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________________ ७० जैन साहित्य संशोधक परिशिष्ट नं० २ उत्तर पुराण के मंगलाचरण के बाद का अंश । ) मणे जापण किंपि श्रमणोज्जे, कहवयर दिन केण विकज्जे । शिव्विण्णउष्टि जाम महाकर, ता सिवणंतरि पत्त सरासई ॥ १ ॥ भराई भडारी सुहय अहं, पणवह अरुहं सुहयरुमेदं । इय सुिखेवि विडेंड कहबरु, सयलकलाय ग छण ससहरु ॥ २ ॥ दिसउ सिंहाला किंपि ग पेच्छा, जा विंभियमा गियघरे अच्छइ । ताम पराइ लयवंतै, मडलिय, करवलेल पणवते ॥ ३ ॥ दस दिस पसरिय जसत करें, वरमदेमसवंसराईचंदें । छणसलिमंडल सहि बयर्षे, राव कुवलयदलदीहरण्यर्णे ॥ ४ ॥ घता । खल संकुले काले कुसीलमा चिणड करेपिणु संवैरिय । वच्चंति विसुरण सुसुराणवहे जे सरासर उद्धरिय ॥ ५ ॥ देवियहवत जाएं, जयदुंदुहिलरगहिरणिणाएं । जिणवर समयणिहेलेणखंभे, दुत्थियमित्ते ववगयडंभे ॥ ६ ॥ परउवयरहारणिव्वहर्णे, विउसविदुर सयभय मिह । ते श्रहामिय पवरक्चरेंदें, तेरा विगेटवे भव्वे भरहे ॥ ७ ॥ वोल्लावि कह कव्वपिसल्लउ, किं तुडुं सचउ वप्पर्गेल्लिउ । किं दीसहि विच्छायउ दुम्मण, गंघकरणे किं ण करहि शियमणु ॥ ८ ॥ किं किउ काई विमई अवरोह, अवरु कोवि किं वि सुम्माहउ । [ खण्ड २ कुछ दिनों के बाद मन में कुछ बुरा मालूम हुआ । जब महाकवि निर्विण्ण हो उठा तब सरस्वती देवी ने स्वप्न में दर्शन दिया ॥ १ ॥ भट्टरिका सरस्वती बोली कि पुण्यवृक्ष के लिए मेघतुल्य और जन्ममरणरूप रोगों के नाशक अरहंत भगवान को प्रणाम करो । यह सुनकर तत्काल ही सकलकलाओं के आकर कविवर जाग उठे और चारों ओर देखने लगे परन्तु कुछ भी दिखलाई नहीं दिया । उन्हें बढा विस्मय हुआ । वे अपने घर ही थे कि इतने में नयवन्त भरत मंत्री प्रणाम करते हुए वहां आये, जिन का यश दशों दिशाओं में फैल रहा है, जो श्रेष्ठ महामात्यवंशरूप आकाश के चन्द्रमा है, जिन का मुख चन्द्रमण्डल के समान और नेत्र नवीन कमलदलों के समान हैं, ॥ २-४ ॥ जिन्हों ने इस खलजन संकुल काल में विनय करके शून्यपथ में जाती हुई सरस्वती को रोक रक्खा और उस का उद्धार किया ॥ ५ ॥ जो ऐयण पिता और देवी माता के पुत्र हैं, जो जिनशासनरूप महल के खंभ हैं, दुस्थितों के मित्र हैं, दंभरहित हैं, परोपकार के भार को उठानेवाले हैं, विद्वानां को कष्ट पहुँचानेवाले सैकडों भयों को दूर करनेवाले हैं, तेज के धाम हैं, गर्वरहित हैं और भव्य हैं। ॥ ६-७ ॥ उन्हों ने काव्यराक्षस पुष्पदन्त से कहा कि भैया, क्या तुम सचमुच ही पागल हो गये हो ? तुम उन्मना और छायाहृनिसे क्यों दिखते हो ? प्रन्थरचना करने में तुम्हारा मन क्यों नहीं लगता ? ॥ ८ ॥ क्या मुझ से तुम्हारा १ सरस्वती । ३ सुष्ठु हतो रुजां रोगाणामोघः संघातो येन स तं । ३ पुण्यतरुमेषं । ४ गतनिद्रो जागरितः । ५ आकार | ६ पश्यति । ७ भरतमंत्रिणेति सम्बन्धः श्रीपुष्पदन्तः आलापितः । ८ वन्दो मेघः । ९ महामात्र महत्तर । १० चन्द्रेण ११ संवृता रक्षिता: सरस्वती । १२ एयण पिता देवी माता तयोः पुत्रेण भरतेन । १३ प्रासाद | १४ मयि पुष्पदन्ते उपकारभावनिर्वाहकेन । १५ निर्मथकेन । १६ रथेन विमानेन । १७ गर्व रहितेन । १८ कोमलालापे । १९ अपराधः । २९ अन्यकाव्यकरणवांछः किं त्वं ।
SR No.542003
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1923
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size20 MB
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