता । णउ महु बुद्धिपरिग्गहु, णउ सुयसंगहु, गउ कासुवि केरउ बलु । भणु किह करमि कहत्तणु, ण लहमि कित्तणु, जगु जे पिसुणसयसंकुलु ॥ ३१ ॥ तं णिसुणेवि भरहें वुत्सु ताव, भो काकुलतिलय विमुक्कताव । सिमिसिमिसिमंतकिमि भरियरंधु, मेल्लेवि कलेवरु कुणिमगंधु ॥ ३२॥ घवगयविषेउ मासिकसणकाउ, सुंदरपएसे किं रमई काउ । णिकारणु दारुणु बद्धरोसु, दुज्जणु ससहावें लेइ दोसु॥ ३३ ॥
यतिमिरणियरु बरकराणहाणु, ण सहाइ उलूयहो उइउ भाणु । जइ ता किं सो मंडियसराहं, उ रुच्चा वियसियसिरिहरीहं॥ ३४॥ को गणई पिसुणु अधिसहियतेउ, भुक्कउ छण यंदहो सारमेउ। जिण चलणकमल भत्तिल्लपण, ताजंपिउ कव्वपिसल्लपण ॥ ३५ ॥
घत्ता । गउ हउं होमि धियक्खणु, ण मुणमि लक्खणु, छंदु देसि णवि याणमि। तब उस वाणी विलास कवि ने अपनी श्वेत दन्तावली से दिशाओं को उज्ज्वल करते कहा-हे देवानन्दन (भरत ) हे सुपुरुषसिंह, मैं काव्य क्या करूं ? श्रेष्ठ कवियों की खलजन निन्दा करते हैं। वे मेघों से घिरे हए दिन के समान गोवर्जित (प्रकाशरहित और वाणीरहित), इन्द्रधनुष के समान निर्गुण, जीर्ण गृह के समान मलिनचित्त (चित्र), सर्प के समान छिद्रान्वेषी, गत रस के समान जड़वादी, राक्षसों के समान दोषायर ( दोषाचर और दोषाकर) और पीठ पीछे निन्दा करनेवाले होते हैं । कविपति प्रवरसेन के सेतुबन्ध (काव्य) की भी जब इन दुर्जनों ने निन्दा की तब फिर ओरों की तो बातही क्या है ? ॥ २९-३०॥
फिर न तो मुझ में बुद्धि है, न शास्त्रज्ञान है और न और किसी का बल है, तब बतलाइए कि मैं कैसे काव्यरचना करूं ! मुझे इस कार्य में यश कैसे मिलेगा ? यह संसार दुर्जनों से भरा हुआ है ॥ ३१ ॥
यह सुनकर भरत ने कहा-हे कविकुलतिलक और हे विमुक्तताप, जिस में कीड़े बिलबिला रहे हैं और बहुत ही घृणित दुर्गन्ध निकल रही है, ऐसी लाशको छोड़ कर विवेकरहित काले कौए क्या और किसी सुन्दर स्थान में क्रीड़ा कर सकते हैं। अकारण ही आतिशय रुष्ट रहनेवाले दुर्जन खभाव से ही दोषों को ग्रहण करते हैं ॥ ३२-३३ ॥ उल्लुओं को यदि अन्धकार का नाश करनेवाला और तेजस्वी किरणोंवाला ऊगा हुआ सूर्य नहीं सुहाता तो क्या सरोवरों की शोभा बढानेवाले विकसित कमलों को भी न सुहायेगा?॥३४॥ इन खलजनों की परवा कौन करता है ? हाथी के पीछे कुत्ते भौंकते ही रहते हैं।
यह सुनकर जिन भगवान के चरणकमलों की भक्ति में लीन रहनेवाले काव्यराक्षस (पुष्पदन्त ) ने कहा ॥ ३५॥ आप का यह कथन ठीक है, परन्तु न तो मैं विचक्षण हूं और न व्याकरण, छन्द आदि जानता
१ परपृष्ठिमांसैः परोक्षवादैश्च । २ बाला अंगदादयः, वृद्धा जांबवदादयः अन्यत्र श्रुतहीनाः श्रुताव्याश्च । । हनुमान । ४ कृतसमुद्रवंधः अन्यत्र कृतसेतुबंध नाम काव्यं । ५ पनानां । ६ काव्यराक्षसेन । ७ कुक्कुरः।
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अंक 1]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण जा विरइय जयवंदाहिं आसिमुणिंदाहिं सा कह केम समाणमि ॥ ३६ ॥ अकलंक कविल कर्णयर मयाई, दिय सुगय पुरंदर णय सयाई । दन्तिलविसाहि लुद्धारियाई, ण णायई भरह वियारियाई ॥ ३७॥ गउ पीयइ पायजेलिजलाई, अइहोस पुराणई णिम्मलाई। भावाहिउ भारह-भासि वासु, कोहलु कोमलगिरु कालिदासु ॥ ३८ ॥ चउमुहं सयंभु सिरिहरिसु दोणु, णालोइड का इसाणु वाणु । गउ धाउ ण लिंगुण गुणसमासु, मउ कम्मु करणु किरिया विसेसु ॥३६॥ णउ संधि ण कारउ पयसमत्ति, णउ जाणिय मई एक्कवि विहत्ति । गउ वुज्झिउपायम सहधामु, सिद्धंतु धवल जयधवल णामु॥४०॥ पडुरुद्दडु जड णिण्णासयारु, परियच्छिड णालंकारसारु। पिंगल पत्थारु समुहे पडिउ, ण कयाइ महारर चित्ते चडिउ ॥४१ ।। जैसधु सिंधु कल्लोलसित्तु, ण कलाकोसले हियवउ णिहित्तु । हउं वप्प निरक्खरु कुक्तिमुक्खु, णरवेसे हिंडमि चम्मरुक्खु ॥ ४२ ॥ श्रा दुग्गमु होइ महापुराणु, कुंडपण मवई को जलविहाणु । अमरासुरगुरुयणमणहरोहि, जं आसि कयउ मुणिगणहरोहिं ॥ ४३ ॥ तं हां कहमि भत्तीभरण, किं णहे ण ममिज्जा महुअरेण । पड विणउ पयासिउ सज्जणाहं, मुहे मसि कुच्चउ कउ दुज्जणाहं ॥४४॥
हूं, ऐसी दशा में जिस चरित को बड़े बड़े जगद्वन्ध मुनियों ने रचा है उसे मैं कैसे बना सकूँगा ? ॥ ३६ ॥ मैं अकलंक ( जैन दार्शनिक ), कपिल (सांख्यकार ), कणचर (कणाद) के मतों का ज्ञाता नहीं हूं, दिय (ब्राह्मण), सुगत (बौद्ध), पुरन्दर ( चार्वाक ), आदि सैकडों नयों को, दन्तिल, विशाख,लुब्ध (प्राकृलरक्षणकर्ता ) आदि को नहीं जानता । भरत के नाट्यशास्त्र से मैं परिचित नहीं ॥ ३७॥ पतंजलि ( भाष्यकार ) के और इतिहास पुराणों के निर्मल जल को मैंने पिया नहीं, भावों के अधिकारी भारतभाषी व्यास, कोमलवाणीवाले कालिदास, चतुर्मुख
वयंभु कवि, श्रीहर्ष, द्रोण, कवीश्वर बाण का अवलोकन नहीं किया । धातु, लिंग, गुण, समास, कर्म, करण, क्रियाविशेषण, सन्धि, पदसमास, विभक्ति इन सब में से मैं कुछ भी नहीं जानता। आगम शब्दों के स्थानभूत धवल
और जयधवल सिद्धान्त भी मैने नहीं पढ़े ॥ ३८-४० ॥ चतुर रुद्रट का अलंकार शास्त्र भी मुझे परिज्ञात नहीं. पिंगल प्रस्तार आदि भी कभी मेरे चित्तपर नहीं चढ़े ॥४१॥ यशः चिन्हकवि के काव्यसिन्धु की कल्लोलों से मैं कभी सिक्त नहीं हुआ । कलाकौशल से मी में कोरा हूं। इस तरह मैं बेचारा निरक्षर मूर्ख हूं, मनुष्य के वेष में पशु के तुल्य घूमता फिरता हूं ॥ ४२ ॥ महापुराण बहुत ही दुर्गम है। समुद्र कहीं एक कूडे में भरा जा सकता है ? फिर भी जिसे सुर असुरों के मनको हरनेवाले मुनि गणधरों ने कहा था, उसे अब मैं भक्ति भाववश करता हूं। भौरा छोटा होनेपर भी क्या विशाल आकाश में भ्रमण नहीं करता है ? अब मैं सज्जनों से यही विनती करता हूं कि आप दुर्जनों के मुंह पर स्याही की ग्रूची फेर दें ॥४४॥
८ सांख्यमते मूलकारः।९ वैशेषिकमते मूलकारः। १० चार्वाकमते प्रन्यकारः। ११ पाणिनिव्याकरणभाष्यं ( पतंजलि)। १२ एकपुरुषाश्रित कथा । १३ भारतभाषी व्यास । १४ श्रीहर्ष । १५ कवि ईशानः वाणः । १६ परिज्ञातः। १७ प्राकृत लक्षण कर्ता।
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जैन साहित्य संशोधक
परिशिष्ट नं० २
उत्तर पुराण के मंगलाचरण के बाद का अंश । ) मणे जापण किंपि श्रमणोज्जे, कहवयर दिन केण विकज्जे । शिव्विण्णउष्टि जाम महाकर, ता सिवणंतरि पत्त सरासई ॥ १ ॥ भराई भडारी सुहय अहं, पणवह अरुहं सुहयरुमेदं । इय सुिखेवि विडेंड कहबरु, सयलकलाय ग छण ससहरु ॥ २ ॥ दिसउ सिंहाला किंपि ग पेच्छा, जा विंभियमा गियघरे अच्छइ । ताम पराइ लयवंतै, मडलिय, करवलेल पणवते ॥ ३ ॥ दस दिस पसरिय जसत करें, वरमदेमसवंसराईचंदें । छणसलिमंडल सहि बयर्षे, राव कुवलयदलदीहरण्यर्णे ॥ ४ ॥ घता ।
खल संकुले काले कुसीलमा चिणड करेपिणु संवैरिय । वच्चंति विसुरण सुसुराणवहे जे सरासर उद्धरिय ॥ ५ ॥ देवियहवत जाएं, जयदुंदुहिलरगहिरणिणाएं । जिणवर समयणिहेलेणखंभे, दुत्थियमित्ते ववगयडंभे ॥ ६ ॥ परउवयरहारणिव्वहर्णे, विउसविदुर सयभय मिह । ते श्रहामिय पवरक्चरेंदें, तेरा विगेटवे भव्वे भरहे ॥ ७ ॥ वोल्लावि कह कव्वपिसल्लउ, किं तुडुं सचउ वप्पर्गेल्लिउ । किं दीसहि विच्छायउ दुम्मण, गंघकरणे किं ण करहि शियमणु ॥ ८ ॥ किं किउ काई विमई अवरोह, अवरु कोवि किं वि सुम्माहउ ।
[ खण्ड २
कुछ दिनों के बाद मन में कुछ बुरा मालूम हुआ । जब महाकवि निर्विण्ण हो उठा तब सरस्वती देवी ने स्वप्न में दर्शन दिया ॥ १ ॥ भट्टरिका सरस्वती बोली कि पुण्यवृक्ष के लिए मेघतुल्य और जन्ममरणरूप रोगों के नाशक अरहंत भगवान को प्रणाम करो । यह सुनकर तत्काल ही सकलकलाओं के आकर कविवर जाग उठे और चारों ओर देखने लगे परन्तु कुछ भी दिखलाई नहीं दिया । उन्हें बढा विस्मय हुआ । वे अपने घर ही थे कि इतने में नयवन्त भरत मंत्री प्रणाम करते हुए वहां आये, जिन का यश दशों दिशाओं में फैल रहा है, जो श्रेष्ठ महामात्यवंशरूप आकाश के चन्द्रमा है, जिन का मुख चन्द्रमण्डल के समान और नेत्र नवीन कमलदलों के समान हैं, ॥ २-४ ॥ जिन्हों ने इस खलजन संकुल काल में विनय करके शून्यपथ में जाती हुई सरस्वती को रोक रक्खा और उस का उद्धार किया ॥ ५ ॥ जो ऐयण पिता और देवी माता के पुत्र हैं, जो जिनशासनरूप महल के खंभ हैं, दुस्थितों के मित्र हैं, दंभरहित हैं, परोपकार के भार को उठानेवाले हैं, विद्वानां को कष्ट पहुँचानेवाले सैकडों भयों को दूर करनेवाले हैं, तेज के धाम हैं, गर्वरहित हैं और भव्य हैं। ॥ ६-७ ॥ उन्हों ने काव्यराक्षस पुष्पदन्त से कहा कि भैया, क्या तुम सचमुच ही पागल हो गये हो ? तुम उन्मना और छायाहृनिसे क्यों दिखते हो ? प्रन्थरचना करने में तुम्हारा मन क्यों नहीं लगता ? ॥ ८ ॥ क्या मुझ से तुम्हारा
१ सरस्वती । ३ सुष्ठु हतो रुजां रोगाणामोघः संघातो येन स तं । ३ पुण्यतरुमेषं । ४ गतनिद्रो जागरितः । ५ आकार | ६ पश्यति । ७ भरतमंत्रिणेति सम्बन्धः श्रीपुष्पदन्तः आलापितः । ८ वन्दो मेघः । ९ महामात्र महत्तर । १० चन्द्रेण ११ संवृता रक्षिता: सरस्वती । १२ एयण पिता देवी माता तयोः पुत्रेण भरतेन । १३ प्रासाद | १४ मयि पुष्पदन्ते उपकारभावनिर्वाहकेन । १५ निर्मथकेन । १६ रथेन विमानेन । १७ गर्व रहितेन । १८ कोमलालापे । १९ अपराधः । २९ अन्यकाव्यकरणवांछः किं त्वं ।
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अंक १
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण
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भणु भणु भणियउं सयलु पडिच्छेमि, हउ कयपंजलियरु श्रोहच्छमि ॥ ११ ॥
घवा ।
श्रधिरेण असारे जीविपण, किं श्रप्पड सम्मोहाई । तु सिद्ध वाणीधे अहे, गवरसखीरु ण दोहाई ॥ १० ॥ तं सोप्प दर विहसंतें मित्तमुहारविंदु जोयते । कसणसरीरें सुद्धकुरुर्वे, मुद्धापविगष्मि संभूर्वे ॥ ११ ॥ कासव गोते केसव पुते, कर कुलतिलएं सरसयगिलपं । उत्तमसन्ते, जिणापयभन्ते ॥ १२ ॥ (१)
पुष्यंत कणा पडिउत्तर, भो भो भरह शिसुणि गित्तक्खुत्त । कलिमलमलिणु कालु विवरेरउँ, णिग्धिणु गिम्गुण दुरायगारउ || १३ ॥ जो जो दीसह सो सो दुज्जणु, गिप्फलु गीरसु गं सुक्कउ वणु । उराउ णं संझ केरउ, अत्थे पयट्टर मणु ण महार उ ।
उव्वे से वित्थरह गिरारिड, एकु वि पैड विरएव भारिउ || १४ ||
घत्ता ।
दोसे होउ तं गुड भगमि चोज्ज अवरुमणे थक्कउ ।
जए चावि चौउजिह तिह गुणेण सहयंकर ॥
जयवि तो वि जिगमुणगणु वराणमि, कि हूं पई अब्भत्थिउ श्रवगण्णामि ।
कोई अपराध बन पडा है अथवा और किसी रस का उमाह हुआ है अर्थात् कोई दूसरा काव्य बनाने की इच्छा हुईं है ? बोलो, बोलो, मैं हाथ जोड कर तुम्हारे सामने खडा हूँ, तुम जो कुछ कहोगे मैं सब कुछ देने के लिए तैयार हूं ॥ ९ ॥
इस अस्थिर और असार जीवन से तुम क्यों आप को सम्मोहित कर रहे हो ? तुम्हें वाणीरूप कामधेनु सिद्ध हो गई है, उस से तुम नवरसरूप दूध क्यों नहीं दोहते ? ॥ १० ॥
यह सुनकर मुसकराते हुए और अपने मित्र के मुखकमल की, ओर निहारते हुए कुशशरीर, अतिशय कुरूप, मुग्धादेवी और केशव ब्राह्मण के पुत्र, काश्यपगोत्रीय, कविकुलतिलक, सरस्वतीनिलय, दृढव्रत और जिनपदभक्त पुष्पदन्त कवि ने प्रत्युत्तर दिया कि, हे भरत, यह निश्चय है कि इस कलिमलमलिन, निर्दय, निर्गुण और दुनतिपूर्ण विपरीत काल में जो जो दिखते हैं सो सब दुर्जन हैं, सब सूखे हुए वन के समान निष्फल और नीरस हैं। राजा लोग सन्ध्याकाल की लालिमा के सदृश हैं । इस लिए मेरा मन अर्थ में अर्थात् काव्य रचना में प्रवृत्त नहीं होता है। इस समय मुझे जो उद्वेग हो गया है, उस से एक पद बनाना भी मेरे लिए भारी हो गया है ॥ ११-१४ ॥
यह जगत यदि दोष से वक्र होता तो मेरे मन में आश्चर्य नहीं होता किन्तु यह तो चढ़ाये हुए चाप ( धनुष सदृश गुण से भी वक्र होता है ( धनुष की डोरी 'गुण' कहलाती है । धनुष गुण या डोरी चढ़ा ने से टेडा होता ) ॥ १५ ॥
यद्यपि जगत की यह दशा है तो भी मैं जिन गुणवर्णन करूंगा । तुम मेरी अभ्यर्थना करते हो, तब मैं तुम्हारी अवगणना कैसे कर सकता हूं ? तुम त्याग भोग और भावोद्गम शक्ति से और निरन्तर की जानेवाली कविमैत्री से
२१ सर्वे प्रतीच्छामि । २२ एष तिष्ठामि । २३ तव सिद्धायाः ।
१ भरतस्य । इ सुष्ठु कुरूपेण । ३ मुग्धादेवी । ४ वाणीनिलयेन मन्दिरेण । ५ सत्वेन दृढव्रतेन । ६ निश्चितं । ७ विपरीतः । ८ शुष्कवनमिव जनः । ९ राजा सन्ध्यारागसदृशः । १० शब्दार्थे न प्रवर्तते । ११ एकमपि पदं रचितुं भारो महान् । १२ दोषेण सह जगत् चेत् वकं भवति तदाश्वये न, किन्तु गुणेनापि सह वक्रं तदाश्चर्यमचिते । १३ चापः ।
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जैन साहित्य संशोधक
[ खण्ड २ चायें भोय भाउम्गमसत्तिए, पई अणवरय रइय कइमित्तिए ॥ १६ ॥ राउ सालिवाहणु वि विससिउ, पइंणियजसु भुवणयले पयासिउ । कालिदासु जे खैध णीयउ, तहो सिरिहरिसहो तहुं जगि बीयर्ड ॥ १७ ॥ तुहुं कइकामधेणु कइवच्छल, तुहुं कइकप्परुक्खु ढोइयफलु । तुहु कइ सुरवरकोलागिरिवरु, तुहूं का रायहंसमाणससरु ॥ १८॥ मं? मयालसु मयणुम्मत्तउ, लोउ असेसुवि तिठ्ठए भुत्तउ। केण वि कव्वपिसलउ मरिणो, केण वि थट्टु भणेवि अवगरिणउ । णिश्चमेव सब्मोव पउंजिउं, पई पुणु विणउ करे विहउं रंजिउं॥११॥
घत्ता। धणु तणुसमु म ण तं गहणु णेहु णिकॉरिमु इच्छमि । देवीसुश्र सुदणिहि तेण हउं णिलए तुहारए अच्छमि ॥ २० ॥ महु सैमयागमे जोयहे ललियाँ, वोल्लइ कोइल अंबयकलियाँ । काणणे चंचरीउ रुणुरुंटइ, कीरु किरण हरिसेण विसट्टइ ॥ २१ ॥ मज्मु कात्तणु जिणपयमत्तिहे, पसरइ उ णियजीवियवित्तिहें । विमलगुणाहरणंकियदेहउ, पह भरह णिसुणइ पइं जेहउं ॥ २२ ॥ कमलगंधु घिपंह सारंगे, उ सालूरे णीसॉरंगें। गमणलील जा कयरिंगे सा किं णासिजइ सारंगे ॥२३॥ वढियसजण दूसणवसणे, सुका कित्ति किं हम्मैइ पिसुणे ।
कहैमि कव्वु वम्मैहसंहारणु, अजियपुराणु भवरणवतारणु ॥ २४ ॥ शालिवाहन राजा से भी बढ़ गये हो और अपने यश को तुमने पृथ्वीतलपर प्रकाशित कर दिया है। इस समय जगत में तुम दूसरे श्रीहर्ष हो जिसने कविकालिदास को अपने कन्धे पर चढ़ा लिया था। ६-७ ॥ तुम कविकामधेनु, कविवत्सल, कविकल्पवृक्ष, कविनन्दनवन और कविराजहंस समान सरोवर हो ॥१०॥ ये सारे लोग मूर्ख, मदालस, और मदोन्मत्त बने रहें, ( इन से मुझे कुछ प्रयोजन नहीं )। किसी ने मुझे काव्यराक्षस कह कर माना और किसी ने ढूँठ कह कर मेरी अवमानना की । परन्तु तुमने सदा ही सद्भावों का प्रयोग करके और विनय करके मुझे प्रसन्न रक्खा है ॥ १९ ॥
मैं धन को तिन के के समान गिनता हूं और उसे नहीं चाहता हूं। हे देवीसुत श्रुतनिधि भरत, मैं अकारण प्रेम का भूखा हूं और इसी से तुम्हारे महल में रहता हूं ॥२०॥ ___ वसन्त का आगमन होनेपर जब आमों में सुन्दर मौर आते हैं तब कोयल बोलती है और बगीचों में भौरे गुंजारव करते हैं, ऐसे समय में क्या तोते भी हर्ष से नहीं बोलने लगते हैं ? ॥२१॥ जिन भगवान के चरणों की भक्ति से ही मेरी कविता स्फुरायमान होती है अपने जीवित की वृत्ति से या जीविकानिर्वाह के खयाल से नहीं। हे विमलगुणाभरणाकित हे भरत, अब मेरी यह रचना सुन ॥ २२॥ कमलों की सुगन्ध भ्रमरगण ग्रहण करते हैं, निःसार शरीर मेंढक नहीं। हाथी या हंस जिस चाल से चलते हैं, उस से क्या हरिण चल सकते हैं? इसी तरह से जिन्हें सज्जनों को दोष लगाने की आदत पड़ गई है, ऐसे दुर्जन क्या सुकवियों की कीर्ति को मिटा सकते हैं ? अब मैं मन्मथसंहारक और भवसमुद्रतारक अजितपुराण नामक काव्य को कहता हूं।
१४ त्यागः। १५ स्कन्धे धृतो येन श्रीहर्षेण । १६ तेन सदृशो महान् त्वं । १७ मूखों लोकः । १८ सद्भाव । १९ अकृत्रिम धर्मानुरागं ।
१ वसन्तसमागमे । २ जातायाः सहकारकलिकायाः। ३ आम्र कलिकानिमित्तं । ४ गृह्यते । ५ भ्रमरेण । ६ भेकन । ७ निःसारांगेण निकृष्ट शरीरेण । ८ हस्तिना हंसेन वा। ९मृगेण । १० हन्यते । ११ कथयामि । १२ मन्मथ ।
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मंक.]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण
परिशिष्ट नं. ३ ( उत्तरपुराण के अन्त का कुछ अंश । ) णिषुए धीरे गलियमयरायउ इंदभूइ गणि केवलि जायउ। सो विउलइरिहे गउ णित्वाणहो कम्मविमुक्को सासयठाणहो ॥१॥ तहिं वासरे उप्पएणउ केवल मुणि हे सुधम्महो पक्वालियमलु । तं शिवाणए जंबू णामहो पंचमु दिव्वणाणु हयकामहो ॥२॥ गंदि सुणदिमितु अवरुवि मुणि, गोवद्धणु चउत्थु जलहरणि । ए पच्छए समत्थ सुयपारय णिरसियमिच्छामयभवणीरय ॥३॥ पुणु वि विसहु जइ पोहिल खत्तिउ जयणाउ वि सिद्धत्थुह यत्तिउ । दिहिसेणंकउ विजउ बुद्धिलउ, गंगु धम्मसेणु विणीसल्लउ ॥४॥ पुणु णक्खत्तउ पुणु जसवालउ, पंडु णामु धुवसेणु गुणालउ।
घत्ता । अणु कंसउ अप्पउ जिणे वि थिउ पुणु सुहद्दु जणसुहयरु। जसभद्दु श्रखुदु अमंदमहणाणे णावइ गणहरु ॥५॥ भहबाहु लोहंकु भडारउ अायारांगधारि जससारउ। एयहिं सव्वु सत्यु मणे माणिउ, सेसाहिं एक्कु देसु परियाणि ॥६॥ जिणसेणेण वीरसेणेण वि जिणसासणु सेविउ मयगिरिपवि । पुन्षयाले णिसुणिउं सई भरहे, राएं रिखु-बहुदावियविरहे ॥७॥ एवं रायपरिवाडिए णिसुणिउं, धम्मु महामुणिणाहहिं पिसुणिउ । सेणियराउ धम्म सोयारहं, पच्छिल्लउ वजियभयभारहं ॥ ८॥ ताहमि पच्छए बहुरसणडिए, भरहे काराविउ पद्धडियए । पढेवि सुणेवि पायरणेवि हयकले, पयडिउ मम्माएं इय माहियले ।।६॥ कम्मक्खयकारणु गणे दिठ्ठलं, एम महापुराणु मई सिठ्ठउं । पत्थु जिणिंद मग्गे श्रोणाहिउ, बुद्धिविहाणे जं मई साहिउ । १०॥ तं महो खमहो तिलोयही सारी, अरुहुग्गय सुप्रएवि भडारी। चउवीस वि महुं कलुस खयंकर, दंतु समाहि बोहि तित्थंकर ॥ ११ ॥
पत्ता । दुई छिंदउ णंदउ भुयणयले णिरुवम करणरसायणु । आयएणउ मरणउ ताम जणु जाम चंदु तारायणु ॥१२॥ वरिसउ मेहजालु वसुहारहि, महि पिञ्चउ बहु धरणपयाराहिं। यंदउ सासणु वीर जिणेसहो, सेणिउ णिग्गउ गरयणिवासहो ॥ १३ ॥ लग्गउ पहवणारंभहो सुरवइ, णंदउ पय सुहं णंदउ गरवह।
णंदउ देस सुहिक्ख वियंभउ, जणु मिच्छत्तु दुचित्त णिसुंभउ॥१४॥ दाखों का नाश हो और यह कर्णरसायन काव्य पृथ्वीतल पर विस्तार लाभ करे । जब तक चन्द्रमा और तारे तब तक लोग इसे सुनें और इसका आदर करें ॥ १२॥
पृथ्वी पर मेघ खूब बरसें और तरह तरह के धान्य पकें, वीरभगवान का शासन बढ़े, राजा श्रेणिक नरक निवास से बाहर निकले और (तीर्थंकर होने पर ) इन्द्र उस का जन्माभिषेक करें । प्रजा का सुख बड़े और राजा आनन्दित हो। देश में सुाभेक्ष (सुकाल) हो और लोगों का मिथ्यात्व भाव नष्ट हो ॥ १३-१४ ॥ अंकित
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जैन साहित्य संशोधक
पडिवरण पडिपालण सूरहो, होउ संति भरहहो गिरिधीरहो । संति बहु गुणगुणवंतां, संतरं दयवंतहं भयवंतहं ॥ १५ ॥ होउ संति बहु गुणहि महल्लहो, तासु जे पुत्तहो सिरि देवलहो । एउं महापुराणु रयणुञ्जले, जे पयडेवउ सयले धरायले ॥ १६ ॥ चविह दाणुजय कयचित्तहो, भरह परमसन्भाव सुमित्तहो । भोगलहो जयजसविच्छुरियहो, होउ संति णिरु णिरुवमचरियहो ॥ १७ ॥ होउ संतिष्णहो गुणवंतहो, कुलवच्छल सामत्थ- महंतहो । श्चिमेव पालिय जिणधम्महं, होउ संति सोहण गुणवम्महं ॥ १८ ॥ होउ संति सुश्रणहो दंगाइयहो, होउ संति संतही संतइय हो । जिणपयपणमण वियलियगव्वहं, होउ संति णीसेसहं भव्वहं ॥ १६ ॥ घत्ता । इय दिव्वहो कव्वहो तराउं फलु लहुं जिराणाहु-पयच्छउ । सिरि भरहहो अरुहहो जहिं गमणु पुप्फयंतु तर्हि गच्छउ ॥ २० ॥ सिद्धिविलासिणि मणहरदूपं, मुद्धाएवी तणुसंभूएं । गिद्धणसधणलोयसमचित्ते, सव्वजीवणिक्कारणमितें ॥ २१ ॥ सहसलिल परिवड्ढियसोते, केसवपुत्ते कासवगुतें । विमल सरासर जणियविलासें, सुरणभवण- देवउलणिवासे ॥ २२ ॥ कलिमल पवल पडल परिचते, णिग्धरेण निप्पुत्तकलप्ते । इवावीतलाय सरण्हाणे, जर चीवर वक्कल परिहारों ॥ २३ ॥ धीरें धूल धूसरियंगे, दूरयरुज्भिय दुज्जणसंगें । महि यणयले करपंगुरणे, मग्गिय पंडियपंडियमरणें ॥ २४ ॥ मण्णखेडपुरवरे शिवसंते, मणे श्ररहंतु देउ भायंते । भरहमण्णणिर्जे रायणिलएं, कव्वपवंधजणियजणपुलपं ॥ २५ ॥ पुण्फयंत कयणा धुयपंकें, जइ श्रहिमाणमरुणामके ।
खण्ड २
पालन में शूर और पर्वत के समान धीर भरत (मंत्री) को शान्ति प्राप्त हो । गुणवन्त, दयावन्त, ज्ञानवन्त सज्ज - नों को शान्ति प्राप्त हो ॥ १५ ॥ उस के ( भरत के ? ) पुत्र अतिशय गुणवन्त श्री देवल को शान्ति मिले जिस ने कि इस महापुराण को रत्नोज्ज्वल धरातल पर फैलाया और जिस का चित्त चारों प्रकार के दान करने में उद्यत रहता है तथा जो भरत के लिए परम सद्भावयुक्त मित्र के तुल्य है । जिस का यश संसार में फैल रहा है और जिस का चरित्र उपमारहित है, उस भोगल को शान्ति प्राप्त हो । १६-१७ ॥ कुलवत्सल, समर्थ, गुणवन्त और महन्त गण को शान्ति प्राप्त हो । निरन्तर जैन धर्म का पालन करनेवाले सोहण और गुणवर्म को शान्ति मिले ॥ १८ ॥ सुजन दंगइय और सन्त संतइय को शान्ति प्राप्त हो । जिनभगवान के चरणों में मस्तक झुकानेवाले और गर्वरहित अन्य सब भव्यजनों को 1 भी शान्ति मिले ॥ १९॥
इस दिव्य काव्य की रचना का फल जिननाथ की कृपा से मैं यह चाहता हूं कि श्री भरत और अर्हत का गमन जहाँ हो पुष्पदन्त भी वहीं जावे ॥ २० ॥ सिद्धिरूपी विलासिनी के मनोहर दूत, मुग्धादेवी के पुत्र, निर्धनों और सघनों को बराबर समझनेवाले, सर्वजीवों के निष्कारण मित्र, शब्द खलिल से बंढा है काव्य स्रोत जिन का, केशव के पुत्र, काश्यप गोत्रीय, विमल सरस्वती से उत्पन्न विलासोंवाले, शून्य भवन और देव कुलों में रहनेवाले, कलिकाल के मत के प्रबल पटलों से रहित, बिना घरद्वार के पुत्रकलत्रहीन, नदी, वापिका और सरोवर में स्नान करनेवाले, फटे कपड़े ओर वल्कल पहननेवाले, धूलिधूसरित अंग, दुर्जनों के संग से दूर रहनेवाले, जमीन पर सोनेवाले, अपने हाथों को ही ओढनेवाले, पण्डितपण्डितमरण की प्रतीक्षा करनेवाले, मान्यखेट पुर में निवास करनेवाले, मन में अरहन्त देवका ध्यान करनेवाले, भरतमंत्रीद्वारा सम्मानित, नीति के निलय, अपने काव्यरचना से लोगों को पुलकित करनेवाले, पापरूप कीचड़ जिन क
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अंक १]
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण
कडं कव्वु भक्तिए परमत्यें, इसय छडोत्तर कयसामर्थे ॥ २६ ॥ कोहण संवच्छरे आसाढए, दहमए दियहे चंदरुहरूए ॥ घत्ता ।
सिरि अरुहो भरहहो बहुगुणहो करकुलतिल भासिउ । सुपहाणु पुराण तिसट्ठिहिमि पुरिसहं चरिउ समासिउ ॥ २७ ॥
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इय महापुराणे तिसठ्ठिमहापुरिसगुणालंकारे महाभव्वभरहाणुमणिए महाकइपुष्फयंत विरइप महाव्वे दुइत्तरसइमो परिच्छेत्रो समत्तो ॥ १०२ ॥
( प्राचीन पत्र ) संवत् १६३० वर्षे भाद्रपद मासे शुक्लपक्षे पूर्णिमातिथौ कविवासरे उत्तरा भाद्रपद नक्षत्रे नेमिनाथचैत्यालये श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये भ० श्री पद्मनंदिदेवास्तत्पट्टे भ० श्रीशु [ भचन्द्रदेवास्त ] पट्टे भ० श्रीजिनचन्द्रदेवास्तत्पट्टे भ० श्रीप्रभा चन्द्रदेवास्तत्सिष्य मं० श्रीध... . स्तत्सिय्य मं० श्री ललितकीर्ति देवास्तत्शिष्य मं० श्री चंद्रकीर्ति देवास्तद्.. .... ( खंडेल ) वालान्वये सावडा गोत्रे सा० घेल्हा तद्भार्या धिल्हसरिस्तत्पुत्रौ द्वौ प्र० सा.. .. छायलदे तत्पुत्रः सा० वीरम तद्भार्या वीरमदे तत्पुत्रः सा० नाथू तद्भार्या. .तीय जिनपूजापुरंदर सा० श्री धणराज तद्भार्ये द्वे प्र० सती सीताक......
