Book Title: Ashtapahud Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादक म० विनयसागर T$ girld -42 अष्टपाहुड-चयनिका ___- डॉ.कमलचन्द सोगाणी 司副司甸甸甸甸 劉劉 | Face 國 Jain Educanen international For Personal & Private Use on Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भारती पुष्प-42 अष्टपाहुड - चयनिका सम्पादक : डॉ. कमलचन्द सोगाणी प्रोफेसर, दर्शन विभाग मोहनलाल सुखाडिया विश्वविद्यालय ... उदयपुर (राजस्थाम) प्रकाशक... प्राकृत भारती अकादमी जयपुर For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : देवेन्द्रराज मेहता सचिव, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर पंचम संस्करण : 1998 मूल्य : 20.00 रुपए D © सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन प्राप्ति-स्थल : प्राकृत भारती अकादमी 3826, यति श्यामलालजी का उपाश्रय मोतीसिंह भोमियों का रास्ता जयपुर - 302003 (राजस्थान) मुद्रक : अनिता प्रिन्टर्स गोविन्द नगर (पूर्व), जयपुर-2 फोन : 47748, 631133 ASTAPAHUDA-CAYANIKA/Philosophy Kamal Chand Sogani/Udaipur/1987 . For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सन्मति पुस्तकालय के संस्थापक स्व. मास्टर मोतीलालजी संघी एवं भारतीय संस्कृति के विवेचक स्व. पं. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ क्रो सादर समर्पित For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पृष्ठ 1. प्रकाशकीय 2. प्रस्तावना 3. अष्टपाहुड चयनिका की गाथाएं एवं हिन्दी अनुवाद 4. संकेत - सूची 5. व्याकरणिक विश्लेषण 6. पाठ-सुधार 7. अष्टपाहुड चयनिका एवं अष्टपाहुड गाथा-क्रम 8. सहायक पुस्तकें एवं कोश 9. शुद्धिपत्र i-xxiv 2-35 36-37 38-65 66-67 68-70 71-72 73 For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्राचार्य कुन्दकुन्द जैन सैद्धान्तिक साहित्य एवं शौरसेनी प्राकृत के मूर्धन्य मनीषी हैं मोर अनेकान्त दृष्टि के प्रबल समर्थक/प्रचारक भी। इनकी निर्मित कृतियाँ-समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय और नियमसार-जैन दर्शन, कर्म-सिद्धान्त, अनेकान्तवाद और रत्नत्रयी का प्रमुखता से विश्लेषण करने वाली हैं। इनकी उक्त कृतियां शताब्दियों से समाहत और स्वाध्याय का अंग __इनकी एक और प्रसिद्ध कृति है-अठ्ठपाहुड अर्थात् अष्टप्राभृत । इसमें दर्शन, सूत्र, चारित्र, बोध, भाव, मोक्ष, लिंग और शील संज्ञक पाठ लघु कायिक पाहुडों का संग्रह है। इन कृतियों में प्राचार्य ने उक्त विषयों का संक्षेप शैली में बहुत सुन्दर प्रतिपादन किया है। इन पाठों की गाथा संख्या 503 है। सम्यग् दृष्टि का लक्षण देते, हुए प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं-"जो अरहंत द्वारा कथित सूत्र के अर्थ को, जीव-अजीव आदि बहुविध पदार्थों को तथा हेय और उपादेय को भी जानता है, वह निश्चय ही सम्यग्दृष्टि होता है ।" (गाथा 12) इसी प्रकार बाह्य क्रिया-समर्थकों के प्रति प्राचार्य का दृष्टिकोण है"यदि (कोई) प्रात्मा को नहीं चाहता है, परन्तु अन्य सकल धर्म क्रियाओं को करता रहता है, तब भी वह सिद्धि/पूर्णता प्राप्त नहीं करता है । अतः (ऐसा बाह्य क्रियावादी) संसार (मानसिक तनाव) में स्थित कहा गया है।" (गाथा 14).... इसी अष्टपाहुड के सुरभित पुष्पों में से 100 का चयन कर डॉ. सोगाणी जी ने प्रस्तुत चयनिका तैयार की है और अपनी विशिष्ट शैली में व्याकरण For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की दृष्टि से शाब्दिक अनुवाद, प्रत्येक शब्द का मूल रूप, अर्थ और विभक्ति आदि का सरल पद्धति से विश्लेषण भी किया है। ___डॉ. कमलचन्द जी सोगाणी, जैन दर्शन और प्राकृत भाषा के माने हुए विद्वान हैं और प्राकृत वाङमय के अनन्य उपासक भी। वर्तमान में मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर में दर्शन-विभाग में प्रोफेसर पद पर कार्यरत हैं। हमें प्रसन्नता है कि श्री सोगाणी जी द्वारा सम्पादित चयनिका संज्ञक चार पुस्तके प्राचारांग-चयनिका, वाक्पतिराज की लोकानुभूति, समणसुत्तं चयनिका, दशवैकालिक-चयनिका-प्राकृत भारती अकादमी पूर्व में ही प्रकाशित कर चुकी है और प्राकृत भारती के पुष्प 42वें के रूप में यह "अष्टपाहड चयनिका" प्रकाशित की जा रही है तथा शीघ्र ही प्रवचनसार, समयसार और परमात्मप्रकाश की चय निकायें भी प्रकाशित की जायेंगी। - हमें आशा है कि पाठकगण इस चयनिका के माध्यम से प्राचार्य कुन्दकुन्द के दृष्टिकोण को सुगमता के साथ हृदयंगम कर सकेंगे और प्राकृत भाषा के जानकार भी बन सकेंगे। - म. विनयसागर निदेशक एवं संयुक्त सचिव देवेन्द्रराज मेहता सचिव For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना यह सर्वविदित है कि मनुष्य अपनी प्रारम्भिक अवस्था से ही रंगों को देखता है, ध्वनियों को सुनता है, स्पर्शो का अनुभव करता है, स्वादों को चखता है तथा गन्धों को ग्रहण करता है | इस तरह उसकी सभी इन्द्रियाँ सक्रिय होती हैं । वह जानता है कि उसके चारों ओर पहाड़ हैं, वृक्ष हैं, मकान हैं, मिट्टी के टीले हैं, पत्थर हैं इत्यादि । आकाश में वह सूर्य, चन्द्रमा और तारों को देखता है । ये सभी वस्तुएँ उसके तथ्यात्मक जगत का निर्माण करती हैं । इस प्रकार वह विविध वस्तुओं के बीच अपने को पाता है । उन्हीं वस्तुनों से वह भोजन, पानी, हवा आदि प्राप्त कर अपना जीवन चलाता है । उन वस्तुओंों का उपयोग अपने लिए करने के कारण वह वस्तु जगत का एक प्रकार से सम्राट बन जाता है । अपनी विविध इच्छात्रों की तृप्ति भी बहुत सीमा तक वह वस्तुजगत से ही कर लेता है । यह मनुष्य की चेतना का एक श्रायाम है | धीरे-धीरे मनुष्य की चेतना एक नया मोड़ लेती है । मनुष्य समझने लगता है कि इस जगत में उसके जैसे दूसरे मनुष्य भी हैं, जो उसकी तरह हँसते हैं रोते हैं, सुखी-दुःखी होते हैं । वे उसकी तरह विचारों, भावनाओं और क्रियाओं की अभिव्यक्ति करते हैं । चूँकि मनुष्य अपने चारों ओर की वस्तुओं का उपयोग अपने लिए करने का अभ्यस्त होता है, अतः वह अपनी इस प्रवृत्ति के वशीभूत होकर मनुष्यों का उपयोग भी अपनी आकांक्षाओं और आशाओं की पूर्ति के लिए ही करता है । वह चाहने लगता है कि सभी उसी के लिए जीएँ। उसकी निगाह में दूसरे मनुष्य वस्तुओंों से अधिक कुछ नहीं होते हैं । किन्तु उसकी यह प्रवृत्ति बहुत समय तक चल नहीं पाती है । इसका कारण स्पष्ट है । दूसरे मनुष्य भी इसी प्रकार चयनिका ] For Personal & Private Use Only [ i Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की प्रवृत्ति में रत होते हैं । इसके फलस्वरूप उनमें शक्ति-वृद्धि की महत्वाकांक्षा का उदय होता है । जो मनुष्य शक्ति-वृद्धि में सफल होता है, वह दूसरे मनुष्यों का वस्तुओं की तरह उपयोग करने में समर्थ हो जाता है । पर मनुष्य की यह स्थिति घोर तनाव की. स्थिति होती है। अधिकांश मनुष्य जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इस तनाव की स्थिति में से गुजर चुके होते हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह तनाव लम्बे समय तक मनुष्य के लिए असहनीय होता है । इस असहनीय तनाव के साथ-साथ मनुष्य कभी न कभी दूसरे मनुष्यों का वस्तुप्रों की तरह उपयोग करने में असफल हो जाता है । ये क्षण उसके पुनर्विचार के क्षरण होते हैं । वह गहराई से मनुष्य-प्रकृति के विषय में सोचना प्रारम्भ करता है, जिसके फलस्वरूप उसमें सहसा प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्मान-भाव का उदय होता है । वह अब मनुष्य-मनुष्य की समानता और उसकी स्वतन्त्रता का पोषक बनने लगता है। वह अब उसका अपने लिए उपयोग करने के बजाय अपना उपयोग उनके लिए करना चाहता है। वह उनका शोषण करने के स्थान पर उनके विकास के लिए चिंतन प्रारंभ करता है। वह स्व-उदय के बजाय सर्वोदय का इच्छुक हो जाता है। वह सेवा लेने के स्थान पर सेवा करने को महत्व देने लगता है । उसकी यह प्रवृत्ति उसे तनाव-मुक्त कर देती है और वह एक प्रकार से विशिष्ट व्यक्ति बन जाता है । उसमें एक असाधारण अनुभूति का जन्म होता है। इस अनुभूति को ही हम मूल्यों की अनुभूति कहते हैं । वह अब वस्तु-जगत में जीते हुए भी मूल्य-जगत में जाने लगता है। उसका मूल्य-जगत में जीना धीरे-धीरे गहराई की ओर बढ़ता जाता है। वह अब मानव-मूल्यों की खोज में संलग्न हो जाता है । वह मूल्यों के लिए ही जीता है और समाज में उनकी अनुभूति बढ़े इसके लिए अपना जीवन समर्पित कर देता है । यह मनुष्य की चेतना का एक ii] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा पायाम है। प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा प्रदत्त अष्टपाहुड' (आठ(ग्रन्थों) की भेंट) समाज में मूल्यात्मक चेतना के विकास के लिए समर्पित है। ये आठ ग्रन्थ मनुष्यों को मूल्यात्मक तुष्टि की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करते हैं। जीवन का संवेगात्मक पक्ष ही मूल्यात्मक तुष्टि का आधार होता है । ये आठ ग्रन्थ (दर्शनपाहुड, सूत्रपाहुड, चारित्रपाहुड. बोधपाहुड, भावपाहुड, मोक्षपाहुड, लिमपाहुड और शीलपाहुड) जीवन को समग्ररूप (अनेकान्तिक रूप) से देखने को दृष्टि प्रदान करते हैं। मनुष्य के जीवन में ज्ञान और संवेग एक . दूसरे से गुथे हुए वर्तमान रहते हैं । प्रत्येक मूल्यात्मक अनुभूति . 