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________________ ५२] जैन साहित्य संशोधक [संर२ उसी प्रकार और धर्मोंसे भी नहीं रहना चाहिए था। परंतु हम देखते हैं कि इसका वर्णाचार और आश्रमाचारकी व्यवस्थाके लिए वैदिक साहित्यकी ओर बहुत अधिक झुकाव है । इस ग्रन्थके विद्यावृद्ध, आन्वीक्षिकी और त्रयी समुद्देशोंको अच्छी तरह पढ़नेसे पाठक हमारे अभिप्रायको अच्छी तरह समझ जावेंगे । जैनधर्मके मर्मज्ञ विद्वानोंको चाहिए कि वे इस प्रश्नका विचारपूर्वक समाधान करें कि एक जनाचार्यको कृतिमें आन्वीक्षिकी और त्रयीको इतनी अधिक प्रधानता क्यों दी गई है। यशस्तिलकके नीचे लिखे पद्योंको भी इस प्रश्नका उत्तर सोचते समय सामने रख लेना चाहिए: द्वौ हि धर्मा गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः। - - लोकाश्रयो भवेदाद्यः परस्यादागमाश्रयः॥ जातयोऽनादयः सर्वास्तक्रियापि तथाविधा। श्रुतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र न क्षतिः॥ स्वजात्यैव विशुद्धानां वर्णानामिह रत्नवत् । तक्रियाविनियोगाय जैनागमाविधिः परम् ॥ यद्भवभ्रान्तिनिर्मुक्तिहेतुधीस्तत्र दुलेभा । संसारव्यवहारे तु स्वतःसिद्ध वृथागमः ॥ तथा च-- सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः। यत्र सम्यक्त्वहानिन यत्र न व्रतदूषणम् ॥ कहीं श्रीसोमदेवसूरि वर्णाश्रमव्यवस्था और तत्सम्बन्धी वैदिक साहित्यको लौकिक धर्म तो नहीं समझते हैं ? और इसी लिए तो यह नहीं कहते हैं कि यदि इस विषय में श्रुति (वेद) और शास्त्रान्तर (स्मृतिया) प्रमाण मान जायें तो हमारी क्या हानि है ? राजनीति भी तो लौकिक शास्त्र ही है। हमको आशा है कि विद्वज्जन इस प्रश्नको ऐसा ही न पड़ा रहने देंगे। मुद्रण-परिचय। अबसे कोई २५ वर्ष पहले बम्बईकी मेसर्स गोपाल नारायण कम्पनीने इस ग्रन्थको एक संक्षिप्त व्याख्याके साथ प्रकाशित किया था और लगभग उसी समय विद्याविलासी बडोदानरेशने इसके मराठी और गुजराती अनुवाद प्रकाशित कराये थे । उक्त तीनों संस्करणोंको देखकर-जिन दिनों में स्वर्गीय स्याद्वादवारिधि पं० गोपालदासजीकी अधांनतामें जैनमित्रका सम्पादन करता था—मेरी इच्छा इसका हिन्दी अनुवाद करनेकी हुई और तदनुसार मैंने इसके कई समुद्देशोका अनुवाद जैनमित्रमें प्रकाशित भी किया; परन्तु इसके आन्वीक्षिकी और त्रयां आदि समुद्देशोंका जैनधर्मके साथ कोई सामजस्य न कर सकनेके कारण में अनुवादकार्यको अधूरा ही छोड़ कर इसकी संस्कृत टीकाको खोज करने लगा। तबसे, इतने दिनोंके बाद, यह टीका प्राप्त हुई और अब यह माणिकचन्द्रग्रन्थमालाके द्वारा प्रकाशित की जा रही है। खेद है कि इसके मध्यके २५-२६ पत्र गायब हैं और वे खोज करनेपर भी नहीं मिल । इसके सिवाय इसकी कोई दूसरी प्रति भी न मिल सकी और इस कारण इसका संशोधन जैसा चाहिए वैसा न कराया जा सका। दृष्टिदोष और अनवधानतासे भी बहुतसी अशुद्धियाँ रह गई हैं। फिर भी हमें आशा है कि मूलग्रन्थके समझनेमें इस टीकासे काफी सहायता मिलेगी और इस दृष्टिसे इस अपूर्ण और अशुद्धरूपमें भी इसका प्रकाशित करना सार्थक होगा। हस्तलिखित प्रतिका इतिहास। पहले जैनसमाजमें शास्त्रदान करनेकी प्रथा विशेषतासे प्रचलित थी। अनेक धनी मानी गृहस्थ ग्रन्थ लिखा लिखाकर जैनसाधुओं और विद्वानोंको दान किया करते थे और इस पुण्यकृत्यसे अपने ज्ञानावरणीय कर्मका निवारण करते थे। बहुतोंने तो इस कार्यके लिए लेखनशालायें ही खोल रक्खी थी जिनमें निरन्तर प्राचीन अवाचीन ग्रन्थोंकी प्रतियाँ होती रहती थीं। यही कारण है जो उस समय मुद्रणकला न रहने पर भी प्रन्योंका यथेष्ट प्रचार रहता था और ज्ञानका प्रकाश मन्द नहीं होने पाता था। स्त्रियोंका इस ओर और भी अधिक लक्ष्य था। हमने ऐसे पचासों हस्तलिखित ग्रन्थ देखे हैं जो धर्मप्राणा स्त्रियोंके द्वारा ही दान किये गये हैं।
SR No.542003
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1923
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size20 MB
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