परिशिष्ट नं० ४
( महापुराण के परिच्छेदों के प्रारंभिक पद्य ) १ आदित्योदय पर्वताद्गुरुतराच्चन्द्रार्कचूडामणे
राहेमाचलतः कुशेशनिल यादा सेतुबन्धादृढात् । आपातालतलादहीन्द्रभवनादा स्वर्गमार्गे गता कीर्तिर्यस्य न वेत्ति भद्र भरतस्याभाति खण्डस्य च ॥ ३ बलिजीमूतदधीचिषु सर्वेषु स्वर्गतामुपगतेषु । संप्रत्यनन्यगति कस्त्यागगुणो भरतमावसति । ४ श्राश्रयवसेन भवति प्रायः सर्वस्य वस्तुनोऽतिशयः । भरताश्रयेण संप्रति पश्य गुणा मुख्यतां प्राप्ताः ॥ ५ भ्रूलीलां त्यज मुंच संगतकुचद्वंद्वादिगर्व्वाक्षमा,
मा त्वं दर्शय चारुमध्यलतिकां तन्वंगि कामाहता । मुग्धे श्रीमदनिंद्यखंड कवेर्वे धुर्गुणैरुन्नतः स्वप्नप्येष परांगनां न भरतः शौचांबुधेषांछति ॥ ६ श्रीर्वाग्देव्यै कुप्यति वाग्देवी द्वेष्टि संततं लक्ष्म्यै । भरतमनुगम्य सांप्रतमनयोरात्यांतकं प्रेम ॥
दो भद्र प्रचडावनिपतिभवने त्यागसंख्यातकर्त्ता कोयं श्यामप्रधानं प्रवरकरिकराकारबाहुः प्रसन्नः । धन्यः प्रालेयपिण्डोपमधवलयशो धौतधात्रीतलांतःख्यातो बन्धुः कवीनां भरत इति कथं पांघ जानासि नो त्वं ।।
ar गया है और अभिमानमेरु जिन का चिन्ह या उपनाम है, उन पुष्पदन्त कवि ने यह काव्य भक्ति के वश हो कर ६०६ के क्रोधन नामक संवत्सर में आसाढ के दशवें दिन सोमवार को बनाया ॥ २५-२६ ॥ कविकुलतिलक ने पुराणप्रसिद्ध त्रेसष्ट पुरुषों का चरित संक्षेप से वर्णन किया ॥ २७ ॥
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जैन साहित्य संशोधक ८ मातर्वसुंधरि कुतूहलिनो ममैतदापृच्छतः कथय सत्यमपास्य साव्यं । त्यागी गुणी प्रियतमः सुभगोऽभिमानी किं वास्ति नास्ति सडशो भरतार्यतुल्यः॥ ९ एको दिव्यकथाविचारचतुरः श्रोता बुधोऽन्यः प्रिय
एकः काव्यपदार्थसंगतमतिश्चान्यः परार्थोद्यतः। एकः सत्कविरन्य एक महतामाधारभूतो बुधा
द्वावेतौ सखि पुष्पदन्त-भरतौ भद्रे भुवो भूषणौ ॥ . १. जेगं हम्मं रम्मं दीवओ चंदविवं धरती पलको दो वि हत्या सुवरवं। पिया णिहा णिशं कव्वकीलाविणोनो अदीणतं वित्तं इसरो पुष्फयंतो। ११ सूर्यात्तेज गभीरिमा जलनिधेः स्थैर्य सुरातर्विधोः
सौम्यत्वं कुसुमायुधातु सुभगं त्यागं बलेः संभ्रमात् । एकीकृत्य विनिर्मितोऽतिचतुरो धात्रा सखे सांप्रतं
भरतार्यों गुणवान् सुलब्धयशसः खण्डः कवेल्लमः ॥ १४ केलासुब्भासिकंदा धवलदिसिगोगण्णदंतांकुरोहा,
सेसाही बद्धमूला जलहिजलसमुन्भूयडिंडीरवत्ता । बंभंडे वित्थरंती अमयरसमय चंदविबं फलंती, फुलंती तारोहं जयह णवलया तुज्झ भरहेसकित्ती ॥ १५ त्यागो यस्य करोति याचकमनस्तृष्णांकुरोच्छेदनं,
कीर्तिर्यस्य मनीषिणां वितनुते रोमांचचा वपुः । सौजन्यं सुजनेषु यस्य कुरुते प्रेमांतरां निर्वृति,
श्लाघ्योऽसौ भरतः प्रभुत भवेत्काभिरिंगरं सूक्तिमिः ॥ १६ प्रतिगृहमटति यथेष्टं वदिजनैः स्वैरसंगमावसति । ___ भरतस्य वल्लभाऽसौ कीर्तिस्तदपीह चित्रतरं ॥ १७ बैलिभंगकंपिततनु भरतयशः सकलपाण्डुरितकेशम् ।
अत्यंतवृद्धिगतमपि भुवनं बंभ्रमति तश्चित्रम् ॥ १८ शशधरबिम्बात्कान्तिस्तेजस्तपनागभीरतामुदधेः।
इति गुणसमुच्चयेन प्रायो भरतः कृतो विधिना । १९ श्यामरुचिनयनसभगं लावण्यप्रायमंगमादाय ।
भरतच्छलेन संप्रति कामः कामाकृतिमुपेतः॥ २१ यस्य जनप्रसिद्धमत्सरभरमनवमपास्य चारुणि,
प्रतिहतपक्षपातदानश्रीरुरसि सदा विराजते। -- वसति सरस्वती च सानन्दमनाविलबदनपंकजे,
स जयति जयतु जगति भरहेश्वर सुखमयममलमंगलः ॥ २२ मदकरदलितकुम्भमुक्ताफलकरभरभासुरानना,
मृगपतिनादरेण यस्योऽद्धृतमनघमनर्घमासनम् । निर्मलतरपवित्रभूषणगणभूषितवपुरदारुणा,
भारतमल्ल सास्तु देवी तव पहुषिधमविका मुदे ॥ २३ अंगुलिदलकलापमसमाति नखनिकुरंबकर्णिकं
यह पद्य ९५३ परिच्छेद के प्रारंभ में भी है।
यह
१ यही पच ५.में परिच्छेद के प्रारंभ में भी दिया है। १०२ वें परिच्छेद में भी है। ४ यह ३९ वें परि० में भी है
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अंक,
महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण सुरपतिमुकुटकोटमाणिक्यमधुव्रतचक्रचुंबितम् । विलसदप्रतापनिमलजलजन्माविलासकोमलं
घटयतु मंगलानि भरतेश्वर तव जिनपादपंकजम् ॥ २४ हिमगिरिशिखरनिकरपरिपंडुरधवलियगगनमण्डलं
पुलकमिवातनोति केतकतरुवरतरुकुसमसंकटे । विकसितपणिफणासुसुरसरितामणिरुचिगतमधः
क्षितरिदमतिचित्रकारि भरतश्वर जगतस्तावकं यशः॥ २५ उन्नतातिमनुमात्रपात्रता भाति भद्र भरतस्य भूतले ।
काव्यकीर्तिघंटारवो गृहे यस्य पुष्पदंतो दिशागजः॥ २६ घनधचलताश्रयाणामचलस्थितिकराणां मुहुर्भमताम् ।
गणनैव नास्ति लोके भरतगुणानामरीणां च ॥ गुरुधर्मोद्भवपाचनमाभिनंदितकृष्णार्जुनगुणोपेतम् ।
भीमपरामक्रसारं भारतमिव भरत तव चरितं ॥ २८ मुखमलिनोदरसद्मनि गुणहृतहृदये सदेव यद्वसति ।
चित्रमिदमत्र भरते शुक्लापि सरस्वती रक्ता। २९ तंत्रीवाद्यैरनिधर्वरकविरचितैर्गद्यपधैरनेकैः,
कांत कंदावदातं दिशि दिशि च यशो यस्य गीतं सधैः। काले तृष्णाकराल कलिमलकलितेप्यद्य विद्याविनोदो
सोयं संसारसारः प्रियसखि भरतो भाति भूमण्डलेऽस्मिन् ॥ ३ बंभंडाहंडलखोणिमंडलुच्छलियकित्तिपसरस्स।
खंडस्स समं समसीसियाए करणो ण लजति ।। ३३ विनयांकुरसातवाहनादौ नृपचक्रे दिवमीयुषि क्रमेण ।
भरत तव योग्यसज्जनानामुपकारो भवति प्रसक्त एवं ॥ ३४ तीव्रापदिवसेषु बन्धुरहितेनैकेन तेजस्विना
सन्तानक्रमतो गतापि हि रमाकृष्टा प्रभोः सेवया । यस्याचारपदं वदंति कवयः सौजन्यसत्यास्पदं
सोऽयं श्रीभरतो जयत्यनुपमः काले कलौ सांप्रतमें ॥ ३५ इति भरतस्य जिनेश्वरसामायिकशिरोमणेर्गुणान्वक्तुम् ।
मातुं च वार्द्धितोयं चुलुकैः कस्यास्ति सामर्थ्यम् । ५६ अत्र प्राकृतलक्षणानि सकला नीतिः स्थितिश्छन्दसा
मर्थालंकृतयो रसाश्च विविधास्तत्त्वार्थनिर्णतयः। किंचान्यद्यदिहास्ति जैनचरिते नान्यत्र तद्विद्यते
देवे तो भरतेश-पुष्पदसनौ सिद्धं ययोरीशम् ॥ ६३ बन्धुः सौजन्यवाद्धेः कविखलधिषणाध्यांतविध्वंसभानुः
प्रौढालंकारसारामलतनुविभवा भारती यस्य नित्यम् । वक्त्राभोजानुरागक्रमनिहितपदा राजहंसीव भाति प्रोद्यद्वंभीरभावा स जयति भरते धार्मिक पुष्पदन्तः॥ पाखंडोडुमरारुचंडमरुकं चंडीशमाश्रित्य यः । कुर्वकाममकांडतांडवविधिं डिंडीरपिंडच्छविः ।
हंसाडंबरमुंडमंडललसद्भागीरथीनायकं यही पद्य २७ वें परिच्छेद में भी दिया है। २ यही पद्य ८८ वें परिच्छेद में भी है। ३ यही पञ्च ४.३ परिबाद में भी है। ४ पूने की प्रति में यह पद्य तेरहवें परिच्छेद में भी लिखा है।
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लान...-
जैन साहित्य संशोधक वांछन्नित्थमहं कुतूहलवती खंडस्य कीर्तिः कृतेः। ६५ आजन्म कवितारसैकधिषणा सौभाग्यभाजो गिरा
दृश्यन्ते कवयो विशालसकलग्रन्यानुगा बोधतः । किंतु प्रौढनिरूढगूढमतिना श्रीपुष्पदंतेन मोः .
साम्यं बिभ्रति नैव जातु कविना शीघ्रं त्वतः प्राकृतेः॥ १६ यस्येह कुंदामलचन्द्रराचिः समानकीर्तिः ककुभां मुखानि। -
प्रसाधयंती ननु बंभ्रमीति जयत्वसौ श्रीभरतो नितान्तम् ॥ पीयूषसूतिकिरणा हरहासुहारकुंदप्रसूनसुरतीरिणिशक्रनागाः।
क्षीरोदशेषबलसत्तमहंस चैव किं खंडकाव्यधवला भरतस्तु यूयम् ॥ ६७ इह पठितमुदारं वाचकैर्गीयमानं इह लिखितमजलं लेखकैश्चारुकाव्यम् । गतवति कविमित्रे मित्रतां पुष्पदन्ते भरत तव गृहेस्मिन्भाति विद्याविनोदः ॥ ६८ चंचेचंद्रमरीचिचंचुरचुरीचातुर्यचक्रोचिंता
चंचंती विचटर्चमत्कृतिकविः प्रोदामकाव्यक्रियाम् । अचंती त्रिजगत्सुकोमलतया बांधुर्यधुर्या रसैः खण्डस्यैव महाकवेः समरतान्नित्यं कृतिः शोभते ॥ लोके दुर्जनसंकुले हतकुले तृष्णावसे नीरसे सालंकारवचोविवारचतुरे लालित्यलीलाधरे । भद्रे देवि सरस्वति प्रियतमे काले कलौ सांप्रतं कं यास्यस्यभिमानरत्ननिलयं श्रीपुष्पदंतं धिना ॥
परिशिष्ट न० ५ (यशोधरचरित के कुछ अंश ।) तिहुयणसिरिकतहो अइसयवंतहो अरहंतो धम्महहो । पणविवि परमेष्टिहिं पविमलदिष्टिहिं चरणजुयलु णयसयमहहो ॥ ध्रुवकम् । कुंडिल्लगुत्तणहदियरासु, वल्लहनरिंदघरमहयरासु। गरणहु मंदिरणिवसंतु संतु, अहिमाणमेरु कह पुप्फयंतु ॥ चितइ हो वण नारीकहाप, पजत्तउ कय दुक्खयपहाए । कय धम्मणिवद्धी कावि कहविं, कहियाईजाइसिव सोक्खलहमि॥ अम्गा कहराउ पुष्फयंत सरसइणिलो।
देवियहं सरूश्रो वण्णइ कइयणकुलतिलो॥ इय जसहरमहारायचरिए महामहल णण्णकण्णाहरणे महाकइ पुष्फयंतविरहए महाकवे जसहररायपबंधो नाम पढमो परिच्छेत्रो सम्मत्तो ॥१॥
नित्यं यो हि पदारविन्दयुगलं भक्त्या नमत्यर्हतामर्थ चिंतयति त्रिवर्गकुशलो जैनश्रुतानां भृशम् । साधुभ्यश्च चतुर्विधं चतुरधीनं ददाति निधा
स श्रीमानिह भूतले सह सुतैननाभिधो नंदतात् ॥
xx. १ शोभमान । २ चपल । ३ चौर्य । ४ समूह। ५ शोभमाना । ६ विद्युतत् चमत्कृत्या कवयो यया । अच्छंती मनोहरता। ९ यह पद्य बम्बई की प्रति में नहीं है।
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अंक १]
महाकषि पुष्पदन्त और उनका महापुराण
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नक्षत्राधीशरोचिप्रचयशुचिरोहामका निकेतो, निर्णाताशेषशास्त्रास्त्रिदशपतिनुताशेषवित्पादभक्तः। भ्राता भव्यप्रजानां सततमिह भवाम्भोधिसंसारभीरु
नीतिज्ञो निर्जिताक्षः प्रणयविनयतान्नंदतान्नन्ननामा ।' प्राधान्तदानपरितोषितवन्धवृन्दो दारिद्ररौद्रकरिकुंभविभेददक्षः। श्रीपुष्पदन्तकविकाव्यरसाभितृप्तः श्रीमान्सदा जगति नंदतु नन्ननामा ॥२
गंधचे कण्हडणंदणेण प्रायई भवाइंकिय थिरमणेण । महु दोसु ण दिज्जा पुव्वे कइउ कइयच्छराय तं सुत्त लहई ।।' पावनिमुंभणि मुद्दाबंभणि, उअरुप्पणिण सामलवर्णिण । कासवगुत्ति केसवपुत्ति, जिणपयभात्त धम्मासति ॥ वयसंजुत्तं उत्तमसत्तं, वियलियसंकं हिमाणेकं। पहसियतुंडं कयणा खंडं, जियबुहसह कयजसहरकह ॥ जो श्रायण्णइ चंगउ मण्णा, लिहा लिहावा पढइ पढावइ । जो मणसावह सो नर पावइ, विहुणियघणरय सासयसंपय ॥ जणवयनीरसि दुरियमलीमसि, कयनिंदायरि दूसहि दुहयरि। पडियकवालए नरकंकालए, बहुरंकालए अइदुक्कालए ॥ पवरागारि सरसाहारि, सन्हइ चेला वरतंबोलइ । महु उवयारिउ पुण्णिप्पेरिउ, गुणभत्तिल्लउ णण्णमहल्लउ ॥ होउ चिराउसु वरिसउ पाउसु, तिप्पउ मेइणि धणकणदाइणि। विलसउ गोविणि गपउ कामिणि, घुम्मउ महल पसरउ मंगल ॥ सत्ति वियंभउ दुक्ख निसुंभउ, धम्मुच्छाहिं सहुनरनाहिं। सुह नंदउ पय जय परमप्पय, जय जय जिणवर जय भवभयहर ॥ विमलु सुकेवलणाणसमुज्जलु, मह उप्पजउ इच्छिउ दिजउ।
मह अमुणंतइ कव्वु कुणंतइ, जं हीणाहिउ काइवि साहिउ॥ पत्ता-तं माइ महासह देवि सरासइ निहयसयलसंदेह दुह ।
महु खमहु भडारी तिहुयणसारी पुप्फयंत जिणवयणरुह ॥ २३ ॥ इयजसहरमहारायचरिए...............चत्यो परिच्छेओ सम्मत्तो ॥ छ । मंगलमस्तु । संवत् १३६० वर्षे आषाढ सुदि १३ शनौ अद्येह श्रीमहाराजाधिराज श्रीसुरत्राण महमदराज्ये दुर्गमंडप पडिगनायागे वगडी नामनि प्राग्वाटवंशीय सा० भावडसंताने सा० मल्हौ पुत्र रामा भ्रात देल्हाकेन द्वाभ्यां जसोधरपुस्तिका लेखिता। सा चिरं नंदतु ॥ छ॥ शुभमस्तु ।
परिशिष्ट नं०६ (आदिपुराण की प्रति लिखानेवाले की प्रशस्ति ।) पणविधि रिसहेसह विणिहयपणसरु लोयालोय पयासणु । घरमुत्तिरमणवरु जम्ममरणहरु कम्ममहारि विणासणु ॥ मयनयणवाएससहरमिएसुसंवच्छरेसु पच्छइ गपसु। विक्कमरायहो सुइसेयपक्ख णवमी बुहवारे सचित्तरिक्ख ॥
गोवेगिरीणयरि णिउ डुंगरिंदै, हुउ पयपाडियसामंतर्विदु। 1 यह पद्य तीसरे परिच्छेद के प्रारंभ में है। २ यह पद्य चौथे परिच्छेद के प्रारंभ का है, परन्तु बम्बई और पूने की दोनों प्रतियों में नहीं है। छपी हुई भाषावली प्रति में है । ३ यह पद्य बम्बई की प्रति में नहीं है।
४ मद-नयन-वाण-शशधर मितेसु, अर्थात् वि. संवत् १५२१ । ५ ग्वालियर-गोपाचल । ६ दूंगर सिंहराजा ।
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जैन साहित्य संशोधक
तहो उ सकित्तिधवलियादियंतु सिकिति सिंहु विलच्छिकंतु ॥ सिरिकसंग मंडणू मुर्खिदु, गुणाकिति जईसरु जप श्रदु । जसकिति किति मंडिय तिलोउ तहो सीसु मलयाकित्ति जिनसोउ ॥ गुणभददु भद्दु तो पट्टि सूरि जें जिणवयणामिउ रसिउ भूरि । सिरि जसवाल - कुलगहू ससंकु, सिरि उल्हासाहु सया संकु ॥ तहो जाया गयसिरि णामधेय, तहि सुत्र हंसराजु दया श्रमेय । उल्हा चउधरियहु णारि श्ररण, भावसिरिणाम शियगुणपसरण | तर्हे पुत्त चयारि हयारिमल्ल, सिरि पउमसिंहु जिउ तुल्ल । लच्छीहरुमाणिक मणिसमाणु, घेना रायालयदवमाणु ॥ धत्ता - सिरि हंसराय वउधरिय घरे विजसिरि भज्जा महिया ।
त सुय गुणसार सुहपउरेलर परिमियम गणरहिया ॥ तर्हि लल्ला रयणु सुबुद्धिधामु, मयगुजि वीरू मंडेहिहाणु । सिरि पउमसिंह भज्जा सुपुज्ज, वीराणामे वरगुणसमुज ॥ तर्हे सुउ सोनिग गामेण धीरु, सूआ घरिणि एसहु जणि अभीरु । वीई वल्लहलडहंगवम्ग, वीधो हिहाण सयदलकरग्ग । श्ररणजि घरिणी मीया अहिक्ख, सिरि परमसिंह घरे लीलसिक्ख । तर्हे चारिपुत्त हियपियरचित्त सिरि चित्त वालू डालू विचित् ॥ तीय कुलदविउ सो पयच्छु, तह मयणवालु चउथउ पसत्यु । माणिक माणिणिणं काममलि, लखणसिरि णाम णारी मतल्लि ॥ घेण। घरिणिउ णं कामऋत्यु, संगहिउ जाहि जिधम्मवत्थु । मयणाभज्जो यति भाह भीय णामेण सया सीलेण सीय ॥ लल्ला पिय मणसिरि पढम श्रण, पट्टो मंगाभिक्खो सुवण्ण । सुत्र रामचंद्र कुलकमलनंदु, नंदउ चिरु इह गं वीयचंदु | नंदा पूना से भज्जजुत्त, चिरु जीवउ वीरू कमलवत ॥
या मभि सिरि पोमसिंह, जिण सासणणंदरावणसुसिंह । विज्जुलचंचलु लच्छी सहाउ, आलोइवि हुउ जिणधम्मभाउ ॥ जिण गंधु लिहाविड लक्खु एक्कु, सावयलक्खाहारातिरिक्कु । मुणि भोयण भुंजाविय सहासू, चडवीस जिगालउ किउ सुभासु ॥ धना चउधारेय निमित्त दव्वु, तेराज्जिउ लाइविजें उब्व । पुरुवजिणायद जि विचिन्तु, ससिहरु सुपाडिहेरत ॥ णिम्मविउ भवंबुहि जाणवतु, रयणत्तयजुयजुयपासजुत्त । कारिय पट्ट जिसमइ दिट्ठ, अवलोइवि सयल सचित्तिरिठ्ठ '। बत्ता - गंदउ सिरिहंसराउ सुहउ, गंदउ परमसिंह ससुर । -
गंदउ परिवारु लच्छिकलिङ, गंदर लोड गुणोह जुउ ॥ श्रायासस्स जिणस्स य जिह अंत कोवि लहइ न गुणस्स । सिरि पोमसिंह तिच ते को पारह गुणणिहाणस्स ॥ १ सिरि पउमसिंह पडमं इह लोए जह ण होतु ता पउमा । कीला कत्थ करती सुदाणपूया विणोपहिं ॥ २ ॥
[ खण्ड २
४ कीर्तिसिंह, डूंगर सिंह का पुत्र । ५ गुणकीर्ति यतीश्वर । ६ यशः कीर्ति । ७ मलयकीर्ति यशः कीर्ति के शिष्य । ८ जिनवचनामृतसिक । ९ गयसिरि जाया - गजश्री नामकी भार्या । १० ज्येष्ठ-जेठा ।
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प्रो. ल्युमन अने आवश्यक सूत्र
जर्मनीना प्रसिद्ध प्रोफेसर ल्युमन जैन आगमोना घणा ऊंडा अभ्यासी छे. लगभग अर्था सैका जेटला लांबा समयथी तेओ जैन साहित्य, अवगाहन करता आव्या छे अने अनेक जैन सूत्रोप्रन्थोना सूळ, नियुक्ति, भाष्य, टीका,टिप्पणी आदिने अर्वाचीन शास्त्रीय पद्धतिए संशोधित-अनुवादित करी तेमणे प्रकाशमां आण्या छ.ए बधामां आवश्यकसूत्र अने तेने लगता साहित्य उपर जे तेमणे अथाग परिश्रम उठान्यो छे अने ते विषयमा जे निबन्धो आदि लख्या छे ते तो खरेखर तेमनी जैन साहित्य विषयक सूक्ष्म-प्रवीणतानी आश्चर्य-कारक साक्षी आपे छे. .