1. अष्टपाहुह में 503 गाथाएं हैं। इनमें से ही हमने 100 गाथामों का चयन 'मष्टपाड-चयनिका' के अन्तर्गत किया है। प्रष्टपाहुड में [दर्शनपाहुर (36), सूत्रपाहुड (27), चारित्रपाहुड (45), बोधपाहुर (62), भावपाहुड (165), मोक्षपाहुड (106) लिंगपाड (22) पौर शील पाहुर (40)] ये पाठ ग्रन्थ सम्मिलित हैं। इनके रचयिता प्राचार्य कुन्दकुन्द हैं। . प्राचार्य कुन्दकुन्द दक्षिण के निवासी थे। इनका मूल स्थान कोण्डकुन्द था जो मांध्र प्रदेश के मनन्तपुर जिले में स्थित कोनकोण्डल है। इनका समय 1 ई. पूर्व से लगाकर 528 ई. पश्चात् तक माना गया है । डा. ए.एन. उपाध्ये के अनुसार इनका समय ईसवी सन् के प्रारम्भ में रखा गया है। "I am inclined to believe, after this long survey of the available material, that Kundakunda's age lies at the beginning of the Christian era" (P. 21 Introduction of Pravacanasara) प्राचार्य कुन्दकुन्द के सभी ग्रन्थ (समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय सार, नियमसार और प्रष्टपार) अध्यात्म प्रधान शैली में लिखे गये होने से प्रध्यात्म प्रेमी लोगों के लिए भाकर्षण के केन्द्र रहे हैं। प्रष्टपाड-चयनिका के अतिरिक्त समयसार-चयनिका मोर प्रवचनसार-चयनिका भी शीघ्र ही प्रकाशित होगी। चयनिका ] [ iji For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य के ज्ञानात्मक और संवेगात्मक पक्ष की मिली-जुली अनुभूति होती है । दुःखियों को देखकर करुणा की मूल्यात्मक अनुभूति में दुखियों के होने का ज्ञान और करुणा का संवेग दोनों ही उपस्थित हैं। यहां यह भी समझना चाहिए कि ज्ञान और संवेग एक दूसरे को 'प्रभावित करते हैं । ज्ञान चिन्तनात्मक बुद्धि के माध्यम से भय, शोक क्रोध, ईर्ष्या, घृणा, चिन्ता, लोभ, काम, माया, प्रादि संवेगों (कषायों) पर अंकुश लगा सकता है। साथ में दया, प्रेम, मैत्री, कृतज्ञता आदि संवेगों को प्रोत्साहित कर सकता है और इनको उचित दिशा प्रदान कर सकता है । इसी तरह संवेग भी चिन्तनात्मक बुद्धि को प्रभावित करते हैं । लोभ, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या आदि संवेग चिंतनात्मक बुद्धिके कथनों को दबा सकते हैं और दया, प्रेम कृतज्ञता आदि संवेग बुद्धि पर हावी होकर उसको कैसी भी दिशा प्रदान कर सकते हैं। कहा जाता है कि काम क्रोध आदि के प्रावेश में व्यक्ति बुद्धि खो देता है और बुद्धि के अंकुश के बिना दया, प्रेम आदि संवेग किसी भी तरफ प्रवाहित हो जाते हैं । इस तरह से ज्ञान और संवेग एक दूसरे को प्रभावित करते हैं और कोई भी क्रिया इनके मिले-जुले रूप से ही उत्पन्न होती है। इसी विश्वास के कारण उपदेश का श्रवण और मूल्यात्मक साहित्य का अध्ययन महत्वपूर्ण माने गये हैं। इस तरह इनके माध्यम से बुद्धि और संवेगों का शिक्षण किसी सीमा तक हो ही जाता है। यहाँ यह कहना उचित प्रतीत होता है कि नैतिकता-आध्यत्मिक मूल्यों के जागरण के लिए बुद्धि और हृदय (संवेग) दोनों ही आवश्यक हैं । किसी एक पर . ही जीवन को प्राश्रित करना एकान्त होगा और मूल्यात्मक जीवनके लिए अभिशाप बन जायेगा । समग्र (अनेकान्त) दृष्टि इन दोनों के महत्व को स्वीकार करने से ही उत्पन्न होती है। - उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मूल्यात्मक चेतना के विकास iv ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिये ज्ञान और संवेग का मिला-जुला रूप आवश्यक है । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने इस मिले-जुले रूप को ही 'भाव' कहा है । परम शान्ति की यात्रा के लिए 'भाव' के विभिन्न आयामों को सर्व प्रथम समझना चाहिए (३०) । जीवन में गुण-दोषों का आधार 'भाव' ही है (२८) । मनुष्य मानसिक समता की प्राप्ति के लिए विभिन्न बाह्य वेश धारण करता है, किन्तु प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि (शुभ) भाव ही प्रधान वेश होता है, केवल बाह्य वेश सचाई नहीं है (२८) । शुभ भाव रहित वेश से कोई लाभ नहीं होता है (३०, ६६) बाह्य परिग्रह का त्याग भाव-शुद्धि के लिए किया जाता है (२८)।. जिसने अशुद्ध भावों को त्याग दिया है वह ही मुक्त है (३२) । जो देहादि की प्रासक्ति से मुक्त है वह ही भावरूपी वेश को धारण करने वाला साधु होता है (३३) । धर्म का (शुभ)-भाव. रहित श्रवण व पठन उपयोगी नहीं होता है (३९) । भाव-रहित व्यक्तियों के लिए बाह्य परिग्रह का त्याग, पर्वत, नदी, गुफा आदि में रहना-ये सब निरर्थक हैं (४३) । जब प्राचार्य कुन्दकुन्द यह कहते हैं कि बन्धन पौर मुक्ति का संबंध भाव से ही है (४६), तो इसका अभिप्राय यह है कि 'भाव' में जो संवेगात्मक अंश है वह ही बन्धन मुक्ति की प्रक्रिया में मूलभूत होता है, ज्ञानवंश का इस प्रक्रिया से कोई संबंध नहीं होता है। भाव में जो ज्ञानांश रहता है वह भावों में परिवर्तन और उनको दिशा प्रदान करने के लिए उपस्थित रहता है। ज्ञानांश के बिमा संवेग अन्धे होते हैं और संवेग के बिना ज्ञान शुष्क और प्रेरणाहीन होता है। . नैतिक दृष्टिकोण से 'भाव' दो प्रकार के होते हैं : (१) शुभ भाव और (२) अशुभ भाव (४०) । गुणियों में अनुराग, इन्द्रिय"यम में रुचि, दुष्टों के प्रति प्रसहयोग व उनका विरोध, दुःखियों के प्रति करुणा, चित्त में विनय, सरलता, सन्तोष मादि का रहना चयनिका.] For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ भाव हैं। दुष्टों के प्रति अनुराग, अनुचित दिशा में दया का प्रवाह, प्राणियों की हिंसा, निर्दयता, इन्द्रिय विषयों में लोलुपता, चित्त में क्रोध, श्रहंकार, कुटिलता, लोभ आदि का रहना अशुभ भाव हैं । भाव, इच्छा और चिन्तनात्मक बुद्धि : ". यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि भाव अपनी तृप्ति के लिए अनेक इच्छाओं को जन्म दे देते हैं जो उद्देश्यात्मक क्रियानों में अभिव्यक्त होती हैं । यह कहा जा चुका है कि 'भाव' संवेग और ज्ञान के मिले-जुले रूप का नाम है । भाव में निहित संवेग चिन्तनात्मक बुद्धि के माध्यम से इच्छात्रों में परिणत होकर अपनी तृप्ति की दिशा में सक्रिय हो जाते हैं। धीरे धीरे इच्छा अपने उद्देश्य की ओर बढ़ने में क्रियाशील बनने लगती है और भाव में स्थित संवेग की तृप्ति को साकार रूप प्रदान करने का संघर्ष करती है । जैसे, किसी के प्रति निर्दयता का संवेग एक अशुभ भाव है । यह संवेग चिन्तनात्मक बुद्धि के माध्यम से संबंधित व्यक्ति की हिंसा करने की इच्छा या उसको भूखे-प्यासे मारने की इच्छा में परिणत होकर अपनी तृप्ति की दिशा में सक्रिय हो जाता है । यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि इच्छा और चिन्तनात्मक बुद्धि एक दूसरे से घनिष्ट रूप में संबंधित रहती हैं । जहाँ इच्छा वर्तमान है वहाँ चिंतनात्मक बुद्धि वर्तमान रहती है और जहाँ चिन्तनात्मक बुद्धि वर्तमान है वहाँ इच्छा वर्तमान रहती है । इच्छा मन में सक्रिय होती है, वचन के माध्यम से दूसरों तक पहुंचाई जा सकती है और शरीर को अनेक प्रकार से क्रियाशील बनाती है और हर स्थिति में वास्तविक बनना चाहती है, जिससे वह तृप्त हो सके । इच्छा की उत्पत्ति और तृप्ति की आकांक्षा सदैव साथ-साथ होती है। तृप्ति के लिए चिन्तनात्मक बुद्धि योजनाएँ बनाती है । इस तरह से हमारा h vi ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारा जीवन (शुभ-अशुभ) इच्छाओं का पिण्ड बना रहता है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति अपने चिन्तनात्मक स्तर के अनुरूप इनकी तृप्ति का आयोजन करने में लीन रहता है। यह प्रायोजन 'जीवन के प्रारम्भिक काल में अचेतन रहता और परिपक्व अवस्था में चेतन हो जाता है। ___ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि चिन्तनात्मक बुद्धि संवेगजनित इच्छात्रों से प्रेरित होकर उद्देश्यों की पूर्ति में साधनों को जुटाती है और तृप्ति तक व्यक्ति को पहुंचाने का प्रयास करती है । यहां यह ध्यान देने योग्य है कि जब चिन्तनात्मक बुद्धि परिणामों को देखने में कुशल हो जाती है, तो कई इच्छाएं परिवर्तित भी की जा सकती हैं और इसके समुचित विकास से उच्च उद्देश्यों के प्रावि र्भाव से निम्न कोटि की इच्छाएं नष्ट भी हो सकती हैं। जैसे, शिकार की इच्छा, शराब पीने इच्छा, अति भोजन की इच्छा, लोभ के वशीभूत अन्याय से धन कमाने की इच्छा, दृष्टों के प्रति दया की इच्छा प्रादि के परिणामों को व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में कुप्रभाव डालते हुए देखने से उनमें परिवर्तन हो जाता है और कभी कभी वे इच्छाएं पूर्णतया नष्ट भी हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त जीवन में उच्च उद्देश्यों के प्रति समर्पित होने से भी अशुभ इच्छाएं समाप्त । हो जाती हैं । इस तरह से हम देखते हैं कि चिन्तनात्मक बुद्धि और ' इच्छाएँ एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। अशुभ भाव और मानसिक तनाव की प्रक्रियाः .... यह कहा जा चुका है कि मनुष्यों में इच्छाएं वर्तमान रहती हैं और वे अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए नाना प्रकार की क्रियामों में अभिव्यक्त होती हैं । समाज में विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों को हम नैतिक दृष्टिकोण से दो भागों में विभाजित