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________________ अंक १] महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण राजा के नाम हैं और इन्हीं के समय में पुष्पदन्तने अपने ग्रन्थों की रचना की है। एक जगह डिग को 'भुवनैकराम' विशेषण दिया है, जो कि उसकी एक विरुद थी। इसके सिवाय उसे 'राजाधिराज' लिखा है। श्रादिपुराण के २७ वे परिच्छेद के प्रारंभ में भरतमन्त्री की प्रशंसा करते हुए उसे 'भारत' ( महाभारत ) की उपमा दी है:-"गुरु धर्मोद्भवपावनमभिनन्दितकृष्णार्जुनगुणोपेतं । भीमपराकमसारं भारतमिव भरत तव चरितम् ॥” इसका 'अभिनन्दित कृष्णार्जुनगुणोपेतम् ' विशेषण निश्चय से कृष्णराज को लक्ष्य करके ही लिखा गया है। उत्तरपुराण के अन्त में ग्रन्थ के समाप्त होने का समय संवत् ६०६, आसाढ़ सुदी १०, क्रोधनसंवत्सर लिखा है। क्रोधनसंवत्सर से ६ वर्ष पहले सिद्धार्थसंवत्सर आता है, अतः आदिपुराण की रचना का समय संवत् ६०० होना चाहिए । दक्षिण में शक संवत् का ही प्रचार अधिक रहा है, अतएव उक्त ६०० और ६०६ को शक संवत् ही मानना चाहिए। उत्तरपुराण की प्रशस्ति से मालूम होता है कि उक्त ग्रन्थ मान्यखेट नगर में बनाया गया था, जो इस समय मालखेड नाम से प्रसिद्ध है और निजाम के राज्य में है। उत्तरपुराण के ५० वें परिच्छेद के प्रारंभ में लिखा है: दीनानाथधनं सदाबहुजनं प्रोत्फुल्लवल्लीवनम्, ___ मान्याखेटपुरं पुरंदरपुरीलीलाहरं सुन्दरम् । धारानाथनरेन्द्रकोपशिखिना दग्धं विदग्धप्रियम्, क्वेदानी वसतिं करिष्यति पुनः श्री पुष्पदन्तः कविः॥ इससे मालूम होता है, शक संवत् ६०० और ६०६ के बीच में किसी समय धारानगरी के किसी राजा ने इस बड़े भारी वैमवशाली नगर को बरबाद किया था। _ पुष्पदन्तने अपना महापुराण पूर्वोक्त शुभतुंग या कृष्णराज के महामात्य भरत के आग्रह से और यशोधर चरित भरतमंत्री के पुत्र गएण या णण्णराज के लिए कर्णाभरणस्वरूप बनाया है । णरण भी अपने पिता के सदृश वल्लभनरेन्द्र या कृष्णराज का महामात्य हो गया था । भरत और णण्ण की पुष्पदन्तने बहुत ही प्रशंसा की है और उन के लोकोत्तर गुणों का वर्णन किया है। महापुराण के सब मिलाकर १०२ परिच्छेद हैं, जिन में से कोई ४० परिच्छेदों के प्रारंभ में पुष्पदन्त ने भरतमंत्री की प्रशंसा के सूचक सुन्दर संस्कृत पद्य दिये हैं जिन्हें हमने इस लेख के अन्त में उद्धत कर दिया है। उन्हें पढ़ने से पाठकों का भरत की महिमा का बहुत कुछ परिचय हो जायगा। इसी तरह यशोधर चरित के चार परिच्छेदों में गएणराज की प्रशंसा के जो पद्य हैं, वे भी उध्दत कर दिये गये हैं। उक्त प्रशस्ति-पद्यों के सिवाय पष्पदन्तने श्रादि और उत्तरपुराण की उत्थानिकानों में भरतमंत्री को निःशेष कलाविज्ञानकुशल, प्राकृतकविकाव्यरसावलुब्ध, अमत्सर, सत्यप्रतिज्ञ, योद्धा परस्त्रोपराकमुख, त्यागभोगभावोद्गमशक्तियुक्त, कविकल्पवृक्ष आदि अनेक विशेषण दिये हैं। ___ यशोधरचारित में भरत के पुत्र नन्न का गोत्र कौण्डिण्य बतलाया है । अतः संभवतः ये ही होंगे: परन्तु जैनधर्म के प्रगाढ़ भक्त थे । भरत के पिता का नाम ऐयण या अण्णय्या और माता का श्रीदेवी था। उन के सात पुत्र थे–१ देवल, २ भोगल्ल, ३ णण्ण, ४ सोहण, ५ गुणवर्म, ६ दंगइया, और ७ संतइया। इन में तीसरा पुत्र णण्ण था, और भरत के बाद, इसी ने महामात्य या प्रधानमंत्री के पद को सुशोभित किया था। आदिपुराण के ३४ चे परिच्छेद के प्रारंभ में नीच लिखा दुमा एक संस्कृत पद्य दिया है:
SR No.542003
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1923
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size20 MB
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