जर्मनीना लीप्झीक शहेरमाथी प्रकट थती ओरिएन्टल सोसायटीनी प्रन्थमाळा (Abhand. lungen fur die Kunde des Morgenlandes) मां आवश्यक-कथा ( Die Avashyaka Erzahlungen) नामे एक प्रन्थ छपाववानी तेमणे सुरुआत करी हती,जेमा आवश्यक सूत्रनी चूर्णि अने टीकामां आवती बधी कथाओ मूळ रूपे आपी, जुदी जुदी प्रतोमा मळी आवतां तेमनां पाठान्तरो तथा बीजा बीजा प्रन्थोमां मळी आवतां रूपान्तरोनी घणी विस्तृत रूपरेखा आलेखवानी तेमनी इच्छा हती. परंतु, ते माटे जोइतां बधां साधनो-भाष्य, चूर्णि, टीका आदिनी जुदी जुदी प्रतो विगेरे-न मळी शकवाथी, पचासेक पानां छापी तेमने ए कार्य बन्ध करवू पडयुं हतुं. ते दरम्यान सने १८९४ मां जिनेवा (Geneve) मां भराएली इन्टर नेशनल ओरिएन्टल कोंग्रेसमां वांचवा माटे आवश्यकसूत्र साहित्य उपर जर्मन भाषामां एक विस्तृत निबंध तेमणे तैयार कयों हतो जेमां आवश्यक सूत्रने लगतुं जेटलुं साहित्य मळी आवे छे तेनुं अतिसूक्ष्मरीते विवेचन कर्यु हतुं.ए निबन्ध (Uebersicht uber die Avashyaka-Litteratur) ना नामे तेमणे स्वतंत्ररीते प्रकट कर्यो छे; जेना डेमी साइझना आखा कागळ जेवडा ५० उपर पानां छे. एमां प्रथम श्वेतांबर अने दिगंबर बने जैन संप्रदायोमा आवश्यकने शु स्थान छे ते बताव्यु छ; अने पछी आवश्यक सूत्रनी भद्रबाहुकृत नियुक्तिमा आवता बधा विषयोनो बहु खूबी भरेलो सार आप्यो छे. ए सारमा साथे साथे नियुक्तिमा आवता विषयोने बीजां बीजां सूत्रो अने भाष्यो विगैरेमा आवता तेज विषयो साथे, कोष्टको करी करी गाथाओवार सरखाव्या छे. आवश्यकचूर्णि अने हरिभद्रकृत टीकामां परस्पर जे जे विशेष छे ते सपळा मूळ पाठो साथे समजाव्या छे. पछी जिनभद्र क्षमाश्रमणकृत विशेषावश्यक भाष्यनुं लंबाणथी विवेचन कर्यु छ. एमां पण पहेला, विशेषावश्यक ए शुं छे, तेनी टीका विगेरे कोणे करेली हे, ए बताव्युं छे; अने त्यार बाद नियुक्तिनी गाथाओने भाष्यना विवरण साथे विषयवार समजावी छे. अने ए उपरांत पछी आखा भाष्यनो सार आप्यो छे. एटलं करीने पण ए जर्मनदेशीय गीतार्थने संतोष न थयो तेथी ए निबन्धनी एक जूदी पूर्ति करी छे, जेमा विशेषावश्यक भाष्यनी शीलांकाचार्यकृत प्राचीन अने तुर्लभ्य टीकामा जे जे विशेष विशेष उल्लेखो छे ते बधा मूळरूपे गाथावार छपावी दीधा छे अने छेवटे ए टीकानी साथी जूनी ताडपत्रनी प्रति जे हालमां पूनाना भांडारकर
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८२] जैन साहित्य संशोधक
[खंड २ ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टीटयुटमा सुरक्षित छ, तेना अतिजीर्ण शीर्णथएलां केटलाए पानाना फोटोग्राफर आप्या छे.'
प्रो० ल्युमनना अथाग परिश्रम भरेला ए आखा निबन्धनो अविकल गुजराती अनुवाद कराववानो अमारो विचार चाली रह्यो छे पण कमनसीबे हजी अमने ए निबन्धनी पूरी नकल मळी नथी. पूनाना भांडारकर ओ० री० इन्स्टीटयूटमांना सर भांडारकरना पुस्तकसंग्रहमांथी फक्त एना कटेलाक प्रुफसीटस् ज अमने जोवा मळ्या छे, जे प्रो०ल्यूमने डॉ०भांडारकरने, ए निबन्ध छपाती वखते, पूनानी प्रतो साथे सरखावी जोवा माटे मोकल्या होय एम देखाय छे. ए संबन्धमा खुद्द प्रो० ल्युमनसाथे ज अमारो पत्रव्यवहार चाले छे जेनो सविस्तर खुलासो मळतां भाषांतरनी व्यवस्था करवामां आवशे. ते दरम्यान, जैन साहित्य संशोधकना वाचकोने ए अमूल्य निबन्धनो काइक परिचय थाय तेटला माटे मजकुर प्रोफेसरे ए निबन्धमा आवश्यक नियुक्ति अने विशेषावश्यक भाष्यमां आवता गणधरवाद नामे विषयना उपर जे एक प्रकरण लख्यू छे तेनो अनुवाद आपाए छीए. ए अनुवाद कार्यमां, मि. आर. डी. वाडेकर, बी. ए. नामना सज्जने जर्मन भाषा समजाववा माटे जे सहायता अपी छे तेनी आभार साथे अमारे अहीं खास नोंध लेवी जोईए. भारत जैन विद्यालय; पूना है
-मुनि जिन विजय वैशाख, संवत् १९७९
-केशवलाल, प्रे. मोदी. विशेषावश्यकभाष्य अने तेनी टीकामां मळी आवतां पैदिक अने दार्शनिक अवतरणो.
आवश्यक नियुक्तिना छठ्ठा भागनी १ थी ६४ मी सुधीनी गाथाओमां गणधरवाद नामे विषय आवेलो छे. एमां केवी रीते महावीरे ११ ब्राह्मणोना तत्त्वज्ञान विषयक संशयो दूर करी, शिष्यो साथे तेमने पोताना शिष्यो बनाव्या एनुं ट्रंक अने एक ज प्रकारनुं वर्णन आपेलुं छे. ए अग्यारे ब्राह्मणो महावीरना मुख्य शिष्य होई गणधरो कहेवाय छे. शरुआतमा २ थी ७ सुधी गाथामां संक्षेपमां गणधरोनो ढूंक परिचय अने संशयात्मक विषयनी नोंध आपी छे अने पछी ८ थी ६४ सुधी गाथामां तेनो ज विस्तार आपेलो छे. गाथावार हकीकत आ प्रमाणेः
२. उन्नत अने विशालकुलमा उत्पन्न थएला अग्यारे ब्राह्मण पावानामक स्थानमां सोमिल बामणे आरंभेला यज्ञपाटकमा आवेला हता. ३-४. तेमनां नाम
६ मण्डिय
८ अकंपिय ७ मोरियपुत्त
९ अयलभाय ५ वाउभूइ
१० मेयज्ज ४ वियत्त
११ पहास
२ अग्गिभूइ
५. आ अग्यारेमाथी फक्त एक सुधर्म (५मा गणधर ) नीज शिष्य परंपरा आगळ चाली. बाकीना कोईनो शिष्य समुदाय रह्यो नहीं.
१ए आस्वा पुस्तकना अमे पण फोटोग्राफर पडाव्या छे. खरेखर ए प्रति एक दर्शनीय प्रति छे भने एना ए फोटोग्राफसूनी नकल दरेक पुस्तक भंडारमा मुकवामां आवे एवी मामारी खास भलामण छे.
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२५.
३१. ३५. ३९.
अंक १]
प्रो. ल्युमन अने आवश्यकसूत्र ६ठी गाथामां क्रमथी ए अग्यारेना मनमा जे जे बाबतनो संशय हतो तनी नोंध छे अने ते आ प्रमाणे छे
जीवे' कम्मे तज्जीव' भूय' तारिसय बन्ध-मोक्खेय ।
देवा नेरइया' वा पुण्णे परलोग निव्वाणे' ॥६ (५९६) ___७. पहेला पांचे गणधरोने ५००-५०० शिष्यो हता; ६-७ ने ३५०-३५० अने छेल्ला ४ ने ३००-३०० शिष्यो हता.
महावीर दरेकने नाम गोत्र पूर्वक बोलावे छे अने पछी तेना मनना संशयनुं नाम लई, 'तूं वेदना पदोनो अर्थ जाणतो नथी, तेनो अर्थ आ प्रमाणे छ' एम एक ज प्रकारनो जवाब आपे छे. गाथावार गणधरोनी उल्लेख आ प्रमाणे१७. पहेलो गणधर, जीव विषयक संशय. बीजो
कर्म विषयक त्रीजो
तज्जीव तच्छरीर वि. , चौथो
पञ्च भूत वि० पांचमो
सदृशोत्पत्ति वि० , ४३.
बन्ध मोक्ष वि० ४७. सातमो
देवसृष्टि वि० ५१. आठमो
नरकसृष्टि वि० नवमो
पुण्य विषयक दशमो
परलोक वि० ६३. अग्यारमो , निर्वाण वि. आ अग्यारे गणधरोना मनना संशयनो महावीरे जे खुलासो कयों हतो तेनो उल्लेख मूळ नियुक्तिमां करवामां आव्यो नथी. निन्हवोनी हकीकतनी पेठे ज ए हकीकत पण निर्णय वगर ज
आपवामां आंवली छ. चूर्णिमां फक्त पहेला गणधरना संशयनो खुलासा करवानो थोडोक प्रयत्न करवामां आव्यो छे. पण जिनभद्र आ बाबतनो घणो उत्तम विस्तार करे छे. ए विषय माटे तेमणे ४०० उपरांत गाथाओ लखी छे अने तेना विवरणमा घणी विशेष वातो आपी २. हरिभद्रसूरि आ विवरणमांथी घणांक अवतरणो पोतानी टीकामां ले छे अने एज अवतरणो विशेषावश्यक भाष्यमांना गणधरवादनी टीकाओना आधारभूत बने छे. वळी हरिभद्रनी टीका उपरथी किञ्चिद्गणधरवाद नामनो पण एक प्रन्थ लखायो छे, जेमां केटलोक वधारे विस्तार करवामां आवेलो होई वेदनां घणां खरां अवतरणो उपरांत छठ्ठी अने ते पछी आवती गाथामांनी हकीकतनुं पण निरूपण करेलुं छे. आनी श्लोक संख्या लगभग २५० जेटली के अने पूनाना पुस्तकभंडारमा नं० १६; २९१ वाळी प्रतना २० थी २३ मा सुधीना पानाओमां ए लखेलो छे. दशवैकालिकनी लघुवृत्तिमां पण संक्षेपथी आ विषय चर्चेलो छे. ___ आ विषयने लगता जे केटलांक वैदिक अने दार्शनिक अवतरणो जिनभद्र आपे छ अने तेमनो जे अर्थ जैन मतानुसार करे छे ते जाणवां जवां छे. आमांनां घणां खरां अवतरणो तो तेमणे फक्त
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जैन साहित्य संशोधक.
[ खंड २ पोतानी टीकामां ज आपेलां छे; पण ते स्वोपज्ञ टीका उपलब्ध नथी; तेथी हरिभद्र, शीलांक अने हेमचन्द्र - के जेमणे ए स्वोपज्ञ टीकानो पोतानी टीकाओमां उपयोग कर्यो छे-तेमणे ए अवतरणो लधिला होवाथी आपणे ए टीकाओमांथी ज ते लेवानां छे. भाष्यना मूळमां ज जे अवतरणो आपला छे ते खास काळा अक्षरोमां आपवामां आव्यां छे. बाकीनां कया टीकाकारे कयां अवतरणो
छे ते जुदी जुदी रीते बताववामां आव्यां छे. ए अवतरणो कया प्रन्थोमाथी लेवामां आवेलां छेतेनो कांई उल्लेख टीकाकारो करता नथी. तेथी जेकबना उपनिषद्वाक्यकोष अने बीजां तेवां वेद संबंधी पुस्तको उपरथी घणांकनां स्थळो खोळी काढवानो प्रयत्न कर्यो छे. ए तो चोकस छे के जे अवतरण जिनभद्रे लीथां छे ते घणां प्रमाणभूत छे अने तेमना वखतना ब्राह्मणो वादविवादमा ए वाक्यानी खूब चर्चा करता होवा जोईए. ब्राह्मणोनां दर्शनशाखोमां परस्पर विरुद्ध विचार दर्शावari ए वाक्यो उपरथी दरेक गणधरनो संशय उभो करवामां आव्यो छे. प्रसिद्ध उपनिषदोना मूळ पाठ। साथै सरखावतां ए वाक्योमा जे केटलीक भूलो नजरे पडे छे तेनुं कारण बिनकाळजीपूर्वक नो उपयोग करवामां आवेलो होवु जोईए. ×२, ५ ( १५५३ ).
* ( दार्नास्तिकः ) *
+93
एतावानेव पुरुषोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे, वृकपदं पश्य यद् वदन्ति बहुश्रुताः ६ ॥ I पिब खाद व साधु शोभने यदतीतं वरगात्रि तन ते । न हि भीरु गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कडेवरम् ॥ ( भट्टोऽप्याह )
*
*
x आ अंक ते प्रो० ल्युमने पोताना मूळ निबन्धमा विशेषावश्यकभाष्यना जे ५ विभागो पाडपा छे तेना सूचक छे. एमी पहलो अंक प्रकरणने अने बीजो गाथानंबरने सूचवे छे. आ पछी जे कौंसमा आंकडा आपेल छे ते काशीनी यशोविजय जैनप्रन्थमालामा प्रकट थएल सटीक विशेषावश्यकभाष्यमांनी चालू गाथासंख्या सूचवे छे. मुद्रित प्रथम १५४८ मी गाथा ज्यां पूरी थाय छे त्यां उक्त प्रो० ना वर्गीकरण प्रमाणे प्रथम विभाग पूरो थाय छे अने १५४९ मी गाथाथी बीजो विभाग शरू थाय छे ते २०२४ मी गाथाए पूरो थाय छे. ए विभागमां गणधरवाद नामनेो विषय आवे छे अने तेनी कुल ४७६ गाथा के.
* - ( ) आबा गोळ कौंसमां आपेला पाठो आवश्यकसूत्रनी हारिभद्री टीकामां आपवामां आवेला नथी; तेज [ ] आवा चौखुणा कौंसमा आपेला पाठो विशेषावश्यक भाष्यनी शीलांकाचार्यकृत टीकामा आपेला नथी; एम समज.
+ आ अंको आवश्यकनी हारिभद्री टीकामां दरेक गणधरना माटे जे शंका-समाधानात्मक अवतरणो आपवाम आवेला छेतेनो क्रमनिर्देश सूचवे छे. एमांनो मोटो अक्षर ए गणधरनी संख्या बतावे छे अने तेनी आगळ जे नानो अक्षर ते अवतरणनी संख्या जणावे छे.
I आ चिन्हवाळा अवतरणो फक्त आवश्यक चूर्णिमा ज मळी आवे छे.
*
आ बने ठोको हरिभद्रकृत षड्दर्शनसमुच्चयना छेवटना लोकायत प्रकरणमा, श्लोक ८१-८२, छे ( मुद्रित पृ० ३०१, ३०४, कलकत्ता ) त्यां बीजा श्लोकनो प्रथम पाद' पिब खाद च चारुलोचने ' आ प्रमाणे छे. २. शीलांकाचार्यनी टीकामा 'यथाहुः' पाठ छे. ३. शी. टी. 'एके.' ४ चूर्णिमा 'एके आहुः' एटलो ज पाठ छे. ५. विशेषावश्यकनी हेमचंद्रकृत टीकानी केटलकि प्रतोमां आना ठेकाणे ' लोकोऽयं ' पाठ छे. ६. चू० शी० ह. हे० नी केटलीक प्रतोमा ' वदन्त्यबहुश्रुताः ' पण पाठ छे.
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मो. ल्युमन अने अवश्यकसूत्र
[८५ विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति, न प्रेत्य सज्ञास्ति।
- बृहदारण्यकोपनिषद् २, ४, १२.-आगळ गाथा ३९अने १३७, नी टीकामा, (मुद्रित पृष्ठ ६८० तथा ७२० मा) पण आ अवतरण आवे छे. तथा भाष्यना मूळमां, गाथा ४०२,४१, ४२१ (मु. पृ. ६८१) मा आ अवतरण अनुवादित छे.
(सुगतस्त्वाह) न रूपं भिक्षवः पुद्गल इति [ आदि ]* अन्ये स्वाहुः I वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराण्यपरापराणि जहाति गृह्णाति च पार्थ जीवः ॥ [ ( तथा च वेदः)] न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वाव सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः।
-छान्दोग्योपनिषद् ८,१२,१.-आगळ ( गाथा) ४३.१०३. २५६. ३१३ नी टीकामा (मुद्रित पृष्ठ ६८२.७०६. ७५९. ७७७.मा) पण आ अवतरण उध्दत छे. तथा भाष्य-मूळ गाथा ३१३१ = ४६७१ (मु.पृ. ७७७. ८३१) मा आ अवतरण अनुवादित छे.
([तथा] अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः) मैथ्यपनिषद् ६,३६.-आगळ गाथा ४३.९५. २५२. ३३४. (म. पृ. ६८२. ७०२.७५८. ७८४ ) नी टीकामा पुनः उध्दृत. मूळ गाथा ९२२= १३६२= ३९९२ =४२२२, (मु. पृ. ७००.७२०. ८०७.८१४) मा अनुवादित. गाथा ३३४. (मु. पृ. ७८४ ) मा सूचित । सरखावो-हरिभद्रनी आवश्यकवृत्तिमा चैत्यवन्दनवृत्ति आव०५.193 तथा शास्त्रवार्तासमुच्चय ६०५, वळी ए छेला प्रन्थना १५७ मा श्लोकमा आना जेवू ज एक अवतरण छे जे तैत्तिरीयसंहिताना २ जानी आदिमां छे.
([कपिलागमे तु प्रतिपाद्यते ] अस्ति पुरुषः) अकर्ता निर्गुणो भोक्ता (चिद्रूपः)
७. आना ठेकाणे ह० मा ' तथा ' पाठ छे. ८. भगवद्गीता २, २२ ( महाभारत ६, ९००) मा उत्तरार्द्ध आ प्रमाणे छे:
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ - चूर्णिमा एक बीजुं वधारे नीचे प्रमाणेनुं अवतरण छ:-- - काया अन्नो मुत्तो निच्चो कत्ता तहेव भोत्ता य ।
तणुमेत्तो गुणवन्तो उड्ढ-गई वण्णिओ जीवो॥ सरखावो-दशवकालिक नियुक्ति गाथा २२७ अने ते पछीनी. ( मु. पृ० १२१)
९ सूत्रकृतांग १, १,१-१४ नी टीकामा शीलांकाचार्य ' तथा चोकं' करीने आ अवतरण नीचे प्रमाणे आपे छ:
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[खंड २
जैन साहित्य सशाधक [ नीलविज्ञानं मे उत्पन्नमाात् ] सरखावो-सर्वदर्शनसंग्रह पृ.
२,३३(१५८०).
(एक एव हि भूतात्मा भूते भूते प्रतिष्ठितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ।।
- ब्रह्मबिन्दु-उपनिषत् १२. यशस्तिलक चम्पू, आश्वास ६, कल्प 1. (पृ.२७३ निर्णयसागर)
यथाविशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः । सङ्कीर्णमिव मात्राभिभिन्नाभिरभिमन्यते ॥ तथेदममलं ब्रह्म निर्विकल्पमविद्यया । कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रकाशते ॥ "ऊर्ध्वसूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥"
-भगवद्गीता१५-१; ( महाभारत ६-१३८३.). . पुरुष एवेदं निं सर्व यद् भूतं यच्च भाव्यं ।"
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ -वाजसनेयी संहिता ३१, २., श्वेताश्वतरोपनिषद् -१५.
२९.
अकर्ता निर्गुणो भोक्ता आत्मा सांख्यनिदर्शने । स्याद्वादमजरी, श्लोक १५ मा मल्लिषेण आखो श्लोक आ प्रमाणे आपे छे:
अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः।
अकर्ता निर्मुणः सूक्ष्म आत्मा कापिलदर्शने ॥ ( बनारस, यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, पृ. ११३ षड्दर्शनसमुच्चयनी टीकामा गुणरत्न पण आ श्लोक उद्धृत करे छे. (जुओ कलकत्ता आवृत्ति, पृ. १०५) वळी सरखावो-षड्दर्शनसमुच्चय, मूळ श्लोक ४१.
१. ब्रह्मबिन्दूपनिषद् ( आनन्दाश्रम मुद्रित, पृ. ३३८) मां बीजो पाद 'भूते भूते व्यवस्थितः' आ प्रमाणे छ, अने यशस्तिलक चम्पू ( निर्णयसागर-मुद्रित, पृ. २७३-उत्तर भाग ) मां बाजा अने त्रीजा पादनो पाठ-'देहे देहे व्यवस्थितः । एकधानेकधा चापि- आ प्रमाणे छे. वळी, शीलांकाचार्यनी आचारांगसूत्र टीका (आगमोदय समिति मुद्रित, पृ. १८) अने सूत्रकृतांग सूत्र टीका ( आ. स. मु. पृ. १९) मा पण आ श्लाक उध्दृत छे.
११. उपनिषा 'भव्यं' पाठ उपलब्ध थाय छे.
प्रो. ल्यूमन आ शब्द उपर एक नीचे प्रमाणेनी खास नोंध करे छ: “केटलाक प्रसिद्ध उपनिषदोमाथी जैन विद्वानोए लीधेला आ अवतरणो काओ सुधी बहु ध्यान खेचाया. वगर ज लखाता आवतां हतां अने तेथी जैनोए करेली तेमनी नोंधमां स्वभाविकराते ज केटलीक भूलो थएली छ. उदाहरण तरीके२१ मार्नु ग्निं तथा ७२ नु अवतरण."-आमांना प्रथम निं शब्द ऊपरनी नोटमां ते लखे छ के-" वर्तमानमा वैदिक वाङ्ययना हस्तलिखित प्रन्थोमां अनुस्वार माटे जे चिन्ह वपराय छे, ते ८ मा सैका अगर तेनी पहेलो ग्निं अक्षर जेवू देखातुं हशे अने तेथी वैदिक चिन्हथी अजाण एवा जैन प्रन्थकारोए तेने एक खास शब्द मानी लीधेलो लागे छ. अने तेथी तेमणे 'पुरुष एवेदं सर्व'ए असल वाक्यमा निं शब्द वधारी 'इद' ना 'द उपर बीजो अनुस्वार चढावी दीघो होय एम जणाय छे." -प्रो. ल्युमननी आ नोंध अमने जरा विचारणीय लागे छे. लिपिभेदना ज्ञानना अभावे एवी भूलो थवी जो के घणी संभवित मात्र ज नथी पण सुज्ञात छे. दाखला तरीके जैन लिपिमा 'ग' भक्षरने
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अंक १]
प्रो. ल्युमन अने आवश्यकसूत्र यदेजति यन्नैजति यद्रे यद्वान्तके। यदन्तरस्य सर्वस्य यदु सवस्यास्य बाह्यतः ॥१२
-वाजसनेयी संहिता ४०,५. २,५० (१५९८).१६ [ तथा ] श्रुतौ [ अपि ] उक्तं
अस्तमिते आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते शान्तेऽग्नौ शान्तायां . वाचि किंज्योतिरेवायं पुरुषः ? 'आत्मज्योतिः सम्राडिति होवाच ।
-यू. आ. उप. ४, ३, ६, आमांना केटलांक वाक्यो ए ज उपनिषद्ना ४.३. २ मा पण आवे छे. भाष्यनी मूळ गाथा २, ५० मां पण आ अवतरण
अनुवादित छे. २,९५ (१६४३).
(स सर्वविद् यस्यैषा महिमा भुवि दिव्ये । ब्रह्मपरे शेष व्योम्न्यात्मा सुप्रतिष्ठितः ॥'
-मुण्डकोपनिषद्, २, २, . पूर्वार्ध. तमक्षरं वेदयतेऽथ यस्तु स सर्वज्ञः सर्ववित् सर्वमेवाविवेश ॥ १४
-प्रश्नोपनिषद्, ४, ११. उत्तरार्ध. एकया पूर्णाहुत्या सर्वान् कामानवाप्नोति । १५ ।
-सरखावो, तै• ब्रा० ३, ८, १०,५. बदले घणा भागे जूना लहिआओ प्र' आवा रूपमा लखता. ए रूपने बराबर न समजवाथी प्रो. वेबरे बर्लिन लाई.. ब्रेरीना म्येनुस्क्रिप्टस् केटलॉगमा 'समग्गय' जेवी शब्दोनी रोमन जोडणी: 'Samugrya' आवी खोटी करी घणो घोटाळो उभो कयों छे. एवी जरीते बीजा विद्वानोना हाथे पण भ्रम थई शके ते स्पष्ट छे. पण अमने
जी रीते ए नेध विचारणीय लागे छ; अने ते ए छे के आवश्यकटीका की हरिभवसरिने वैदिक साहित्य के तेना संकेतथी अपरिचित मानी शकाय तेम नथी. कारण के ते पोते जैन दीक्षा लीधा पहेलो जातिए ब्राह्मण अने विद्याए सर्वशास्त्र निष्णात हता. ए सुविचत छे. अने जो ते वात बाजुए मूकिए तो पण तेमणे जुदा जदा दर्शनो अने मतोना विषयमा जे अनेकानेक अपूर्व अने गहन अन्योलख्या छ तेम ज सांख्य,वेदांत, न्याय, मीमांसा आदि वैदिक संप्रदायोनी जे खूब सूक्ष्म रीते आलोचना-प्रत्यालोचना करी छे ते जोता स्पष्ट जणाय छे के तेओ वेद, ब्राह्मण, सूत्र, स्मृति अने उपनिषदोना घणा ऊंडा अभ्यासी अने ज्ञाता हता. तेथी तेमना जेवा विद्वान् आवा आबाल-प्रसिद्ध अनस्वारना चिन्हने न समजी शके अने तेने काइं बीजं ज कल्पी ले, ए मानवें बिल्कुल अशक्य छे. हरिभवसरि आ शब्दने 'नि' कहे छ भने एने वाक्यालंकार रूपे उक्त वाक्यमां वपराएलो लखे छे.- मिमिति वाक्यालंकारे-आवश्यकसूत्र, आ. स. पू. २४४ ) वर्तमान उपनिषदोमां पण पाठ-भेद अने पाठ-फेर क्या ओछ पएला छे जेथी आपणे जैन विद्वानोना आबा पाठान्तरोने एकदम भ्रमोत्पन्न कही शकिए.
१२. ईशावास्योपनिषदा पण आ श्रुति आवेली छे अने त्या 'यद्' ना ठेकाणे सर्वत्र 'तत्' पाठ मळे छे. १३. उपलब्ध उपनिषद्मा वर्तमान पाठ आ प्रमाणे छे:
-- यः सर्वज्ञः सर्ववियस्यैष महिमा भुवि । दिव्ये ब्रह्मपुरे वेष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठितः ॥ १४. वर्तमान पाठ आ प्रमाणे
तदक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य स सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेशेति । -हरिभद्रसूरिए शास्त्रवार्तासमुच्चय, ६२४, मां पण आ अवतरणो सूचवेल छे ( मुद्रित पृ० ३४५ ). १५. हरिभद्रसुरिए पोतानी ललितविस्तरा नामे चैत्यवन्दनवृत्ति ५-११ (मुद्रित पृ. ११) मां पण आ अवतरण उद्धरेल छे.-तैत्तिरीय ब्राह्मण ३,८,१०,५, मां भामे मळती हकीकतनो आ प्रमाणे उल्लेख आवेळो -
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८]
२,१०१ (१६४९). ३२
२, १२६ ( १६७४ ).
२, १४१ ( १६८९ ). ४ '
૪૨
४ ३
जैन साहित्य संशोधक
[ अँड २
एष वः प्रथमो यज्ञो योऽमिष्टोमः, योऽनेनानिष्ट्वाऽन्येन यजते, स गर्तमभ्यपतत् ।
द्वादश मासाः संवत्सरो
अग्निरुष्णो— अग्निर्ह्रिमस्य भेषजं—१७
- ताण्ड्यमहाब्राह्मण १६, १, २.
- वा० स० सं० २३, १०= तै० सं० ७,४,१८,२.
सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष
ब्रह्मचर्येण नित्यस् ।
-तै० सं० ५, २, ५.५.
ज्योतिर्मयो हि शुद्धो
यं पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मानः ॥ १८
मुण्ड० उ०३, १, ५. हेमचन्द्र वळी २, १३७ मी गाथानी टीकामां पण आ अवतरण टांके छे.
( एक विज्ञानसन्ततयः सत्त्वाः ।
[ यत् सत् तत् सर्वं क्षणिकम् ] ) १९
( [ क्षणिकाः सर्वसंस्काराः ] ) १०.
टांके
- या वाक्य अभयदेवसूरिए भगती सूनी टीका ३०, १ मां तथा मलयगिरिए नन्द्रिसूत्रनी टीकामां पण छे. वळी जुओ षड्दर्शनसमुच्चयनी गुणरत्नकृत टीका १. स्वप्नोपमं वै सकलमित्येष ब्रह्मविधिरञ्जसा विज्ञेयः । द्यावा पृथिवी ।
पृथिवी देवता [ आपो देवता ] -- शीलांकाचार्य आ अवतरण आ पछीनी गाथामा आपे छे. पुरुषो वै पुरुषत्वमते, पशवः पशुत्वस् । – हेमचंद्र मा अवतरण
२,२१४ (१७७२) ५१
यो दीक्षामतिरेचयति । सप्ताहं प्रचरन्ति । सप्त वैशीर्षण्याः प्राणाः । प्राणा दीक्षा । प्राणैरेव प्राणां दीक्षामवरुन्धे । पूर्णाहुतिमुत्तम जुहोति । सर्व वै पूर्णाहुतिः । सर्वमेवाप्नोति । अथो इयं वै पूर्णाहुतिः । अस्यामेव प्रतितिष्ठति ।
१६. आखुं वाक्य आ प्रमाणे छे:- ' द्वादश मासाः संवत्सरः संवत्सरेणैवास्या अन्नं पचति यदनिचित् । ' १७. पूरुं अवतरण आ प्रमाणेएकाकी चरति चन्द्रमा जायते पुनः । अग्निर्हिमस्य भेषजं भूमिरावपनं महत् ॥ १७. उपनिषद्मां उपलब्ध पाठ आ प्रमाणे छे
सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् ।
अन्तः शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्र यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः ॥
१९. द्रष्टव्य - चन्द्रप्रभसूरिकृत प्रमेयरत्नकोष ८, पृ. ३० । महापण्डित रत्नकीर्तिकृत क्षणभङ्गसिद्धिप्रकरण (बिब्लिओधिका इण्डिका) पृ० ५४, मां आ वाक्य 'यत् सत् तत् क्षणिकम् ' आ प्रमाणे छे. वळी, जुओ रत्नप्रभकृत . रत्नाकरावतारिका परिच्छेद ५ . ( यशोविजय जैनप्रन्थमाला मुद्रित, पृ० ७६ )
२०. ए आखो लोक आ प्रमाणे छे
क्षणिकाः सर्व संस्कारा अस्मितानां कुतः क्रिया । भूतियषां क्रिया सैव कारकं सैन चोच्यते ॥
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अंक १]
५२
२, २५२ (१८०० ).
