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________________ __ [खंड २ ४०] जैन साहित्य संशोधक ग्रन्थकर्ताका परिचय । गुरुपरम्परा। जैसा कि पहले कहा जा चुका है नीतिवाक्यामृतके कर्ता श्रीसोमदेवसूरि हैं। वे देवसंघके आचार्य थे। दिगम्बरसम्प्रदायके सुप्रसिद्ध चार संघों से यह एक है । मंगराज कविके कथनानुसार यह संघ सुप्रसिद्ध तार्किक भट्टाकलंकदेखके बाद स्थापित हुआ था । अकलंकदेवका समय विक्रमकी ९ वीं शताब्दिका प्रथम पाद है।* सोमदेवके गुरुका नाम नेमिदेव और दादागुरुका नाम यशोदेव था। यथाः श्रीमानस्ति स देवसंघतिलको देवो यशःपूर्वकः, शिष्यस्तस्य बभूव सद्गुणानिधिः श्रीनेमिदेवाल्यः । तस्याश्चर्यतपः स्थितस्त्रिनवतेजेंतुर्महावादिनां, शिष्योऽभूदिह सोमदेव इति यस्तस्यैष काव्यक्रमः॥ --यशस्तिलकचम्पू । नातिवाक्यामृतकी गद्यप्रशस्तिसे भी यह मालूम होता है कि वे नेमिदेवके शिष्य थे । साथ ही उसमें यह भी लिखा है कि वे महेन्द्रदेव भट्टारकके अनुज थे । इन तीनों महात्माओं-यशोदेव, मिदेव और महेन्द्रदेवके सम्बन्धमें हमें और कोई भी बात मालूम नहीं है । न तो इनकी कोई रचना ही उपलब्ध है और न अन्य किसी ग्रन्थादिमें इनका कोई उल्लेख ही मिला है। इनके पूर्वके आचायोंके विषयमें भी कुछ ज्ञात नहीं है। सोमदेवसूरिकी शिष्यपरम्परा भी अज्ञात है । यशस्तिलकके टीकाकार श्रीश्रुतसागरसूरिने एक जगह लिखा है कि वादिराज और वादीमसिंह, दोनों ही सोमदेवके शिष्य थेx; परन्तु इसके लिए उन्होंने जो प्रमाण दिया है वह किस प्रन्थका है. इसके जाननेका कोई साधन नहीं है । यशस्तिलककी रचना शकसंवत् ८८१ ( विक्रम १०१६ ) मैं समाप्त हुई है और वादिराजने अपना पार्श्वनाथचरित शकसंवत् ९४७ (वि० १०८२) में पूर्ण किया है। अर्थात् दोनोंके बीचमें ६६ वर्षका अन्तर है । ऐसी दशामें उनका गुरु शिष्यका नाता होना दुर्घट है । इसके सिवाय बादिराजके गुरुका नाम मतिसागर था और वे द्रविड संघके आचार्य थे। अब रहे वादीभसिंह, सो उनके गुरुका नाम पुष्पषण था और पुष्पषण अकलंकदेवके गुरुभाई थे, इसलिए उनका समय सोमदेवसे बहुत पहले जा पड़ता है। एसी अवस्थामें वादिराज और वादीभसिंहको सोमदेवका शिष्य नहीं माना जा सकता। प्रन्थकर्ताके गुरु बड़े भारी तार्किक थे। उन्होंने ९३ वादियों को पराजित करके विजयकीर्ति प्राप्त की थी। इसी तरह महेन्द्रदेव भट्टारक भी दिग्विजयी विद्वान् थे। उनका 'बादीन्द्रकालानल' उपपद ही इस बातकी घोषणा करता है। तार्किक सोमदेव। श्रीसोमदेवसरि भी अपने गुरु और अनुजके सदृश बड़े भारी तार्किक विद्वान् थे। वे इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें कहते हैं:अस्पेऽनुग्रहधीः समे सुजनता मान्ये महानादरः, सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्रचरिते श्रीसोमदेवे माया या स्पर्धेत तथापि दर्पडढताप्रौढिप्रगाढाग्रह-स्तस्यास्त्रर्वितगर्वपर्वतपविर्मद्वाक्कृतान्तायते ॥ सारांश यह कि मैं छोटोंके साथ अनुग्रह, बराबरीवालों के साथ सुजनता और बड़ों के साथ महान आदरका करता है। इस विषयमें मेरा चरित्र बहुत ही उदार है। परन्तु जो मुझे ऐंठ दिखाता है. उसके लिए गर्मी पर्वतको विध्वंस करनेवाले मेरे वज्र-वचन कालस्वरूप हो जाते हैं। •देखो जैनहितैषी भाग ११, अंक -८॥ x"उक्तं च वादिराजेन महाकविना-...... ....स वादिराजोऽपि श्रीसोमदेवाचार्यस्य शिष्यः-- बादीभासिंहोऽपि मदीयाशिष्यः श्रीवादिराजोऽपि मदीयशिष्यः' इत्युक्तत्वाच ।" न्यशस्तिलकटीका आ. २, पृ० १६५ । + यशस्तिलकके ऊपर उड़त हुए श्लोकमें उन महावादियोंकी संख्या-जिनको श्रीनमिदेवने पराजित किया थातिरानवे बतलाई है। परन्तु नीतिवाक्यामृतकी गयप्रशस्तिमें पचपन है । मालूम नहीं, इसका क्या कारण है।
SR No.542003
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1923
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size20 MB
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