कर सकते हैं : (१) शुभ चयनिका ]. . . [ vii For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावों में रत तथा (२) अशुभ भावों में रत । पहिले हम प्रशुभ भावों में जीने वाले व्यक्तियों में मानसिक तनाव की प्रक्रिया को समझने का प्रयास करेंगे। अशुभ-भाव व्यक्ति में कई प्रकार से मानसिक तनाव उत्पन्न करते हैं । इनको ही प्रार्त-रोद्र ध्यान कहा गया है (४०)। अशुभ भावों से उत्पन्न मानसिक तनाव को निम्नलिखित रूप से. समझा जा सकता है। .. (१) प्रशुभ-भाव जिन इच्छात्रों को जन्म देते हैं चिन्तनात्मक बुद्धि उनको पूर्ण करने की योजना बनाती है, किन्तु सामाजिक वातावरण उनकी पूर्ति को रोकता है, क्योंकि वे कानून, नैतिकता और न्याय के विरुद्ध होती हैं । जैसे लोभ के वशीभूत होकर मायाचारी - से धन कमाना, पावश्यक वस्तुओं का संग्रह करके दूसरों के लिए . कठिनाइयां पैदा करना, लोगों को ठगने में दक्षता प्राप्त कर लेना, हिंसा से प्रांतक फैलाना, झूठ और चोरी में क्रियाशील होना, कमजोर वर्ग का दुरुपयोग करना, दूसरों को ईर्ष्यावश हानि पहुँचाना, दूसरों का अहंकारवश अपमान करना, अपने आश्रितों का शोषण करना, अपने कर्तव्य को निभाने में आलसी होना, गरीबों से दुर्व्यवहार करना, काम वासना में लिप्त होना, कलहकारी प्रवृत्तियों में रस लेना आदि -ये अशुभ भाव सभी व्यक्तियों में घोर मानसिक तनाव पैदा करते हैं, क्योंकि समाज इनकी तृप्ति में व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध समुचित बाधाएँ उपस्थित करता है । (२) (क) कुछ अशुभ भाव ऐसे होते हैं जिनका कुप्रभाव दूसरों पर इतना नहीं पड़ता जितना स्वयं व्यक्ति पर पड़ता है और व्यक्ति विभिन्न कारणों से दुःखात्मक संवेगों में ही जीने लगता है। इनसे उसके व्यक्तित्व पर इतना पान्तरिक दबाव पड़ता है कि वह विकासोन्मुख नहीं हो सकता है । चिन्तनात्मक बुद्धि कई बार पसहाय हो जाती है और कई बार गंभीर कठिनाइयों में फंस THAPA viii ] . [ मष्टपाहुर For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाती है। इससे हमारी सदुइच्छाएँ कुठित हो जाती हैं और व्यक्ति चिन्ताग्रस्त ही रहता है। (२) (क) (i) दुःखात्मक संवेगों की एक स्थिति उस समय पैदा होती है जब कोई असाध्य रोग से पीड़ित हो जाए या कोई ऐसे रोग से पीड़ित हो जाए जो साधनों के अभाव में न मिटाया जा सके। इसके अतिरिक्त अत्यधिक गरीबी दुःखात्मक संवेगों को जन्म देती है। रोगों की तरह गरीबी भी जीवन को दुखी बना. देती है और इनसे दुखात्मक मानसिक अवस्था की स्थिति बनती है। यहाँ दुःख ही हमारे मन को सदैव पकड़े रखता है। अतः यह चिन्ताग्रस्त स्थिति मानसिक तनाव को उत्पन्न करती है । (२) (क) (ii) व्यक्ति के जीवन में धन -था व्यक्तियों से उसका संबंध दोनों ही अत्यन्त महत्वपूर्ण होते .. । पर किसी मित्र प्रथवा निकट के सहयोगी की मृत्यु जीवन को झकझोर देती है और यह एक अपूरणीय क्षति होती है । इसके अतिरिक्त धन की हानि भी गंभीर समस्याएं पैदा कर देती हैं । ये दोनों ही व्यक्ति में दुःखात्मक संवेग उत्पन्न कर उसको कुठित कर देते हैं। इनसे उत्पन्न मानसिक तनाव असहनीय होता है। इसी प्रकार सामाजिक प्रतिष्ठा की क्षति भी दुःखदायी होती है और तनाव का कारण बन जाती है । इसी तरह से इष्ट-वियोग प्रगति में बाधक बन जाते हैं। (२) क(iii) जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कभी कभी ऐसे व्यक्तियों व घटनामों से संयोग हो जाता है तथा साथ में रहने वाले व्यक्तियों के व्यवहार में ऐसा परिवर्तन हो जाता है जो अनिष्टकारी होता है, जिनके कारण दुःखात्मक संवेग उत्पन्न होते हैं और मानसिक तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। वैवाहिक अनबन, कौटुम्बिक मनमुटाव, संस्थागत कलह, प्राकृतिक विपदाएँ, महामारी, दुर्घटनाएँ चयनिका ] . ... [ ix For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि अनिष्टकारी होती हैं तथा व्यक्ति को चिन्ताग्रस्त बना देती है। ये अनिष्टकारी संयोग प्रगति के मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं। ऐसे अनिष्ट संयोगों का भय भी मानसिक तनाव उत्पन्न करता है। (२) (ख) कुछ अशुभ भाव ऐसे होते हैं जो अल्प समय के लिए सुखदायी होते हैं, किन्तु वे व्यक्ति की रुचियों को इस प्रकार प्रभावित करते रहते हैं कि व्यक्ति की चिन्तनात्मक बुद्धि सदैव उनके जाल में ही फंसी रहती है, वे व्यक्ति में नई इच्छानों को जन्म देते रहते हैं और बुद्धि उनके चंगुल में ही रहती है। उसका बहुत-सा समय व्यक्तिगत सुखों के चिन्तन में ही चला जाता है । ये भाव इसलिए अशुभ कहे गए हैं कि इनके कारण व्यक्ति में सामाजिक मूल्यों की चेतना पैदा नहीं होती और उसके स्वयं का मूल्यात्मक विकास अवरुद्ध ही रहता है । इसके अतिरिक्त इन्द्रिय-सुख व्यक्ति को अपने में ही इस तरह समेट लेते हैं कि उसकी 'दूसरे' के प्रति चेतना कम होती जाती है जो सामाजिकता को खतरा पैदा करती है। दो इन्द्रिय-सुखों में लिप्त व्यक्ति एक दूसरे की सहायता करना भी बोझ समझेंगे । अपने ही सुख में लोन व्यक्ति परम स्वार्थी होता जाता है और परार्थ उसके लिए असंभव या आकस्मिक रहता है। (२) (ख) (i) कई मनुष्य विज्ञापन, रेडियो. टी. वी. सिनेमा, पत्र-पत्रिका आदि के माध्यमों से भौतिक सुख-साधन की वस्तुओं की तथा इन्द्रियों को रुचने वाली वस्तुओं की जानकारी पा कर उनके प्रति आकर्षित होने लगते हैं। उनमें वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा पैदा होती है। सामान्यतया वस्तुओं की इच्छा और उनकी प्राप्ति में आर्थिक कठिनाइयों के कारण विलम्ब होता ही है और कभी कभी तो कई वस्तुएँ जीवन में नहीं मिल पाती हैं । यह स्थिति कुण्ठा पैदा करती है और मानसिक तनाव का कारण बनती है । [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन लोगों को आर्थिक सुलभता के कारण वस्तुएँ तुरन्त प्राप्त हो भी जाती हैं, तो वस्तुओं के प्रकारों में परिवर्तनशीलता की गति के अनुरूप वस्तुओं की प्राप्ति की गति नहीं हो पाती है, जिससे उन लोगों में भी कुण्ठा और उसके परिणामस्वरूप मानसिक तनाव पैदा होता है । कई बार जीवन-स्तर व्यक्तियों में होड़ का कारण बन जाता है । यह भी तनाव-पूर्ण स्थिति है। अशुभ भाव से शुभ भाव की ओरः जो कुछ कहा गया है उससे यह स्पष्ट है कि अशुभ भाव वैयक्तिक एवं सामाजिक दोनों दृष्टिकोण से घातक होते हैं और वे व्यक्ति में घोर मानसिक तनाव उत्पन्न करते हैं । (i) अशुभ भावों से उत्पन्न क्रियाएं जो कानुन, नैतिकता और न्याय के विरुद्ध होती हैं उन्हें पूर्णतया त्याग देना चाहिए । अतः इसके लिए अशुभ भावों को समाप्त किया जाना आवश्यक है जिससे इनका स्थान शुभ भाव तथा उनसे उत्पन्न क्रियाएँ ले सकें। (ii) कूछ घटनाएँ-जैसे इष्ट का वियोग, अनिष्ट का संयोग, जटिल रोगों का आक्रमण प्रादि-व्यक्ति के जीवन में ऐसी घटित होती हैं जो उसमें दुःखात्मक संवेगों को पैदा कर उसको चिन्ताग्रस्त बना देती हैं। वह भय, शोक, क्रोध, निराशा आदि संवेगों से आक्रान्त हो जाता है। चूंकि ये घटनाएँ व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध घटित होती हैं इसलिए व्यक्ति दुःखी और चिन्ताग्रस्त होने के साथ साथ व्यक्तित्व के विकास के लिए हानिकारक संवेगों से घिर जाता है, जो उसमें मानसिक तनाव उत्पन्न करते हैं। ऐसे व्यक्ति को यदि धैर्य, साहस आदि का प्रशिक्षण दिया जाए तो उसमें तनाव-सहनशीलता की वृद्धि हो सकती है। और वह शुभ संवगों को अपनाने में सफल हो सकता है । सामाजिक सहयोग, समस्या का उचित मूल्यांकन, ज्ञान-वृद्धि, परिस्थिति के चयनिका ] _ [ xi For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुरूप जीवन को ढालना आदि उपायों से व्यक्ति अपने में शुभ संवेगों का संचार' कर सकता है। (ii) कई व्यक्ति भौतिक सुखसुविधा में जीने को ही श्रेय मानते हैं। अल्प. सुखात्मक जीवन ही उन्हें प्राकर्षित करता रहता है । वे अपना समय और धन अपने लिए सुख-जनक वस्तुओं को जुटाने में ही व्यतीत करते हैं । ऐसे व्यक्तियों को समाज-कल्याण की क्रियाओं के लिए प्रेरित किया जा सकता है जिससे वे आवश्यक सुविधाओं को रखकर बाकी सब समाज को अर्पित कर दें। उनको समझाया जा सकता है कि सुविधाएँ शान्ति के लिए आवश्यक तो हैं पर वे शांति प्रदान नहीं कर सकती हैं । परार्थ का जीवन जीना ही शान्ति को निकट लाना है। इस तरह से अल्प सुखात्मक वस्तुओं में अनासक्त व्यक्ति शुभ भावों के विभिन्न आयामों में जीने की योजना बना सकता है। शुभ भाव और मानसिक तनाव व्यक्ति में शुभ भावों का उदय होने पर उसमें लोकोपकारी इच्छात्रों का जन्म होता है और चिन्तनात्मक बुद्धि उनको साकार करने में तत्पर हो जाती है। इस तरह से व्यक्ति परार्थ की भोर अभिमुख हो जाता है। (i) गुणियों के प्रति अनुराग ऐसे व्यक्ति के लिए स्वाभाविक होता है । वह व्यक्ति जिसकी जीवन-चर्या कानून, नैतिकता और न्याय के अनुरूप होती है, एक अर्थ में गुणी है। यहाँ पर ध्यान देना चाहिए कि व्यक्तिगत चर्या और सामाजिक कर्तव्य पालन दोनों मिलकर ही व्यक्ति में गुणों का कारण बनते हैं । कई व्यक्तियों के सामाजिक कर्तव्यों में ज्ञानात्मक और प्रशासनात्मक कार्य का प्राधान्य होता है और उनका ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में