२, २५६ ( १८०४ ). ६'
२, ३१८ ( १८६६ ). ७'
७२
२, ३३५ ( १८८३ ).
प्रो. ल्युमन अने आवश्यक सूत्र.
२, २५२ – बाद गाथा १८०० मी पण आपे छे. शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते ।
या अवतरण वळी आगळ २, २५२ - चालू गाथा १८००-नी टीकामां आवे छे; तथा मूळ भाष्य २, २५२ मां पण सूचित छे. [ ( अभिष्टोमेन यमराज्यमभिजयति । ) ] --मैन्युपनि० ६, ३६.
स एष विगुणो विभुर्न बद्धयते संसरति वा, नमुच्यते मोचयति वा । —सरखावो सांख्यकारिका ६२ . न वा एष बाह्यमभ्यन्तरं वा वेद ।
-सरखावो, बृहदारण्यकोपनिषद् ४, ३, २१. स एष यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्गलोकं गच्छति ।
— शतपथ ब्राह्मण १२, ५, २, ८. वळी शीलांकाचार्य आगळ २,४०३चालू गाथा १९५१ –नी टीकाम पण आ अवतरण ले छे.
अपास सोमाम्, अमृता अभूस, अगमन् ज्योतिः, अविदाम देवान् । किं नूनमस्मान् तृणवदरातिः, किमु धूर्तिरमृत मर्त्यस्य ॥
ऋग्वेद संहिता ८, ४८, ३, तथा अथर्वशिरा उपनि० ३.
२१
८९
[ को जानाति मायोपमान् गीर्वाणान् इन्द्र - यम - वरुण - कुबेरादीन ? ] - वळी २, ३३४ - चालू गाथा १८८२ - नी टीकामा पण आ अवतरण छे.
( उक्थ - षोडारी - प्रभृति-ऋतुभिः यथाश्रुति यम- सोम-सूर्य- सुरमुरुस्वाराज्यानि जयति ।
-सरखावो, मैत्र्युपनिषद्, ६, ३६. अहीं मूळ भाष्यमा च आ अवतरण
अनुवादित छे. २२
[ ( इन्द्र आगच्छ मेधातिथे मेषवृषण ) ]
- तैत्तिरीय आरण्यक १, १२, ३; शतपथ ब्राह्मण ३, ३, ४, १८. (आखं वाक्य अ प्रमाणे --' इन्द्रागच्छ हरिव आगच्छ मेधातिथेः । मेष वृषणस्य मेने ।' ) [नारको वै एष जायते यः शूद्रान्नमश्नाति ।
२, ३३९ (१८८७). ८
२१. उपनिषद्मां वर्तमान पाठ नीचे प्रमाणे छे
-
अपाम सोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान् ।
किमस्मान्कृणवद रातिः किमु धृतिरमृतं मये च ॥ -आनन्दाश्रममुद्रित, पृ० १० )
२२. उपनिषद् आ बाबतना नीचे प्रमाणे रहेख मळे हे --' अभिहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामो यमराज्यमभिष्टो. नाभियति सोमराज्यमुक्येन, सूर्यराज्यं षोडशिना, स्वाराज्यमतिरात्रेण, प्राजापत्यमासहरू संवत्सरान्तऋतुनेति । ' आनन्दाश्रम मुद्रित, पृ० ४५७
१२
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९.]
जैन साहित्य संशोधक
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न ह वै प्रत्य नरके नारकाः सन्ति ॥] २, ३६० ( १९०८).
(केनाञ्जितानि नयनानि मृगाङ्गनानां को वा करोति विविधाङ्गरुहान् मयूरान् । कश्चोत्पलेषु दलसन्निवयं करोति को वा दधाति विनयं कुलजेषु पुस्सु ॥)२३ सरसावो, अश्वघोषकृत बुद्ध चरित, कावेलसंपादित पृ. ७७. पुण्यः पुण्येन [(कणा) पापः पापेन कर्मणा]
-बृह • आ०उप०४, ४, ५.हेमचंद्रसूरि आ अवतरण २,९५-चार
___ गाथा १५४३-नी टीकामा ले छे. २,०३ (१९५१). १२१०२ सवै अयमात्मा ज्ञानमयः।-बृ० आ० उ० ४, ४, ५. २, ४२६ ( १९७४ ) १११ जरामयं वा एतत्सर्वं यदग्निहोत्रम् ।
तै. आ. १०,६४.महा. ना. उप० २५.वळी हेमचन्द्र गाथा २,४७५-चालू गा. २०२३-नी टीकामा पण आ अवतरण ले छे.
द्वे ब्रह्मणी [ वेदितव्ये ] परमपरं च [तत्र परं सत्यम्; ज्ञानानन्तरं ब्रह्म] -सरखावो, मैत्र्युपनिषद् ६, २२; ब्रह्मबिन्दूपनिषद् १७.
(सैषा गुहा दुरवगाहा) २, ४२७ (१९७५). ( यथाः[सौगतविशेषाः केचित् तद् यथा]
दीपो यथा निर्वृति पभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्ष । २३. हेमचन्द्रसूरि,गाथा१६४३नी टीकामां, आ पद्यगत भावने जणावनारा नीचे प्रमाणेना त्रण श्लोको आपे छ
सर्वहेतुनिराशंसं भावानां जन्म वर्ण्यते । स्वभावादिभिस्ते हि नाहुः स्वमपि कारणम् ॥ राजीवकण्टकादीनां वैचित्र्यं कः करोति हि । मयूरचन्द्रिकादिर्वा विचित्रः केन निर्मितः ॥
कादाचित्कं यदत्रास्ति निःशेषं तदहेतुकम् । यथा कण्टकतैपण्यादि तथा चैते सुखादयः ॥
-सूत्रकृताङ्गसूत्रनी टीकामां शीलांकाचार्य (मुद्रित पृ० २१ आ. स.) आवी ज मतलबवाको एक अन्य श्लोक आपे छ
कण्टकस्य च तीक्ष्णत्वं, मयूरस्य विचित्रता । वर्णाश्च ताम्रचूडाना, स्वभावेन भवन्ति हि ॥ २४. आचारागसूत्रनी टीकामां शीलांकाचार्य (आ. स. मु. पृ. १७) आ उपरना पद्यनी साथे अश्वघोषवाळ पद्य तथा एकत्रीजु पण अन्य पद्य भापे छे. यथा
'कः कण्टकानां प्रकरोति तैयं विचित्रभावं मृगपक्षिणां च ।
स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ॥'-(बुद्धचरित. ९-५२ ) स्वभावतः प्रवृत्ताना निवृत्ताना स्वभावतः । नाहं कतैति भूतानां, यः पश्यत्ति सपश्यति॥
-शान्त्याचायें उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन२५ मानी बीकामां आ अने बाजां केटोक अवतरणो (उदाहरणार्थ भगवदूगीता १८,४२) उध्दत करेला छे; तेम ज आवी ज जातना बीजा फ्ण केटलांक अवतरणो (उदाहरणार्थ-महानारायणोपनिषद १०,५ कैवल्य उ. २; अने वाजसनेयी संहिता ३१, १८-श्वेताश्वतरोपनिषद् ३,८) तेमणे अध्ययन १२, गाथा ११-१५ नी टीकामा आपेला छे.
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अंक १]
प्रो. ल्युमन अने आवश्यकसूत्र.
९१
दिशं न काचिद् विदिशं न काश्चित् स्नेहक्षयात् केवलप्रेति शांतिप् । जीवस्तथा निर्वृतिप्रभ्युं तो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्ष । दिशं न काश्चिद् विदिशं न काश्चित् क्लेशक्षयात् केव उप्रेति शांतिप् ॥ यशस्तिलक चम्पू ६, १ मां पण आ श्लोको आपेला छे. पण त्यां चरणव्यतिक्रम थलो नजरे पडे छे.
एक अवतरण वळी आवेलुं छे जे ऊपरना १' वाळा अवतरण साथै संबन्ध धरावतुं होय जणाय छे, अने हेमचन्द्रना लखवा उपरथी ते कोई उपनिषद्नी टीकापांनुं (उदा० बृहदारण्यक उपनिषद् ) होय तेम मालुम पडे छे. जिनभद्र मूळ ते आ प्रमाणे नोंघे छे.
४०. गोयम, वेय-पयाणं इमाणमत्थं च तं न याणासि । जं विन्नाणघणो च्चिय भूएहिंतो समुत्थाय ॥
४१. मन्नास मज्जंगेसु व मयभावो भूय-समुदय-भूओ । विन्नाणमेतं आया भूऽणु विणस्सइ स भूओ ॥
४२. अस्थि न य पेच्चखन्ना जं पुव्वभवेऽभिहाणं ' असुगो' त्ति । जं भणियं न भवाओ भवन्तरं जाइ जीवो ति ॥
छेवटनी गाथामांना वाक्य उपर हेमचन्द्र आ प्रमाणे टीका करे छे- ' किमिह वाक्ये तात्पर्यवृत्त्या प्रोक्तं भवति इत्याह - सर्वथात्मनः समुत्पद्य विनष्टत्वात् न भवान्तरं कोऽपि यातीत्युक्तं भवति ।' ज्यारे शीलांक पोतानी हमेशनी विरल - व्याख्यापद्धति प्रमाणे एटलुं ज लखे छे के – ' एवं न भवाद् भवातरमस्तीत्युक्तं भवति '
विशेषावश्यक २, २२६ मां वनस्पति अने प्राणी विद्या संबंधी अन्धविश्वास सूचवनाएं एक - अवतरणो आवे छे, ते पण हुं आनी पूरवणी रूपे अहीं नोंवी लेवा इच्छं छं. ए अवतरणोनो विषय, सदृशमांथी सदृशनी ज उत्पत्ति थई शके, एवो कोई नियम नथी; ए छे एना अर टीकाकारे खूब विवेचना करी छे. ए अवतरण वाळी गाथाओ आ प्रमाणे छे:—
२२६. जाइ सरो संग ओ भूतणओ सासवाणु लित्तात्रो । संजाय गोलोमाविलोम -संजोग ओ दुव्वा 11
२२७. इति रुक्खाउव्वेदे, जोणिविद्दाणे य विसरिसेहितो ।
दीसइ जम्हा जम्मं सुधम्म, तं नायमेगन्तो ॥
सरख वो, पंचतन्त्र श्लोक १, १०७. ए ठेकाणे कविसंप्रदायनी पद्धति बाद करतां ऊपरना अन्धविश्वासवाळ। अवतरणमांनी त्रीजी हकीकतनो उल्लेख करेलो छे – जेपके 'दुर्वा पि गोलोमतः ' । आ अवतरणसांनी पहेली हकीकत के ' शृंगमांथी शर उत्पन्न थाय छे' तेन। उल्लेव वार्ताना रूपनां एक प्रत्येकबुद्धी कथामां आवे छे. त्यां जणाव्या प्रमाणे एक शत्रनी खोपरी, आंख अने मोढामांथी वांसना त्रण फणगा नीकळ्या हता. आ गाथाम जे योनिविधान शब्द आवेलो छे तेनो अर्थ टीका-कारे लख्या प्रमाणे ' योनिप्राभृत' के अने ए नाम एक प्रन्थनुं छे जे पूनाना केटलॉगपां नं० १६, -२६६; क्या २१, १२४२ मां नोंघेलो छे.
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जैन साहित्य संशोधक.
[खंड २
स्वाध्याय-समालोचन आगरे के श्रीआत्मानन्द पुस्तक प्रचारक मंडलने एक महत्त्वके प्रन्थका प्रकाशन किया है। इसका नाम है पातञ्जल योगदर्शन । यों तो पातञ्जल योग दर्शन के अनेक संस्करण, अनेक स्थानोंसे, अनेक रीतिसे और अनेक भाषाओंमें प्रकट हो चुके हैं लेकिन हम जो इस संस्करणको महत्त्वका कहते हैं उसका खास कारण यह है कि इस संस्करणमें जो व्याख्या प्रकट हुई है वह संस्कृतसाहित्यके ज्ञाताओके लिये एक विशेष वस्तु है । पातञ्जल योगदर्शन एक वैदिक संप्रदाय है। ब्राह्मण संप्रदायके जो छ दर्शन गिने जाते हैं उनमें इसका विशिष्ट स्थान है । सांख्य और योग ये दोनों दर्शन युगलरूपसे व्यवहृत होते हैं और सब दर्शनों में प्राचीन हैं । असलमें सांख्य दर्शनका ही एक विशेषरूप योग दर्शन है । सांख्य दर्शनमें ईश्वरस्वरूप किसी व्यक्ति या तत्त्वका अस्तित्व नहीं माना जाता और योगदर्शनमें उसको आश्रय दिया गया है-इतना ही इनमें मुख्य भेद है । जैन और बौद्ध दर्शनमें ऐसे अनेक तत्त्व और सिद्धान्त हैं जो सांख्य और योग दर्शनके तत्त्व और सिद्धान्तोंके साथ समता रखते हैं। इस लिये बहुत प्राचीन कालसे जैन और बौद्ध विद्वानोंको सांख्य और योग दर्शनके अध्ययन और मननका परिचय रहा है । इसी परिचयका उदाहरण स्वरूप यह प्रस्तुत ग्रन्थ है । इस प्रन्थमें पातञ्जल योगदर्शनके सूत्रों पर जैन धर्मके एक अति प्रसिद्ध और महाविद्वान् पुरुषने व्याख्या लिखी है वह प्रकट की गई है। ब्याख्याकार है न्यायाचार्य महोपाध्याय श्रीयशोविजय गणी । इस व्याख्यामें महोपाध्यायाने पातञ्जल योगसूत्रोंका जैन प्रक्रियाके अनुसार अर्थ किया है । व्यासकृत सूळ भाष्यके विचारोंके साथ जहां जहां अपना मतभेद मालूम दिया वहां उपाध्यायजीने बडी गंभीर भाषामें अपने विचारका समर्थन और भाष्यकारके विचारोंका निरसन किया है और यही इस व्याख्याकी खास विशिष्टता है। ___इस ग्रन्थका संपादन विद्वद्वर्य पं सुखलालजीने किया है । जहां तक हम जानते हैं, जैन साहित्यमें अभी तक कोई तात्विक ग्रंथ ऐसी उत्तम रीतिसे संपादित हो कर प्रकट नहीं हुआ। प्रन्थके महत्त्व और रहस्यको समझानेके लिये पंडितजीने परिचय, प्रस्तावना और सार इस प्रकारके तीन निबन्ध हिन्दी भाषामें लिखकर इसके साथ लगाये हैं जिनके पढनेसे एक अन्यके पूर्ण अभ्यासके लिये जितने अंतरंग और बाह्य प्रश्नोत्तरोंकी आवश्यकता होती है, उन सबका ज्ञान पूरी तरहसे हो जाता है । परिचय नामक निबन्धसें, पंडितजीने योगसूत्र, योगवृत्ति, योगविंशिका आदिका परिचय कराया है और प्रस्तावनामें जैन और योगदशनकी तुलना तथा तद्विषयक साहित्यका विवेचन किया है । यह प्रस्तावना कैसी महत्त्वकी और कितने पांडित्यसे भरी हुई है इसका खयाल तो पाठकोंको इसके पढने ही से आ सकता है और इसी लिये हमने इस सारी प्रस्तावनाको इसी अंककी आदिमें उदृत की है। ___इस पुस्तकमें योगदर्शनके सिवा एक योगविंशिका नामका प्रन्थ भी सम्मिलित है जो मूलहरिभद्रसूरिका बनाया हुआ है और उस पर टीका सइन्हीं यशोविजयजीने की है । जैन दर्शनमें 'योग' को क्या स्थान है और उसकी क्या प्रक्रिया है यह जानने के लिये यह योगविंशिका. बहुत ही उपयोगी है।
पुस्तके अंतमें योगसूत्रवृत्ति और योग विंशिकावृत्ति का हिन्दी सार दिया है जिससे संस्कृत न जानने वाले भी इन ग्रन्थगत पदार्थोंको सरलतासे समझ सकते हैं । इस पुस्तकका ऐसा उपयुक्त संस्करण निकालनेके लिये संपादक महाशय पं. सुखलालजी तथा मंडलके उत्साही संचालक श्रीयुत बाबू दयालचंदजी-दोनों सज्जन विद्वानोंक विशेष धन्यवादके पात्र हैं।
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जैन साहित्य संशोधक ग्रंथमाळा
अध्यापक कॉवेल लिखित
प्राकृत व्याकरण-संक्षिप्त परिचय
संपादक मुनि जिनविजयजी
एम्. आर्. ए. एम्. ( आचार्य-गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर-अमदाबाद )
( जैन साहित्य संशोधक-खण्ड २, अंक १-परिशिष्ट )
प्रकाशक
जैन साहित्य संशोधक कार्यालय . भारत जैन विद्यालय-पूना शहर.
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निवेदन
આ પ્રાકૃત વ્યાકરણ સક્ષિપ્ત-પરિચય, કેમ્બ્રીજ યુનિવર્સિટીના એક વખતના સસ્કૃતના અધ્યાપક અને એડીનબર્ગ યુનિવસિટીના ઓનરરી એએ. ડી. શ્રી ઈ. ખી. કૉવેલે લખેલા
A SHORT INTRODUCTION TO THE ORDINARY PRAKARIT OF THE
SANSKRIT DRAMAS નામના નિમ`ધના અવિકલ ગુજરાતી અનુવાદ છે. જેમને સંસ્કૃત ભાષાના સાધારણ અભ્યાસ હાય અને જે પ્રાકૃત ભાષાના ટુંક પરિચય કરવા માંગતા હાય તેમને આ નિમ'ધ ઘણા મદત કર્તા થઈ પડે એવા જણાયાથી, આ રૂપમાં પ્રકટ કરવામાં આવે છે. આ નિબંધ મૂળ સન્ ૧૮૫૪ માં મજકુર પ્રેફેસરે વશિત પ્રાન્ત કારણ ની જ્યારે પ્રથમ આવૃત્તિ મ્હાર પાડી હતી તેની પ્રસ્તાવના રૂપે લખ્યા હતા. અને પછી ૧૮૭૫ માં કેટલાક સુધારા-વધારા સાથે, લંડનની 'TRUBNER and Co. એ એક પુસ્તિકાના રૂપમાં અને જૂદો પાબ્યા હતા. એ પુસ્તિકા આજે દુલભ્ય હાઈ મુકસેલા તેની ૩-૪ રૂપિઆ જેટલી કિમત લે છે. તેથી ગુજરાતી ભાષાભિન વિદ્યાથી ઓને આ નિષધ સુલભ થઈ પડે તેવા હેતુથી આ પત્રના પરિશિષ્ટ રૂપે પ્રકટ કરવામાં આવે છે. આશા છે કે સશાષકના વાંચનારાઓને તેમજ અન્ય તેવા અભ્યાસિઆને આ પ્રયાસ ઉપયાગી થઈ પડશે.
જ્યેષ્ઠ પૂર્ણિમા, ૧૯૭૯.
સંપાદક
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अध्यापक कॉवेल लिखित
प्राकृत व्याकरण - संक्षिप्त परिचय
ઈ. સ. પૂર્વેના સૈકાઓમાં, ભારતવષ માં સંસ્કૃત ભાષામાંથી અપભ્રષ્ટ થઈ ને કેટલીક ભાષાઓ ( ખેલીઓ ) ઉત્પન્ન થઈ જેને સાધારણ રીતે પ્રાકૃત કહેવામાં આવે છે. આ ભાષાઓની શેાધ ખાળના વિષય ભાષાશાસ્ત્રીને તેમજ ઇતિહાસ લખકને ઘશે! રસ આપી શકે તેમ છે. હાલની પ્રચલિત ભાષાઓ અને મહા સસ્કૃત વચ્ચે સંબંધ જોડી શુંખલાનું કામ બનાવનાર આ પ્રાકૃત ભાષાઓનું (અને ખાસકરીને ‘ પ્રાકૃત ’ નામક ભાષાનુ) જ્ઞાન હાલમાં વપરાતાં કેટલાંક રૂપે. સમજવાને ઉપચાગી છે એટલું જ નહિ, પરંતુ તે ભાષાસંધની એક ઈંડા-યુરોપીઅન શાખાના ઇતિહાસમાં પ્રકાશ પાડે છે, તથા લૅટીનમાંથી ઉત્પન્ન થએલી આધુનિક ઈટાલીઅન અને ફ્રેંચ ભાષાએ સરખાવતાં જે સ્વરમાધુય નું આપણને ભાન થાય છે તે માધુ ના નિયમાના અનુપમ દ્રષ્ટાંતા પૂરાં પાડે છે. તદુપરાંત ખાજા ઘણા રસાત્પાદક ઐતિહાસિક પ્રશ્ના સાથે પ્રાકૃત ભાષાના નિકટના સબ`ધ છે. સલાનના મદ્રેનાં તથા ભારતવષઁના જૈનાનાં ધમ પુસ્તકાની ભાષા પ્રાકૃતનાં ભિન્ન ભિન્ન રૂપા છે; અને ખરેખર બ્રાહ્મણ્ણાની સસ્કૃતના વિશેષ દર્શાવીને જનસમાજના હૃદય ઉપર સચેાટ અસર કરવા માટે ઐાદ્ધ ગ્રથામાં પાલિ ભાષાના ઉપયોગ કરવામાં આવ્યા છે. જ્યારે અલેકઝાન્ડરના આધિપત્ય તળે ગ્રીક લાકા ભારતવર્ષના સંબધમાં આવ્યા ત્યારે પ્રાકૃત ભાષા જનસમાજમાં પ્રચલિત હશે. જેમાં ઈ. સ. પૂર્વે લગભગ ૨૫૦ વર્ષના ઍન્ટીઆકસ અને ખીજા ગ્રીક રાજાઓનાં નામા આવ છે એવા અશાક રાજાના શિલાલેખાની ભાષા પણ એક જાતની પ્રાકૃતજ છે; તે જ પ્રમાણે એન્ટ્રીયાના ગ્રીક રાજાના વૈભાષિક સિક્કાઓ ઉપર પણ પ્રાકૃત ભાષા લખેલી જોવામાં આવે છે. જુના હિંદુ નાટકામાં પણ આ ભાષાઓના હિસ્સા આછે નથી; કારણ કે તેમાં મુખ્ય નાયકા સસ્કૃતના ઉપયોગ કરે છે, પણ સ્ત્રીએ અને સેવકા જુદી જુદી જાતની પ્રાકૃત ભાષા વાપરે છે, જેમાંના પરસ્પર ફેરફારો ખેલનારની કક્ષાપ્રમાણે, સ્વરમાધુય ના નિયમનુ' અનુસરણ કરે છે.
વૈય્યાકરણા ‘ પ્રાકૃત ’ શબ્દને તેઃ સર્વ ગાત એમ જણાવી પ્રતિ એટલે સ'સ્કૃત સાથે સંબંધ જોડે છે. આ વિષયમાં હેમચન્દ્રે નીચેપ્રમાણે જાવ્યુ` છે: મતિ સંસ્કૃત તત્ર મળ્યું તત આપતું વા માતમ્ । પણ મૂળ તેના અથ ‘ સાધારણ' અગર મસ’સ્કારો એવા હશે, કારણ કે મહાભારતમાં એક સ્થળે બ્રામ્હણાના ધિક્કાર કરવા નહિ એમ જણાવી લખ્યુ` છે કેઃ—
दुर्वेदा वा सुवेदा वा प्राकृताः संस्कृतास्तथा ॥
લભગલ આધુનિક વૈય્યાકરણા ‘ પ્રાકૃત ’ નામ તળે ઘણી ભાષાઓના સમાવેશ કરે છે, પરંતુ તેમાંની ઘણી ખરી પાછળથી થયેલાં ક્ષુલ્લક રૂપાંતર માત્ર છે. જેમ જુના વૈય્યાકરણ તેમ તેના ગ્રંથમાં ઘેાડી પ્રાકૃત ભાષાઓ. તેજ પ્રમાણે ઘણા પુરાણા વૈય્યાકરણ વરરૂચિએ ફક્ત ચાર જ પ્રાકૃત ભાષાઓનું વિવેચન કર્યું છે, જેવી કે મહારાષ્ટ્રી, પૈશાચી,' માગધી, અને શારસેની. આમાંથી પહેલી એટલે મહારાષ્ટ્રો ભાષાને તેણે વિશેષ મહત્ત્વની ગણી છે; તથા સન સાહેબે પણુ પાતાના
૧. પૈશાચી ભાષા ખાસ ઉપયેાગી છે કારણકે વૃત્તથા તે ભાષામાં લખાયલી છે.
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અધ્યાપક કવેલ લિખિત
[: ખંડ ૨
ઈન્સ્ટીટ્યુશન્સ' નામના લેખમાં તેને જ મુખ્ય ગણે છે. વરરૂચિના પ્રાકૃત પ્રકાશમાં પ્રથમ નવ પ્રકરણમાં તેનું વ્યાકરણ આપવામાં આવ્યું છે, અને બાકીનાં ત્રણ પ્રકરણમાં બાકીની ત્રણ ભાષાએની વિશિષ્ટતા જણાવી છે.
મૃચ્છકટિક નાટકમાં પ્રાકૃત ભાષાઓનું એક વિચિત્ર મંડળ ભેગું કરવામાં આવેલું છે જેથી કરીને તે નાટક ઉપગી પ્રાકૃત રૂપોની ખાણ બન્યું છે. વળી, વિકમેવશીના ચેથા અંકમાં પુરુરવ રાજાના આત્મપ્રલાપની ભાષા તદ્દન ભિન્ન જ છે, અને એક જાતની કાવ્યમાં વપરાતી અ૫ભ્રંશ ભાષા છે, જેને આધુનિક વૈયાકરણે મૂળ પ્રાકૃતથી, ઘણીજ જુદી ગણે છે. આ અપવાદે સિવાય સંસ્કૃત નાટકમાં ગદ્યમાં શૈરસેની, અને પદ્યમાં મહારાષ્ટ્રી,- સાધારણ પ્રાકૃત જ વપરાય છે. આ બન્ને માટેના નિયમો સરખાજ છે, પરંતુ ગદ્યમાં વપરાતી ભાષા કેવળ વ્યંજને ઉડાડી દેવામાં થોડી છૂટ લે છે, તથા ધાતુ અને પ્રાતિપદિકનાં કેટલાંક રૂપ તેનાં પિતાનાં ખાસ હોય છે, જે નીચે જણાવવામાં આવશે. તે પણ નાટકની ભાષા, ખાસ કરીને ગદ્યમાં, વરરૂચિના નિયમોથી ઘણી વાર વિરૂદ્ધ જાય છે.
આ લઘુ વ્યાકરણ નાટકમાં વપરાતી સાધારણ પ્રાકૃત માટે ખાસ કરીને બનાવવામાં આવ્યું છે. ખરેખર, અત્યાર સુધી પદ્યાત્મક પ્રાકૃતનાં ઘણાં ઉદાહરણે જાણવામાં ન હતાં; ફક્ત નાટકમાં તથા અલંકારના ગ્રંથોમાં આવેલાં પ્રાકૃત પાનાં થોડાંક નમુનાઓ જણાયા હતા પણ છે. વેબ હાલકવિના સપ્તશતકને કેટલાક ભાગ છપાવ્યું છે જેને લીધે મહારાષ્ટ્ર ભાષાનું મોટું ક્ષેત્ર ખુલ્લું થયું છે. તે કાવ્યમાં પ્રાકૃતના અભ્યાસને માટે ઘણી ઉપયોગી એવી આયા છે પરંતુ મારા પ્રસ્તુત કાર્ય માટે તે બહુ ઉપયોગી નહિ હોવાથી મેં આ લેખમાં તેમને ઉપગ બહુજ છેડે કર્યો છે. તે પણ પરિશિષ્ટમાં હાલકવિની દશેક આર્યાએ મેં આપી છે.
વિભાગ ૧. લભભગ સવથા સંસ્કૃત શબ્દમાં કેટલાક ફેરફાર કરીને અને કેટલાક અક્ષરે ઉડાડીને પ્રાકૃત રૂપ સિદ્ધ થયાં છે. સંસ્કૃતના અશુદ્ધ ઉચ્ચારેને બદલે પ્રાકૃતમાં અસ્પષ્ટ અને અર્ધઉચ્ચાર કરવામાં આવે છે, તથા સંસ્કૃત ભાષાના સ્વભાવની વિરૂદ્ધ જઈને વારંવાર સ્વરસમુહને બાધ કરવામાં આવે છે. નીચેના પ્રકરણમાં, પ્રથમ તે શબ્દના અક્ષરોમાં થતા ફેરફાર વિષે અને, પછીથી, પ્રાતિપદિક અને ધાતુઓનાં રૂપમાં થતા ફેરફાર વિષે વિવેચન કરીશું.
સ્વર પ્રકરણ પ્રાકૃતમાં , , , છે, સિવાયના બધા સ્વરે સંસ્કૃત પ્રમાણે છે.
કે શબ્દમાં પ્રથમ અક્ષર = હેય તે તેને રિ થાય છે, જેમ કે ગરબા ને બદલે ળિ; કેટલીક વાર ચા ની પહેલાં વ્યંજન હોય તે તે વ્યંજનને લેપ કરવામાં આવે છે. જેમ કે સદશ લિ. જે ૪ ની પહેલાં વ્યંજન આવ્યો હોય તે ને અ અથવા થાય છે, અને જે તે વ્યંજન એઝસ્થાનીય હોય તે ૪ નો ૩ થાય છેજેમ કે , , gદિ વિદિ, અપૃથવી-જુહી, કરિ–પતિ. પરંતુ આવા ફેરફાર શબ્દના પ્રથમાક્ષર માં ભાગ્યે જ થાય છે, તે પણ લિ (વિ), sq (૧), ૩૬ ().
૧. જુના ના ચેથા અંકમાં ધીવર માગધી ભાષાનો ઉપયોગ કરે છે, તેમજ મુદ્રાક્ષસ માં કેટલાંક પાત્રે નિકૃષ્ટ ભાષા વાપરે છે.
