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________________ ७४ जैन साहित्य संशोधक पडिवरण पडिपालण सूरहो, होउ संति भरहहो गिरिधीरहो । संति बहु गुणगुणवंतां, संतरं दयवंतहं भयवंतहं ॥ १५ ॥ होउ संति बहु गुणहि महल्लहो, तासु जे पुत्तहो सिरि देवलहो । एउं महापुराणु रयणुञ्जले, जे पयडेवउ सयले धरायले ॥ १६ ॥ चविह दाणुजय कयचित्तहो, भरह परमसन्भाव सुमित्तहो । भोगलहो जयजसविच्छुरियहो, होउ संति णिरु णिरुवमचरियहो ॥ १७ ॥ होउ संतिष्णहो गुणवंतहो, कुलवच्छल सामत्थ- महंतहो । श्चिमेव पालिय जिणधम्महं, होउ संति सोहण गुणवम्महं ॥ १८ ॥ होउ संति सुश्रणहो दंगाइयहो, होउ संति संतही संतइय हो । जिणपयपणमण वियलियगव्वहं, होउ संति णीसेसहं भव्वहं ॥ १६ ॥ घत्ता । इय दिव्वहो कव्वहो तराउं फलु लहुं जिराणाहु-पयच्छउ । सिरि भरहहो अरुहहो जहिं गमणु पुप्फयंतु तर्हि गच्छउ ॥ २० ॥ सिद्धिविलासिणि मणहरदूपं, मुद्धाएवी तणुसंभूएं । गिद्धणसधणलोयसमचित्ते, सव्वजीवणिक्कारणमितें ॥ २१ ॥ सहसलिल परिवड्ढियसोते, केसवपुत्ते कासवगुतें । विमल सरासर जणियविलासें, सुरणभवण- देवउलणिवासे ॥ २२ ॥ कलिमल पवल पडल परिचते, णिग्धरेण निप्पुत्तकलप्ते । इवावीतलाय सरण्हाणे, जर चीवर वक्कल परिहारों ॥ २३ ॥ धीरें धूल धूसरियंगे, दूरयरुज्भिय दुज्जणसंगें । महि यणयले करपंगुरणे, मग्गिय पंडियपंडियमरणें ॥ २४ ॥ मण्णखेडपुरवरे शिवसंते, मणे श्ररहंतु देउ भायंते । भरहमण्णणिर्जे रायणिलएं, कव्वपवंधजणियजणपुलपं ॥ २५ ॥ पुण्फयंत कयणा धुयपंकें, जइ श्रहिमाणमरुणामके । खण्ड २ पालन में शूर और पर्वत के समान धीर भरत (मंत्री) को शान्ति प्राप्त हो । गुणवन्त, दयावन्त, ज्ञानवन्त सज्ज - नों को शान्ति प्राप्त हो ॥ १५ ॥ उस के ( भरत के ? ) पुत्र अतिशय गुणवन्त श्री देवल को शान्ति मिले जिस ने कि इस महापुराण को रत्नोज्ज्वल धरातल पर फैलाया और जिस का चित्त चारों प्रकार के दान करने में उद्यत रहता है तथा जो भरत के लिए परम सद्भावयुक्त मित्र के तुल्य है । जिस का यश संसार में फैल रहा है और जिस का चरित्र उपमारहित है, उस भोगल को शान्ति प्राप्त हो । १६-१७ ॥ कुलवत्सल, समर्थ, गुणवन्त और महन्त गण को शान्ति प्राप्त हो । निरन्तर जैन धर्म का पालन करनेवाले सोहण और गुणवर्म को शान्ति मिले ॥ १८ ॥ सुजन दंगइय और सन्त संतइय को शान्ति प्राप्त हो । जिनभगवान के चरणों में मस्तक झुकानेवाले और गर्वरहित अन्य सब भव्यजनों को 1 भी शान्ति मिले ॥ १९॥ इस दिव्य काव्य की रचना का फल जिननाथ की कृपा से मैं यह चाहता हूं कि श्री भरत और अर्हत का गमन जहाँ हो पुष्पदन्त भी वहीं जावे ॥ २० ॥ सिद्धिरूपी विलासिनी के मनोहर दूत, मुग्धादेवी के पुत्र, निर्धनों और सघनों को बराबर समझनेवाले, सर्वजीवों के निष्कारण मित्र, शब्द खलिल से बंढा है काव्य स्रोत जिन का, केशव के पुत्र, काश्यप गोत्रीय, विमल सरस्वती से उत्पन्न विलासोंवाले, शून्य भवन और देव कुलों में रहनेवाले, कलिकाल के मत के प्रबल पटलों से रहित, बिना घरद्वार के पुत्रकलत्रहीन, नदी, वापिका और सरोवर में स्नान करनेवाले, फटे कपड़े ओर वल्कल पहननेवाले, धूलिधूसरित अंग, दुर्जनों के संग से दूर रहनेवाले, जमीन पर सोनेवाले, अपने हाथों को ही ओढनेवाले, पण्डितपण्डितमरण की प्रतीक्षा करनेवाले, मान्यखेट पुर में निवास करनेवाले, मन में अरहन्त देवका ध्यान करनेवाले, भरतमंत्रीद्वारा सम्मानित, नीति के निलय, अपने काव्यरचना से लोगों को पुलकित करनेवाले, पापरूप कीचड़ जिन क
SR No.542003
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1923
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size20 MB
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