तथा लोक जीवन के सन्दर्भ में उपयोगी योगदान भी हो सकता है, किन्तु xii ] . [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि उनकी जीवन-चर्या कानून, नैतिकता और न्याय के अनुरूप नहीं है तो वे गुणी की कोटि में नहीं रखे जा सकते हैं । ठीक ही कहा है : व्याकरण, छंद, प्रशासन, न्याय-शास्त्र तथा प्रागमों के जानकार के लिए भी शील (चारित्र) ही उत्तम कहा गया है (६६)। जीव-दया, इन्द्रिय-संयम, सत्य, अचौर्य प्रादि शील के ही परिवार हैं (१००) । जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करके भी विषयों में प्रासक्त होते हैं. इसमें दोष ज्ञान का नहीं हैं, किन्तु वह दोष उन दुष्ट पुरुषों की मंद बुद्धि का ही है (९८)। ज्ञान और शील में कोई विरोध नहीं है (६७)। यदि शील नहीं है तो ज्ञान भी धीरे धीरे नष्ट हो जाता है (९७) । प्रतः शील (चारित्र) ही पूज्य है। यदि हम गहराई से विचार करें तो गुरिणयों के प्रति अनुराग विभिन्न स्तरों पर मानसिक तनाव पैदा करता है। गुरिणयों की खोज करना, गुणी का निश्चय करना; गुणी का कभी कभी दुर्गुणी में बदल जाने का भय होना, गुणी से प्राशाओं की पूर्ति की इच्छा करना, गुणी का गुणानुकरण करने का भाव आदि मानसिक तनाव पैदा करने वाली स्थितियां हैं। इनसे सामान्यतया नहीं बचा जा सकता है। किन्तु यह मानसिक तनाव दुष्टों के प्रति अनुराग से उत्पन्न मानसिक तनाव से भिन्न प्रकृति का है। . (i) जीवन में नाना प्रकार के दुःख हैं। भूख-प्यास, शारीरिक रोग, मानसिक रोग, बुढ़ापा, अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी तूफान, बाढ़, भूकम्प प्रादि बहुत से दुःख व्यक्ति को परेशान करते हैं । दहेज, बाल-विवाह, आणविक युद्ध का भय, अन्तर्राष्ट्रीय तनाव, भष्टाचार प्रादि सामाजिक बुराइयां व्यक्ति के दुःख का कारण बनती हैं । करुणा के संवेग से प्रेरित होकर दु:खियों के दुःख को दूर करने की इच्छा का उदय शुभ भाव है । चिन्तनात्मक बुद्धि इस दिशा में सक्रिय होकर मार्ग-दर्शन करती है । दुःखों के कारण चयनिका ] .... [ xiii For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व उनको दूर करने के उपायों पर विचार करना धर्म-ध्यान कहा गया है (४०) । व्यक्ति कितना ही साधन सम्पन्न क्यों न हो, किन्तु वह व्यक्तिगत स्तर पर नाना प्रकार के दुःखों को दूर करने का बहत ही सीमित प्रयास कर सकता है । यह प्रयास भी. करुणा की तीव्रता और दुःखों के परिमाण के अनुपात में व्यक्तिगत साधनों के न होने से मानसिक तनाव का कारण बनता है । इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति या तो निराश होकर प्रयास छोड़ देता है या फिर सामाजिक संस्थाओं या राज्य को माध्यम बनाने की ओर मुड़ता है। आखिर समाज में शुभ कार्य सामूहिक प्रयास से ही संभव बनते हैं। सामूहिक प्रयास व्यक्ति के लिए नये तनाव उत्पन्न कर देते हैं । साधनों का दुरुपयोग, धन का अपव्यय, लोकेषणा का जागरण, पद-लिप्सा, आपसी मन-मुटाव, पद का दुरुपयोग, व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति, गबन आदि अशुभ क्रियायें करुणा से प्रेरित व्यक्ति के लिए अत्यधिक मानसिक तनाव उत्पन्न करती हैं, क्योंकि सामूहिक प्रयासों में दुःखों को दूर करने की क्रियायें शिथिल होने के कारण उस व्यक्ति में कुण्ठा उत्पन्न होती है। यदि मान भी लिया जाए कि सामाजिक संस्थाएँ तथा राज्यों का कार्य उचित प्रकार से चल रहा है तो भी दु:खों का विस्तार और साधनों की सीमा को देखते हुए करुणा से प्रेरित व्यक्ति सदैव अपने उद्देश्य की प्राप्ति में पिछड़ा रहेगा और उसे उन लोगों पर आश्रित होना पड़ेगा जिनकी संवेदनशीलता उसके समान नहीं है। यह भी उसके लिए असहनीय होगा और वह मानसिक तनाव से मुक्त नहीं रहेगा । यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि सभी सामाजिक दायित्वों में शुभ भावों से प्रेरित व्यक्ति की स्थिति एक या दूसरे कारण से तनाव पूर्ण रहती है। ___(iii) अशुभ प्रवृत्ति के सुधारात्मक विरोध का भाव शुभ xiv 1 [अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव है। अशुभ भाव अशुभ इच्छाओं को जन्म देते है । अशुभ इच्छाएँ अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए चिन्तनात्मक बुद्धि का सहारा लेकर अशुभ प्रवृत्तियों को जन्म देती हैं जो कानून, नैतिकता और न्याय के विरुद्ध होती हैं। विभिन्न प्रकार के अशुभ भावों से विभिन्न प्रकार की अशुभ प्रवृत्तियां उत्पन्न होती हैं । जैसे दुष्टों के प्रति अनुराग से उनकी सहायता करना, दूसरों का अहंकारवश अपमान करना, दूसरों की ईर्ष्यावश हानि करना, काम-वासना में लिप्त होकर कुप्रवृत्तियों में फंसना प्रादि । कभी कभी शुभ इच्छाएँ अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भी अशुभ प्रवृत्तियों का सहारा ले लेती हैं । जैसे, परीक्षा में पास होने के उद्देश्य से नकल करने की अशुभ प्रवृत्ति का सहारा लेना, गरीबों को आर्थिक सहायता देने के लिए चोरी का सहारा लेना, साहित्यिक क्षेत्र में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार से जालसाजी का प्रयोग करना, धन कमाने के लिए पाण्डुलिपियों को तथा कलापूर्ण मूर्तियों को बेचना आदि । किसी भी प्रकार से उत्पन्न अशुभ प्रवृत्ति का सुधारात्मक विरोध शुभ भाव है । अशुभ प्रवृत्तियों का विरोध संघर्ष की स्थिति. को जन्म देता है । यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि सामान्यतया अशुभ प्रवृत्ति में लीन व्यक्ति बुद्धिमान होता है। किन्तु उसकी बुद्धि मायाचारी, शोषण, हत्या, काम-तृप्ति, अहंकार पोषण, लोकेषरणा, संग्रह, धन व पद का दुरुपयोग आदि में बहुत कुशाग्र होती है। उससे संघर्ष करना समाजोपयोगी होते हुए भी मानसिक तनाव को उत्पन्न करता है क्योंकि उन प्रवृत्तियों के विरोध करने वाले व्यक्ति को अपनी मानसिक शक्ति संघर्ष की अोर केन्द्रित करनी पड़ती है। यह घोर तनाव की स्थिति है। यह तनाव उस समय बढ़ जाता है जब समाज या राज्य उसमें सहयोग नहीं देता है । बहुत सी अशुभ प्रवृत्तियाँ कानूनी सबूत के चयनिका.] [ xv For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभाव में समाज में चलती रहती है। इन प्रवृत्तियों से असहयोग भी शुभ भाव है, किन्तु इनके प्रति उदासीनता प्रशुभ भाव है । समाज का लाभ तो उनके दमन से ही होता है । हमने ऊपर यह समझने का प्रयास किया है कि सामाजिक दृष्टिकोण से शुभ भाव सामाजिक विकास के लिए हितकारी होते हैं और व्यक्ति समाजोन्मुख होकर अपने में सामाजिक चेतना का उचित पोषण करता है जिससे वह अपनी संकुचित स्वार्थपूर्ण वृत्तियों पर विजय प्राप्त करने में सफल होता है । अब हम वैयक्तिक दृष्टिकोण से शुभ भाव के संबंध में विचार करेंगे । (iv) वैयक्तिक दृष्टिकोण से इन्द्रिय संयम शुभ भाव है। इससे व्यक्ति में जहां एक प्रोर त्याग और अनासक्तता जैसे उच्च कोटि के गुणों का विकास होता है, वहां दूसरी श्रोर मन वचन और काय की अशुभ प्रवृत्तियों के स्थान पर शुभ प्रवृत्तियां विकसित होने लगती हैं । इससे स्पष्ट है कि यदि समाजोन्मुखता व्यक्ति को विकसित करती है तो वैयक्तिक विकास सामाजिक विकास के लिए हितकर होता है । इन्द्रिय संयम से अभिप्राय है विभिन्न इन्द्रियों को ( प्रांख, कान, नाक आदि को ) उत्तेजनापूर्ण सामग्री से दूर रखना । उत्तरेजनापूर्ण इन्द्रिय-सामग्री व्यक्ति को अल्पकालीन सुखों का श्रादी बना देती है जो उसके विकास में अड़चन पैदा करते हैं। बार-बार ऐसे सुखों को भोगने की भूख जब बढ़ती जाती है तो त्याग प्रौर अनासक्तता काल्पनिक हो जाते हैं। यहां यह समझना चाहिए कि सामान्यतया इन्द्रिय- संयम कठिन होता है, क्योंकि इन्द्रियों का संयम मानसिक तनाव उत्पन्न करता है । स्वाद का संयम तनाव है, रूप का संयम तनाव है, कोमल स्पर्श का संयम तनाव है, खुशबू और सुरीली आवाज का संयम तनाव है, यद्यपि रूप विज्ञान सुर विज्ञान, व्यंजन विज्ञान, गंध विज्ञान तथा स्पर्श विज्ञान इन्द्रियों के इर्द गिर्द xvi ] [ अष्टपाहुड ". For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही विकसित होते हैं । इनका असंयमित प्रयोग अल्प सुखों के प्रति आकर्षण पैदा करता है और इनका संयम मानसिक तनाव उत्पन्न करता है। जो ऊपर कहा गया है उससे कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं : (i) अशुभ भाव जब वे समाजोन्मुखी होते हैं, तो समाज को पतन की ओर ले जाते हैं और जब वे वैयक्तिक होते हैं, तो व्यक्ति के समुचित विकास को रोक देते हैं । दोनों ही अवस्थाओं में व्यक्ति असहनीय मानसिक तनाव अनुभव करता है। इस तरह से अशुभ भाव व्यक्ति व समाज दोनों के लिए अहितकर होते हैं। (ii) शुभ भाव जब वे समाजोन्मुखी होते हैं, तो समाज को उन्नति की ओर ले जाते हैं और जब वे वैयक्तिक होते हैं, तो व्यक्ति को विकासोन्मुख करते हैं। इस तरह से शुभ भाव समाज के लिए तो पूर्ण रूप से हितकारी होते हैं, किन्तु व्यक्ति के लिए आंशिक रूप से ही हितकारी होते हैं, क्योंकि व्यक्ति उनकी उपस्थिति में भी मानसिक तनाव अनुभव करता है,यद्यपि यह मानसिक तनाव अशुभ भाव से उत्पन्न मानसिक तनाव से भिन्न प्रकार का होता है । (iii) अशुभ भाव में लीन व्यक्ति की सामाजिक भूमिका निन्दनीय होती है, पर शुभ भाव में लीन व्यक्ति