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जैन साहित्य संशोधक शिष्यों या परम्पराशिष्यों द्वारा निर्मित किये हुए सार हैं और इस बातको तो सभी जानते हैं कि उपलब्ध मनुस्मृति भूगुप्रणीत हैं-स्वयं मनुप्रणीत नहीं।
बम्बईके गुजराती प्रेसके मालिकोंने कुल्लूकभट्टकी टीकाके सहित मनुस्मृतिका एक सुन्दर संस्करण प्रकाशित किया है। उसके परिशिष्टमे ३५५ श्लोक ऐसे दिये हैं जो वर्तमान मनुस्मृति में तो नहीं मिलते हैं। परन्तु हेमादि, मिताक्षरा, पराशरमाधवीय, स्मृतिरत्नाकर, निर्णयसिन्धु आदि ग्रन्थोंमें मनु, वृद्धमनु और बृहन्मनुके नामसे 'उक्तंच' रूपमें उद्धत किये हैं। इसके सिवाय सैकड़ों श्लोक क्षेपकरूपमें भी दिये है, जिनकी कुल्लक भट्ठने भी टीका नहीं की है।
हमारे जैनप्रन्थोमे भी मनुके नामसे अनेक श्लोक उद्धत किये गये हैं जो इस मनुस्मृतिमें नहीं है। उदाहरणार्थ स्वनामधन्य पं० टोडरमल्लजीने अपने मोक्षमार्गप्रकाशके पाँच अधिकारमें मनुस्मृतिके तीन श्लोक दिये हैं, जो वर्तमान मनुस्मृतिमें नहीं हैं। इसी तरह 'द्विजवदनचपेट' नामक दिगम्बर जैनग्रन्थमे भी मनुके नामसे ७ श्लोक उद्धत हैं जिनमेसे वर्तमान मनुस्मृति केवल २ मिलते हैं, शेष ५ नहीं हैं।*
शुक्रनीति जो इस समय मिलती है उसके विषयमें तो विद्वानोंकी यह राय है कि वह बहुत पीछेकी बनी हुई हैपाँच छः सौ बर्षसे पहलेकी तो वह किसी तरह हो ही नहीं सकती । शुक्रका प्राचीन प्रन्य इससे कोई पृथक् ही था + कौटिलीय अर्थशास्त्र लिखा है कि शुक्रके मतसे दण्डनीति एक ही राजविद्या है, इसमें सब विद्यायें गर्मित है; परन्तु वर्तमान शुक्रनीतिका कर्ता चारों विद्याओको राजविद्या मानता है--विद्याश्चतस्त्र एवेताः' आदि (अ०१ लो०५१)। अतएव इस शुक्रनीतिको शुक्रकी मानना भ्रम है। . इन सब बातों पर विचार करनेसे हम टीकाकार पर यह दोष नहीं लगा सकते कि उसने स्वयं ही श्लोक गढकर मनु आदिके नाम पर मढ़ दिये हैं। हम यह नहीं कहते कि वर्तमान मनुस्मृति उक्त टीकाकारके बादकी है, इस लिए उस समय यह न उपलब्ध होगा। क्योंकि टीकाकारसे भी पहले मुलकर्ता श्रीसोमदेवसरिने भी मनुके बास श्लोक उद्धत किये हैं और वे वर्तमान मनुस्मृति में मिलते हैं। अतएव टीकाकारके समयमें भी यह मनुस्मृति अवश्य होगी; परन्तु इसकी जो प्रति उन्हें उपलब्ध होगी, उसमें टीकोद्धत श्लोकोंका रहना असंभव नहीं माना जा सकता । यह भी संभव है कि किसी दूसरे ग्रन्थकर्ताने इन श्लोकोको मनुके नामसे उद्धृत किया हो और उस प्रन्यके आधारसेरीकाकारने भी उधुत कर लिया हो । जैसे कि अभी मोक्षमार्गप्रकाशके या द्विजवदनचपेटके आधारसे उनमें उद्धत किये हुए मनुस्मृतिक बोकोको, कोई नया लेखक अपने ग्रन्थमें भी लिख दे।
याज्ञवल्क्यस्मृतिक श्लोकके विषयमें भी यही बात कही जा सकती है। अब रही शुक्रनीति, सो उसकी प्राचीनतातो बहतही संदेह है। वह तो इस टीकाकारसे भी पीछेकी रचमा जान पड़ती है। इसके सिवाय शुक्रके नामसे तो टीकाकारने दो चार नहीं १७.लगभग श्लोक उद्धत किये हैं। तो क्या टीकाकारने पे सबके सब ही मूलकत्तोको नीचा दिखानेकी गरजसे गढ़ लिये होंगे? और मुलकर्ता तो इसमें अपनी कोई तौहीन ही नहीं समझते हैं। उन्होंने तो अपने यशस्तिलकमें न जाने कितने विद्वानोंके वाक्य और पद्य जगह जगह उधृत करके अपने विषयका प्रतिपादन किया है।
सोनीजीका दूसरा आक्षेप यह है किटकाकारने स्वयं ही बहुतसे सूत्र (वाक्य ) गढकर मूलमें शामिल कर दिये हैं। विद्यावृद्धसमुद्देशके, नीचे लाले २१ वें, २३ में और २५ वे सूत्रोको आप टीकाकर्ताका बतलाते हैं:
१-"बैवाहिकः शालीनो जायावरोऽघोरो गृहस्थाः॥" २१ २-बालाखिल्य औदुम्बरी वैश्वानराः सद्य प्रक्षल्यकश्चेति वानप्रस्थाः" ॥ २३ ४ देखो मोक्षमार्गप्रकाशका बम्बईका संस्करण, पृष्ठ० २.१।
® 'द्विजवदनचपेट ' संस्कृत ग्रन्थ है, कोल्हापुरके श्रीयुत पं० कल्लाप्पा भरमाप्पा निटवेने 'जैनबोधक' में और स्वतंत्र पुस्तकाकार भी, अबसे कोई १२-१४ वर्ष पहले, मराठी टीकासहित प्रकाशित किया था।
x देखो गुजराती प्रेसकी शुक्रनीतिकी भूमिका ।