- ૨. ડૉ. પીલે શાસેનીવિષે મુજના બીજા પુત્ર ૮ માં વિવેચન કર્યું છે. પરંતુ તેમના કેટલાક નિયે અનિશ્ચિત છે,
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અંક ૧ ]
પ્રાકૃત વ્યાકરણ-સંક્ષિપ્ત પરિચય. પ્રાકૃત શબ્દમાં જ આવી શકતું નથી, તેથી કૃ અન્તવાળા સંસ્કૃત શબ્દનું ષષ્ઠી બહુવચનનું રૂપ ચકારાન્ત અથવા સુકારાન્ત શબ્દ પ્રમાણે થાય છે.
રાત નું લિટિર થાય છે. છે નું શુ અગર આ ૬ (કવચિત્ અથવા ) થાય છે, જેમ કે ૪ (૪), સાપ (ચૈત્ર).
ૌ નું જે અગર ૨૩ (કવચિત ૩) થાય છે, જેમ કે વાઈ ( જી), પ (f), હું (તો ).
બાકી રહેલા સ્વરમાંથી જૂ અને જે સયક્ષર હોતા નથી, અને યથાનિયમાનુસાર હુ યા દીઘ હોઈ શકે.
પ્રાકૃતને એક મુખ્ય નિયમ નીચે પ્રમાણે છે –
મુળ શબ્દમાં જોડાક્ષરની પહેલાં દીઘા સ્વર આવ્યા હોય તે પ્રાકૃતમાં તે સ્વર હસ્વ થાય છે, જેમ કે મા, ૬, ૪ નું અનુક્રમે ૪, ૫, ૩ થાય છે; (અને એ એમ જ રહી શકે છે), જેમ કે મામા , વિષ, પૂ–પુછ્યું. તેમાં બે પેટા નિયમ નીચે પ્રમાણે છે: (ક) જે પ્રાકૃતમાં પણ દીઘ વર રાખવામાં આવે તે જોડાક્ષરમાંથી એક વ્યંજનને લેપ થાય છે, જેમ કે શ્યાિ અથવા , વિશ્વાસ વણા અથવા વિસ્તા, () જોડાક્ષરની પહેલાં આવેલ સ્વ સ્વર દીઘ થાય છે અને એક વ્યંજનનો લેપ થાય છે. જેમ કે શિલ, કેઈકવાર જોડાક્ષ પહેલાંના ને ૩ ને બદલે અને થાય છે, જેમ કે પિc– તુ તો ઘણી વાર
ની પહેલાંના ને બદલે શ થાય છે, જેમ કે પર્યન્ત–વેન્ત, સવર્ચસુર, સાચ– કેટલાક શબ્દોમાં પહેલા અક્ષરમાં ૩ નું જ થાય છે, જેમ કે ગુર–કલ પુરુષ અને માતાનું અનિયમિત રૂપ પુરિ અને ર થાય છે.
આ નિયમિત ફેરફાર ઉપરાંત વ્યાકરણમાં અને પ્રાકૃત લેખમાં, તથા ખાસ કરીને સપ્તશતકમાં કેટલાક સ્વરના ફેરફારે અનિયમિત રીતે થાય છે જેમ કે ત –સામિાજ અથવા સામાજિક ઉત્થાત–વક અથવા કહ્યામ, ર–પદ, વિ. સામાસિક શબ્દ કે જેમાં વારંવાર સ્વરે હસ્વ દીઘ થયા કરે છે તથા કેટલીક વાર આખા અક્ષરે લુપ્ત કરવામાં આવે છે તેમાં આવી અનિયમિતતા વારંવાર જોવામાં આવે છે, જેમ કે યમુનાતટ–અમદ અને કાળાઅs સુકુમા–રૂમાર અને સામા; –રાત્રડસ્ટ અને કહ, વિરે (સરખાવે૨૦ ૪, ૬; બર, સતરા પા૦ ૩૨, ૩૩.).
૨. કેવળ વ્યંજન પ્રકરણ (૪). સામાન્ય પ્રાકૃતમાં રા અને જૂ નથી, અને તેમને બદલે ૬ વપરાય છે. ની પછી દંત્યાક્ષર ન આવ્યો હોય તે સાધારણ રીતે તેને થાય છે. શબ્દના આરંભમાં આવેલા ૧ = થાય છે. સામાન્ય રીતે આટલા નિયમ અપવાદ રૂપે આવે છે [તે પણ, નાટકમાં કેટલીકવાર ૩ (પુનઃ ), () થાય છે, પરંતુ આવા ફેરફારે વરરૂચિએ સ્વીકાયો નથી. વળી, વ ૨, ૩ર-૪૧ માં આવેલા શબ્દ, જે આ પુસ્તકને અંતે આપવામાં આવ્યા છે તે જુઓ ].
, એવાં શબ્દો જ્યારે કેટલાક શબ્દના આરંભમાં લગાડવામાં આવે છે ત્યારે તેવા શબ્દોને પહેલે વ્યંજન લુપ્ત થાય છે, જેમ
छ, भ3 आयपुत्र-अज्जउत्त, सुकुमार-सुउमार. () છેવટના અને ન્ જે અનુસ્વારના રૂપમાં પરિણત થાય છે, તે સિવાયના ખેડા વ્યંજનેને લેપ થાય છે. ઘણી વાર છેવટના અનુસ્વારને લેપ થાય છે. કેટલાંક નામના અંત્ય વ્યંજનને અગર ના લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે પ્રી–પરસ, સીર–સરિબા,
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અધ્યાપક કૉવેલ લિખિત
tખંડ ૨
() વચમાં આવેલા ખેડા અક્ષરો –
g, , , ૬, , , , , ને વિકલ્પ લેપ થાય છે, પરંતુ શું અને જૂ ને જ્યારે લા૫ ન થાય ત્યારે તેમને બદલે ઘણી વાર ૪ અને ” અગર થાય છે. આવી રીતે થતે લાપ ગદ્ય કરતાં પદ્યમાં વિશેષ જોવામાં આવે છે. પ્રતિ ઉપસગને બદલે પ્રાકૃતમાં લખવામાં આવે છે.
ને ઘણી વાર લેપ થાય છે, જેમ કે વાયુ-વાડ, નયન– ને ણ થાય છે; અને ને થાય છે, અને કેટલીક વાર ને જૂ થાય છે.
જૂ, ૪, ૫, ૬, ૫ એમ જ રહે છે, અગર તે તેમને 5 થાય છે (જ્યારે છું ને ન થાય ત્યારે, અને ખાસ કરીને ગદ્યમાં, રુ થાય છે.) ૪, જૂ, અને ટૂ માં ફેરફાર થતું નથી. હું હંમેશા ૬થાય છે; સાધારણ રીતે અવિકૃત રહે છે, અને કદાચ તેને મેં પણ થાય. (૪૦ ૨, ૨૬, સરખાવે લેસન સાહેબનું વ્યાકરણ, પાન ૨૦૮.)
ને બદલે ઘણી વાર થાય છે અને આ પ્રમાણે માગધી અને બીજી કેટલીક હળકી ભાષાએમાં નિયમિતપણે થાય છે. ૪, ૫, , , ૬ અવિકૃત રહે છે. અને જૂને બદલે શું થાય છે, પરંતુ રસ અને તેના ઉપરથી થતા શબ્દોમાં તથા લિવર માં, ૨ ને શું થાય છે, જેમ કે - –ાદ, વિવસ–વિત્ર તેમજ, દરા
શબ્દની મધ્યમાંના ખેડા વ્યંજનેને કેટલીકવાર બેવડાવવામાં આવે છે, જેમ કે – અથવા ઈમ, મરાવ–અથવા અતિ (ઘર૦ ૩, ૫, ૫૮).
૩. જોડાક્ષર પ્રકરણ પ્રાકૃત ભાષાના ખાસ ફેરફાર જોડાક્ષરોમાં થાય છે. જ્યારે વધારે સંસ્કૃત જોડાક્ષરો મળી જઈને એકાદ પ્રાકૃત રૂપ સિદ્ધ થાય છે ત્યારે તે રૂપ એકાએક ઓળખી શકાતું નથી. પ્રાકૃતમાં જુદા જુદા વર્ગના બે વ્યંજનેનું જોડાણ રહી શકતું નથી, તેથી તે બંનેમાંથી એકને લેપ કરી, અને બીજાને બેવડાવી એક વગના કરવા પડે છે. સામાન્ય નિયમ તરીકે, જોડાક્ષરમાંના પહેલા વ્યંજનને લેપ થાય છે, પરંતુ ૨, ૫, ૬ પહેલા ન હોય તે પણ તેમને લેપ થાય છે, અને ૨, જૂ, અને શું ને સર્વત્ર લેપ થાય છે. આ ઉપરાંત કેટલાક અપવાદ પણ છે. એક નિયમ ખાસ યાદ રાખવું જોઈએ કે–જ્યારે કઈ જોડાક્ષરમાં ઊષ્માક્ષર આવ્યો હોય, ત્યારે તેને લેપ કરી તેને બદલે તેની સાથે જોડાયેલા વ્યંજન પછીને મહાપ્રાણ વ્યંજન મૂકવામાં આવે છે. જેમ કે , 8 અથવા ને બદલે વા થાય, અગર તે, ઊલમાક્ષરની સાથે જોડાયેલા વ્યંજનની પછી મહાપ્રાણ વ્યંજન ન હોય તે ઊષ્માક્ષરને બદલે દમકવામાં આવે છે, જેમ કેન અથવાદor ને બદલે દુ. પરંતુ જ્યારે આવી પરિસ્થિતિ સામાસિક શબ્દના પદમાં આવી હોય ત્યારે ઉપર્યુકત નિયમ જળવાતું નથી, જેમ કે તિરા–તિક્ષા. (તિરાજે એમ ન થાય.)
અને દુ કદી પણ બેવડાતા નથી. જોડાક્ષરમાં શું આવ્યું હોય તે છેવટે લખાય છે, જેમ કે ગ્રાહ-વા. જોડાક્ષરમાં આવ્યું હોય તેનું અનુસ્વાર થાય છે, આ નિયમ ન્ અને ઊમાક્ષરમાં પણ કેઈક વખતે લાગુ પડે છે, જેમ કે
ર સન, વન-વૈ, અશ્વ–, અણુઅંકુ (જુઓ વર૦ ૪, ૧૫). કેટલીક વાર જોડાક્ષરની વચમાં એક ના સ્વર મૂકવામાં આવે છે;
૧. પ્રાકૃત અક્ષર હશે કે નહિ તે શંકાસ્પદ છે, કારણ કે પ્રતમાં હંમેશાં લખેલે હોય છે.
૨. હું અને ૬ વારંવાર એક બીજાને બદલે વપરાય છે, જેમકે વેળો, પા. ૧૯, ૧-૨, માં ઉદિવિસામો ( વરિરિસામઃ ), તથા રાવું, પા. ૫૬, ૧-૧૨, ( બેથલીંગ ), માતરમૂજગા [મગત-()]
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1]
પ્રાકૃત વ્યાકરણ-સંક્ષિપ્ત પરિચય. महर्ष-हरिस (शुमा वर० ३, ५६-१६) apa पार ये भां भाव य हाय छ, रेम चौर्य-चोरिअ.
પ્રાકૃત જોડાક્ષરેની તાલિકા નીચેની તાલિકામાં સંસ્કૃત જોડાક્ષરનાં પ્રાકૃત રૂપે આપ્યાં છે, જેમાંના ફેરફાર શબ્દના મધ્યમાં થાય છે એમ સમજવું; પણ તે પ્રાકૃત જોડાક્ષરોમાંના પહેલા અક્ષરને લેપ કરવાથી તે રૂપે शहना मार मां ५ मा आवे, म यक्ष-जक्ख, ५ मत-खदा ते प्रमाणे શબ્દની વચમાં હોય તે ને જ થાય છે, અને આરંભમાં હોય તે ક ને પ થાય છે. ___कक, क्त (?), क्य, ऋ, के, क, क्ल, कम उत्कण्ठा, मुक्त, चाणक्य, शक्र, अर्क, विक्लव, उल्का, पक्क, ने महले मनुष्भ उकण्ठा, मुक्क, चाणक, सक, अक, उका, विकव, पिक થાય છે
खत्ख, ख्य, क्ष, क्ष, (क्ष्य), क, स्क, (ख), स्ख, खः भ उत्खाण्डत, आख्या, यक्ष, उत्क्षिप्त, मुष्क, स्कन्ध, स्खलित, दुःख ने मह उक्खण्डित, अक्खा, जक्ख, उक्खित्त, मुक्ख, खन्द, खलिअ, दुक्ख थाय छे. ___गडद, न, ग्म, ग्य, प्र, गे, लगभ खड्ग, मुद्र, नग्न, युग्म, योग्य, समग्र, वर्ग, बल्गित २ मह खम्ग, मुग्ग, णग्ग, जुग्ग, जोग्ग, समग्ग, वग्ग, वग्गिद थाय छे. ____ ग्घ(इ), द्ध, धन, घ्र, घनम उद्घाटित, विघ्न, शीघ्र, निघृण २ महले उग्याडिद, विग्ध, सिग्घ, णिग्घिण थाय छे.
म सोभ-सलोह ( अथवा सङ्क्खोह ?). चच्य, त्य, चं; अच्युत, नित्य, चर्चरिका ने महसे अच्छुद, णिच, चञ्चरिआ थाय छे.'
च्छ = थ्य, ई, छू, क्ष, स, क्ष्म, त्स, त्स्य, प्स, श्च म : मिथ्या, सूर्छा, कृच्छ्राणक, अक्षि, उत्क्षिप्त, लक्ष्मी, वत्स, मत्स्य, लिप्सा, आश्चर्य ने मले मिच्छा, मुच्छा, कुच्छाणअ, अच्छि, उच्छित्त, लच्छी, वच्छ, मच्छ, लिच्छा, अच्छेर थाय छे.
ज्ज-ब्ज, श ( मत) ज्र, ज, ज्व, द्या ये, य्य. (आय), भ, कुब्ज, सर्वज्ञ, वज्र, गर्जित, प्रज्वलित, विद्या, कार्य, शय्या ने महले खुज्ज, सव्वज्ज, वज्ज, गज्जिद, पज्जलिद, विज्जा, कज्ज, सेज्जाथाय छे.
ज्झ=ध्य, ह्य; गेम मध्य, वाहाक, ने महले मज्झ, वज्झम थाय छे. हत; म नर्तकी नु णट्टई थाय छे. दुष्ट,
ष्ठाभ दृष्टि, गोष्ठी नु दिट्टि, गोट्ठी थाय छे. डत, र्द (भाग्य) भगर्त, गर्दभ नुगड, गडह थाय छे. १. क-क्त धरत नाटअभावामां आवेछ, पुस मृच्छ०, ५.२८ १-२००५२ स्टेअरनी नोट.
२. भासशन सभासभा कक, स्क १५२य छ, म निकम्प-निष्कम्प मी अन्य स्थणे वस्त्र थाय छे. ते प्रमाणे च-श्च मने प्प-स्प, प.
3. पथित श्व मलेच नेवामां आवे छे, ५९ मास उशन निच्चअ (निश्चय) २१ शोभा જેમાં નિસ્ ઉપસર્ગ ૧ થી શરૂથતા શબ્દ સાથે જોડાએલે છે.
४. अष्ठि ( अस्थि-डा), तथा ठिअ ( स्थित ) मा हव्ये स्थ ने भाट १५२राय छे.
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]
ड्ड = ढ्यः ?भ } आढ्य तु' अड्ड थाय छे.
ण= न (?), श, म्न, न्न, ण्य, न्य, णं, ण्व, न्व, भट्ठे रुग्ण, यश, प्रद्युम्न, प्रसन्न, पुण्य, अन्योन्य, वर्ण, कण्व. अन्वेषणा, ने महले रुण्ण जण्ण, पज्जुण्ण, पसण्ण, पुण्ण, अण्णोष्ण, वण्ण, कण्ण, अण्णेसणा थाय छे.
અધ્યાપક કૉવેલ લિખિત
ण्ह = क्ष्ण श्न, ष्ण, स्न, हूण, ह भ तीक्ष्ण, प्रश्न, विष्णु, प्रस्तुत, पूर्वाह्ण, वहि ने महले तिve, पण्ह, विष, पण्हुद, पुव्वण्ह, वहि थाय छे.
६ =ब्द, ( ? ), द्र, दे, छः अद्दइअ थाय छे.
न्त = क्त, प्त, त्न, त्म, त्र, त्व, ते बेभ भक्त, सुप्त, पत्नी, आत्मा, शत्रु, सत्त्व, मुहूर्त ने महते भत्त, सुप्त, पती, अप्ता, सन्तु, सप्त, मुहुत्त थाय छे.
त्थ = क्थ, त्र, १ थे, स्त, स्थ; भ सिक्थक, तत्र, पार्थ, हस्त, अवस्था ने महले सित्थभ, तत्थ, पत्थ, हत्थ, अवस्था थाय छे.
[ ५३२
भ है शब्द, भद्र, शार्दूल, अद्वैत ने महले सद्द, भद्द, सद्दल,
दू=ग्ध, ब्ध, धं, ध्वः प्रेम ! स्निग्ध, लब्ध, अधे, अध्वन्, ने महले सिणिद्ध, लद्ध, अद्ध, अद्धा थाय छे.
न्द = न्त ( शैौरसेनीभां हाथ थाय छे. ) प्रेम डे किन्तु, प्रभावान् ने महले किन्दु, पहाववन्दो थाय छे. २
प्प = रप, प्य, प्र, पे. ल्प, ल, क्मः 3 उत्पल, विशप्य, अप्रिय, सर्पणीय, अल्प, विप्लव, रुक्म ने पहले उप्पल, विष्णप्प, अप्पिय, सप्पणीय, अप्प, विष्पव, रुप्प थाय छे.
भ
મદલે
एफ = त्फ, एफ, ( :फ ), स्फ, ष्प, स्पः भ है उत्फुल्ल, निष्फल, स्फुट, पुष्प, शरीरस्पर्श ने उप्फुल्ल, णिप्फल्ल, फुड, पुप्फ, सरीरप्फंस थाय छे.
ब्ब = द्व, बे, ब्रः भेभ ङे उद्बन्ध्य, अब्राह्मण्य ने महले उब्बन्धिय, अब्बम्हणम्.
કે
ष्भ = ग्भ, द्भ, भ्य, भ्र, भे; प्रेभ } प्राग्भार, सद्भाव, अभ्यर्थना, अभ्र, गर्भ ने महले पब्भार, सम्भाव, अष्भत्थणा. अब्भ, गब्भ थाय छे.
य्य = थे, र्ज, ( भागधी ); रि= ड, ये (हाथ ); भ
म्म = खा, एम, न्म, स्य, मं, ल्मः ५ भ है दिङ्मुख. षण्मुख, जन्म, सौम्य, वर्मन् गुल्म ने से दिम्मुह, छम्मुह, जम्म, सोम्म, वम्म, गुम्म थाय छे.
म्ह = प्म, क्ष्म, स्म, ल भ 3 ग्रीष्म, पक्ष्मन्, विस्मय, ब्राह्मण ने महले गिम्ह, पम्ह, विम्हअ, बम्हण थाय छे.
भ } कार्य, दुर्जनः ने महले करये, दुय्यणे थाय छे. तादृश, चौर्य ने महले तारिस, चोरिअ थाय छे.
१. त्र नेहले त्थ असा भव्ययोगांन वथराय छे, नेभडे एत्थ ( अत्र ), तत्थ ( तत्र ). २. लुग्यो मोथलिनु शाकुं०, था. १५५ नोट
3. आत्मा प्पहो = चतुष्पथः
आत अप्पा तथा अत्ता मे छे. प्प = स्प, स्फ, ३ सभासमान, प्रेम चउ
,
४. भ=ह, ঈभड़े विब्भल = विहल.
५. मिलू==लू, भेभ मिलाण = म्लान लुग्यो बेसन, पा. २५८. वणी, व=द्व, ेभङे वारह=द्वादश.
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અંક ૧]
પ્રાકૃત વ્યાકરણ-સંક્ષિપ્ત પરિચય. g= ૨, ૪, (), (ભાગ્યેજ); જેમ કે શરા, નિર્જન, કળ ને બદલે સટ્ટ, ળિgs, પષ્ટ થાય છે.
ર=જેમ કે જહાર નું વાર થાય છે. a= " ચ, (૪), છે, જેમ કે ચિ, પૂર્વ ને બદલે વાવ, પુત્ર થાય છે.
= , સ, શ્વ, જેમ કે વન, , અશ્વ, મનસ્વિની ને બદલે સંત, ગંદુ, સંતો, અતિ થાય છે. - ૪=૧, ૨, ૪, ૨, શ્વ, દમ, ણ, ઘ, ચ, ઝ, ; જેમ કે ઉર્ષ, ક્રિમ, રાકફાસ્ટ, વિશ્ચાત્ત, અશ્વ, સુખ, પુષ્ય, વિજ્ઞામિ, તચ, , તપસ્વિકૂ ને બદલ રસ્સા, ૩િ, રાગસમિ, વિત્ત, રસ, સોસ, પુર૩, પરિભ્રમ, તલ્સ, સદ્દઢ, તવસ્સી થાય છે. ' - તા.ક.-જે સંસ્કૃત શબ્દોમાં ત્રણ વ્યંજને જોડાયેલા હોય છે તેમાંના અધસ્વરને પ્રાકત કરતી વખતે, લેપ કરવામાં આવે છે, અને ત્યાર પછી બાકી રહેલા વ્યંજન માટે ઉપયુકત નિયમ લાગુ પાડવામાં આવે છે; જેમ કે મર્ચ = અચ્છે; પરંતુ આવા ( અર્ધસ્વર વાળા) જોડાક્ષરની પહેલાં અનુનાસિક વ્યંજન આવ્યું હોય તે બાકી રહેલા જોડાક્ષરની બાબતમાં સામાન્ય નિયમ લાગી શકે છે માત્ર અનુનાસિક પછી તેઓ બેવડાતા નથી, (વર૦ ૩, ૫૬) જેમ કે વિશ્વ =વિજ્ઞ. [ શ ને ૪ (વર૦ ૩, ૨૮) પ્રમાણે થાય છે.]
ઉપર્યુક્ત નિયમ ઉપરાંત, હાલ કવિના સપ્તશતકની જેમ બીજા પદ્યમાં ઘણું અનિયમિતતા જોવામાં આવે છે, જેમ કે પૈો નું પ્રાકૃત રૂપ વરરૂચિએ તેઢો તથા તેને આપ્યું છે. તેજ પ્રમાણે નમસ્ત નું પ્રાકૃત રૂપ (૩રામ, પા. ૧૦૫, તથા સતરા ૭૪), તથા બહથa (માહિતી), પા ૯૦), વિગેરે જોવામાં આવે છે.
વિભાગ ૨. પ્રાકૃત નામો પાંચ જાતનાં હેઈ શકે: ૧ અકારાંત તથા આકારાંત, ૨ દકારાંત તથા કારાંત, ૩ કારાંત તથા સાકારાંત ૪ મૂળરૂપે ગાકારાંત ૫ વ્યંજનાંત.
છેલ્લા બે વિભાગમાં પડે એવાં નામ ઘણુ થોડાં છે. સકારાંત પુલિંગ શબ્દને સર અથવા આ અંતવાળા બનાવવામાં આવે છે, જેમ કે પિતા-પિશ ત્રિા-પિઝા, મર્તા-માનો, મર્તામત્તાવેજ. પ્રથમ તથા દ્વિતીયા બહુવચનમાં, તૃતીયા અને પછી એકવચનમાં, તેમજ સપ્તમી બહુવચનમાં, છેવટના ને બદલે ૩ મૂકવામાં આવે છે, અને પછી સકારાંત શબ્દની માફક તનાં રૂપે ચાલે છે જેમ કે મા-મતુળા, મર્તુ–મgો. આવું રૂપ વપરાયેલું પણ જોવામાં આવે છે, જેમ કે મઢ-મgઢ. સંબન્ધદશક નામનું પ્રથમા એકવચન આ અંતવાળું પણ હોય છે, જેમ કે પિતા-પિમા; માત્મામા, અને ત્યાર પછી સાકારાંત સ્ત્રીલિંગ નામની માફક તનાં રૂપો ચાલે છે. મ નું સંબધનરૂપ મન્ન થાય છે અને તેનું સ્ત્રીલિંગરૂપ મદિની અથવા મળી થાય છે.
વ્યંજનાત નામોની દ્વિવિધ ગતિ થાય છે: (૧) તેમને અંત્ય વ્યંજન ઉડી જાય છે અને ત્યાર બાદ ઉપર બતાવેલા પહેલા ત્રણ રીતે તેમનાં રૂપ ચાલે છે (નપુંસકલિંગ નામ પુલિંગ બની જાય છે), જેમ કે (વરજૂ) નું પ્રથમાનું રૂપ , મ (ાર્મન) નું કામ થાય છે, અથવા (૨) મૂળ શબ્દને કે મા લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે રાજૂ નું તો મારાન્ નું મતિના જે વિભક્તિઓના પ્રત્યએ વ્યંજનથી શરૂ થતા હોય તેમને માટે સાધારણ રીતે આ નિયમ લાગે છે. આ ઉપરથી જણાશે કે આ યુક્તિઓ વાપરવાનું કારણ વ્યંજનથી શરૂ થતા
૧. વ=, જેમકે દ તે (વર૦ ૮.૪૧), જેમાં ૩૬ ની પછી જ આવે છે.
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અધ્યાપક વેલ લિખિત
[५७२ પ્રત્યય વ્યંજનાત શબ્દ સાથે જોડાતાં જે નવા જોડાક્ષરે ઉત્પન્ન થાય તથા જે નવા ફેરફાર કરવા પડે તે દૂર કરવાનું હોવું જોઈએ. પરંતુ સ્વરથી શરૂ થતા વિભક્તિના પ્રત્યે આગળ ઘણું ખરું સંસ્કૃત રૂપજ રાખવામાં આવે છે, અલબત, તેમાં પ્રાકૃત નિયમો પ્રમાણે ફેરફાર થાય છે, જેમ કે भवदा (भवत् नु तृतीयानु ३५), आउसा ( आयुषा, आयुस् नु तृतीयानु३५).
પ્રાકૃતમાં દ્વિવચન નથી તેમજ ચતુથી વિભક્તિ નથી (ચતુથીને બદલે પછી વપરાય છે); ५यभी मक्यनना में प्रत्यये। छ: हिंतो 'भांथी' न अ भा प्रे२४मा १५राय छ, भने सुतो माथी' ના અર્થમાં સાધારણ રીતે વપરાય છે. ખાસ ઉપગી એવાં પહેલા ત્રણ પ્રકારનાં રૂપે નીચેપ્રમાણે છે. સકારાંત શબ્દના રૂપ હકારાંત પ્રમાણે ચાલતાં હેવાથી ખાસ અહીં આપવામાં भाव्यांनथी.
નામનાં રૂપાખ્યાન, वच्छ-वृक्ष
(नपुंस० वण-वन) એક વચન.
वयन. प्र० वच्छो (नपुं० वर्ण)
वच्छा (नपुं. वणाई,-इ, वणा;
. वणानि मधमा १५सय छे). द्वि० वच्छं - "
वच्छे; वच्छा (नपुं० प्रथमा०) ४० वच्छेण,-ण
वच्छेहि,-हि पं० [वच्छादो, दु-१
विच्छेहिं,-हि वच्छाहि, वच्छा . '
वच्छासुंतो, वच्छेसुंतो १० वच्छस्स
घच्छाणं-ण स० वच्छे, वच्छम्मि
वच्छेसु-सुं सं० घच्छ, वच्छा (नपुं० वण)
वच्छा (नपुं० वणाई-). अग्गि-अग्नि (पुल्लिंग)
दहि-दधि (नपुंस०).
બહુવચન प्र० अग्गी (नपुं० दहिं)
अग्गीओ, अग्गिणो (नपुं. दहीई,-) द्वि० अग्गि - ,
अग्गिणो अग्गी (?).- " तु० अग्गिणा
अग्गीहिं,-हि पं० अग्गीदो,-दु-हि
अग्गीहितो,-संतो. १० मग्गिणो, अग्गिस्स
अग्गीणं,-ण. । अम्गिम्मि
अग्गीस,-सं सं० अग्गि (नपुं. दहि)
अग्गीओ, अग्गिणो (नपुं. दहीई,-इ) माला (स्त्रीलिंग) वयन
બહુવચન. प्र० माला
मालाओ,-उ; माला' द्वि० मालं पं. मालदो, दु,-हि.
मालाहिंतो,-संतो. ૧ ગદ્યમાં સામાન્ય રીતે જે વાળુંજ રૂ૫ વપરાય છે.
२. माला भाटेमा वर५,२०, तथा शाकुंभा पा. १५९५२, दअमाणा शण्४५२ यापेक्षा હાથલીગની ટીકા,
मेयन.
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અંક ૧]
પ્રાકૃત વ્યાકરણ-સંક્ષિપ્ત પરિચય.
મા -હિ' ष०
मालाणे,-ण स०
मालासु,-सु सं० माले
मालाओ,-उ પ્રાકૃતમાં શ્રીલીંગી કારાંત અને કારાંત તથા કારાંત અને કારાંત નામનાં રૂપમાં ફેરફાર હોતું નથી.
૨૦ રે
,
ર૦ )
-
એક વચન.
બહુવચન..
કેળો -૩ (કિતા ? જુઓ દ્રિ પારું
લૅસન, પા. ૩૦૭, નોટ ૨.). पं० णईदो,-दु,-हि
णईहिंतो,-संतो
णईहिं,-हि ૧૦ .