की सामाजिक भूमिका प्रशंसनीय होती है। अशुभ भाव में लीन व्यक्ति की वैयक्तिक भूमिका पशुवत् एवं तनावपूर्ण होती है, शुभ भाव में लीन व्यक्ति की वैयक्तिक भूमिका मानवीय होते हुए भी तनावपूर्ण रहती है । यह तनाव भी व्यक्ति के अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ही होता है, किन्तु वैयक्तिक व सामाजिक मूल्यों में. प्रास्था का भाव उसे इस तनाव में टिकाए रखता है। ऐसे व्यक्ति समाज के लिए तो बहुत ही उपयोगी होते हैं, पर उनका मानसिक स्वास्थ्य कुछ ऐसा हो जाता है कि वे अन्तर मन के रहस्यों को जानने में असमर्थ ही रहते हैं । यहाँ यह समझना चाहिए कि व्यक्ति के लिए समाज का उत्थान उतना हो महत्वपूर्ण है, जितना उसके चयनिका ] [ xvii For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए प्रान्तरिक जीवन का विकास । - यहां प्रश्न यह है : क्या यह संभव है कि व्यक्ति वैयक्तिक-सामाजिक मूल्यों में आस्थावान होकर मूल्यों का . जीवन जीए, किन्तु किसी प्रकार का मानसिक तनाव उसे न हो ? क्या यह संभव है कि व्यक्ति अपने प्रान्तरिक जीवन में तनाव-मुक्त होकर आगे बढ़े और उसके माध्यम से समाज भी विकसित हो ? क्या व्यक्तिगत विकास तथा लोक-कल्यारण करते हुए व्यक्ति तनाव-मुक्त रह सकता है ? अष्टपाहुड के अनुसार व्यक्ति दोनों पायामों में जीता हुआ भी तनाव-मुक्त रह सकता है (88) । तनाव मुक्तता=समभाव या मानसिक समता । यह कहा गया है कि मानसिक समता प्राप्त व्यक्ति के लिए काम-वासना से मुक्ति स्वाभाविक होती है, इन्द्रियों की आसक्ति जनित प्रवृत्ति से मुक्तता स्वाभाविक होती है तथा वस्तुओं के प्रति अनासक्ति भी स्वाभाविक होती है । ऐसे व्यक्ति के शरीर को खण्डित किया जा सकता है, किन्तु मानसिक समता को नहीं । कोई भी आन्तरिक व बाह्य परिस्थिति उसमें तनाव उत्पन्न नहीं कर सकती है। ऐसा व्यक्ति समाज में मूल्यों की स्थापना करते हुए तनाव-मुक्त रहता है। जिसे हम मानसिक समता या समभाव कहते हैं, वही शुद्ध भाव है (41), वही सम्यक् चारित्र है (9, 19), वही परमज्ञान है (20), वही मुक्त अवस्था है (17), वही निर्वाणपरमशान्ति है (89), वही आत्मा है (81), वही निर्विकल्प चारित्र है (76), वही परमात्म-अवस्था है (60), वही परम पद (उच्चतमस्थिति) है (77), वही उत्तम सुख है (78), वही साधु अवस्था है (92), तथा वही सन्यास है (25, 26, 27)। समतावान व्यक्ति लोकोपकार के लिए असमानता, गरीबी, तथा अशिक्षा को मिटाने का संघर्ष करता हुआ निंदा और प्रशंसा से प्रभावित नहीं होता है (25, 85)। ऐसा करते हुए लोक में उसके शत्र और मित्र दोनों ही बन जाते हैं, पर उसे एक से निराशा और दूसरे से उत्साह नहीं xviii ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलता है ( 25, 88 ) । बाह्य स्थितियाँ उसे सुखी - दुःखी नहीं करती हैं ( 88 ) । उसे अपने कार्य में सफलता का लाभ मिले अथवा असफलता की हानि, तो भी वह एक से प्रेरित और दूसरे से विचलित नहीं होता है ( 25 ) । उसे कार्यों के लिए धन न मिले या खूब धन मिल जाए, तो भी वह अपमान या सम्मान भाव से खिन्न या प्रसन्न नहीं होता है ( 25 ), वह तो जीवन में चलता ही जाता है और सामाजिक अन्याय को मिटाने श्रोर व्यक्यिों को समता की ऊँचाइयों पर ले जाने की ओर उसका जीवन सतत गतिमान रहता है ( 24 ) । समता की भूमिका, सम्यग्दर्शन ( सम्यक्त्व) : मनुष्य संसार में शुभ - प्रशुभ भावों में लीन रहता हुआ अपनी जीवन यात्रा समाप्त करता है । जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि शुभ-अशुभ भावों में जीने वाले व्यक्ति के जीवन में एक बात समान होती है कि वह तनाव में जीता है, यद्यपि तनाव की प्रकृति में अन्तर होता है । शुभ भावों से उत्पन्न शुभ प्रवृत्तियाँ समाज के लिए तो हितकर होती हैं, पर व्यक्ति के लिए तो तनाव पूर्ण ही होती हैं । अशुभ भावों से उत्पन्न अशुभ प्रवृत्तियाँ समाज के लिए अहितकर होती हैं और व्यक्ति के लिए तनाव उत्पन्न करती हैं । कैसा भी तनाव हो, व्यक्ति के लिए सह्य नहीं होता है, यद्यपि श्रशुभ भावों के तनाव से परेशान होकर व्यक्ति शुभ भावों के तनाव में राहत अनुभव करता है ( 69 ), किन्तु यह राहत भी व्यक्ति के लिए कुछ समय पश्चात् सहनीय नहीं रह जाती है और वह तनाव मुक्तता को ही चाहने लगता है । पूर्ण तनाव मुक्तता में रुचि ही सम्यग्दर्शन है । जो निषेधात्मक दृष्टि से पूर्ण तनाव मुक्ति है, वही स्वीकारात्मक दृष्टि से पूर्ण समता की प्राप्ति है । अतः पूर्ण समता की प्राप्ति में रुचि को सम्यग्दर्शन कहा जा सकता है । जो समता में रुचि है, वही आत्मा या अध्यात्म में रुचि है । अतः अध्यात्म में रुचि सम्यग्दर्शन है ( 75 ) । श्रात्मा में रुचि या श्रद्धा भी सम्यग्दर्शन है ( 7, 15, 81 ) । चयनिका -] [ xix For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 वह आत्मा रूप, रसादि रहित है, उसका ग्रहण केवल अनुभव से होता है, उसका स्वभाव ज्ञान व चेतना है ( 37, 38 ) । ठीक ही कहा है : यदि मनुष्य आत्मा (समता ) को नहीं चाहता है और सकल पुण्यों ( शुभ भावों) को करता है, तो भी वह पूर्ण तनाव मुक्त नहीं होने से परम शान्ति प्राप्त नहीं कर पाता है ( 14, 42 ) । अतः योगी पुण्यों ( शुभ भावों) तथा पापों ( अशुभ भावों) को तनाव का कारण जानकर त्याग देना चाहता है और केवल आत्मा (समता ) में ही रुचि या श्रद्धा रखता है ( 76 ) । इस तरह से जो हेय ( त्यागने योग्य) और उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) को समझता है वह भी सम्यग्दृष्टि होता है ( 12 ) 1 इस सम्यग्दर्शन ( सम्यक्त्व ) का जीवन में इतना महत्व समझा गया है कि इसे परम शान्ति की पहली सीढ़ी माना गया है ( 8, 52 ) यह कहा गया है कि सम्यग्दर्शन रहित ( तनाव पूर्ण ) मनुष्य हिलने डुलने वाला शव होता है । जैसे शव लोक में आदरणीय नहीं होता है, वैसे ही हिलने-डुलने वाला शव असाधारण मनुष्यों में आदरणीय नहीं होता है ( 50 ) । जैसे तारों में चन्द्रमा तथा समस्त हरिण समूह में सिंह प्रधान होता है, वैसे ही साधु तथा गृहस्थ धर्म में सम्यग्दर्शन ही प्रधान होता है ( 51 ) । इससे मति शुद्ध होती है अर्थात् बुद्धि उचित कार्यों में अपने को लगाती है ( 80 ) । यहाँ यह समझना चाहिए कि जिसके हृदय में सम्यग्दर्शनरूपी जल का प्रवाह नित्य विद्यमान होता है, उसकी प्रशान्ति धीरे-धीरे नष्ट हो जाती है ( 2 ) । जैसे डोरे सहित सुई कभी नही खोती है, वैसे ही भव्य ( सम्यग्दृष्टि ) मनुष्य मानसिक तनाव का अवश्य नाश कर देता है ( 10 ) । सम्यग्दर्शन की मुख्यता को समझाने के लिए यह कहा गया है : यद्यपि ज्ञान मनुष्य के लिए सार होता है, किन्तु सम्यग्दर्शन की प्राप्ति मनुष्य के लिए अधिक सार होती है ( 8, 9 ) । इसलिए जिनका सम्यग्दर्शन दृढ़ है, वे ही मनुष्य हैं; वे ही धन्य हैं; वे ही वीर हैं, तथा वे ही पंडित हैं ( 90 ) । पूर्ण तनाव मुक्तता में रुचि गुण है, xx ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तु तनाव-पूर्ण जीवन (मिथ्यात्व) में रुचि ही दोष है (91) । यहाँ यह कहना उचित ही है कि जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन रूपी रत्न से वंचित है, वह शास्त्रों का अध्येता होता हुआ भी मानसिक तनाव में चक्कर काटता रहता है और दूसरों को भी इसी भटकाने वाले मार्ग पर ले जाता है (1, 2)। समता के महत्व को समझ, सम्यग्ज्ञान : ___ यह कहा जा चुका है कि पूर्ण तनाव-मुक्तता में रुचि, समता में या प्रात्मा या अध्यात्म में रुचि सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर व्यक्ति का ज्ञान या उसकी चिन्तनात्मक बुद्धि एक नया आयाम ग्रहण कर लेती है, जिससे शुभ-अशुभ भावों से उत्पन्न प्रवृत्तियों को देखने की उसे एक नई दृष्टि मिलती है। इसे ही सम्यग्ज्ञान कहते हैं (4)। इस तरह से अध्यात्म का (समता का) ज्ञान सम्यज्ञान होता है (75)। ऐसा व्यक्ति दुराचरण को नष्ट करता हुआ आगे बढ़ता है (5)। आध्यात्मिक ज्ञान से व्यक्ति स्व की तनाव-मुक्तता को महत्व देने लगता है और लोक कल्याण में प्रवृति चाहने लगता है (11) । वह व्यवहार नय और परमार्थ नय में समन्वय करके चलता है (13)। इस तरह से सम्यकज्ञान लोक कल्याण के लिए समता के महत्व की समझ है । जो इस ज्ञान से रहित है, वह उचित लाभ को प्राप्त नहीं कर सकता है (18)। समता की प्राप्ति का लक्ष्य सम्यक ज्ञान के द्वारा ही देखा जा सकता है (20, 21)। समता की प्राप्ति और उसकी प्रक्रिया, सम्यकचारित्र : मनुष्य इस संसार में वस्तुओं और व्यक्तियों के मध्य रहता है । वह वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा और व्यक्तियों से आशाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति का प्रयास करता है। इस कारण वह मानसिक तनाव का अनुभव करता है । अज्ञान, मूर्छा और आत्मविस्मरण के कारण वह इस तनाव में ही चक्कर काटता रहता है। जब गुरु-प्रसाद से उसमें प्रात्म-रुचि उत्पन्न होती है (84), तो इन्द्रियों चयनिका ] [ xxi For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से उसका तादात्म्य समाप्त होता है और वह परम-प्रात्मावस्था की ओर उन्मुख होता है । इसलिए कहा गया है कि बहिरात्मा को छोड़ कर अन्तरात्मा को ग्रहण करके परम-आत्मा की ओर चलना चाहिए (59, 