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________________ [ खंड २ , ४. लेख के अक्षर शुद्ध जैन लिपि के हैं जो कि हस्त लिखित पुस्तकों ( Mss. ) में पाए जाते हैं । पुस्तकों की भांति लेख की आदि में 'र्द ० ' यह चिन्ह है जो शायद 'ओम् शब्द का द्योतक है, क्योंकि प्राचीन शिलालेख तथा ताम्रशासनों में 'ओम्' के लिये कुछ ऐसा ही चिन्ह हुआ करता था । ' च ' और ' व ' की आकृति बहुत कुछ मिलती जुलती है । पंक्ति ६ और में मार्ग और वर्ग शब्दों में 'ग' के लिये ' ग्र' 1 चिन्ह आया है जो जैन लिपि का खास चिन्ह है | ८ २६ ] जैन साहित्य संशोधक ५. वर्णविन्यास ( Spelling ) में विशेषता यह है कि “ परसवर्ण " कहीं नहीं किया गया अर्थात् स्पर्शीय अक्षरों के पूर्व नासिक्य के स्थान में सर्वदा अनुस्वार लिखा गया है जैसे पंक्ति २ में पङ्कज, बिम्ब, चन्द्र के स्थान में पंकज, बिंब, चंद्र लिखे हैं । इसी प्रकार श्लोकार्ध वा श्लोक के अन्त में म् के स्थान में अनुस्वार ही लिखा है जैसे पंक्ति १६ में अठारहवें अर्धश्लोक के अन्त में ' श्रुत्वा कल्याणदेशनां ।' पंक्ति २० अर्धश्लोक २१ 'वित्तबीजमनुतरं । ' पंक्ति २२ श्लोकान्त २३ ' चित्तरंजकं । ' पंक्ति २६ श्लोकान्त २८ ' कारितं ।' इत्यादि । पंक्ति १ त्रिंशत के स्थान में षट्त्रिंशत् लिखा है । विराम का चिन्ह ' । ' श्लोकपादों के अन्त में भी लगाया है, कहीं कहीं पंक्ति के अन्त में अक्षर के लिये पूरा स्थान न होने से विराम लिख दिया है जैसे पंक्ति ७, ९, १२, ११ आदि में । ६. पट्टावलि को छोड़ कर बाकी तमाम लेख श्लोकबद्ध है । इसकी भाषा शुद्ध संस्कृत है परन्तु पंक्ति १५ में पति शब्द का सप्तमी एक वचन ' पतौ' लिखा है जो व्याकरण की रीति ' पत्यौ ' होना चाहिये था । यद्यपि पंक्ति १६ में 'कारिता ' और पंक्ति २६ में ' कारितं ' शब्द आए हैं तथापि पंक्ति ३२ में कारिता के लिये ' कारापिता ' लिखा है । यह शब्द जैन लेखकों के संस्कृत ग्रन्थों में बहुधा पाया जाता है और प्राकृत से संस्कृत प्रयोग बना है । पंक्ति १७ में प्राकृत शैली से आनन्द श्रावक का नाम ' आणंद ' लिखा है और पंक्ति ११ में 'उत्सुकौ' के स्थान में उच्छुकौ ' शब्द प्रतीत होता है । ७. यह प्रशस्ति जहांगीर बादशाह के समय की है। विक्रम सं० १६७१ में आगरा निवासी कुंरपाल सोनपाल नाम के दो भाइयों ने वहां श्री श्रेयांस नाथ जी का मन्दिर बनवाया था जिस की प्रतिष्ठा अंचल गच्छ के आचार्य श्री कल्याणसागर जी ने कराई थी । उस समय यह प्रशस्ति लिखी गई । मन्दिर की प्रतिष्ठा के साथ ४५० अन्य प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा भी हुई थी जिन में से ६, ७ प्रतिमाओं के लेख बाबू पूर्णचन्द नाहर ने अपने " जैन लेख संग्रह में दिये हैं । (देखिये उक्त पुस्तक, लेख नं० ३०७ - ३१२, ४३३ ) । इन लेखों से कुंरपाल सोनपाल के पूर्वजों का कुछ हाल मालूम नहीं होता लेकिन प्रशस्ति में उन की वंशावलि इस प्रकार दी है । "" 1 डाक्टर वेबर ( Weber ) इसको ग्र ( ग्र) पढते हैं जैसा कि बर्लिन नगर के जैन पुस्तकों की सूचि के पृष्ट ५७६ पर आए pograla. शब्द से स्पष्ट प्रतीत होता हैं, वास्तव में यह शब्द पोग्गल ( Poggla. ) हैं । इसी प्रकार पृष्ठ ५२५ पर मियग्गाम को miyagrama. ( मियग्राम ) लिखा हैं। Weber's datalogue of Crakrit Mss in the Royal Lidrary at Berlin.
SR No.542003
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1923
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size20 MB
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