પાણી -
णईसु-सु सं० गइ
તા તથા સ્વ છેડાવાળાં ભાવવાચક નામે પ્રાકૃતમાં સા અને ના છેડાવાળાં બની જાય છે, જેમ કે રખવા, ઉત્ત. મન અને વર પ્રત્યયેનાં પ્રાકૃતમાં જુદાં જુદાં રૂપે થાય છે, જેમ કે ૩૩, ૪, , વૈત, દંત (ગદ્યમાં ચંદ્ર, ૯), જેમ કે વિરહg (વિષ). તાશ્કીલ્યાથે ડ પ્રત્યય વપરાય છે, જેમ કે લિ. સ્વાથે જ (અ) પ્રત્યય જોડવામાં આવે છે. જેમ કે મામમતા, સર્વ દા. તુ(સુ) પ્રત્યયને બદલે રંગ થાય છે, જેમ કે ભાવિમાન પુર, વાયોલિ-ગાગાસત્તિા ( સ્ત્રીલિંગ).
વિભાગ ૩
સર્વનામ પ્રકરણ પ્રાકૃતમાં સર્વનામનાં રૂપ નામ પ્રમાણે ચાલે છે. અને તે ઉપરાંત કેટલાંક નવાં રૂપે પણ ઉમેરાય છે. નીચે આપેલા 1 = નાં રૂપો ઉપરથી બીજાં ખાસ ઉપયોગી રૂપ સમજાઈ જશે.
પ્રાકૃતમાં વ્યંજનાત શબ્દ રાખવામાં આવતું નથી, તેથી સંસ્કૃતનાં કેટલાંક સર્વનામને પ્રાકૃતમાં વિભકિતના પ્રત્યે લગાડતાં કેટલાક ફેરફાર કરવા પડે છે, જેમ કે મિચ,ત ને બદલે , ઝ, ત થાય છે. તિજૂ નું ઘર અને કઈકવાર ઘ થાય છે તેથી પાપમાન );
નું મન થાય છે, નું સુ થાય છે. વિન્, ૨૬, ત૬ નું બીજું રૂપ , વિ, તિ પણ થાય છે. જોકે આ પાછળના રૂપે સ્ત્રીલિંગમાં વપરાય છે તે પણ પુલિંગની અને નપુંસકલિંગની તૃતીયા અને ષષ્ઠીમાં તેમનાં કેટલાંક રૂપ આવે છે. મિ નું પણ તૃતીયાનું મનાઇ રૂપ થાય છે. ખરી રીતે પ્રાકૃતમાં સર્વનામનાં રૂપમાં બહુ નિયમિતતા જોવામાં આવતી નથી, તેથી મણિ ખરી રીતે પુલિંગ સપ્તમીનું રૂપ હોવા છતાં ઘણી વાર સ્ત્રીલિંગમાં વપરાયું છે જેમ કે રાજ (મોનીયર વિલીયમ), પા૩૬, ૨; ૧૧૫, ૩.
વરરૂચિએ ખાસ આપેલાં કેટલાંક રૂપ હું નીચે આપું છું. ત૬ અને પતરા ને બદલે તો અને ઘો(૬, ૧૦, ૨૦) તર અને તા બદલે (૬,૧૧) સેવા અને તાલ ને
વ્યા૦ ૨.
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१०] અધ્યાપક કૌલ લિખિત
[४२ मह सिं. अदस् प्रथमा क्यन अभी अह. १२३थिये न तो पण एनम् भने एमाम् नेम नामाणं वपरायेदुन्नवामां आवे छे. कियत्, तावत् विगैरेने मह केहह, केत्तिअ, तेहह, तेत्तिा विगेरे आने छ (४, २५); ५२'तु मरी: केहह विनर कीडश वि.ने भाट .
जन्य ( पुEिar) rg. वयन.
वयन. प्र० जो (जं नपुं० किं-किम्)
जे (जाई, नपुं०) द्वि० जं: - जेण, जिणा
जेहि, जेहि जत्तो,-तु, जदो,-दु
जाहिंतो, जासुतो जस्स, जास'
जाणं,-ण, जेसि जस्सि,-स्सि
जेसु, सुं जम्मि,-म्मि जहिं, जहि, जत्य
alian. क्यन.
हुपयन प्र० जा ..
जाओ-उ, जीओ,-उ पं० जादो,-तु, जीदो (१)
जाहिती,संतो, जीहितो,-संतो जाहिं, जीहिं
जासिं, जाणं,-ण, जीणं,-ण, जीसि, जीए,-,
(जासां, जेसि) जीआ,-अ
जासु,-सुं, जीसु,-सुं વરરૂચિઓ (૬, ૨૫–૫૩) માં પુરૂષ સર્વનામે આપ્યાં છે. જે રૂપે નાટકમાં કદી પણ આવતાં નથી તેમને મેં બ્રકેટમાં મૂક્યા છે. બહુવચનનાં રૂપ તદ્દન જુદી જ રીતે થાય છે, જેમ કે तुज्झ, तुम्ह, तुम्म, अम्ह, तथा मझ.
अस्मद् हु' ४ क्यान.
બહુવચન प्र. अहं (ई, अहरं, अहम्मि)
अम्हे (वर्ष भयभी राय, वर० २०, २५) द्वि० मं, मर्म (अहम्मि)
अम्हे, णो (णे) तु. मे, मय (मह, ममाह)
अम्हेहि,-हि ६० मत्तो ( महत्तो, ममादो,-दु ममाहि) अम्हाहितो, सुतो १० मे, मम, मन, मह
णो, अम्ह, अम्हाणं, अम्हे (मज्म ?). . स० मह (मए, ममम्मि)
प०
जस्सा जासे (P) जाप,-1,
अम्हेसु
१. 4जी, नाभा नसीमा कीस 'शामाटे मेवाम भाशय गाय छे. २.॥३॥ ६id सप्तश• भा.ममं बने महं ३॥ १५videeye.. ३. ३सक्षम अई, अम्म, मह, अम्हि, अम्हाण ३. १५vai reय छ,
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..]
પ્રાકૃત વ્યાકરણ-સંક્ષિપ્ત પરિચય.
[११
युष्मद् 'तु'
प्र० तुम, तुं (ते)
| तुज्ो, तुम्हे दि० (तं, तुं) तुमं
तुझे, तुम्हे, वो १० तह, तए, तुमए, तुमे, (तुमाइ) ते, दे । तुोहिं, तुम्मेहि, तुम्हहिं पं० तत्तो (तइत्तो, तुमादो,-दु, तुमाहि) | तुम्हाहितो,-सुंतो १० (तुमो) तुह, तुज्झ, तुम्ह, तुम्म, तुव, वो, (भे) तुज्हाण, तुम्हाणं
तुअ, ते, दे स० तह, तुइ, तप, (तुमए, तुमे तुमम्मि ] तुझेसु, तुम्हेसु ___ यमनi aY सभ्यापाय Awari आत३५ एम १२ एक, दो (प्रथ० बिती-पो, दुबे, दोणि; षष्ठी-दोण्ह), ति (प्रथल-तिण्णि, षष्ठी-तिण्ड) थाय छे. षष् ने छ थाय छ. "
विमा ४.
ક્રિયાપદ પ્રકરણ ખરી રીતે જોતાં પ્રાકૃતમાં એકજ ગણ (= સંસ્કૃતને પહેલે અને છઠો) છે. સામાન્ય રીતે બધા ધાતુઓને આજ ગણમાં લાવવાનો પ્રયત્ન કરવામાં આવે છે, તે પણ અન્યાન્ય ગણુનાં કેટલાંક રૂપે નાટકમાં લેવામાં આવે છે.
નામ પ્રક્રિયામાં જણાવ્યા પ્રમાણે ક્રિયાપદમાં પણ દ્વિવચનરૂપ થતાં નથી. કર્તરિ પ્રગમાં ફક્ત વર્તમાનકાળ, સામાન્ય ભવિષ્યકાળ, તથા આજ્ઞાથ જેવામાં આવે છે.
वर्तमान ३५ो. मे क्यन.
क्यन. प्र० पु० हसामि, हसमि.
हसामो,-मु,-म, हसिमो,-मु,-म हसम्हि
हसमो,-मु,-म, हसम्हो, म्ह द्वि० पु० हससि
हसह (अधमा हसध,-धं)
हसित्था (हसत्थ?) तृ० पु० हसदि' हसइ
हसन्ति मध्यम प्रयोगमा त्रले ५३पना वयनना ३थाय छ, म १. मणे, २. सहसे, 3 सहदे, अथवा सहए.
माज्ञाय.
એક વચન १. हसमु (वर०७.१८) २. हससु, हस, हसाहि, हसस्स ३. हसदु', हसउ
महुपयन. हसामो,-म हसमो,-म, हसम्ह. हसह, हसध,-धं
૧. આ ગદ્યમાં વપરાતું રૂપ છે. તે જ પ્રમાણે હું વાળાં સામાન્યરૂપ, તથા સૂર વાળા ભૂત કૃદંત પણ ગદ્યમાં વપરાતાં રૂપ છે.
२. अस् 'चुनाया नीचे प्रमाणे छे. मे क्यन. १. मम्हि, २. असि, ३. मात्थ, महु५० अम्हो, अम्ह, ३ सन्ति. ते प्रभारमेन्सीsi० १ म्हि, २ सि ३ स्थि, म४१०१ म्हो, म्ह, २ त्य. भनघतलसूतभा १०१. आसिं, आसि, २. ३. आसि,
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૧૨] અધ્યાપક કોલ લિખિત
[ ખંડ ૨ કઈ પણ પુરૂષપ્રત્યયની પહેલાં જ ને બદલે વિકલ્પે કરી શકાય છે (વર૦ ૧, ૩૪), જેમ કે દરમિ, વિગેરે દદિ કુ, વિ. બીજા શબ્દોમાં કહીએ તે, ગય નું ટૂંકું રૂપ હેવાથી એમ કહી શકાય કે પ્રાકૃતમાં ક્રિયાપદનાં રૂપે સંસ્કૃતના દસમા ગણના ક્રિયાપદે પ્રમાણે વિકલ્પ થાય છે. કારાંત અને સકારાંત પહેલા ગણના સંસ્કૃત ક્રિયાપદના અન્ય અને અવ ને બદલે જુ અને ગો મૂકવામાં આવે છે, જેમ કે ગાતુ–દુ, મહિરિ અથવા તે ને લોપ થાય છે, અને રૂને રાખવામાં આવે છે, જેમ કે નમતુ, દલિ. સકારાંત ક્રિયાપદેમાં મૂકવામાં આવે છે, જેમકે હૃતિ–૪, ત્રિ –મ. ચેથા ગણના ધાતુઓમાં અંત્ય વ્યંજન બેવડાય છે, જેમ કે કુર–કુતિ, અથવા ૧ ને લેપ કરીને જુદું જ રૂપ કરવામાં આવે છે, જેમ કે
-સુક્ષહિ. સાતમા ગણના ધાતુઓમાં અનુનાસિક ઉમેરવામાં આવે છે, અને પછી બીજા ગણોની માફક તેમનાં રૂપો ચલાવવામાં આવે છે, જેમ કે દ્ધિ- રિ, જ્યા, ઘેર. પાંચમા ગણના ધાતુઓમાં જ ઉમેરવામાં આવે છે જેમ કે અળોમ રૂમ, અશ્વનું સુજુ કેટલીક વાર સંસ્કૃત રૂપ પણ રાખવામાં આવે છે, જેમ કે વિનિ, સુકુ તથા સુદ નવમા ગણમાં
અને બેઉ વપરાય છે, જેમ કે જ્ઞાત્રિ અને જ્ઞાત્રિ (નાનાતિ). તે ઉપરાંત શાહ અને કાળાદિ રૂપ પણ જોવામાં આવે છે.
વિધ્યર્થનાં માત્ર કેટલાંક ત્રુટિત રૂપે જ જોવામાં આવે છે, જેમ કે ૧. મ, નીવેઇ, ૩. મળે, ફે (પણ જુઓ વેબરનું સતરા, પા. ૬૨.).
પ્રાકૃતમાં ભવિષ્યકાળનાં ઘણાં રૂપ છે. (૪) ખાસ ઉપયોગમાં આવતાં રૂપના પ્રત્યે નીચે પ્રમાણે છે. એકવચન. ૧. રં, સ્વામિ. ૨. રસહિ. ૩. રિ, સ્વ. બહુવચન. ૧. સામો. ૨. સનધ, સ્ત્ર ૩ 7િ.
આ પ્રત્યે લગાડતાં પહેલાં ફુ લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે તિર વિગેરે. મૂળ સંસ્કૃત પ્રત્યય નું આ તે પ્રાકૃત રૂપ છે.
(૫) બીજા પ્રત્યમાં રસ ને બદલે છ વપરાય છે, જેમ કે તોછે (૪ નું પ્રથમ પુરૂષી એકવચન). (જુઓ વર૦ ૭, ૧૬, ૧૭.).
(%) ત્રીજી જાતનાં પ્રત્યમાં રસ ને બદલે હિ વપરાય છે, જેમ કે સિદ્ધિમિ વિગેરે. આ ઉપરાંત પહેલા પુરૂષ એકવચન અને બહુવચનનાં વિદ્યામિ અને દક્ષિો એવાં રૂપ થાય છે. [ વળી, વહિં ( નું રૂપ), સાદું (વા નું રૂપ) પણ થાય છે, વર૦ ૭. ૨૬; વાદું રૂપ વેબરના સારા પાત્ર ૧૦ માં વપરાએલું છે.]
[ વળી, , અને જ્ઞા પ્રત્યે લગાડતાં કેટલાંક વિરલ રૂપ બને છે, (૪૦ ૭, ૨૦-૨૨), જેમ કે ઘોષ, ના, દહિ, હરિ, વિગેરે. કેટલાંક સ્ટંગ અને ન સંતવાળા ભૂતાર્થ વચનનાં વિરલ રૂપે પણ દેખાય છે, (વર૦ ૭, ૨૩-૨૪) જેમ કે ફુવા, દોહીમ ( ન)જુઓ લૅસન્સ ઈન્ટટ, પા. ૩૫૩–૯. સસરા માં અને જ્ઞા છેડાવાળાં કેટલાંક વિધ્યથ રૂપે વપરાએલાં છે.]
પ્રાકૃતમાં કમણિ પ્રગમાં કરિનાજ પ્રત્યયે વપરાય છે, અને ૨ પ્રત્યયને બદલે આ અથવા દત્ત પ્રત્યય લગાડે છે, જેમ કે પીગ૬, પીરિ અથવા દિકર ( તે). કેટલીક વાર જ રાખવામાં આવતાં પૂર્વના વ્યંજન પ્રમાણે તેનું રૂપાંતર થાય છે, જેમ કે કમર ( ); સિદ્ અગર રીલ (૨૨).
પ્રેરક ભેદના પણ બે રૂપ છે, એકમાં સંસ્કૃતના અને ઇ કરવામાં આવે છે, જેમ કે - ઉપરથી વારિ થાય છે (ધાતુમાંના પહેલા અક્ષરના ને કા કરવામાં આવે છે, વર૦ ૭, ૨૫)
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અંક ૧] પ્રાકૃત વ્યાકરણ-સંક્ષિપ્ત પરિચય.
[ ૧૩ બીજામાં આવે ( ?) લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે જાતિ અથવા વેવિ ( અહીં, પ્રથમના અને વિકલ્પ આપે છે, વ૦ ૭. ર૭). - જો ધાતુને અંત્યાક્ષર વ્યંજન હોય તે તુમુન રૂપ કરતી વખતે તુન્ લગાડવામાં આવે છે, પણ અંત્યાક્ષર સ્વર હોય તે ગુમ લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે ઉપરથી વ ની ઉપરથી નેવું. ઘણીવાર વ્યંજનાંત ધાતુને ૪ અથવા ઇ લગાડીને ધાતુને સ્વરાંત બનાવવામાં આવે છે, અને ત્યાર પછી તેને સુકુ પ્રત્યય લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે મિડુ (), કાવ્યમાં ઘણું વાર લેપ કરવામાં આવે છે, જેમ કે ઉપરથી , તિરું.
સંસ્કૃતના ત્યાં અંતવાળા કૃદન્ત બનાવવાને પ્રાકૃતમાં ટૂળ અગર જ પ્રત્યય લગાડવામાં આવે છે, જેમ કે = ઉપરથી શનિ, દેત્ર ઉપરથી દેજૂળ. સંસ્કૃતના ૨ સંતવાળા કૃદંત બનાવવાને પ્રાકૃતમાં રસ લાગે છે, અને ગદ્યમાં ઘણું ખરાં આના રૂપે વપરાય છે, જેમકે શું નું દિલ. કેટલીક વાર ગદ્યમાં ત્યાં ને સ્થાને ડુબ વપરાય છે, જેમ કે વાકુબ (રુત્વા); કુબ (નવા), વિગેરે. (વર૦ ૧૨. ૧૦).
કર્તરિ વર્તમાન કૃદંતને અંતે સંત પ્રત્યય (અથવા, થ૦ ૭. ૩૪ પ્રમાણે તો લાગે છે, જેમ કે દંત, સુત. (વરરુચિ ૭. ૧૧) ના કહેવા પ્રમાણે સ્ત્રીલિંગનાં પદ તેમજ પદ્ધતી એમ બે રૂપ થાય છે. મધ્યમ પ્રયોગમાં વર્તમાન કૃદંતને પ્રત્યય માન છે (સ્ત્રીલિંગમાં માળા અથવા માતા પ્રત્યય લાગે છે ). - કમણિપ્રયાગમાં રા અને માન પ્રત્યે લાગે છે, અને તેની પહેલાં જુગ પ્રત્યય લાગે છે,
વન્ત (ાર્યકાળ ), તેમજ, ૩૪ત્ત (ઘમાન), રવીંગના કુદતના રૂપ સંસ્કૃતપ્રમાણે થઈ તેમાં પ્રાકૃતના નિયમ પ્રમાણે ફેરફાર થાય છે, જેમ કે કુદ્ર અથવા સુશ્રુત ટકaષ કેઈક વાર વચ્ચે ઉમેરવામાં આવે છે, જેમ કે ધરિ (વૃત), (કૃત). આ ઉપરાંત કેટલાંક અનિયમિત રૂપ થાય છે, જેમ કે રુપ (વિત). વિધ્યર્થ કૃદંતના જ ને તેની પહેલાંના વ્યંજન પ્રમાણે પરફાર થાય છે, જેમ કે વિઇ (વિરાણ), am ( ); એની પ્રત્યયને બદલે સfrગ, અથવા મrs થાય છે, જેમ કે ફૂગળી (પૂના ), વજનિક (જય).
પ્રાકૃતમાં પરોક્ષભૂત કાળ નથી. તેના ઠેકાણે અકમક ધાતુના અર્થમાં ભતકાલવાચક ધાતુસાધિત વિશેષણ ( કર્તરિ વતીને ઉપયોગ કરવામાં આવે છે. અને સકર્મક ધાતુના અર્થમાં તેવાજ રૂપની કર્તની તૃતીયા અને સકમની પ્રથમ વિભક્તિ વડે કામ લેવામાં આવે છે.
અવ્યવિષે પ્રાતમાં વિશેષ જાણવા જેવું કાંઈ નથી. ફક્ત એટલું જ જાણવું જોઈએ કે તિ ને બદલેર મૂકવામાં આવે છે, જેની પહેલાં મા, અથવા નેહરૂ બનાવવામાં આવે છે, અને અનુસ્વારની પછી આવે-તે તિ થઈ જાય છે. હસ્વ સ્વર અગર , ગૌ પછી વહુ આવે તેને શો થાય છે, તથા દીર્ઘ સ્વરની.પછી (તથા અનુસ્વાર પછી પણ) શુ થાય છે. તે જ પ્રમાણે પવને બદલે જેવા અથવા તેવ, અને પુત્ર તેમજ ચ થાય છે. ને બદલે વિગ તથા કવ થાય છે; આપ જે સ્વર પછી આવે તે તેનું વિ અથવા વિ થાય છે, અને અનુસ્વાર પછી આવે તે જ થાય છે, તથા વાક્યના આરંભમાં ય થાય છે. તે
આ સ્થળે માગધી ભાષાનું નામ જણાવવાની જરૂર ગણું છું. તેમાં ૩ અગર ને બદલે ?
૧. કાવ્યમાં સ્વરની પહેલાં આવેલું અનુસ્વાર પિતાની સાથેના અંત્યસ્વરને દીઘ બનાવે છે. પણ જે અનુસ્વારને ૫ તરીકે લખવામાં આવે છે તે સ્વર - હસ્વ જ રહે છે, અને ત્યાર બાદ એ બેઉ શબ્દની સંધિ થાય છે? જુઓ વેબર, સતરા પા૦૪૭,
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१४ ]
અધ્યાપક કૉવેલ લિખિત
[ भांड २
थाय छे, तथा र् ने महले लू थाय छे; ज् ने महते यूं तेभक र्य ने महो य्य थाय छे; अ अरांत नाभना प्रथभा मे वन्यनभां छेवटे ए अगर-इ आवे छे, प्रेम हैं माशे (माषः).
ઉપરના નિબંધમાં,ધરવાપ્રમાણે, સાધારણ વિદ્યાથીને કાળિદાસ અગર ભાવભૂતિનાં નાટકામાંનું પ્રાકૃત સમજવા માટે જોઈએ તેટલું જ્ઞાન આપવામાં આવ્યુ છે. અલબત, મૃચ્છકટિક અગર विभावशीय आकृत सभवाने डेटा विशेष : ज्ञाननी ४३२ छे.
१. नेने आद्धृतना: अभ्यास : वधारयेो: होय तेभो - नीचेना अथेोनु
यवसेोउन: उ:
1 Lassen's Institutiones Linguae Pracritical, 1837.2. Weber's सप्तशतक of हाल "with his excellent introduction, 2870. 3. वररुचि ना प्राकृतप्रकाश, १८५४. 4. प्राकृत बालभाषा - ( मागधी)- व्याकरण of Hemchandra, Bombay, 1873; या अथनी विवेचनात्म આવૃત્તિ ડાઁ પીશ્ચલે તૈયાર કરે છે. તે ગ્રંથ ખાસ કરીને જૈન પ્રાકૃત માટે ઉપયોગી છે.
?
परिशिष्टः- भन मोरिमेन्टल सोसायटीना 'अल इदुगेन' ना पांथमा पुस्तभां प्रो. વેખરે પ્રકટ કરેલા હાલકવિના સમ શતકમાંથી આયા'વૃત્તની દસ ગાથાએ નીચે આપી છે. १. पाअपडिअस्स पइणो पुट्ठि पुत्ते समारुहंतम्मि ।
दढमण्णुदुमिआप वि हासो घरिणीए निक्कन्तो ॥ (११.) अज मए तेण विणा अणुहूअसुहाइ संभरन्तीए ।
२.
अहिणवमेहाण रवो णिसामिओ वज्झपडुहो व्व ॥ ( २८ ) ३. तुज्झ वसई ति हिअअं इमेहि दिठ्ठो तुमं ति अच्छी ।
तुह विरहे किसिआइ ति तीए अंगाइ वि पिआई ॥ (४०) ४. कलं किर खरहिअओ पवसह पिओ ति सणीअइ जणम्मि ।
तह वड्ढ भअवइ णिसे जह से कलं विअ ण होइ ॥ ( ४५. ) ५. अहंसणेण पेम्मं अवेद्द अइदंसणेण वि भवेइ ।
पिसुणजणजम्पिएण वि अवेई, पमेअ वि अवेह ॥ ( ८०. ) ६. दक्खिण्णेण वि एन्तो सुहअ सुहावेसि अहं हिअआई ।
णिक्कअवेण जाणं गओ सि, का णिव्वुदी ताण ॥ ( ८४. ) तहआ कअग्घ महुअर ण रमसि अण्णासु पुष्कजाईस ।
७.
बद्धफलभारगरुडं मालइमेहि परिचयसि ॥ (१) ८. उप्पण्णत्थे कज्जे अइचिन्तन्तो गुणागुणे तम्मि ।
अइसुइरसण्हपेच्छि-तणेण पुरिसो हरइ कजं ॥ ( २१८ ). ९. कलइंतरे वि अविणि-गमाइ हिअअम्मिं जरमुवगई।
सुअणकआइ रहस्सा-इ डहर आउक्सर बग्गी ॥ (३२८ ). १०. बोलीणोलच्छिअरू-अजोब्वणा पुति किष्ण दूमेलि । विट्टप्पणट्टपोरा - णजणवआ जम्मभूमि व्व ॥ (१४२.)
DISKE
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॥ ॐ अर्हम् ॥
॥ नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते श्रीमहावीराय ॥
॥ उपकेशगच्छीया पट्टावलिः ॥
॥ श्रीमत्पार्श्वजिनेंद्राय नमः ॥ श्रीमत्केशी कुमारगणधरेभ्यो नमः ॥ श्रीमद्रत्नप्रभसूरिसद्गुरुभ्यो नमः || ओकेशशद्वस्यार्थाः लिख्यते ।। इशिक ऐश्वर्ये, ओकेषु गृहेषु इष्टे पूज्यमाना सती या सा ओकेशा सत्यिका नाम्नी गोत्रदेवता । अल ओक शद्बो अकारांत : तस्यां भवस्तस्या अयमिति वा ओकेशः । भवे इत्यण् प्रत्ययः, तस्येदमित्यनेन वा अणप्रत्ययः । सत्यिका देवी हि नवरात्रादिषु पर्वसु अस्मिन् पूज्यते सा चास्य गणस्य अधिष्टाती अतएवास्य गच्छस्य ओकेश इति यथार्थ नाम प्रोद्यते सद्भिरिति प्रथमोऽर्थः ॥ १ ॥
ईशनमीशः ऐश्वर्य ओकैर्महर्द्धिक श्राद्धप्रमुख लोकानां गृहरीशो यस्यां सा ओकेशा ओसिका नयरी । तत्र भव ओकेशः । ओसिकानगर्यो हि अस्य गणस्य ओकेश इति नाम श्रीरत्नप्रभसूरीश्वरतो विख्यातं जातमिति द्वितीयोऽर्थः ॥ २ ॥
अः कृष्णः उः शंकरः को ब्रह्मा । एषां द्वंद्वसमासे ओकास्ते ईशते पूज्यमानाः संतो देवत्वेन मन्यमानाः संतश्च येभ्यस्ते ओकेशाः । ओके कृष्णशंभुब्रह्मभिर्देवैरीशते येते वा ओकेशाः । परशासनजनाः क्षत्रियराज्यपुत्रादयः प्रतिबोधविधानात्तेषामयं ओकेशः । तस्येदमित्यण्प्रत्ययः । श्रीरत्नप्रभसूरिभिस्तेषां पारतीर्थकधर्मनिष्ठातः सिद्धान्तोक्त विशुद्ध जैनधर्म्मनिष्ठायां प्रतिबोधदानेन प्रवर्तना कृता । तथा च श्रूयते पूर्व्वं हि श्रीरत्नप्रभसूरीणां गुरवः श्रीपार्श्वापत्यीयकेशीकुमारानगारसंतानयित्वेन विख्यातिमतो जगति जज्ञिरे । ततः प्राप्तसूरिमंताः ससत्तंत्रा रमणीयाऽतिशयनिचयाः स्वकीयनिस्तुषशमुखीप्राग्भारसंभारात् ज्ञातदिशसूरयः श्रीमच्छ्रीरत्नप्रभसूरयः कियति गते काले विहरतः संतः श्रीओसिका नगर्या समवसृताः । तस्यां च सर्वे लोकाः पारतीर्थिकधर्म्मधारिणो संति । न कोपि जैनधम्मर्धारी । ततः साध्वाचारं प्रतिपालयद्भिः सिद्धान्तोक्ततीर्थंकर धर्म्म शुभकर्मप्ररूपणां कुर्वद्भिः सद्भिः श्रीरत्नप्रभसूरिभिः पारतीर्थकानेकच्छेकविवेोकिलाका : प्रतिबोधितास्ततः एते ओकेशा इति विरूढ़ो विख्यातो जातः । इति तृतीयो अर्थः ॥ ३ ॥
अः कृष्णः, आः ब्रह्मा, उ: शंकरः, एषां द्वंद्वे आवस्ततः ओभिः कृष्णब्रह्मशंकरदेवैः कायते स्तूयते देवाधिदेवत्वादिति ओकः प्रस्तावात् श्रीवर्धमानस्वामी क्वचिदिति ड प्रत्ययः, ओकश्वासौ ईशश्व ओकेशस्तस्यायं ओकेशः वर्तमानतीर्थाधिपतिश्रीवर्धमानजिनपतितीर्थाश्रयणादिति चतुर्थोऽर्थः ॥ ४ ॥
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उपकेशगच्छीया पट्टावली अः अर्हन,अः स्यादर्हति सिद्धे चेत्युक्तेः । प्रस्तावादिह अ इति शब्देन श्रीवर्धमानस्वामी प्रोच्यते । ततः अस्य ओको गृहं चैत्यमिति यावत् , ओकः श्रीवर्धमानस्वामिचैत्यमित्यर्थः । तस्मादीशः ऐश्वर्य यस्य स ओकेशः यतोयं गणः श्रीमहावीरतीर्थकरसान्निध्यतः स्फातिमवापेति पंचमोऽर्थः ॥ ५ ॥ एवमस्य पदम्यानेकेप्याः संबोभुवति परं किं बहुश्रमेणेति ॥
अथ उपकेशशब्दस्य कियंतोऽर्था लिख्यतेः । उप समीपे केशाः शिरोरुहाः सत्यस्येति उपकेशः । श्रीपार्थापत्यीयकेशिकुमारानगारः । एतदुत्पत्तिवृत्तांतस्तुः श्रीस्थानांगवृत्त्यादौ सप्रपंचः प्रतीत एवास्ति । तत एवावगंतव्यः। ततः उपकेशः श्रीकेशिकुमारानगारः पूर्वजो गुरुर्विद्यते यस्मिन् गणे स उपकेशः । अभ्रादित्वाद प्रत्ययः । अस्मिन्गछे हि श्री केशिकुमारानगारः प्राचीनो गुरुरासीत् । ततो यथार्थमुपकेश इति नाम जातमिति प्रथमोऽर्थः ॥ १ ॥
उपवर्जितास्त्यक्ताः केशा यत्र सः उपकेशः ओसिकानगरी तस्यां हि सत्यिका देव्याश्चैत्यमस्ति । तदने च घनैजनैः प्रथमजातबालकानां सुदिने दिने मुंडनं कार्यते तत उपकेश इति यथार्थ नाम ओसिकानगर्याः प्रख्यातं जातं । तत्र भवो यो गच्छः स उपकेशः प्रोद्यते सद्भिर्विद्वद्भिः । अत्र हि भवे इत्यनेन सूत्रेण अणि प्रत्यये संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाद्वृद्धेरभावः । श्रीरत्नप्रभसूरितो अनेकश्रावक प्रतिबोधविधानानंतरं लोके गच्छस्य उपकेशेति नाम प्रसिद्धं जातमिति द्वितीयोऽर्थः ॥ २॥ .