61) । इन्द्रियों से तादात्म्य बहिरात्म-अवस्था है (60) । इसमें. अज्ञानी व्यक्ति देह और प्रात्मा को एक विचारता है और उसका मन बाह्य वस्तुओं में ही लगा रहता है (62)। शरीर से भिन्न आत्मा का विचार अन्तरात्मा है, इस अवस्था में तनाव मुक्ति में रुचि पैदा होती है (60)। पूर्णरूप से तनाव-मुक्त हो जाना या समता को प्राप्त कर लेना परम-आत्मा-अवस्थो को प्राप्त कर लेना है (60) । अन्तरात्मा से परम-आत्मा तक की यात्रा, तनाव-मुक्ति में रुचि या समता में रुचि से तनाव-मुक्ति या समता को प्राप्त कर लेने की प्रक्रिया सम्यक् चारित्र है। अष्टपाहुड का कहना है कि व्यक्ति को यह प्रक्रिया उचित समय पर प्रारंभ कर देनी चाहिए (49)। ठीक ही कहा है : जब तक बुढ़ापा नहीं पकड़ता है, जब तक रोगरूपी अग्नि देहरूपी कुटिया को नहीं जलाती है, जब तक इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होती है, तब तक प्रात्मजागरूकता (तनाव-मुक्ति/समता) प्राप्त कर लेनी चाहिये (49)। __ सम्यक चारित्र की प्रक्रिया में विषयों के प्रति उदासीनता (85), अहंकार का त्याग (33, 57), हिंसा, प्रासक्ति, लालसा, लोभ तथा अन्य कषायों का नाश(16, 34, 63, 71, 78,79,), शक्ति के अनुसार. तप (77, 83), दया का जीवन में प्रवेश (24), इन्द्रिय रूपी सेना को छिन्न-भिन्न करना तथा मनरूपी बन्दर को प्रयत्न पूर्वक अशुभ प्रवृत्तियों से रोकना सम्मिलित है (44) । संक्षेप में, पर-द्रव्य से अनासक्ति (64, 87), तथा प्रात्मा का ध्यान (47, 70), समता की प्राप्ति में महत्वपूर्ण सोपान हैं । ठीक ही कहा गया है : जिस प्रकार दीपक घर के भीतर के कमरे में हवा की बाधा से रहित जलता है, उसी प्रकार रागरूपी हवा से रहित ध्यानरूपी दीपक भी xxii ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलता है (47)। निश्चय ही पर द्रव्य (आत्मा के अतिरिक्त द्रव्य) से विमुख जो (व्यक्ति) सम्यक् प्रकार से आचरण करके स्व द्रव्य का ध्यान करते हैं, वे परम-शान्ति (समता/तनाव-मुक्तता) को प्राप्त करते हैं (68)। ___ चयनिका के उपर्युक्त विषय से स्पष्ट है कि अष्टपाहुड ने जीवन के मूल्यात्मक पक्ष का सूक्ष्मता से अवलोकन किया है । इसी विशेषता से प्रभावित होकर यह चयन (अष्टपाहुड चयनिका) पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है। गाथाओं के हिन्दी अनुवाद को मूलानुगामी बनाने का प्रयास किया गया है । यह दृष्टि रही है कि अनुवाद पढने से ही शब्दों की विभक्तियां एवं उनके अर्थ समझ में आजाएँ। अनुवाद को प्रवाहमय बनाने को भी इच्छा रही है। कहां तक सफलता मिली है, इसको तो पाठक ही बता सकेंगे। अनुवाद के अतिरिक्त गाथाओं का व्याकरणिक विश्लेषण भी प्रस्तुत किया गया है। इस विश्लेषण में जिन संकेतों का प्रयोग किया गया है, उनको संकेत सूची में देखकर समझा जा सकता है। यह आशा को जाती है कि प्राकृत को व्यवस्थित रूप से सीखने में सहायता मिलेगी तथा व्याकरण के विभिन्न नियम सहज में ही सीखे जा सकेंगे यह सर्व विदित है कि किसी भी भाषा को सीखने के लिए व्याकरण का ज्ञान अत्यावश्यक है। प्रस्तुत गाथाएँ एवं उनके व्याकरणिक विश्लेषण से व्याकरण के साथ-साथ शब्दों के प्रयोग भी सीखने में मदद मिलेगी। शब्दों की व्याकरण और उनका अर्थपूर्ण प्रयोग दोनों ही भाषा सीखने के प्राधार होते हैं। अनुवाद एवं व्याकरणिक . विश्लेषण जैसा भी बन पाया है पाठकों के समक्ष हैं। पाठकों के सुझाव मेरे लिए बहुत ही काम के होंगे। प्राभार : 'अष्टपाहुड चयनिका' के लिए हमने अष्टपाहुड की तीन संस्करणों का उपयोग किया है । (क) पं. जयचन्दजी छाबड़ा द्वारा सम्पादित चयनिका ] . [ xxiii For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अष्टपाहुड' (ख) पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य द्वारा सम्पादित 'अष्टपाहुड' जो कुन्दकुन्द भारती के अन्तर्गत प्रकाशित है और (ग) पं. मोतीलाल गौतमचन्द कोठारी द्वारा सम्पादित 'अष्टपाहुड' । इन तीनों विद्वानों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। 'अष्टपाहुड चयनिका' के लिए (क) प्रति को प्राधारभूत माना है । और उसके पाठों में (ख) और (ग) प्रति के प्राधार पर सुधार किया है। जिन पाठों में सुधार किया है उनकी सूची 'पाठ सुधार' के अंतर्गत दे दी गई है। ___ डा. सी. एन. माथुर (सह-प्रोफेसर, मनोविज्ञान-विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर) ने इसकी प्रस्तावना को पढनेसुनने के लिए समय दिया इसके लिए उनका आभारी हूँ। उनसे विचार-विमर्श उपयोगी रहा । डा. श्यामराव व्यास (सहायक प्रोफेसर दर्शन विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर), डा. उदयचन्द जैन तथा डा. हुकमचन्द जैन (जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर), डा. सुभाष कोठारी तथा श्री सुरेश सिसोदिया (आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर) के सहयोग के लिए भी आभारी हूं। ... मेरी धर्म-पत्नी श्रीमती कमलादेवी सोगाणी ने इस पुस्तक की गाथाओं का मूल ग्रंथ से सहर्ष मिलान किया है। इसके लिए आभार प्रकट करता हूँ। इस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर के सचिव श्री देवेन्द्रराज मेहता तथा संयुक्त सचिव एवं निदेशक महोपाध्याय श्री विनयसागरजी ने जो व्यवस्था की है, उसके लिए उनका हृदय से आभार प्रकट करता हूं। प्रोफेसर, दर्शन विभाग कमलचन्द सोगाणी मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर (राजस्थान) 25.7.87 xxiv ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टपाहुड-चयनिका For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टपाहुड-चयनिका 1 सम्मत्तरयरण भट्ठा जाणंता बहुविहाई सत्थाई। पाराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव ॥ . .2 सम्मत्तसलिलपवहो रिपच्चं हियए पवट्टए जस्स । - कम्मं वालुयवरणं बंधुच्चिय रणासए तस्स ॥ 3 जे दंसणेसु भट्ठा पारणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य । . एदे भट्ठविभट्ठा सेसं पि जणं विणासंति ॥ 4 सम्मत्तादो साणं गाणादो सव्वभावउवलद्धी । उवलद्धपयत्थे पुरण सेयासेयं . वियाणेदि ॥ . 2 ] [ प्रष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टपाहुड-चयनिका 1 (जो व्यक्ति) सम्यक्त्वरूपी रत्न (समताभाव में रुचि) से वंचित (हैं) (वे) (यदि) नाना प्रकार के (लौकिक-प्राध्यात्मिक) शास्त्रों को समझते हुए जीते (हैं), (तो भी) (उनके द्वारा) परम शान्ति (मानसिक समता) के मार्ग का परित्याग किया हुप्रा होने के कारण, (वे) वहाँ हो वहाँ ही (मानसिक तनाव में) चक्कर काटते हैं। 2 जिसके हृदय में सम्यक्त्वरूपी जल का प्रवाह नित्य विद्यमान होता है, उसका कर्म रूपी बंधन (मानसिक तनाव.) (जो) बालू के ढेर (की तरह) (है) निश्चय ही नष्ट हो जाता है । 3 जो सम्यग्दर्शन (समता में रुचि) से वंचित (हैं), (सद्) ज्ञान से रहित (हैं), तथा चारित्र से गिरे हुए हैं, (ऐसे) ये (लोग) भटके हुए (तथा) पतित (होते हैं) (और) अन्य सब संसार को भी भटकाते हैं। 4 सम्यक्त्व से ज्ञान (सम्यक् ) (होता है), (ऐसे) ज्ञान से सब पदार्थों का (मूल्यात्मक) ज्ञान (होता है), (और) (ऐसे) जाने , हुए पदार्थ (समूह) के होने के कारण (वह) निश्चय ही शुभ और अशुभ को जान लेता है। चयनिका | [3 For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 सेयासेयविदण्हू उधुददुस्सील सीलवंतो वि । सीलफलेणग्भुदयं तत्तो पुण लहइ रिणव्वाणं ॥ 6 जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयरणं अमिदभूयं । जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खारणं ॥ । 7 जीवादी सहहणं सम्मत्तं जिरणवरेहि पण्णत्तं । ववहारा रिगच्छयदो अप्पा रणं हवइ सम्मत्तं ॥ 8 एवं जिरणपण्णत्तं दंसरणरयणं धरेह भावेण । .. सारं गुणरयगत्तय सोवारणं पढम मोक्खस्स ॥ 9 गाणं णरस्स सारो सारो वि रणरस्स होइ सम्मत्तं । सम्मत्तानो चरणं चरणाम्रो होइ णिव्वाणं ॥ .10 सुत्तम्मि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुरणदि । ___ सूई जहा असुत्ता गासदि सुत्ते सहा पो वि ।। [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 शुभ और अशुभ को जानने वाला ही (ऐसा व्यक्ति होता है) (जिसके द्वारा) दुराचरण नष्ट कर दिया गया (है) (तथा) (वह) चारित्रवान भी (हुआ है)। (वह) शील (चारित्र) के प्रभाव से (आध्यात्मिक) सुख-सम्पन्नता प्राप्त करता है, फिर उस कारण से परम शान्ति (समता) (प्राप्त करता है)। 6 यह जिन-वचनरूपी औषधी अमृत-सदृश (होती है), (तथा) विलास से (उत्पन्न अधम) सुख की विनाशक, जरा-मरणरूपी व्याधि को हरनेवाली (और) सभी दुःखों का नाश करने वाली (होती है)। 7 व्यवहार से जीव प्रादि (तत्वों) में श्रद्धा सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) (है); निश्चय से प्रात्मा ही सम्यक्त्व होती है, (ऐसा) अरहंतों द्वारा कहा गया (है)। 8 अरहंतों द्वारा इस प्रकार (यह) कहा गया है (कि) सम्यग्दर्शन रूपी रत्न तीन रत्नों के तिगड्डे का सार (है), (और) मोक्ष (परम शान्ति/समता भाव) के लिए प्रथम सोपान है, (इसलिए) (तुम सब) भावपूर्वक (इसको) धारण करो। 9 (यद्यपि) ज्ञान मनुष्य के लिए सार है, तथापि सम्यक्त्व मनुष्य के लिए (अधिक) सार होता है । सम्यक्त्व से (सम्यक्) चारित्र (होता है) (और) (सम्यक्) चारित्र से परम शान्ति/समता भाव उत्पन्न होती/होता है। 