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________________ जन साहित्य संशोधक [ खंड २: इस विषयकी शास्त्रीय मीमांसा करनेका उद्देश यह है कि हमें अपने पूर्वजोंकी तथा अपनी सभ्यताकी प्रकृति ठीक मालूम हो, और तद्द्वारा आर्यसंस्कृतिके एक अंशका थोडा, परः निश्चित रहस्य विदित हो। योगदर्शन यह सामासिक शब्द है । इसमें योग और दर्शन ये दो शब्द मौलिक हैं ।। योग शब्दका अर्थ--योग शब्द युज् धातु और घञ् प्रत्ययसे सिद्ध हुवा है ।' युज् धातु दो हैं । एकका अर्थ है जोडना और दूसरेका अर्थ है ममाधि2-मनःस्थिरता । सामान्य रीतिसे योगका अर्थ संबन्ध करना तथा मानसिक स्थिरता करना इतना ही है, परंतु प्रसंग व प्रकरणके अनुसार उसके अनेक अर्थ हो जानेसे वह बहुरूपी' बन जाता है । इसी बहुरूपिताके कारण लोकमान्यको अपने गीतारहस्यमें गीताका तात्पर्य दिखानेके लिये योगशब्दार्यनिर्णयकी विस्तृत भूमिका रचनी पडी है । परंतु योगदर्शनमें योग शब्दका अर्थ क्या है यह बतलानेके लिये उतनी गहराई में उतरनेकी कोई आवश्यकता नहीं है; क्यों कि योगदर्शनविषयक सभी ग्रन्थोंमें जहां कहीं योग शब्द आया है वहां उसका एक ही अर्थ है, और उस अर्थका स्पष्टीकरण उस उस ग्रन्थमें ग्रन्थकारने स्वयं ही कर दिया है । भगवान् पांजलिने अपने योगसूत्रमें4 चित्तवृति निरोधको ही योग कहा है, और उस ग्रन्थमें सर्वत्र योग शब्दका वही एक मात्र अर्थ विवक्षित है । श्रीमान् हरिभद्र सूरिने अपने योग विषयक सभी ग्रन्थामा मोक्ष प्राप्त कराने वाले. धर्मव्यापारको ही योग कहा है; और उनके उक्त सभी ग्रन्थों में योग शब्दका वहीं एक मात्र अर्थ विवक्षित है । चित्तवृत्तिनिरोध और मोक्षप्रापक धर्मव्यापार इन दो वाक्योंके अर्थमें स्थूल दृष्टिसे देखने पर बडी: भिन्नता मालूम हो ती हैं, पर सूक्ष्म दृष्टिसे देखने पर उनके अर्थकी अभिन्नता स्पष्ट मालूम हो जाती है । क्यों कि 'चित्तवृत्तिनिरोध' इस शब्दसे वही क्रिया या व्यापार विवक्षित है जो मोक्षके लिये अनुकूल हो और जिससे चित्तकी संसाराभिमुख वृत्तियां रुक जाती हों ।' मोक्षप्रापक. धर्मव्यापार' इस. शब्दसे भी वही क्रिया विवक्षित है । अत एव प्रस्तुत विषयमें योग शब्दका अर्थ स्वाभाविक समस्त आत्मशक्तियोंका पूर्ण विकास करानेवाली क्रिया अर्थात् आत्मोन्मुख चेष्टा इतना ही समजना चाहिये । योगविषयक वैदिक, जैन और बौद्ध ग्रन्थों में योग, ध्यान, समाधि ये शब्द बहुधा समानार्थक देखे जाते हैं । दर्श न शब्द का अर्थ-नेत्रजन्यज्ञान, निर्विकल्प (निराकार) बोध,8 श्रद्धा, मत10 आदि अनेक अर्थ दर्शन शब्दके देखे जाते हैं । पर प्रस्तुत विषयमें दर्शन शब्दका अर्थ मत यही एक विवक्षित है। योगके आविष्कारका श्रेय–जितने देश और जितनी जातियों के आध्यात्मिक महार पुरुषोंकी जीवनकथा तथा उनका साहित्य उपलब्ध है उसको देखनेवाला कोई भी यह नहीं कह सकता है कि आध्यात्मिक विकास अमुक देश और अमुक जातिकी ही बपौती है, क्यों कि सभी देश और सभी जातियों में न्यूनाधिक रूपसे आध्यात्मिक विकासवाले महात्माओंके पाये जानेके प्रमाण मिलते हैं11 । योगका संबन्ध आध्यात्मिक विकाससे है। अत एव यह स्पष्ट है कि १ युपी योगे,-७ गण हेमचंद्र धातुपाठ. २ युजिच् समाधौ,-४ गण हेमचंद्र धातुपाठ, ३ देखो पृष्ठ ५५ से ६०। ४ पा. १ सू. २-योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । ५ योगबिन्दु श्लोक ३१अध्यात्म भावनाऽऽध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षेण योजनाद्योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ॥ योगविशिका गाथा ॥१॥ ६ लोर्ड एवेबरीने जो शिक्षाकी पूर्ण व्याख्या की है वह इसी प्रकारकी है:- " Education is the harmonious developement of all our faculties.” ७ दृशं प्रेक्षणे-१ गण हेमचन्द्र धातुपाठ. ८ तत्त्वार्थ अध्याय २ सूत्र ६-श्लोक वार्तिक. ९ तत्त्वार्थ अध्याय १ सूत्र २. १० षड्दर्शन समुच्चय-श्लोक २-"दर्शनानि षडेवात्र" इत्यादि. ११ उदाहरणार्थ जरथोस्त, इसु, महम्मद आदि.
SR No.542003
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1923
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size20 MB
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