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________________ अंक १] प्रो. ल्युमन अने आवश्यकसूत्र यदेजति यन्नैजति यद्रे यद्वान्तके। यदन्तरस्य सर्वस्य यदु सवस्यास्य बाह्यतः ॥१२ -वाजसनेयी संहिता ४०,५. २,५० (१५९८).१६ [ तथा ] श्रुतौ [ अपि ] उक्तं अस्तमिते आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते शान्तेऽग्नौ शान्तायां . वाचि किंज्योतिरेवायं पुरुषः ? 'आत्मज्योतिः सम्राडिति होवाच । -यू. आ. उप. ४, ३, ६, आमांना केटलांक वाक्यो ए ज उपनिषद्ना ४.३. २ मा पण आवे छे. भाष्यनी मूळ गाथा २, ५० मां पण आ अवतरण अनुवादित छे. २,९५ (१६४३). (स सर्वविद् यस्यैषा महिमा भुवि दिव्ये । ब्रह्मपरे शेष व्योम्न्यात्मा सुप्रतिष्ठितः ॥' -मुण्डकोपनिषद्, २, २, . पूर्वार्ध. तमक्षरं वेदयतेऽथ यस्तु स सर्वज्ञः सर्ववित् सर्वमेवाविवेश ॥ १४ -प्रश्नोपनिषद्, ४, ११. उत्तरार्ध. एकया पूर्णाहुत्या सर्वान् कामानवाप्नोति । १५ । -सरखावो, तै• ब्रा० ३, ८, १०,५. बदले घणा भागे जूना लहिआओ प्र' आवा रूपमा लखता. ए रूपने बराबर न समजवाथी प्रो. वेबरे बर्लिन लाई.. ब्रेरीना म्येनुस्क्रिप्टस् केटलॉगमा 'समग्गय' जेवी शब्दोनी रोमन जोडणी: 'Samugrya' आवी खोटी करी घणो घोटाळो उभो कयों छे. एवी जरीते बीजा विद्वानोना हाथे पण भ्रम थई शके ते स्पष्ट छे. पण अमने जी रीते ए नेध विचारणीय लागे छ; अने ते ए छे के आवश्यकटीका की हरिभवसरिने वैदिक साहित्य के तेना संकेतथी अपरिचित मानी शकाय तेम नथी. कारण के ते पोते जैन दीक्षा लीधा पहेलो जातिए ब्राह्मण अने विद्याए सर्वशास्त्र निष्णात हता. ए सुविचत छे. अने जो ते वात बाजुए मूकिए तो पण तेमणे जुदा जदा दर्शनो अने मतोना विषयमा जे अनेकानेक अपूर्व अने गहन अन्योलख्या छ तेम ज सांख्य,वेदांत, न्याय, मीमांसा आदि वैदिक संप्रदायोनी जे खूब सूक्ष्म रीते आलोचना-प्रत्यालोचना करी छे ते जोता स्पष्ट जणाय छे के तेओ वेद, ब्राह्मण, सूत्र, स्मृति अने उपनिषदोना घणा ऊंडा अभ्यासी अने ज्ञाता हता. तेथी तेमना जेवा विद्वान् आवा आबाल-प्रसिद्ध अनस्वारना चिन्हने न समजी शके अने तेने काइं बीजं ज कल्पी ले, ए मानवें बिल्कुल अशक्य छे. हरिभवसरि आ शब्दने 'नि' कहे छ भने एने वाक्यालंकार रूपे उक्त वाक्यमां वपराएलो लखे छे.- मिमिति वाक्यालंकारे-आवश्यकसूत्र, आ. स. पू. २४४ ) वर्तमान उपनिषदोमां पण पाठ-भेद अने पाठ-फेर क्या ओछ पएला छे जेथी आपणे जैन विद्वानोना आबा पाठान्तरोने एकदम भ्रमोत्पन्न कही शकिए. १२. ईशावास्योपनिषदा पण आ श्रुति आवेली छे अने त्या 'यद्' ना ठेकाणे सर्वत्र 'तत्' पाठ मळे छे. १३. उपलब्ध उपनिषद्मा वर्तमान पाठ आ प्रमाणे छे: -- यः सर्वज्ञः सर्ववियस्यैष महिमा भुवि । दिव्ये ब्रह्मपुरे वेष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठितः ॥ १४. वर्तमान पाठ आ प्रमाणे तदक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य स सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेशेति । -हरिभद्रसूरिए शास्त्रवार्तासमुच्चय, ६२४, मां पण आ अवतरणो सूचवेल छे ( मुद्रित पृ० ३४५ ). १५. हरिभद्रसुरिए पोतानी ललितविस्तरा नामे चैत्यवन्दनवृत्ति ५-११ (मुद्रित पृ. ११) मां पण आ अवतरण उद्धरेल छे.-तैत्तिरीय ब्राह्मण ३,८,१०,५, मां भामे मळती हकीकतनो आ प्रमाणे उल्लेख आवेळो -
SR No.542003
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1923
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size20 MB
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