10 जैसे डोरे रहित सूई खो जाती है (तथा) डोरे से युक्त (सूई) ___ कभी नहीं (खोती है), (वैसे ही) भव्य (परम शान्ति/समता चयनिका ] [5 For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 पुरिसो वि जो ससुत्तोण विणासइ सो गयो वि संसारे । सच्चेयणपच्चक्खं णासदि तं सो अदिस्समाणो वि ॥ . 12 सुत्तत्थं जिरणभरिणयं जीवाजोवादिबहुविहं अत्थं । हेयाहेयं च तहा जो जागइ सो हु सद्दिट्ठी ॥ 13 जं सुत्तं जिणउत्तं ववहारो तह या जाण परमत्यो । .. तं जारिणऊरण जोई लहइ सुहं खवइ मलपुंजं ॥ 14 अह पुरण अप्पा णिच्छदि धम्माइं करेइ जिरवसेसाई । तह वि ण पावदि सिद्धि संसारत्थो पुणो भणिदो । 15 एएण कारणेण य तं प्रप्पा सद्दहेह तिविहेण । जेण य लहेइ मोवखं तं जाणिज्जइ पयत्तेण ॥ . 6 ] .. [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव को निश्चय ही प्राप्त करने वाले) के लिए (यह कहा गया है कि) वह सूत्र (पागम) को समझता हुमा संसार (मानसिक तनाव) का नाश निश्चय ही करता है। . 11 संसार में ही स्थित वह पुरुष भी जो आगम (आध्यात्मिक ज्ञान) सहित है, बर्बाद नहीं होता है। (इसका कारण है कि) (माध्यात्मिक ज्ञान से) स्वचेतना का प्रत्यक्ष ज्ञान (हो जाता है)। (इसलिए) वह (दूसरों के द्वारा) न देखा जाता हुआ भी उस (तनाव/दुःख) को मिटा देता है। 12 जो (व्यक्ति) अरहंत द्वारा कथित सूत्र के अर्थ को, जीव-अजीव । प्रादि नाना प्रकार के पदार्थ को, तथा हेय और उपादेय को भी जानता है, वह निश्चय ही सम्यग्दृष्टि (होता है)। 13 जो सूत्र अरहंत द्वारा कहा गया है, (जिसकी कथन पद्धति में) (प्ररहंत द्वारा) व्यवहार तथा परमार्थ (नय) (ग्रहण किया गया है) (उसे)' (तुम) जानो; (क्योंकि) (ऐसे) उस (सूत्र) को जानकर योगी कर्म-मल समूह को नष्ट करता है (मौर) सुख प्राप्त करता है। 14 यदि (कोई) प्रात्मा को (तो) नहीं चाहता है, परन्तु (दूसरी) _____ सकल धर्म-क्रियामों को करता है, तो भी वह पूर्णता प्राप्त नहीं करता है, फिर (ऐसा व्यक्ति) संसार (मानसिक तनाव) में (ही) स्थित कहा गया है। . . . 15 इस कारण से उस पात्मा पर ही तीन प्रकार से (मन-वचन काय से) श्रद्धा करो। चूकि जिससे परम शान्ति प्राप्त होती है, वह (ही) प्रयत्न पूर्वक समझा जाना चाहिए । चयनिका ] .. . [7 . For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 अण्णा मिच्छतं वज्जहि गाणे विसुद्धसम्मत्ते । ग्रह मोहं सारंभं परिहर धम्मे श्रहिसाए ॥ 17 पाऊरण गारणसलिलं रिगम्मलसुविसुद्ध भावसंजुत्ता । हुंति सिवालयवासी तिहुवरणचूडामरगी सिद्धा ॥ 18 णाणगुर्णोह विहीणा रग लहंते ते सुइच्छियं लाहं । इय गाउं गुणदोसं तं सण्णाणं वियाणेहि ॥ 19 चारित्तसमारूढो अप्पा सुपरं ग ईहए गाणी । पावs प्रइरेण सुहं अरगोवमं जारण रिगच्छयदो || 20 संजमसंजुत्तस्स य सुझारणजोयस्स मोक्खमग्गस्स । णाणेण लहदि लक्खं तम्हा जाणं च णायव्वं ॥ 21 जह गवि लहवि हु लक्खं रहियो कंडस्स वेज्यविहोरगो । तह गवि लक्खदि लक्खं प्रण्णाणी मोक्खमग्गस्स || 22 गाणं पुरिसस्स हवदि लहदि सुपुरिसो विविरणयसंजुत्तो । णाणेण लहदि लक्खं लक्खंतो मोक्खमग्गस्स || 8 ] For Personal & Private Use Only [ अष्टपाहुड Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 (तू) ज्ञान से होने पर अज्ञान को, निर्दोष सम्यक्त्व के होने पर मिथ्यात्व को, और अहिंसा-धर्म के होने पर हिंसा सहित मूर्छा को त्याग। 17 (जो) (व्यक्ति) ज्ञानरूपी जल को पीकर निर्मल, शुद्ध भावों से युक्त (है), (वे) त्रिभुवन के आभूषण (होते हैं), (तथा) शिवालय में रहने वाले मुक्त (व्यक्ति) होते हैं। 18 (जो) (सम्यक्) ज्ञान-गुण से रहित (है), वे भली प्रकार से (भी) चाहे हुए लाभ को प्राप्त नहीं करते हैं, इस प्रकार गुण-दोष को जानने के लिए (तू) उस सम्यग्ज्ञान को समझ । 19 जो ज्ञानी चारित्र पर पूर्णतः प्रारूढ़ (है), (वह) (अपनी) प्रात्मा में श्रेष्ठ (भी) पर वस्तु को नहीं देखता है। (अतः) (वह) शीघ्र अनुपम सुख प्राप्त करता है, (तुम) निश्चय से जानो। 20 संयम से जुड़े हुए तथा श्रेष्ठ ध्यान के लिए उपयुक्त (ऐसे) मोक्ष मार्ग (समता मार्ग) के लक्ष्य को (कोई भी) परम ज्ञान से प्राप्त ___ . करता है (कर सकता है), इसलिए परम ज्ञान निश्चय ही समझा जाना चाहिए। 21 जैसे बींधने योग्य (निशाने) रहित बाण के द्वारा रथिक लक्ष्य . को बिल्कुल ही नहीं देखता है वैसे ही ज्ञान रहित (व्यक्ति) - (प्रज्ञान के द्वारा) मोक्ष मार्ग (समता-मार्ग) में लक्ष्य को (बिल्कुल ही) नहीं, देखता है। 22 ज्ञान प्रात्मा में होता है, विनय से जुड़ा हुआ सत् पुरुष ही . (उसको) प्राप्त करता है। (वह) मोक्ष मार्ग (समता-मार्ग) के चयनिका ] For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 मइधणुहं जस्स थिरं सुदगुण बारणा सुअस्थि रयणतं । परमत्थबद्धलक्खो रण वि चुक्कवि मोक्खमग्गस्स ॥ 24 धम्मो दयाविसुद्धो पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता। . देवो ववगयमोहो उदययरो भव्वजीवारणं ॥ 25 सत्तूमित्ते य समा पसंसरिणदालदिलद्धिसमा । . तरणकरणए समभावा पध्वज्जा एरिसा भरिया ॥ 26 उत्तममज्झिमगेहे दारिद्दे ईसरे रिणरावेक्खा । सम्वत्थ गिहिपिंडा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ 27 पिण्णेहा पिल्लोहा णिम्मोहा णिब्वियार णिक्कलुसा । रिणम्भय णिरासभावा पव्वज्जा एरिसा . भणिया ॥ 10 ] [ प्रष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्य को देखता हुमा ( उस लक्ष्य को ) ज्ञान के द्वारा प्राप्त करता है । 23 जिसके लिए स्थिर मति धनुष ( है ), श्रुत (ज्ञान) डोरी (है), तीन रत्नों का समूह श्र ेष्ठ बारण ( है ) (तथा) परमार्थ (की प्राप्ति) का लक्ष्य दृढ़ (है), (वह) कभी मोक्ष के मार्ग (समता के मार्ग ) से विचलित नहीं होता है । 24 धर्म ( चारित्र ) ( वह है ) ( जो ) दया ( सहानुभूति के भाव ) से शुद्ध किया हुआ ( है ), सन्यास ( वह है ) ( जो ) समस्त श्रासक्ति से रहित (होता है), देव ( वह है ) ( जिसके द्वारा ) मूर्च्छा नष्ट की गई (है), (और) (जो) भव्य-जीवों (समता-भाव की प्राप्ति के इच्छुक व्यक्तियों) का उत्थान करने वाला होता है । 25 ऐसा कहा गया है ( कि) निश्चय ही सन्यासी का जीवन शत्रु और मित्र में समान (होता है), प्रशंसा और निंदा में, लाभ और अलाभ में (भी) समान (होता है) (तथा) (उसके जीवन में) तृण और सुवर्ण में समभाव (होता है) । 26 ऐसा कहा गया है ( कि) सन्यासी का जीवन उत्तम और मध्यम गृह में, ग़रीबी ( लिए हुए व्यक्ति) में तथा अमीर व्यक्ति में निरपेक्ष (होता है) (तथा) (उस जीवन में ) ( सन्यासी के द्वारा ) प्रत्येक के स्थान में (निरपेक्ष भाव से) आहार स्वीकृत (होता है) । 27 ऐसा कहा गया है ( कि) सन्यासी का जीवन राग रहित, लोभ रहित, उद्विग्नता रहित, क्षोभ रहित, दोष रहित, (तथा) भय चयनिका ] [ 11 For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 भावो हि पढमलिगं रण दलिगं च जाणः परमत्थं । भावो कारणभूदो गुणदोसारणं जिणा बिति ॥ 29 भावविसुद्धिणिमित्तं बाहिरगंथस्स. कोरए चानो।. बाहिरचायो विहलो अभंतरगंथजुत्तस्स ॥ . 30 जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेन भावरहिएण । पंथिय ! सिवपुरिपंथं जिणउवइटें पयत्तेण ॥ 31 रयणत्तये प्रलद्ध एवं भमिनो सि दोहसंसारे। इय जिरणवरेहि भरिणयं तं रयरगत्तं समायरह ॥ 32 भावविमुत्तो मुत्तो ग य मुत्तो बंधवाइमित्तण । __इय भाविऊरण उज्झसु गंध अभंतरं धीर ॥ 12 ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहित (होता है), (श्रीर) (उसमें ) श्राशा रहित भाव (विद्यमान रहता है) । 28 (यह ) (तुम) जानो ( कि) भाव निस्संदेह प्रधान वेश (होता है), किन्तु (केवल ) बाह्य वेश सचाई नहीं है । जितेन्द्रिय व्यक्ति कहते हैं ( कि) भाव (ही) गुण-दोषों का कारण ( सदैव ) हुश्रा ( है ) । 29 भाव -शुद्धि के हेतु बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है, प्रांतरिक परिग्रह (मूर्च्छा) से युक्त (व्यक्ति) का बाह्य त्याग निरर्थक है । 30 हे पथिक । (तुम) सर्व प्रथम भाव को समझो । भाव रहित वेश से तुम्हारे लिए क्या लाभ है ? ( इस प्रकार ) जितेन्द्रियों द्वारा शिवपुरी का मार्ग (परम शान्ति का मार्ग) सावधानी पूर्वक प्रतिपादित ( है ) 31 रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र) के प्राप्त न करने के कारण तूने इस प्रकार (विभिन्न प्रकार से) दीर्घकाल तक संसार (मानसिक तनाव ) में चक्कर काटा। इसलिए तुम (संब) तीन रत्नों को धारण करो । इस प्रकार समतादर्शियों द्वारा कहा गया है । 32 (जिस व्यक्ति के द्वारा ) ( प्रशुद्ध) भाव त्यागा हुप्रा ( है ) ( वह ) मुक्त (है), परन्तु (जो) (केवल) बंधु श्रादि तथा मित्र से मुक्त ( है ) ( वह) (मुक्त) नहीं ( है ) | ( अतः ) इस प्रकार विचार कर, हे धीर ! (तू) प्रांतरिक परिग्रह (मूर्च्छा) को त्याग । चयनिका ] For Personal & Private Use Only [ 13 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 देहादिसंगरहिनो माणकसाएहि सयलपरिचत्तो। . अप्पा अप्पम्मि रो स भावलिंगी हवे साहू ॥ 34 मत्ति परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवद्विदो। - प्रालंबरणं च मे प्रादा अवसेसाइं वोसरे ॥ 