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________________ अंक 1] महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण जा विरइय जयवंदाहिं आसिमुणिंदाहिं सा कह केम समाणमि ॥ ३६ ॥ अकलंक कविल कर्णयर मयाई, दिय सुगय पुरंदर णय सयाई । दन्तिलविसाहि लुद्धारियाई, ण णायई भरह वियारियाई ॥ ३७॥ गउ पीयइ पायजेलिजलाई, अइहोस पुराणई णिम्मलाई। भावाहिउ भारह-भासि वासु, कोहलु कोमलगिरु कालिदासु ॥ ३८ ॥ चउमुहं सयंभु सिरिहरिसु दोणु, णालोइड का इसाणु वाणु । गउ धाउ ण लिंगुण गुणसमासु, मउ कम्मु करणु किरिया विसेसु ॥३६॥ णउ संधि ण कारउ पयसमत्ति, णउ जाणिय मई एक्कवि विहत्ति । गउ वुज्झिउपायम सहधामु, सिद्धंतु धवल जयधवल णामु॥४०॥ पडुरुद्दडु जड णिण्णासयारु, परियच्छिड णालंकारसारु। पिंगल पत्थारु समुहे पडिउ, ण कयाइ महारर चित्ते चडिउ ॥४१ ।। जैसधु सिंधु कल्लोलसित्तु, ण कलाकोसले हियवउ णिहित्तु । हउं वप्प निरक्खरु कुक्तिमुक्खु, णरवेसे हिंडमि चम्मरुक्खु ॥ ४२ ॥ श्रा दुग्गमु होइ महापुराणु, कुंडपण मवई को जलविहाणु । अमरासुरगुरुयणमणहरोहि, जं आसि कयउ मुणिगणहरोहिं ॥ ४३ ॥ तं हां कहमि भत्तीभरण, किं णहे ण ममिज्जा महुअरेण । पड विणउ पयासिउ सज्जणाहं, मुहे मसि कुच्चउ कउ दुज्जणाहं ॥४४॥ हूं, ऐसी दशा में जिस चरित को बड़े बड़े जगद्वन्ध मुनियों ने रचा है उसे मैं कैसे बना सकूँगा ? ॥ ३६ ॥ मैं अकलंक ( जैन दार्शनिक ), कपिल (सांख्यकार ), कणचर (कणाद) के मतों का ज्ञाता नहीं हूं, दिय (ब्राह्मण), सुगत (बौद्ध), पुरन्दर ( चार्वाक ), आदि सैकडों नयों को, दन्तिल, विशाख,लुब्ध (प्राकृलरक्षणकर्ता ) आदि को नहीं जानता । भरत के नाट्यशास्त्र से मैं परिचित नहीं ॥ ३७॥ पतंजलि ( भाष्यकार ) के और इतिहास पुराणों के निर्मल जल को मैंने पिया नहीं, भावों के अधिकारी भारतभाषी व्यास, कोमलवाणीवाले कालिदास, चतुर्मुख वयंभु कवि, श्रीहर्ष, द्रोण, कवीश्वर बाण का अवलोकन नहीं किया । धातु, लिंग, गुण, समास, कर्म, करण, क्रियाविशेषण, सन्धि, पदसमास, विभक्ति इन सब में से मैं कुछ भी नहीं जानता। आगम शब्दों के स्थानभूत धवल और जयधवल सिद्धान्त भी मैने नहीं पढ़े ॥ ३८-४० ॥ चतुर रुद्रट का अलंकार शास्त्र भी मुझे परिज्ञात नहीं. पिंगल प्रस्तार आदि भी कभी मेरे चित्तपर नहीं चढ़े ॥४१॥ यशः चिन्हकवि के काव्यसिन्धु की कल्लोलों से मैं कभी सिक्त नहीं हुआ । कलाकौशल से मी में कोरा हूं। इस तरह मैं बेचारा निरक्षर मूर्ख हूं, मनुष्य के वेष में पशु के तुल्य घूमता फिरता हूं ॥ ४२ ॥ महापुराण बहुत ही दुर्गम है। समुद्र कहीं एक कूडे में भरा जा सकता है ? फिर भी जिसे सुर असुरों के मनको हरनेवाले मुनि गणधरों ने कहा था, उसे अब मैं भक्ति भाववश करता हूं। भौरा छोटा होनेपर भी क्या विशाल आकाश में भ्रमण नहीं करता है ? अब मैं सज्जनों से यही विनती करता हूं कि आप दुर्जनों के मुंह पर स्याही की ग्रूची फेर दें ॥४४॥ ८ सांख्यमते मूलकारः।९ वैशेषिकमते मूलकारः। १० चार्वाकमते प्रन्यकारः। ११ पाणिनिव्याकरणभाष्यं ( पतंजलि)। १२ एकपुरुषाश्रित कथा । १३ भारतभाषी व्यास । १४ श्रीहर्ष । १५ कवि ईशानः वाणः । १६ परिज्ञातः। १७ प्राकृत लक्षण कर्ता।
SR No.542003
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1923
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size20 MB
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