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________________ अंक १ ] जैनशास्त्रमें योगपर यहां तक भार दिया गया है कि पहले तो वह मुमुक्षुओं को आत्मचिंतन के सिवाय दूसरे काय में प्रवृत्ति करनेकी संमति ही नहीं देता, और अनिवार्य रूपसे प्रवृत्ति करनी आवश्यक हो तो वह निवृत्तिमम प्रवृत्ति करनेको कहता है । इसी निवृत्तिमय प्रवृत्तिका नाम उसमें अष्टप्रवचनमाता 1 है। साधुजीवनकी दैनिक और रात्रिक चर्या में तीसरे प्रहरके सिवाय अन्य तीनों प्रहरोंमें मुख्यतया स्वाध्याय और ध्यान करनेको ही कहा गया है 2 । योगदर्शन [ ११ यह बात भूलनी न चाहिये कि जैन आगमोंमें योग अर्थमें प्रधानतया ध्यानशब्द प्रयुक्त है। ध्यानके लक्षण, भेद प्रभेद, आलम्बन आदिका विस्तृत वर्णन अनेक जैन आगमों में है 3 । आगमके बाद नियुक्तिका नंबर है 4 । उसमें भी आगमगत ध्यानका ही स्पष्टीकरण है । वाचक उमास्वाति कृत तत्त्वार्थसूत्रमें 5 भी ध्यानका वर्णन है, पर उसमें आगम और नियुक्तिकी अपेक्षा कोई अधिक बात नहीं है । जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणका ध्यानशतक 6 आगमादि उक्त ग्रन्थोंमें वर्णित ध्यानका स्पष्टीकरण मात्र है। यहां तकके योगविषयक जैन विचारोंमें आगमोक्त वर्णनकी शैली ही प्रधान रही है । पर इस शैलीको श्रीमान् हरिभद्रसूरिने एकदम बदलकर तत्कालिन परिस्थिति व लोकरुचीके अनुसार नवीन परिभाषा दे कर और वर्णनशैली अपूर्वसी बनाकर जैन योग - साहित्यमें नया युग उपस्थित किया । इसके सबूतमें उनके बनाये हुए योगबिन्दु, योगदृष्टीसमुच्चय, योगविंशिका, योगशतक 7, षोडशक ये ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इन ग्रन्थोंमें उन्होंने सिर्फ जैन-मार्गानुसार योगका वर्णन करके ही संतोष नहीं माना है, किन्तु पातंजल योगसूत्रमें वर्णित योगप्रक्रिया और उसकी खास परिभाषाओंके साथ जैन संकेतोंका मिलान भी किया है8 | योगदृष्टिसमुच्चयमें योगकी आठ दृष्टियोंका9 जो वर्णन है, वह सारे योगसाहित्य में एक नवीन दिशा है । श्रीमान् हरिभद्रसूरिके योगविषयक ग्रन्थ उनकी योगाभिरुचि और योगविषयक व्यापक बुद्धिके खासे नमुने हैं । इसके बाद श्रीमान् हेमचन्द्रसूरिकृत योगशास्त्रका नंबर आता है । उसमें पातञ्जल योगशास्त्र निर्द्दिष्ट आठ योगांगोंके क्रमसे साधु और गृहस्थ जीवनकी आचार प्रक्रियाका जैन शैलीके अनुसार वर्णन है, जिसमें आसन तथा 1 देखो उत्तराध्ययन अ० २४ । 2 दिवसस्स चउरो भाए, कुज्जा भिक्खु विअक्खणो । तओ उत्तरगुणे कुजा, दिणभागेसु चउसु वि ॥ ११ ॥ पढमं पोरिसि सज्झायं, बिइअं झाणं झिआयह । तइआए गोअरकालं, पुणो चउत्थिए सज्झायं ॥ १२ ॥ रत्तिं पि चउरो भाए, भिक्खु कुजा विअक्स्वणो । तओ उत्तरगुणे कुजा, राईभागेसु चउसु वि ॥ १७ ॥ पढमं पोरिसि सज्झायं, बिइअं झाणं झिआयइ । तइआए निद्दमोक्खं तु, चउत्थिए भुजो वि सज्झायं ॥ १८ ॥ - उत्तराध्ययन अ० २६ । 3 देखो स्थानाङ्ग अ० ४ उद्देश १ । समवायाङ्ग स० ४ । भगवती शतक २५ - उद्देश ७ | उत्तराध्ययन अ० ३०, गा० ३५ | 4 देखो आवश्यक नियुक्ति कायोत्सर्ग अध्ययन गा. १४६२ - १४८६ । 5 देखो अ० ९ सू० २७ से आगे । 6 देखो हारिभद्रीय आवश्यक वृत्ति प्रतिक्रमणाध्ययन पृ० ५८१ 7 यह ग्रन्थ जैन ग्रन्थावलिमें उल्लिखित है, पृ० ११३ । 8 समाधिरेष एवान्यैः संप्रज्ञातोऽभिधीयते । सम्यक्प्रकर्शरूपेण वृत्यर्थज्ञानतस्तथा ॥ ४१८ ॥ असंप्रज्ञात एषोऽपि समाधिर्गीयते परैः । निरुद्धाशेषवृत्त्यादितत्स्वरूपानुवेधतः || ४२० ॥ इत्यादि, योगबिन्दु | 9 मित्रा तारा बला दिप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा । नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ॥ १३ ॥ इन आठ दृष्टियोंका स्वरूप, दृष्टान्त आदि विषय, योगजिज्ञासुओंके लिये देखने योग्य है । इसी विषपर यशोविजयजीने २१, २२, २३, २४ ये चार द्वात्रिंशिकायें लिखी हैं। साथ ही उन्होंने संस्कृत न जाननेवालोंके हितार्थ आठ दृष्टियोंकी सज्झाय भी गुजराती भाषा में बनाई है ।
SR No.542003
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1923
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size20 MB
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