__ को ब्रह्मा, अः कृष्णः, अः शंकरः, ततो द्वंद्वे काः । तैरीष्टे ऐश्वर्यमनुभवति यः सः केशकानां ईशः ऐश्वर्य यस्माद्वा केशः पारतीर्थिकधर्मः सः उपवजितम्त्यक्तो यस्मात्स उपकेशस्तीर्थकृदुक्तविशुद्धधर्मः स विद्यते यस्मिन् गच्छे स उपकेशः । अत्रापि अभ्रादित्वादप्रत्ययः । इति तृतीथोऽर्थः ॥ ३ ॥
___ कं च सुखं ई च लक्ष्मीः कयौ ते ईशे स्वायत्ते यत्र यस्माद्वा स केशः---अर्थात् जैनो धर्मः । स उपसमीपे अधिको वाऽस्माद्गच्छात्स उपकेशः इति चतुर्थोऽर्थः ॥ ४ ॥
कश्च अश्व ईशश्च केशाः-ब्रह्मविष्णुमहेशाः । तद्धर्मनिराकरणात्ते उपहता येन सः उपकेशः । प्रकरणादत्र श्रीरत्नप्रभसूरिः गुरुः तस्यायं उपकेशः । अत्रापि तस्येदामित्यणि प्रत्यये पूर्ववद्वृद्धेः अभावो न दोषपोषायेति पंचमोऽर्थः ॥ ५ ॥
इत्थमन्येऽप्यनेके अर्था ग्रन्थानुसारेण विधीयते, परमलं बहुश्रमेणेति । एवमुक्तव्यक्तयुक्तिव्यक्तिशक्त्या ओकेशोपलक्षणे उभे अपि नाम्नी यथार्थे घटां प्राचतः॥ इति ओकेशोपकेशपदद्वयदशार्थी समाप्ता ॥
संवत् १६५५ वर्षे ॥ श्रीमद्विक्रमनगरे सकलवादिवृंदकंदकुद्दालश्रीकक्कुदाचार्यसंतानीयश्रीमछ्रीसिद्धसूरीणां आग्रहतः श्रीमबृहत्खरतरगच्छीयवाचनाचार्यश्रीज्ञानविमलगणिशिष्यपंडितश्रीवल्लभगाणावरचिता चेयम् । श्रीरस्तु॥
ग्रीष्महेमंतिकान् मासान्, अष्टौ भिक्षुः प्रचक्रमे ।
रक्षार्थ सर्वजंतूनां वर्षास्वैकत्र संवसेत् ॥ १ ॥ मनुष्याणां सर्वेषु पदार्थेषु सारो धर्म एव । मनुष्यत्वं धर्मेणैव वर्ण्यते ॥ स धम्मो वर्षासु मुनिपार्धात् श्रोतव्यः । यतयो वर्षास्वकत्र तिष्ठन्ति. किमर्थं सर्व जंतूनां रक्षार्थ । धर्मस्य सारं सर्व
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जैन साहित्य संशोधक
[३ जीवेषु दया । वर्षाम् पृथ्वी जीवाकुला भवति संयमो विराध्यते । अतो जीवरक्षार्थ चतुर्मासकल्प तिष्ठंति । शिवशासने पि जीवदयास्वरूपमेवं व्यावाणितं --
__पश्यन् परिहरन् जंतून मार्जन्या मृदुसूक्ष्मया । एकाहविचरेद्यस्तु चंद्रायणफलं भवेत् ॥१॥ महाभारते कृष्णद्वीपायनेनाप्युक्तं
यो दद्यात्कांचनं मेरुः कृत्स्नां चापि वसुंधरां । एकस्य जीवितं दद्यात् न च तुल्य युधिष्ठिरः ॥२॥ परेप्येवं वदंति जैनवाक्यस्य किं वाच्यं । मुनयः क्षेत्रस्य त्रयोदश गुणान् वीक्ष्य तिष्ठति
चखिल १ पाण २ थंडिल ३ वसहि ४ गोरस ५ जणा ६ उले ७ विज्जे ।। ओसह ९ धन्ना १० हिवइ १० पासंडा ११ भिखु १२ सिज्झाय ॥ १३ ॥ एते त्रयोदश गुणाः । तत्र स्थिता दशधा समाचारी पालयंति-- इच्छा १ मिच्छा २ तहकारो ३ आवस्सिया ४ निसीहिया ५ आपुच्छणा य ६ पडिपुच्छ ७ छंदणा य ८ निमंतणा य ९ उपसंपयाकाले ॥ १० ॥ समाचारी भवे दसहा ॥१॥
पुनः धर्मशास्त्रण्युपदिशति । श्राद्धा वासनावामितचित्ताः शृण्वंति । परं चातुर्मासकात्पंचाशद्दिने व्यतिक्रांते कल्पावसरं ।
वीसहि दिणेही कप्पो पंचगहाणीय कप्पठवणायं ।
नव (९) सय तेणू (९३) एहिं वुच्छिन्ना संघआणाए ॥ १ ॥ अधुना कल्पावसरे अन्यग्रन्थादरो न यथा दिव्यकौस्तुभाभरणं प्राप्य अन्यरत्नाभरणेषु निरादरत्वं जायते यथा च कुंडपातालामृतं प्राप्यांबुजलास्वादो न रोचते । भारतीभूषणकविजनवचनरचनामासाद्य सामान्यजनवचांसि न रोचते । चक्रवर्तिन अग्रे सामान्यराजानोऽपसरते देवानां नंदीश्रवणेनान्यशब्दा हीनतां व्रजति । गन्धहस्तिनो गंधे अन्यगजेंद्रा मदजलविकला भवंति । केवलज्ञानागमने अन्य ज्ञाना अपसरंति । कल्पवृक्षाग्रेऽन्ये तरवाः न राजते । सूर्योदये खद्योतस्य का प्रभाः। मुक्तिसौख्याने कानि सौख्यानि । सिंहध्वनेः पुरो यथा अन्ये शब्दा न राजते तथा कल्पावसरे अन्यानि शास्त्राणि आदरो न। स कल्पो अनेकविधः-श्रीशत्रुनयकल्पः गिरनारगिर कल्पः कदंब गिरिकल्पः अर्बुदाचलकल्पः अष्टापदकल्पः समेतगिरकल्पः हस्तिनापुरकल्पः मथुरानगरीकल्पः सत्यपुरकल्पः शंखेसरकल्पः स्तंभनार्थ कल्पः यतीनां विहारकल्पः वस्त्रस्य कल्पसंज्ञा अनेन प्रकारेण अनेके कल्पसंज्ञाः । एके कल्पाः एवं विधा वर्तते । यस्य प्रमाणेन श्री पादलिप्ताचार्यों यावदायाति साधवो विहृत्य तावत् पंच तीर्थ नमस्कार विधायागच्छंति । एके कल्पास्ते उच्यते येषां प्रमाणेन अदृशीकरणं आकाशगमनं स्वर्णसिद्धिः लक्ष्मी प्राप्ति मित्र पुत्र बांधवस्वजन प्राप्ति प्रभृति लब्धयः संपद्यते । परमयं कल्पोऽमेय महिमा निधिः इह लोकाभीष्ट सौख्यकारणं । अयं कल्पो दशाश्रुतस्कंधस्याष्टममध्ययन । नवमपूर्वात् श्री भद्रबाहु स्वामिनोवृतः अमेयमहिमानिधानः सर्व पापक्षयं करः यथा श्रूयमानः द्रुमेषु कल्पद्रुः सर्वकामफलप्रदः यथौषधीषु पीयूषं सर्वरोग हरं परं रत्नेषु गुरुडोद्गार यथा । सर्वविषापहारः मंत्राधिराजो मंत्रेषु यथा सर्वार्थ साधकः । यथा पर्वसु दीपाली सर्वात्मा सुखावहा तथा कल्पः सद्धर्म शास्त्रेषु सर्व पापहरस्तथा सर्व सिद्धान्त मध्ये
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४]
उपकेशगच्छीया पट्टावलिः
श्रीकल्पो गुरुतरः यथा पर्वतानां मध्ये मेरुः तीर्थ माहि शत्रुंजयः दानमध्ये अभयदान अक्षरमध्ये ॐकार देवेष्विन्द्रः ज्योतिषीषु चंद्र गजेंन्द्रेप्वैरावण समुद्रेषु स्वयंभुरमणः तुरंगमेषु रेवत ऋतुषु वसंत मृतिकयां तूरी सुगंधीषु कस्तुरी धातुषु पीतं मोहनेषु गीतं काष्टेषु चंदनं इंद्रियेषु व्यवहार दीपालिका धर्मशास्त्रेषु कल्पः सर्व पापहरः सर्व दुखक्षयंकरः । यथा जनमेजय राजा अष्टादश पर्व श्रवणात् १८ विप्र हत्यात्यागः यवनिका श्यामत्वं जातं । यथा एकस्मिन् दिवसे जनमेजय राजाग्रे पुरोहितेन कथितं पूर्वे त्रेतायुगे पांडवैश्च कौरवः कृता अष्टादशाक्षोहिणिमृताः महाभारतो जातः । राजा प्रोक्तं को नाभवत् यत्तेषां निवारयति पुरोहितेन कथितं त्वां न निवारयामि । यतः अद्य दिवसात् षष्ठे मासे त्वं आखेटके न गंतव्यं यदा गमिष्यति तदा सूकरमृगं तेषां केटके अश्वो न क्षेपणीयं यदा अस्वो क्षेपयति तदा सगर्भा मृगी तस्यां बाणं न मोचनीयं यदा मुंचति तदा तस्या उदरं मध्ये पुत्रिका भविष्यति . सा न गृहीतव्या यदा ग्राहयति तदा तस्या पाणिग्रहणं न करणीयं यदा प्राणिग्रहणं करोति तदा तस्या पट्टराज्ञपिदं न दातव्यं तस्या कथितं न मान्यं । इत्यादि भविष्यति वचनानि मया तव कथिताः स्युः परं त्वं न तिष्ठसि । अथ षट् मासाः द्वित्रिदिवसोना गता तदा मालाकारेणागत्य राज्ञः कथितं भो राजन् तव वनो सूकरैः भग्नः । राज्ञा अश्वं सज्जीकृत्य तेषां पृष्ठे गतः । ते पूर्वोक्तानि वचनानि सर्वे कृता गढवा पुत्रिका दत्ता एषा त्वं पालय तेन पालिता परं स्वरूपा । अन्यदा राज्ञा दृष्टा सा परिणीता पूर्ववचनानि सर्वे विस्मृताः राज्ञा पट्टराज्ञी कृता । अन्यदा राज्ञा यज्ञो मंडितः अष्टादशपुराणवेत्तारः अष्टादश ब्राह्मणा आकारिताः यज्ञं यजमानं कश्चिद्दूतेन देशान्तरादागतेन नृपोः आहूतः राज्ञा विप्राणां कथितं अहं उत्तिष्ठामि ते कथितं नहि यज्ञस्य विघातो भवति परं तव शरीरसमाना पट्टराज्ञी अस्ति राजा उत्थित ततः कटके किंचिच्छात्वस्य रहस्यो आगतः ते ब्राह्मणाः हसिताः राज्ञी ज्ञातं एते मम हसिता क्रुद्धा राज्ञः कथितं एते विनष्टा मां हसति ततः यदि एते मारयिष्यति तदा तव मम संबंधः । राज्ञा ते मारिता अष्ठादशधा कुष्ट जातं । ततः पूर्वपुरोहितेन कथितं वरं त्वया न कृतं राज्ञा कथितं अधुना कथय किं करोमि तेन अष्टादशपुराणानि निसंदेहानि शृणु । ते चामि आदि पर्व १ सभा पर्व २ विराट पर्व ३ आरण्यक पर्व ४ उद्यान पर्व५ भीष्म पर्व६ द्रोण पर्व ७ कर्ण पर्व ८ शल्य पर्व९ सौतिक पर्व १० गर्भपाल पर्व ११ शान्ति पर्व १२ शासन पर्व १३ आसुमास्य पर्व १४ मेषक पर्व १५ मूशल पर्व १६ यज्ञ पर्व १७ स्वर्गारोहण पर्व १८ ॥ एभिरष्टादशविप्रहत्याक्षयकृतायवनिकाश्यामत्वं जाताः । तथा अयमपि अधुना ये मुनयः उपवासत्रयेण वाचयंति चतुर्विधसंघो अष्टमेन शृणोति तदा तस्मिन्नेव भवे मोक्षः । यदि द्रव्यक्षेत्रका सद्भावा भवंति । न चेत्तदा तृतीयभवे पंचमे भवे सप्तमे भवे अवश्य मोक्षः । पूर्व मुनयः पाक्षिकसूत्रवत् ऊर्ध्वस्थाः कथयति चतुर्विध संघ उद्धर्वसन्नेव श्रणोति परं श्रीवीरनिर्वाणात ९९३ वर्षे ते आनंदपुरे ध्रुवसेनराज्ञः सभायां पुत्रशोकापनोदाय देवार्द्धमुनिना सभासमक्षं वाचितः श्रावकाः तांबूलदानादिप्रभावना कृता । तार्द्दनादाभ्य सा रीतिः । परं त्वस्य कालस्य वाचनैवोच्यते न तु व्याख्या । पूर्वे पादये लिप्ताचार्य-सिद्धसेनदिवाकरप्रभृतयो अभूवन् तैरपि वाचनैवोक्ता अन्येषां का वार्ता । यतः सिद्धान्ते इत्युक्तमस्ति सव्वनईणं जइहु वालुआ इत्यादि । एवंविधस्य कल्पस्य यदहं वाचनामनोरथं करोमि स बाहुभ्यां • समुद्रतरणमभिलषामि । यथा कुब्ज उच्चफलं लातुमिच्छति तथाऽहं यदिच्छामि वाचनां; कर्तुं तत् संघस्य सांनिध्यं पुनः गुरूणां प्रासादः । यद्वर्षाकाले मयूरो नृत्यं करोति तज्जलधरगर्जितप्रमाणं । दृषदूपश्चंद्र
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जैन साहित्य संशोधक
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कांतमणिर्यदमृतं सूते तच्चंद्रस्य प्रमाणं । सूर्यसारथी रविः आरूणः पंगोपि यदाकाशमुल्लंघयति तत्सूर्यस्य प्रमाणं । पुत्तालिका नृत्यं करोति तद्विंदजालिकस्य प्रमाणं । तथाऽहं मंदबुद्धिः मूर्खशिरोमणिः प्रमाणे सप्रमाणता नास्ति, लक्षणे सल्लक्षणता न, अलंकारस्याऽलंकरणं नहि, साहित्ये साहित्यं नास्ति, छंदास सुछंदता न एवंविधो पि वाचनाय साहसं करोमि तत् सद्गुरूणां प्रसादः । पुरातनैर्व्याख्या कृता । ममापि युक्तिः । कथं
जं देवो सायरो लहरिगज्जंतनीरपडिपुन्नो । ता किं गामतलाओ जलभरिओ लहरिगा देऊ ॥ १ ॥ जइ भरह भावछंदे नई नवरंग चंगमा तरूणी । ता किं गामगहिल्ली तालिछंदेन नचेइ ॥ २ ॥ जइ दुद्धधवलखीरी तडफडइ विविहभंगेहि । ता कुक्कसकणसहिया रव्वडिया मा तडव्वडह ॥ ३॥ अहं यद्वेद्मि तद्गुरूणां प्रसादः ।
टालो रोलो रुलंतो अहियं विन्नाण नाण परिहीणो । दिव्वुव वंदणिज्जो विहिओ गुरुसुत्तहारण || ४ || ते गुरवः श्री पार्श्वनाथ संतानीयाः ।
१ श्रीपार्श्वनाथ शिष्यः प्रथमो गणधरः श्रीशुभदत्तः । २ तत्पट्टे श्रीहरिदत्तः । ३ तत्पट्टे श्री आर्यसमुद्रः । ४ तत्पट्टे श्रीकेशीगणधरः तेन परदेशी नृपः प्रतिबोधितः । राजप्रश्नीयउपांगे प्रसिद्धः ।
द् तत्पट्टेश्रीस्वयंप्रभसूरिः । ( स्वयंप्रभसूरिशिष्य बुद्धकीर्तिसुं बौधमत नकिल्यो, आचारांग टीका सु जाणनो ) अन्यदा स्वयंप्रभसूरि देशनां ददतां उपरि रत्नचूडविद्याधरो नंदीस्वरे गच्छन् तत्र विमानः स्तंभितः । तेन चिंतितः मदीयो विमानः केन स्तंभितः । यावत् पश्यति तावदधो गुरुं देशनाददंतं पश्यति । स चिंतयते मयाऽविनयः कृतः यतः जंगमतीर्थस्य उल्लंघनं कृतं । स आगतः गुरुं वंदति धर्मे श्रुत्वा प्रतिबुद्धः । स गुरुं विज्ञपयति मम परंपरागता श्रीपार्श्वजिनस्य प्रतिमास्ति तस्या वंदने मम नियमोऽस्ति सा रावणलंकेश्वरस्य चैत्यालये अभवत् । यावत् रामेण लंका विध्वांसता तावद् मदीयपूर्वजेन चंद्रचूडनरनाथेन वैताढ्य आनीता । सा प्रतिमा मम पार्श्वेस्ति । तया सह अहं चारित्रं ग्रहीष्यामि । गुरुणा लाभं ज्ञात्वा तस्मै दीक्षा दत्ता । क्रमेण द्वादशांगी चतुर्दश पूर्वी बभूव गुरुणा स्वपदे स्थापितः । श्रीमद्वीरजिनेश्वरात् द्विपंचाशतवर्षे (१२) आचार्य पदे स्थापितः । पंचाशतसाधुभिसह घरां विचरति । श्रीलक्ष्मीमहास्थानं तस्याभिधानं १ पूर्व नाम गुजरातमध्ये कृतयुगे रयणमाला २ त्रेतायुगे रयणमाला ३ द्वापरे श्रीवीरनयरी ४ कलियुगे भनिमाल ५ तत्र श्रीराजाभीमसेन तत्पुलश्रीपुंज तत्पुत्र उत्पलकुमार अपरनाम श्रीकुमार तस्य बांधव श्रीसुरसुंदर युवराज राज्यभारधुरंधर। तयोरमात्य चांद्रवंशीय द्वौ भ्राता तत्र निवासी सा० ऊहड १ उद्धरण २ लघु भ्राता गृहे सुवर्ण संख्या आष्टादश कोट्यः संति । वृध्दभ्रातुर्गृहे ९९ नवनवति लक्षा संति । कोटीश्वरास्ते दुर्गमध्ये वसंति ये लक्षश्वरास्ते बाह्ये वसंति । तत ऊहडेन एकलक्ष भ्रातुः पार्श्वे उच्छीर्ण याचितं । ततो बांधवेन एवं कथितं भवते विना नगरं उध्वसमस्ति भवतां समागमे वासो भविष्यति । एवं ज्ञात्वा राजकुमार ऊहडेन आलोचितवान् नूतनं नगरं क्सेयं ततो मम वचनं अग्रे आयातः । ढीलीपुरे राजा श्री साधु तस्य ऊहडेन ५५ तुरंगमा भेटिकृता उवएसा संतुष्टो ददौ । ततो भीनमालात् अष्टादश १८ सहस्र कुटुंब अगात्। द्वादश योजना नगरी जाताः । तत्र श्रीमद्रत्नप्रभसूरीपंचसयासीष्य समेत लुणद्रही समायाति । मासकल्प अरण्ये स्थिता । गोचर्या मुनीश्वरा व्रजंति परं भिक्षा न लभते । लोका मिथ्यात्व वासिताः यादृशा गता तादृशा आगता मुनीश्वराः । पात्राणि प्रतिलेष्य मासं यावत् संतोषेण स्थिताः पश्चात् विहारः कृतः । पुनः कदाचित् तत्रायातः । शासनदेव्या कथितं भो आचार्य अत्र चतुर्मासकं कुरु ।
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६]
उपकेशगच्छीया पट्टावलिः
तब महालाभो भविष्यति । गुरुः पंच त्रिंशत् मुनिभिः सह स्थितः । मासी द्विमासी तृमासी चतुर्मासी उप्पोसित कारिका । अथ मंत्रीश्वर ऊहड सुतं भुजंगेन दष्टः । अनेक मंत्रवादिनः आहूताः परं न कोपि समर्थस्तैः कथितं अयं मृतः दाघो दयितां । तस्य स्त्री काष्टभक्षणे स्मशाने आयाता | श्रेष्टस्य महान् · दुःखो जातः । वादित्रान् आकर्ण्य लघुशिष्यः तत्रागतः । झंपाणो दृष्ट्वा एवं कथापयति भो ! जीवितं क . ज्वालयत तैः श्रेष्टिने कथितं एषः मुनीश्वरः एवं कथयति । श्रेष्टिना झंपाणो वालितः क्षुल्लकः प्रनष्टः गुरुः पृष्ठे स्थितः। मृतकांमानीय गुरु अग्रे मुंचति श्रेष्टि गुरु चरणे शिरं निवेश्य एवं कथयति भो दयालु मम देवो रुष्टः मम ग्रहो शून्यो भवति । तेन कारणेन मम पुत्रभिक्षां देहि । गुरुणा प्रासु जलमानीय चरणौ प्रक्षाल्य तस्य छंटितं। सहसात्कारेण सज्जो बभूव हर्ष वादित्राणि बभूव । लोकैः कथितं श्रेष्ट सुतः नूतन जन्मो आगतः । श्रेष्टिना गुरूणां अग्रे अनेकमणि मुक्ताफल सुवर्ण वस्त्रादि आनीय भगवान् गृह्यतां । गुरुणा कथितं मम न कार्ये परं भवद्भिः जिन धर्मो गृह्यतां । सपाद लक्ष श्रावकानां प्रति बोधि कारक । पूर्व श्रेष्ठिना नारायण प्रासादं कारयितुमारब्धं । स दिवसे करोति रात्रौ पतति सर्वे दर्शनिनः पृष्टा
1
कोपि उपाय कथितं तेन रत्नप्रभाचार्यो प्रष्टः- भगवान् मम प्रासादो रात्रौ पतति । गुरुणा प्रोक्तं कस्य नामेन कारयतः । नारायण नामेन । एवं नहि महावीर नामेन कुरु मंगलं भविष्यति । प्रासादस्य विघ्नं न भविष्यति श्रेष्टिना तथैव प्रतिपन्नं । अथ शासनदेव्या गुरूणां कथितं हे भगवन् अस्य प्रासाद योग्यं मया देव गृहात् उत्तरस्यां दिशी लूणद्रहाभिधानं डुंगरिकायां श्री महावीर बिंबं कारयितुमारब्धं । तत्र तेन श्रेष्टिना गोपाल वचनात् गोदुग्ध स्रावकारणं ज्ञात्वा सर्वेपि दर्शनिनः पृष्टाः तैः पृथक् पृथक् भाषया अन्यदन्यदुक्तं । ततः श्रेष्टिना स आचार्योऽभिवंद्य पृष्टः ततः शासन देव्या वाक्यात् आचार्यो ज्ञात्वा एवं कथयति तत्र त्वत्प्रासाद योग्य बिंबो भविष्यति परं षट् मासैः सार्द्ध सप्त दिनैः निष्कासनीयं । श्रेष्टि उच्छुक संजातः । किंचिदुनैर्दिनैः निष्कासितः निंबु फल प्रमाण हृदयस्थ ग्रन्थीद्वय सहितं । आचार्यैः प्रोक्तं अद्यापि किंचित् असंपूर्ण बिंबं विलंबस्व श्रेष्टिना प्रोक्तं गुरूणां कर प्रासादात् संपूर्ण भविष्यति । तेनावसरे कोरंटकस्य श्राद्धानां आव्हानं आगतं । भगवन् प्रतिष्ठार्थमागच्छ । गुरुणा कथितं मुहूर्त वेलायां आगच्छामि ।
सप्तत्या ७० वत्सराणां चरम - जिनपतेर्मुक्तजातस्य वर्षे पंचम्यां शुक्लपक्षे सुरगुरुदिवसे ब्रह्मणः सन्मुहुर्ते । रत्नाचार्यैः सकलगुणयुतैः सर्वसंघानुज्ञातैः
श्रीमद्वीरस्य बिंबे भवशतमथने निर्मितेयं प्रतिष्ठा : ॥ १ ॥ उपकेशे च कोरंटे तुल्यं श्री वीरबिंबयोः
प्रतिष्ठा निर्मिता शक्त्या श्रीरत्नप्रभसूरिभिः ॥ २ ॥
निजरूपेण उपकेसे प्रतिष्टा कृता वैक्रिय रूपेण कोरंटके प्रतिष्टा कृता श्राद्धै द्रव्यव्ययः कृतः । ततस्तेन श्रेष्ठिना श्री औपकेश पुरस्थ श्रीमहावीर बिंब पूजा आरात्रिका स्नात्रकरण देव वंदनादिविधिः श्रीरत्नप्रभाचार्यात् शिक्षिता । तदनंतरं मिथ्यात्वाभावात् श्रावकत्वं केषांचित् श्रेष्टिसंबंधिनां संजातं । ततः आचार्येण ते सम्यक्त्वधारी कृता । एकदा प्रोक्तं भो यूयं श्राध्दा तेषां देवीनां निर्दयचित्ताया महिष बोत्कटादि
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जैन साहित्य संशोधक जीववधास्थि भंगशब्द श्रवण कुतुहलप्रियया अविरतायाः रक्तांकितभूमितले आर्द्रचर्मबद्धवंदनमाले निष्ठुरजनसेवितं धर्मध्यानविद्यापके महाबीभत्सरोद्रे श्री सच्चिकादेवि गृहे गंतुं न बुध्यते । इति आचार्यवचः श्रुत्वा ते प्रोचुः प्रभो युक्तमेतत् परं रौद्रा देवी यदि छलिस्याम तदा सा कुटुंबान् मारयति। पुनराचार्य: प्रोक्तं अहं रक्षा करिस्यामि । इत्याचार्यवाक्यं श्रुत्वा ते देवी गृहे गमनात् स्थिताः । आचार्याणां प्रत्यक्षीभूय . देव्या सकोपमित्यक्तं आचार्य मम सेवकान मम देवगृहे आगच्छमानान् निवारणाय त्वं न भविष्यति । इत्युक्त्त्वा गता देवी परं सातिशय कालभावात् महाप्रभावात् अनेकसुरकृतप्रातिहार्ये आचार्य देवी न प्रभवति । एकदा छलं लब्ध्वा देव्या आचार्यस्य कालवेलायां किंचित् स्वाध्यायादि रहितस्य वामनेत्रभ्राधिष्टिता । वेदाना जाता । आचार्यैः यावत् सावधानीभूय पीडायाः कारणं चिंतितं तावत् देवी प्रत्यक्षीभूय इत्ति प्रोक्तं मया पडिा कृता । अहं स्वशक्त्या त्वां स्फेटयिष्यामि इति सावष्टंभं आचार्योक्तं श्रुत्वा सभयाकूतं सा विनयं प्रोक्तं भवादृशानां ऋषीणां विग्रहं विवादो न युक्तः । यदि त्वं कडडमडडं ददासि तदाहं वेदनां अपहरामि । आचंद्रार्क त्वत्किंकरी भवामि इति श्रुत्वा आचार्यैः प्रोक्तं कडडमडडं दापयिष्यामि । इत्युक्ता गता देवी। प्रभाते श्रावकानामाकार्य तैः पक्वान्न खज्जकादि सुंडकद्वयं कप्तरकुंकुमादिभोगश्च आनीय श्रीसच्चिकादेवी देवगृहे श्रीरत्नप्रभाचार्यः श्रावकैः सार्धं गतः। ततः श्रावकैः पार्थात् पूजां कराप्य वामदाक्षणहस्ताभ्यां पक्वान्नसुंडकादि चूर्णयद्भिः आचार्यैः प्रोक्तं देवी कडडमडडं दत्तमस्ति । अतः परं ममोपासिका त्वं इति वचनानंतरं एव समीपस्थ कुमारिका शरीरे आवेशः कृतः । ततः प्रोक्तं प्रभो मया अन्यं कडडमडडं याचितं अन्यं दत्तं । आचार्यैः प्रोक्तं त्वया वधो याचितः स तुलातुं दातुं न बुध्यते इत्यादिसिद्धान्तवाक्यं कुमारी शरीरस्था श्रीसच्चिकादेवी सर्वलोक प्रत्यक्ष श्रीरत्नप्रभाचार्यैः प्रतिबोधिता । श्रीउपकेशपुरस्था श्रीमहावीरभक्ता कृता सम्यक्त्वधारिणी संजाता । आस्तां मांसं कुसुममपि रक्तं नेच्छति । कुमारिका शरीरे अवतीर्णा सती इति वक्ति भो मम सेवका यत्र उपकेशपुरस्थं स्वंयभू महावीरबिंबं पूजयति श्रीरत्नप्रभाचार्य उपसेवति भगवन् शिष्य प्रशिष्यं वा सेवति तस्याहं तोषं गच्छामि। तस्य दुरितं दलयामि यस्य पूजा चित्ते धारयामि। एतानि शरीरे अवत्तीर्णा सा कुमारी कथ्यतां । श्रीसञ्चिकादेव्या वचनात् क्रमेण श्रुत्वा प्रचुरा जनाः श्रावकत्वं प्रतिपन्नाः । क्रमेण श्रीरत्नप्रभाचार्य ८४ वर्षे स्वर्ग गतः।।
८ तत्पट्टे यक्षदेवाचार्यः माणभद्र यक्ष प्रतिबोध कर्ता संघस्य विष्नो निवारितः । ९ तत्पट्टे कक्कसूरि । १० तत्पटे देवगुप्तसार । । ११ तत्पट्टे सिद्ध सूरि । १२ तत्पट्टे रत्नप्रभ सूरि। १३ तत्पट्टे यक्षदेव सूरि ।
