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________________ कुंरपाल सोणपाल प्रशस्ति । ( लेखक-बनारसी दास जैन, एम० ए०, ओरियंटल कालेज, लाहोर.) १. सन १९२० में एस० एस० जैन कानफ्रेन्स की तरफ से इन्दौर वासी सेठ केसरी चन्द भण्डारी ने मुझे लिखा कि उक्त कान्फ्रेन्स का जो प्राकृत कोश बन रहा है आप उसे देखकर उस के विषय में अपनी तथा अन्य प्राकृत विद्वानों की सम्मति लेकर लिखे । इस सम्बन्ध में मुझे उस साल कई नगरों में जाना पड़ा । जब मैं आगरे में था तो मेरा समागम पं० सुखलालजी से हुआ, उन्हों ने मुझे बतलाया कि यहां के मन्दिर में एक नया शिला लेख निकला है 1 जिसको अभी किसी ने नहीं देखा। मैं मनि प्रतापविजयजी को साथ लेकर उसे देखने गया। परन्त उस समय छाप उतारने की सामग्री विद्यमान न थी इस लिये उस समय मैं वहां अधिक ठहरा भी नहीं क्योंकि लेख को देखने के दो तीन घंटे पीछे मैं वहां से चल पड़ा था। २. फिर अप्रैल सन १९२१ में मैं पंजाब यूनिवर्सिटी के एम. ए. तथा बी. ए. क्लासों के संस्कृत विद्यार्थियों को लेकर कलकत्ता, पटना, लखनऊ आदि बडे बडे नगरों के अजायब घर (Museums) देखने जा रहा था, तब आगरे में भी ठहरा और उपरोक्त शिलालेख की छाप तय्यार की, परन्तु अब वहां न तो पं. सुखलालजी थे न ही मुनि प्रतापविजयजी थे । बाबू दयालचन्दजी भी कारण वश बाहिर गए हुए थे। इन के अतिरिक्त और कोई श्रावक मुझ से परिचित न थे इसलिये उस वक्त वह छाप मुझ को न मिल सकी । अब कलकत्ता निवासी श्रीयुत बाबू पूरणचन्द नाहर द्वारा मैं ने वह छाप प्राप्त की है और उसी के आधारपर पाठकों को इस शिलालेख का परिचय दे रहा हूं। ३. यह लेख लाल पत्थर की शिला पर खुदा हुआ है जो लग भग दो फुट लम्बी और दो फुट चौड़ी है। लेख खोदने से पहिले शिला के चारों और दो दो इंच का हाशिया ( margin ) छोड कर रेखा डाल दी गई है। रेखा के बाहिर ऊपर की तरफ " पातसाहि श्री जहांगीर " उभरे हुए अक्षरों में खुदा हुआहै । बाकी का सारा लेख गहिरे अक्षरों में खुदा हुआ है। रेखाओं के अन्दर लेख की ३३ पंक्तियां हैं मगर उन में लेख समाप्त न हो सका इस लिये रखाओं के बाहिर नीचे दो पंक्तयां (नं ३४ और ३८) दाई ओर क पंक्ति ( नं० ३५ ) और बाई ओर दो पंक्तियां [ नं० ३६-३७ ] और खोदी गई हैं। शिला के दाई ओर नीचे का कुछ भाग टूट गया है जिस से लेख की पंक्ति २८-३४ और ३८ के अन्त के आठ नौ अक्षर और पंक्ति ३५ के आदि के १४, १५ अक्षर टूट गए हैं । इस से कुँवरपाल सोनपाल के उस समय वर्तमान परिवार के प्रायः सब नाम नष्ट हो गए हैं । पंक्ति ३६-३७ के भी कुछ अक्षर ढ़े नहीं गए। 1 मन्दिर की एक कोठडी में बहुत से पत्थर पडे थे। जब अप्रैल मई सन् १९२० में उन पत्थरों को निकालने लगे तो उन में से यह लेख भी निकला । अब यह शिला लेख मन्दिर में ही पड़ा है।
SR No.542003
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1923
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size20 MB
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