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________________ अक १ ] कुंरपाल सोमपाल प्रशस्ति [ २९ १२. अंत में मैं यह निवेदन करना चाहता हूं कि इस प्रशस्ति के संबंध में दो बातों की अधिक खोज आवश्यक है एक तो यह कि मुगल बादशाहों के इतिहास में कुं[ व ] पाल और सोनपाल या उन के पिता का नाम ढूंडना चाहिये, और दूसरी यह कि वैसाख सुदि २ को बृहस्पति और शनि क्योंकर हो सक्ते हैं; इस का समाधान करना चाहिये || [ - १३. मूर्तियों के लेख: जैन लेख संग्रहः पृष्ठ ७८, ७९, १०५ नं० २०७. सम्बत १६७१ आगरावास्तव्य ओसवाल ज्ञातीय लोढा गोत्रे गाणी वंसे सं० ऋषभदास भार्या रेष श्री तत्पुत्र संघराज सं० रूपचन्द चतुर्भुज सं० धनपालादि युते श्री मदंचलगच्छे पूज्य श्री ५ धर्ममूर्ति सूरि तत् पट्टे पूज्य श्री कल्याणसागर सूरीणामुपदेशेन विद्यमान श्री विसाल जिनबिंब प्रति .... नं० ३०८. संक्त १६७१ वर्षे ओसवाल ज्ञातीय लोढा गोत्रे गाणी वंसे साह क्रुरपाल 1 सं० सोनपाल प्रति० अंचलगच्छे श्री कल्याणसागर सूरीणामुपदेशेन वासुपूज्यबिंबं प्रतिष्ठापितं ॥ नं० ३०९. ॥ श्रीमत्संवत १६७१ वर्षे वैशाष सुदि ३ शनैौ आगरा वास्तव्यो सवाल ज्ञातीय लोढा गोत्रे गावंसे संघपति ऋषभदास भा० रेषश्री पुत्र सं० कुंरपाल सं० सोनपाल प्रवरौ स्वपितृ ऋषभदास पुन्यार्थ श्रीमदंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री पदमप्रभु जिनर्विबं प्रतिष्ठापितं सं० चागाकृतं ॥ नं० ३१०. श्रीमत्संवत १६७१ वर्षे वैशाष सुदि ३ शनौ श्री आगरावास्तव्य उप ज्ञातीय लोढा गोत्र सा० प्रेमन भार्या शक्तादे पुत्र सा० घेतसी लघुभ्राता सा० नेतसी सुतेन श्री - मदंचलगच्छे पूज्य श्री ५ कल्याणसागरसूरीणामुपदेशेन श्री वासपूज्यबिंबं प्रतिष्ठापितं सं० कुंरपाल सं० सोनपाल प्रतिष्ठितं । ब्यूलर - उक्त ( Epig. Ind. ) Jaina inscriptions from Satrunjaya, Nos. XXI, XXVII, और Cv. XXI यह लेख स० १-६७५ का है श्रीसिंहप्रभसूरीशाः सूरयोऽजितसिंहकाः । श्रीमद्देवेन्द्रसूरीशाः श्रीधर्मप्रभसूरयः ॥ ८ ॥ श्रीसिंहतिलकाव्हाश्च श्रीमहेन्द्रप्रभाभिधाः । श्रीमन्तो मेरुतुङ्गाख्या बभूवुः सूरयस्ततः ॥ ९ ॥ XXVII यह लेख सं० १६८३ का है तेभ्यः क्रमेण गुरवो जिनसिंहगोत्राः बभूवुरथ पूज्यतमा गणेशाः ॥ देवेन्द्रसिंहगुरवोऽखिललोकमान्याः धर्मप्रभा मुनिवरा विधिपक्षनाथाः ॥ ९ ॥ पूज्याश्च सिंहतिलकास्तदनु प्रभूत - भाग्या महेन्द्रविभवा गुरवो बभूवुः ॥ चक्रेश्वरी भगवती विहितप्रसादाः श्रीमेरुतुङ्गसूरो नरदेववन्द्याः ॥ १० ॥ CV यह लेख सं १९२१ का है । इस में आचार्य कल्याणसागर तक लेख नं XXVII के ही श्लोक उद्धृत किये हैं । इन लेखों की भाषा जैन संस्कृत है । 1 सिवाय लेख ४३३ के और सब जगह कुंर को कुंर या क्रूर पढा है । 2 प्रशस्ति में तथा मूर्ति के अन्य लेखों मे नेतसी ।
SR No.542003
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Samiti 1923
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Karyalay
Publication Year1923
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Sahitya Sanshodhak Samiti, & India
File Size20 MB
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