१४ तत्पट्टे कक्क सूरि। स्वयंभू श्रीमहावीर स्नात्र विधि काले, कोसौ विधिः कदा किमर्थं संजातः इत्युच्यते-तस्मिन्नेव देव गृहे अष्टान्हिकादिकमहोत्सवं कुर्वतास्तेषां मध्ये अपरिणतवयसा केषांचित् चित्ते इयं दुर्बुद्धिः संजाताः। यदुत भगवत् महावीरस्य हृदये ग्रन्थी द्वयं पूजां कुर्वतां कुशोभा करोति अतः मशकरोगवत् छेदयितां को दोषः। वृद्धैः कथितं अयं अघटितः टंकिना घातो न अर्हः। विशेषतो अस्मिन् स्वयंभू श्री महावीर बिंबे । वृद्धवाक्यमवगण्य प्रच्छन्नं सूत्रधारस्य द्रव्यं दत्वा ग्रन्थिद्वयं छेदितं तत्क्षणादेव सूत्रधारो मृतः। प्रन्थिच्छेदप्रदेशे तु रक्त धारा छुटिता । तत उपद्रवो जातः । तदा उपकेशगच्छाधिपति श्रीकक्क सूरिभिः पायम्दिः चतुर्विधसंघेनाहूता वृत्तांतं कथितं । आचार्यैः चतुर्विधसंघ स
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पकशगच्छाया पहावलिः हितेन उपवास त्रयं कृतं । तृतीय उपवास प्रान्ते रातिसमये शासनदेवी प्रत्यक्षी भूय आचार्याय प्रोक्तं हे प्रभो न युक्तं कृतं बालश्रावकैः मद् घटितं किंबं आशातितं । कलानीशकृतं अतोनंतरं उपकेशनगरं
नैः २ उपभ्रंसं भविष्यति । गच्छे विरोधो भविष्यति । श्रावकाणां कलहो भविष्यति ।गोष्ठिका नगरात् दिशोदिशं यास्यति । आचार्य प्रोक्तं परमेश्वरि भवितव्यं भवत्येव परं त्वं श्रवतु रुधिरं निवारय । देव्या प्रोक्तं घृत घटेन दधि घटेन इक्षुरस घर्टन दुग्ध घटेन जल घटेन कृतोपवासत्रय यदा भविष्यति तदा अष्टादशा गोत्र मेलं कुरु; तेमी १ तातहडं गोत्रं । २ बापणा गोत्रं । ३ कर्णाट गोत्रं । ४ वलगोत्रं । ६ मोराक्ष गोत्रं । ६ कुल हट गोत्रं । विरिहटु गोत्रं । ८ श्री श्रीमाल गोत्रं । ९ श्रेष्टिगोत्रं । एते दक्षिण बाहु। १ सुचंती गोत्रं । २ आइचणा. गोत्रं । ३ चारवेडीया गोत्रं । ४ भाद्र गोत्रं । ५ चींचट गोत्रं (देशलहरासाखा)। १ कुंभट गोत्रं । ७ कनउजया गोत्रं । ८ डिंडभ गोत्रं । ९ लघु श्रेष्टि गोत्रं । एते वाम बाहु स्नात्रं कर्तव्यं नान्यथाऽशिवो शान्तिर्भविष्यति । मूल प्रतिष्ठानंतरं वीर प्रतिष्ठा दिवसातीते शतत्रये ३०३ अनेहसि ग्रंथियुगस्य वीरोरस्थस्य भेदोऽजनि दैव योगात् इत्युक्तं श्रीमदुपकेशगच्छचरित्र सूत्रे श्लोक-१७२
१५ तत्पट्टे श्रीदेवगुप्तसूरि। १९ तत्पट्टे सिद्ध सूरि। १७ तत्पट्टे रत्नप्रभ सरि।
१८ एवं अनुक्रमेण श्रीवीरात् वर्षे ५८५ श्रीयक्षदेवसारर्बभूव महाप्रभावकर्ता द्वादशवर्षे दुर्भिक्षमध्ये वज्र स्वामी शिष्य वज्रसेनस्य गुरोः परलोकप्राप्ते यक्षदेवसूरिणा चत्वारि शाखाः स्थापिताः
१९ तत्पट्टे कक्कसूरि । २० तत्पट्टे देवगुप्तसूरि । २१ तत्पट्टे सिद्ध सूरि । २२ तत्पट्टे रत्नप्रभसूरि । २३ तत्पट्टे यक्षदेव सूरि । २४ तत्पट्टे कक्क सूरि । २५ तत्पट्टे देवगुप्तसूरि । २६ तत्पट्टे सिद्ध सूरि । २७ तत्पट्टे रत्नप्रभसूरि । २८ तत्पट्टे यक्षदेव सूरि । २९ तत्पट्टे कक्कसरि । ३० तत्पट्टे देवगुप्त सूरि । ३१ तत्पट्टे सिद्धसूरि । ३२ तत्पट्टे रत्नप्रभ सूरि । ३३ तत्पट्टे यक्षदेव सूरि ।
३४ तत्पट्टे ककुदाचार्य । तत्पट्टे देवगुप्ताचार्य । तत्पट्टे सिद्धाचार्य । एतानि पंच उपकेशगच्छाधिपाचार्याणां मूलनामानि। तत्पट्टे कक्कसूरि द्वादश वर्षयावत् षष्ट तप आचाम्लसहितं कृतवान् । तस्य स्मरणस्तोत्रेण मरोटकोटे सोमकश्रेष्टिस्य शृंखला त्रुटिता । तेन चिंतितं यस्य गुरोः नामस्मरणेन बंधनरहितो जातः एकवारं तस्य पादौ वंदामि । स भरुकच्छे आगतः । अटणवेलायां सर्वे मुनीश्वरा अटनार्थ गतास्ति । सच्चका गुरो अग्रे स्थितास्ति। द्वारो दत्तोस्ति तेन विकल्पं कृतं । शच्यका शिक्षा दत्ता मुखे रुधिरो वमति । मुनीश्वरा आगता । वृद्धगणेशेन ज्ञातं भगवन् द्वारे सोमकश्रेष्टी पतितोस्ति। आचार्यैः ज्ञातं अयं सच्चिकाकृतं । सच्चिका आहूता कथितं त्वया किं कृतं । भगवन् मया योग्यं कृतं । रे पापिष्ट यस्य गुरुनामग्रहणे बंधनानि श्रृंखलानि त्रुटितानि सुति स अणाचारे रतो न भविष्यति । परं एतेन आत्मकृतं लब्धं । गुरुणा प्रोक्तं कोपं त्यज शांतिं कुरु ।तया कथितं यदि असौ शान्तिर्भविष्यति तदा अस्माकं आगमनं न भविष्यति प्रत्यक्षं । गुरुणा चिंतितं भवितव्यं भवत्येव स सज्जकृितः। सञ्चिकावचनात् द्वयोर्नाम भंडारे कृताः श्रीरत्नप्रभसूरि अपरश्री यक्षदेवसूरि एते सप्रभावा एतदनेहसि अस्य उपेकशगणस्य द्वाविंशति शाखा नामानि दत्तानि
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जैन साहित्य संशोधक १ नागेन्द्र २ चन्द्र ३ निर्वृत्ति ४ विद्याधराणां स्थाने १ सुंदर २ प्रभ ३ कनक ४ मेस । सार ६ चंद्र ७ सागर ८ हंस ९ तिलक १० कलस ११ रत्न १२ समुद्र १३ कल्लोल १४ रंग १५ शेखर १६ विशाल १७ राज १८ कुमार १९ देव २० आनंद २१ आदित्य २२ कुंभ इति । ब्रतः । तेनैव कक्कसूरिणा अबूंदाचलमेखलायां तृषार्तस्य संघस्य डंड स्थापनन जलं प्रगटि कृतं। तेनैव साधर्मिक । वात्सल्ये जेसलपुरात् भरुकच्छे घृतो आनीतः ।
३५ तत्पट्टे श्रीदेवगुप्तसूरि । तत्पदमहोत्सवे पाठकाः पंच स्थापिता जयतिलकादि। तेन जयतिलकेन श्रीशान्तिनाथचरित्रं निर्मितं ।
३६ तत्पट्टे सिद्ध सूरि। ३७ तत्पट्टे कक्क सूरि। ३८ तत्पट्टे देवगुप्तसूरि । ___ ३९ तत्पट्टे सिद्धसूरि। ४० तत्पट्टे कक्क सूरि । ४१ तत्पट्टे देवगुप्तसूरि । सं० ९९५ वर्षे बभूव ।
४२ क्षत्रीयवंशोत्पन्नत्वात् वीणावादने तत्परं क्रियाविषयं सिथिलः । ततः चतुर्विधसंघेन तत्पट्टे वीस विस्वोपकारकः स्थापितः श्रीसिद्धसूरिः ।।
४३ तत्पट्टे कक्कसूरिः पंचप्रमाणग्रन्थकर्ता । ४४ तत्पट्टे संवत् १०७२ वर्षे श्रीदेवगुप्तसूरि । ४५ तत्पट्टे नवपद प्रकरण-स्वोपज्ञटीकाकर्ता सिद्धसूरि । ४६ तत्पट्टे कक्क सूरि । ४७ तत्पट्टे देवगुप्तसूरि । ४८ तत्पट्टे सिद्ध सूरि । ४९ तत्पट्टे कक्कसूरि ।
५० तत्पट्टे संवत् ११०८ वर्षे देवगुप्त सूरिर्बुभूव। भीनमाल नगरे साह भईसाक्षेन पद महोत्सवे सप्तलक्ष धन व्ययो कृतः । ततोः गुरुणा पादप्रक्षाल्येन जले विषापहार लब्धी येन भइसाक्ष श्रेष्ठिना श्री देवगुप्त सूरेः पद महोत्सवः कृतः। स पूर्व डिंडुवाण पूरे भइसा भार्या छगणाणि स्थाप्यते ततो गुरूपदेशेन ज्वालितानि छगणानि रुप्यमयानि भवंति ततो तेन रुप्येन गदहिया मुद्रा पातिता । भइसाक्ष माता श्री शत्रुजय यात्रागता खरच तुट्यते पत्तन मध्ये ईश्वरश्रेष्ठिनः पार्थे खरचो याचिता । तेन पृष्टं भवती कस्य माता तेन कथितं अहं भइसाक्ष माता । तेन हसितं अस्माकं गृहे पानीयमानयंति तेषां माता इति वित र्कितं। ततोऽनंतरं पश्चात् धनं गृहीत्वा यात्रां कृत्वा संघभक्ति कृत्वा गृहे जगाम। पुत्रेण प्रष्ट मातः मम कियभूमौ नामं वर्तते । माता कथितं भवतां प्रतोली द्वारं यावन्नाममस्ति । तेन वचनेन असंतोषो जातः । श्रेष्टि हास्यवचनं कथितं । तद्वचनं वालयिस्यामि तदा द्वितीय वेला भोजयिष्यामि । एवं प्रतिज्ञां कृत्वा पत्तने सामान्यवेषे द्वार हट्टे गतः । भो श्रेष्टि रूप्यं ग्रहिष्यसि । तेन कथितं रोषभरेण यत्किचिदानयिष्यसि तत्सर्वे गृह्णामि । संचकारो याचितः तेन युष्माभिर्दीयते सवालक्ष मुद्रिका दत्ता । ततो गर्दभयानि भारयत्वा पत्तने जगाम । पृष्टं एतत्कि रुप्यं वर्तते एवं श्रुत्वा श्रेष्टिनः चमत्कृताः स श्रेष्टि समग्र पत्तनश्रेष्टि मेल. यित्वा चरणे पपात । भइसाक्षस्तदेव कथितं गुर्जरधरीत्रीमध्ये महिषेण पानीयमानयेतुं तदा मोचयामि । तद्धनं देशे सप्तक्षेत्रे व्ययो कृतः । ततो गादिया इति शाखा जाता । .....
५१तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि । ५२ तत्पट्टे श्री कक्कसूरि संवत् ११५४ वर्षे बभूवः । येन हेमसूरि कुमारपाल वचसा कृपाहीना मुनिवरा निष्कासिता ।
५३ तत्पट्टे देवगुप्तसूरि येन लक्ष द्रव्यं त्यजितं । ५४ तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि । - ५५ तत्पट्टे संवत् १२५२ श्री कक्कसूरिर्वभूव येन मरोट कोटः प्रगटी कृतं ।
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उपकेशगच्छीया पट्टावलिः ५६ तत्पट्टे श्री देवगुप्तसूरि । ५७ तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि। ५८ तत्पट्टे श्री कक्कसूरि ।
६० तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि । ६१ तत्पट्टे श्री कक्कसूरि । ५९ तत्पट्टे श्री देवगुप्तसूरि । र तत्पट्टे श्री देवगुप्तसूरि । ६३तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि । ६४ तत्पट्टे श्री कक्कसूरि । ६५तत्पट्टे श्रीदेवगुप्तसूरि ।
• ६६ तत्पट्टे संवत् १९३० वर्षे चीचट गोत्रेऽतएव उवरराय स्थापितः श्री अर्बुदाचल तलहुटीकालंकारो वरणीनमरतः शा० देशलेन श्री शत्रुनयादि सप्त तीर्थेषु चउदश १४ कोटि द्रव्य व्ययेन चउदश यात्रा कृता चतुर्दश वारान् । प्रथमं देवगुप्तसूरि तत्पट्टे सिद्धसूरि प्रमुख समग्र सुविहित सूरि हस्तेन संघपति तिलकः कारितं । उक्तं च ।
श्री देशलः सुकृत पेसल वित्त कोटी। चंचच्चतुर्दश जगज्जनितावदातः।
शत्रुनय प्रमुख विश्रुत सप्त तीर्थः । यात्रा चतुर्दश चकार महामहेन ॥ १ ॥ __ तत्पुत्र समरसहजाभ्यां विमलवसत्युद्धारः कारितः संवत् १३७१ वर्षे । तथा एवमपरेरपि तिर्थयात्रा कृत्वा संधपतेः पदं स्वाकीरितं इत्युक्तमुपदेशरसाले । साह देसलेन पाल्हणपुरे श्री सिद्धसूरि पद महोत्संवों कृतः । तेन सिद्धसूरिणा समराग्रहेण शत्रुनये षष्ठोद्धारे श्री आदिनाथस्य प्रतिष्ठा कृता।
६७ तत्पट्टे संवत् १३७१ वर्षे साह सहजागरेण श्री कक्कसूरि पद महोत्सवो कृतः । येन गच्छपबंधः कृतः । तत्र देसल पुत्राः समर-सहजानां चरित्रमस्ति । एवं उपकेश गच्छे अनेक प्रभावका ग्रन्थकर्त्तारो निरीहा सूरयो अभूवन् तेषां कियद् गण्यते एवं
६८ तत्पट्टे श्री देवगुप्तसूरि बभूवः । कवि सार्वभौम विद्वच्चक्रचूडामणि सिद्धन्तपारगामी सर्वशास्त्रपारंगत । श्री सारंगधरेण संवत् १४०९ वर्षे ढिल्यां मध्ये पद महोत्सवो विहितः सुवर्णसहस्र पंचक व्ययेन । .... १९ तत्पट्टे श्री सिद्धसूरिः संवत् १४७५ वर्षे गुणभूरय अणहिलपाटक पत्तने चोरवेडीया गोत्रे साह झावा नीवागरेण पद महोत्सवः कृतः गुरूणां ।
७० तत्पट्टे संवत् १४९८ वर्षे श्री कक्कसूरयः चित्रकुटे चोवेडीया मोक्ने साह सारंग सोनागर सजाभ्यां पद महोत्सवो कृतः येन चतुर्दश शत चतुः चत्वारिंसत् अधिक १४४४ कच्छ मध्ये अमारी प्रवर्ताविता । याम श्री वीरभद्रः प्रतिबोधितः। संस्कृतप्राकृतपरमामृतप्रवाहा विरचित निखिलशास्त्रावगाहाः वाणीविलासवाचस्पतितुल्याः सकलकलारंजितकोविदाः धर्मबुद्धिधुरंधरा सकळपुरंदाः ।
७१ तत्पट्टे सं० १५२८ वर्षे जोधपुरे श्रेष्टि गोत्रे मंत्रीश्वर जयतागरेण श्री देवगुप्तसूरेः महोत्सवे नव महोत्सवो कृतः । श्री पार्श्वनाथस्य प्रासादः कारितः पौषधशालायां च । श्री शत्रुजय यात्रा कृता । पंच पाठकाः स्थापिताः । तेषां नामानि श्री धनसार १ उ० देवकलोल २ उ० पद्मतिलक ३ उ० हंसराज ४ उ० मतिसागर ५। .
___७२ तत्पट्टे श्री सिद्धसूरया गुणभूरयः । श्री श्रेष्टि गोत्रे मंत्रीश्वर दशरथात्मजेन मंत्रीश्वर लोलागरेण संवत् १९६५ वर्षे मेदिनीपुरे पद महोत्सवः कृतः ।
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जैन साहित्य संशोधक
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७३ तत्पट्टे श्री कक्कसूरयः श्री जोधपुरे संवत् १९९९ वर्षे गच्छाधिपो जातः श्रेष्टि गोत्रे मंत्रि जगात्मजेन मंत्रीवर धरमसिंहेन पद महोत्सवो कृतः ।
७४ तत्पट्टे श्री देवगुप्त सूरयः श्री श्रेष्टी गोत्रे मंत्रि सहसवीर पुत्रेण संवत् १६२१ मंत्री देदागरेण पद महोत्सवः कृतः ।
७५ तत्पट्टे विद्यमान संवत् १६५५ वर्षे चैत्रसुदि १३ सिद्धसूरिर्बभूव श्री श्रेष्टी गोले मंत्रि मुगु मंत्र शेखर सर्व विश्व विख्यात राज्यभार धुरंधर मंत्रीश्वर महामंत्रि श्री ठाकुरसिंह विक्रमपुरे महा महोत्सवेन पद महोच्छ्वो कृतः ।
७६ संवत् १६८९ वर्षे फाल्गुण शुद्धि ३ श्री कक्कसूरिर्बभूव । श्री श्रेष्टि गोत्रे मंत्रि-मुगुट मंत्रि ठाकुरसिंह तत्पुत्र मं० सावलकेन तत्पत्नी साहिबन पढ़ महोत्सवो कृतः ।
संवत् १७२७ वर्षे मृगशिर सुद ३ दिने श्री देवगुप्तसूरिर्वभूव श्रेष्टि गोत्रे मंत्रि ईश्वरदासेन पढ़ महोत्सव कृतः ।
७८ तत्पट्टे श्री सिद्धसूरि संजातः । श्रेष्टि गोत्रे मंत्रि सगतसिंहेन पट्टाभिषेकः कृतः संवत् १७६७ वर्षे मृगशिर सुदि १० दिने जातः ।
७९ तत्पट्टे श्री कक्कसूरिर्बभूव । मंत्रि दोलतरामेन सं० १७८३ वर्षे आसाढ वदि १३ दिने पद महोत्सव कृतः ।
८० तत्पट्टे देवगुप्तसूरि सं० १८०७ वर्षे बभूव । मुहता दोलतरामजीना पद महोत्सवो कृतः । ८१ तत्पट्टे श्री सिद्धसूरिर्बभूव । संवत् १८४७ वर्षे महासुदि १० दिने पट्टाभिषेकः संजातः । मुं० श्री खुशालचंद्रेण पदमहोत्सवो कृतः । तेषां प्रासादात् अहं कल्पवाचनं करोमि । पुनः दीक्षा गुरु प्रसादात् ८२ तत्पट्टे श्रीकक्कसूरिर्बभूव । संवत् १८९१ रा वर्षे चैत्र सुद८ अष्टमीदिने पट्टाभिषेकः संजातः । ० ठाकुर सुत मुं० सिरदारसिंह गृहे समस्त श्रीसंत्रेन बीकानेर मध्ये पदमहोत्सवः कृतः ।
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८३ तत्पट्टे श्रीदेवगुप्तसूरिर्बभूव । संवत् १९०५ वर्षे भाद्रवा सुदि १३ चंद्रवासरे पट्टाभिषेकः संजातः । श्रेष्टि गोत्रे वैद्य मुहता शाखायां प्रेमराजो तस्य परिवारे हठीसिंघजी ऋषभदासजी मेघराजजी - कानां उस्संगे गृहीत्वा श्रीफलोधीनगरमध्ये समस्त वैद्य मुहता पट्टाभिषेको कृतः । तेषां प्रासादात् अहं कल्पवाचनां करोमि ।
८४ तत्पट्टे श्रीसिद्धसूरिर्बभूव । संवत् १९३५ वर्षे माघ कृष्ण ११ दिने पट्टाभिषेक संजातः श्रष्टि गोत्रे वैद्यमुहता शाखायां ठाकुर सुत महारावजी श्रीहरि सिंघजी पद महोत्सवः कृतः वृद्ध गृह मध्ये बांसीवाला सुरजमलजी हस्तात् समस्त श्रीसंघसहितेन विक्रम पुर मध्ये देवदुष्य रंजित छाटका राज्य द्वारात् समागता । तेषां प्रासादात् अहं कल्पवाचनां करोमि इति ॥
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.उपकेशगच्छीया पट्टावलिः ॥ श्रीरत्नप्रभसूरिस्तोत्रम् ॥
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॥ श्रीमद्रत्नप्रभसूरिसद्गुरुभ्यो नमः ॥ वामेयपट्टे शुभदत्तमामा तच्छिप्यजातो हरदत्तमुख्यः ॥ आर्योबुधिः केशी स्वयंप्रभोपि सूरीशरत्नप्रभलब्धिपात्रः ॥१॥ भव्यावलीकमलकाननराजशृंगं श्रियःप्रवृत्तिमुनिमानसराजहंसं ॥ श्रीपार्श्वनाथपदपकजचंचरीकं रत्नप्रभं गणधरं सततं स्तवीमि ॥२॥ विद्याधरेद्रपदवीकलितोपि कामं श्रीमत्स्वयंप्रभुगिरः परिपीय योत्र । दीक्षावधुमुदवहन्मुदमादधानो रत्नप्रभस्स दिशतात्कमलाविलासं ॥ ३ ॥ मंत्री हिंडसुतो भुजगेन दष्टः संजीवितः सकललोकसभासमक्षं । यस्यांनिवारिरुहपुष्करसिंचनेन रत्नप्रभस्स दिशतात्कमलाविलासं ॥ ४ ।। मिथ्यात्वमोहतिमिराणि विधूय येन भव्यात्मनां मनसि तिग्मरुचेव विश्वे । संदर्शितं सकलदर्शनतत्त्वरूपं रत्नप्रभस्स दिशतात्कमलाविलासं ॥ ५ ॥ येनोपकेशनगरे गुरुदिव्यशक्त्या कोरंटके च विदधे महती प्रतिष्ठा । श्रीवीरबिंबयुगलस्य वरस्य येन रत्नप्रभस्स दिशतात्कमलाविलासं ॥ ६ ॥ श्रीसत्यिकाभगवर्ती समभूत्प्रसन्ना सर्वज्ञशासनसमुन्नतिवृद्धिकीं । यद्देशनारसरहस्यमवाप्य सम्यक् रत्नप्रभस्स दिशतात्कमलाविलासं ॥ ७ ॥ गृह्णति यस्य सुगुरोर्गुरुनाममंत्रं सम्यक्त्वतत्त्वगुणगौरवगार्भतं ये । तेषां गृहे प्रतिदिनं विलसंति पद्मा रत्नप्रभस्स दिशतात्कमलाविलासं ॥ ८॥ . कल्पद्रुमः करतले सुरकामधेनु-श्चिंतामणिः स्फुरति राज्यरमाभिरामा । यस्योल्लसत्क्रमयुगांबुजपूजनेन रत्नप्रभस्स दिशतात्कमलाविलासं ॥ ९ ॥
इत्थं भक्तिभरेण देवतिलकश्चातुर्यललिागुरोः । श्रीरत्नप्रभसूरिराजसुगुरोः स्तोत्रं करोति स्म यः ।
प्रातः काम्यमिदं पठत्यविरतं तस्यालये सर्वदा ।
___ सानंदं प्रमदेव दीव्यतितरां साम्राज्यलक्ष्मीः स्वयं ॥ १० ॥ इति ओएसनगरे सपालक्षश्रावकाः प्रतिबोधिता ओएसवालज्ञातिः स्थापिता तस्य स्तोत्रमिदं "प्राताख्यान पद्धतौ प्रत्यहं पठनीयं ॥ संपूर्ण ॥ ग्रंथाग्रंथ ॥ ३१५ ॥ श्रीरस्तु ॥
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जैन साहित्य संशोधक समिति
-- -DHOKAR
पेटन. श्रीयुत हीरालाल अमृतलाल शाह. बी. ए. मुंबई.
वाईस पेटून. श्रीयुत केशवलाल प्रेमचंद मोदी. बी. ए. एल्एल्. बी. वकील अमदाबाद. श्रीयुत अपरचंद घेलामाई गांधी, मुंबई..
सहायक. शेठ परमानंददास रतनजी, मुंबई. श्रीयुत मनसुखलाल रवजीभाई मेहता, मुंबई. शेठ कांतिलाल गगलभाई हाथीभाई, पूना. शेठ केशवलाल मणीलाल शाह, पूना. शेठ बाबूलाल नानचंद भगवानदास झवेरी, पूना.
सभासद. श्रीयुत बाबू राजकुमार सिंहजी बद्रीदासजी, कलकत्ता. श्रीयुत बाबू पूरणचंदजी नाहार. एस्. ए. एलएल. बी. कलकत्ता. शेठ लालभाई कल्याणभाई झवेरी, वडोदरा ( मुंबई.) शेठ नरोत्तमदास भाणजी, मुंबई. शेठ दामोदरदास, त्रिमुवनदास भाणजी, मुंबई. शेठ त्रिभुवनदास भाणजी जैन कन्याशाला, भावनगर. शेठ केशवजीभाई माणेकचंद, मुंबई. शेठ देवकरणभाई मूळजीभाई, मुंबई. शेठ गुलाबचंद देवचंद, मुंबई. श्रीयुत मोतीचंद गिरधरलाल कापडिया, बी. ए. एलएल बी. सोलीसीटर, मुंबई. श्रीयुत केशरी चंदजी भंडारी, इंदौर. शाह अमृतलाल एण्ड भगवानदास कुं० मुंबई. शाह चंदुलाल वीरचंद कृष्णाजी, पूना. शेठ लाधाजी सोतीलाल, पूना. शाह धनजीभाई वखतचंद साणंदवाळा, (अमदाबाद) शाह बाळुभाई शामचंद, तळेगाम ( ढमढेरे ). शाह चुनिलाल झवेरचद, मुंबई. शाह भोगीलाल चुनिलाल, सोलापुरबझार, पूना केप
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________________ पाली, प्राकृतं, संस्कृत, गुजराती, हिन्दी भाषानां केटलांक उत्तम पुस्तको 0-14-0 000 1 प्राकृत कथासंग्रह. सं० मुनि जिनविजय ( पुरातत्त्वमन्दिर ग्रंथावली) 2. पाली पाठावली. 3. कुमारपाल प्रतिबोध (प्राकृत ऐतिहासिक ग्रंथ; गायकवाड सीरीझ) 4. हारभद्राचार्यस्य समयनिर्णय ( जै. सा. सं. ग्रंथमाळा ) 5. प्राकृत व्याकरण संक्षिप्त परिचय 6. सुपासनाह चरियं (प्राकृत भाषानो महान् चरित्रग्रंथ ) 7. सुरसुन्दरी चरियं (प्राकृत भाषासां एक सुंदर कथा ) 8. उपकेश गच्छीय पट्टावली (संस्कृत) 9. गुणस्थानक्रमारोह (हिन्दी भाषान्तर-विस्तृत विवेचन) 10. परिशिष्ट पर्व (हिन्दी भाषामा उत्तम भाषांतर) 11. छेदसूत्राणि (आमां कल्प--व्यवहार-निशीथ नामना त्रण छेदसूत्रो बहु शुद्ध अने उत्तम पद्धतीए छपावेलां छे,जे अत्यंत दुर्लभ छे घणी थोडी नकलो छपावेली छे.) 12. साधुशिक्षा (सुन्दर हिन्दी भाषांतर) 3. जैन धर्नु अहिंसातत्त्व ( तात्त्विक विवेचन ) 14. सुखी जीवन (वांचवालायक शांतिप्रद सुंदर गुजराती पुस्तक) 15. नयकर्णिका ( उत्तम गुजराती विवेचन) ए सिवाय, आत्म तिलक प्रन्थ माळामां छपाएलां नानां मोटां पुस्तको जे प्रभावना नामनी किंमते ज वेचवामां आवे छे ते पण नीचेनां ठेकाणे मळे छे. सदर बजार सिरोही पुस्तक न...... गुजरात पुरातत्त्वमंदिर, एलीम ब्रजि, अहमदाबाद (गुजरात) भारत जैन विद्यालय, पूना सिटी ( दक्षिण). मुद्रक-पृष्ठ 1-33 जैन साहित्य मुद्रणालय; पृ० 57-80 चित्रशाला प्रेस; और बाकी सब-हनुमान प्रेस, सदाशिव पेठ, पूना सीटी.-प्रकाशक चिमनलाल एल्. शाहा, भारत जैन विद्यालय, पूना शहर.