35 भावेह भावसुद्ध अप्पा सुविसुखणिम्मलं चेव । - लहु चउगइ चइऊरण जइ इच्छह सासयं सुक्खं ॥ 36 जो जीवो भावंतो जीवसहावं सुभावसंजुत्तो। __सो जरमरणविरणासं कुणइ फुड लहर रिणव्वाणं ॥ 37 जीवो जिणपणत्तो गाणसहानो.य चेयणासहिम्रो । सो जीवो गायव्वो कम्मक्खयकरणणिमित्तो॥ 38 अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेयणागुणमसदं । जारसमलिंगग्गहरणं जीवमरिणद्दिट्ठसंठाणं । 14 ] . .. . [ प्रष्टपाहुर For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 जो देहादि की प्रासक्ति से मुक्त (है), (जिसके द्वारा) मान कषाय के कारण (उत्पन्न हुआ) सकल (अहंकार) त्यागा गया है, (ऐसा ही) व्यक्ति प्रात्मा में स्थित (होता है), (ोर इसलिए) वह (व्यक्ति) भावरूपी वेश को धारण करने वाला साधु होता है। 34 (मैं) ममत्व को छोड़ता हूं (और) (मैं) निर्ममत्व में स्थिर (हूँ) । मेरा प्रात्मा ही (मेरा) पालंबन है। (अतः) (मेरा प्रात्मा) अवशिष्ट (प्रालंबनों) का त्याग करता है। 35 यदि तुम (सब) महत्वहीन चारों गतियों को छोड़कर शाश्वत सुख की इच्छा करते हो, (तो) स्वरूप से शुद्ध, पूर्ण निष्कलंक, (तथा) (कर्म)-मल रहित प्रात्मा को (ही) तुम (सब) विचारो। . 36 जो जीव प्रात्म-स्वभाव का चिन्तन करता हुमा श्रेष्ठ भावों से युक्त (होता है), वह बुढ़ापा और मृत्यु का नाश करता है - (प्रौर) निश्चय ही परम शान्ति को प्राप्त करता है। 37 जितेन्द्रियों के द्वारा प्रात्मा ज्ञान-स्वभाव-रूप तथा चेतना-सहित कहा गया है, वह (ही) प्रात्मा कर्मों के क्षय को करने वाला हेतु समझा जाना चाहिए। 38 प्रात्मा रस रहित, रूप रहित, गंध-रहित, शब्द रहित तथा - अदृश्यमान (है), (उसका) स्वभाव चेतना तथा ज्ञान (है), (उसका) ग्रहण बिना किसी चिन्ह के (केवल अनुभव से) . (होता है) (और) (उसका) प्राकार अप्रतिपादित (है)। . चयनिका ] [ 15 For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39 पढिएण वि किंकीरइ किंवा सुणिएण भावरहिएण । भावो कारणभूदो सायारणयारभूदाणं ॥ 40 भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुदमेव वायव्वं ।। असुहं च अट्टरह सुहषम्म जिरणवरिवेहिं ॥ 41 सुद्ध सुद्धसहावं अप्पा अप्पम्मि तंच णायव्वं । इदि जिरणवरेहि भारिणयं जं सेयं तं समायरह ॥ . 42 ग्रह पुरण अप्पा णिच्छदि पुण्णाई करेदि गिरवसेसाई । तह वि ण पावदि सिद्धि संसारस्थो पुणो भरिणदो ॥ 43 बाहिरसंगच्चामो गिरिसरिदरिकंदराइ प्रावासो । सयलो . झागझयणो गिरस्थो भावरहियाणं ॥ 44 भंगसु इंबियसेणं भनसु मणमक्क पयत्तेण । मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस तं कुणसु ॥ 16 ] . [पष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39 (हे मनुष्य)। भाव-रहित सुना हुआ होने से क्या लाभ प्राप्त किया जाता है, प्रथवा (भाव-रहित) पढ़े जाने से भी क्या लाभ (प्राप्त किया जाता है)। भाव (ही) गृहस्थ (एवं) साधु होने वालों का आधार बना हुआ है। . . . . . . . 40 (जो) भाव (है) (उसके) तीन प्रकार के भेद (है)। (वह भाव) शुभ, अशुभ (तथा) शुद्ध ही समझा जाना चाहिए। प्ररहंतों द्वारा (कहा गया है कि) धर्म (ध्यान) शुभ (है) तथा मार्त और रौद्र (ध्यान) अशुभ (हैं)। 41 (जो) (आत्मा का) शुद्ध स्वभाव (है) (वह) शुद्ध (भाव) (है); वह (शुद्ध भाव) प्रात्मा के द्वारा आत्मा में ही अनुभव किया : जाना चाहिए । (तीनों में) जो श्रेष्ठ (है) (तुम) उसका प्राचरण करो। इस प्रकार अरहंत द्वारा कहा गया है। . ... 42 यदि (मनुष्य) प्रात्मा को नहीं चाहता है, किन्तु (वह) (केवल) सकल पुण्यों को (ही) करता है, तो भी (वह) परम शांति नहीं पाता है. (और) (वह) संसार (अशान्ति) में ही स्थित कहा गया है। 43 भाव-रहित. (व्यक्तियों) के लिए बाह्य परिग्रह का त्याग, पर्वत, नदी, गुफा और घाटी में रहना तथा सकल ध्यान और अध्ययन (ये सब) निरर्थक (हैं)। . 44 इन्द्रियरूपी सेना को छिन्न-भिन्न करो, मनरूपी बंदर को प्रयत्न पूर्वक रोको, (तथा) जन-समुदाय को खुश करने के साधन, (केवल) बाह्य व्रतरूपी वेश को तुम धारण मत करो। चयनिका ] _ [17 For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 जह पत्थरोण भिज्जइ परिट्ठिो दोहकालमुदएण। . तह साहू वि ण भिज्जइ उवसग्गपरीसहेहितो ॥ 46 पावं हवइ असेसं पुण्णमसेस च हवइ परिणामा । परिणामादो बंधो मुक्खो जिरण सासणे दिट्ठो ॥ 47 जह दीवो गम्भहरे मारुयबाहाविवज्जिो जलइ । तह रायानिलरहिरो झाणपईवो वि पज्जलइ । 48 झायहि पंच वि गुरवे मंगलचउसरणलोयपरियरिए । परसुरखेयरमहिए .. पाराहणणायगे वीरे ॥ 49 उत्थरइ जा ण जर प्रो रोयग्गी जा ए डहइ देहडि । इंदियबलं त वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं ॥ 50 जीवविमुक्को सवनो दंसणमुक्को य होइ चलसवनो। सवो लोयमपुज्जो लोउत्तरयम्मि चलसवो ॥ 18 ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 जैसे दीर्घकाल तक जल में पड़ा हुआ पत्थर (जल के द्वारा) टुकड़े-टुकड़े नहीं किया जाता है, वैसे ही साधु भी उपसर्ग परिषहों के कारण (उनके द्वारा) शिथिल नहीं किया जाता है । 46 समस्त पुण्य परिणाम (भाव) से होता है, तथा समस्त पाप (भी) (परिणाम से) होता है। जिन शासन में बंध और मोक्ष परिणाम से ही प्रतिपादित हैं। 47 जिस प्रकार दीपक घर के भीतर के कमरे में हवा की बाधा ___ से रहित जलता है, उसी प्रकार रागरूपी हवा से रहित ध्यान - रूपी दीपक भी जलता है। 48 कल्याणकारी, चार (गतियों में) शरणरूप, लोक को विभूषित .. करने वाले, मनुष्यों, देवताओं तथा विद्याधरों' द्वारा पूजित, अाराधना के लिए श्रेष्ठ (तथा) ऊर्ध्वगामी ऊर्जावाले (इन) - पांच गुरुत्रों अर्थात् प्राध्यात्मिक स्तंभों का ही (तुमको) ध्यान करना चाहिए। 49 हे मनुष्य ! जब तक (तुझे) वृद्ध (अवस्था) नहीं पकड़ती है, जब तक रोगरूपी अग्नि देहरूपी कुटिया को नहीं जलाती है, .. (जब तक) इंद्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होती है, तब तक तू. आत्म-हित करले। 50 जीव द्वारा छोड़ा हुआ (शरीर) शव (होता है), किन्तु सम्यग्दर्शन रहित (मनुष्य) (तो) हिलने-डुलने वाला शव होता है । शव लोक में प्रादरणीय नहीं (होता है), (और) हिलने-डुलने वाला शव असाधारण (मनुष्यों) में अर्थात् योगियों में (प्रादरणीय नहीं होता है) 1. विद्या के बल से माकाश में विचरण करने वाले मनुष्य । - चयनिका ] [ 19 For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51 जह तारयाण चंदो मयराम्रो मयउलारण सव्वाण । श्रहिश्रो तह सम्मत्तो रिसिसावयदुविहधम्मारणं ॥ 52 इय गाउं गुणदोषं दंसरगरयणं धरेह भावेण । सारं गुणरयणाणं सोवाणं पढम मोक्खस्स ॥ 53 गाणी सिव परमेट्ठी सव्वण्ह विण्डु चउमुहो बुद्धो । अप्पो वि य परमप्पो कम्मविमुक्को य होइ फुडं ॥ 54 जह सलिलेर रंग लिप्पइ कमलिपित्तं सहावपयडीए । तह भावेण ण लिप्पs कसायविसएहि सप्पुरिसो ॥ 55. ते धीरवीरपुरिसा खमदमखग्गेण विष्फुरंते । - दुज्जयपबलबलुद्ध रकसायभड रिज्जिया जेहि ॥ 56 मायावेल्लि असेसा मोहमहातरुवरम्मि प्रारूढा । विसयविसपुप्फफुल्लिय लुणंति मुणि णाणसत्थेहि ॥ 57 मोहमयगारवेहि य मुक्का जे करुणभावसंजुत्ता । हणंति चारित्तखग्गेण || दुरिय 20] For Personal & Private Use Only [ प्रष्टपाहुड Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51. जैसे तारों में चन्द्रमा (तथा) समस्त हरिण समूह में सिंह प्रधान (होता है), वैसे ही ऋषि (साधु) और श्रावक (गृहस्थ) दो प्रकार के धर्मों में सम्यग्दर्शन (प्रधान होता है)। . 52 इस प्रकार गुण-दोष को.जानकर सम्यग्दर्शनरूपी रत्न को भाव पूर्वक धारण करो। (चूंकि) (यह)गुणरूपी रत्नों का सार (है), __(और) परम शांति की पहली सीढ़ी (है)। ...... 53 निस्सन्देह कर्मों से रहित आत्मा ही ज्ञानी, शिव, प्राध्यात्मिक गुरु, सर्वज्ञ, विष्णु, ब्रह्मा, बुद्ध और परमात्मा भी होता है। 54 जैसे कमलिनि का पत्ता स्वभाव और प्रकृति के कारण जल से मलिन नहीं किया जाता है, वैसे ही सत्पुरुष. (सम्यग्दृष्टि मनुष्य) कषायों और विषयों के कारण कुभाव से दूषित नहीं किया जाता है। 55 वे पुरुष साहसी और वीर (हैं),(जिनके द्वारा) क्षमा तथा आत्म संयमरूपी चमकती हुई तलवार से दुर्जय, प्रबल, बल में प्रचण्ड कषायरूपी योद्धा जीत लिए गए हैं। 56 मूर्छारूपी महा तथा गहन वृक्ष पर चढी हुई (तथा) विषयरूपी विष-फूलों से खिली हुई सम्पूर्ण कंपटरूपी लताओं को मुनि - ज्ञानरूपी शस्त्रों से पूर्णत: नष्ट कर देते हैं। 57 जो मूर्छा, अभिमान और लालसा से मुक्त (हैं); तथा करुणा भाव से संयुक्त (हैं), वे चारित्ररूपी तलवार से पूर्ण पापरूपी खम्भे को नष्ट कर देते हैं। . . चयनिका ] .. [ 21. For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 जं जाणिकरण जोई जोप्रत्यो जोइऊण प्रणवरयं । . अव्वाबाहमणंतं अगोवमं लहइ णिव्वाणं ॥ 59 तिपयारो सो अप्पा परभितरबाहिरो हु हेऊरण । तत्थ परो झाइज्जइ अंतोवायेण चयहि बहिरप्पा ॥ 60 अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा, हु अप्पसंकप्पो। कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए. देवो ॥ 61 प्रारुहवि अंतरप्पा बहिरप्पा छडिऊरण तिविहेण । झाइज्जइ. परमप्पा उवइटें जिरणवरिदेहि ॥ 62 बहिरत्थे फुरियमणो इंदियदारेण णियसरूवचुनो। रिणयदेहं अप्पारणं अज्झवसदि मूढदिट्ठी प्रो ॥ 63 जो देहे हिरवेक्खो णिइंदो णिम्ममो णिरारंभो। . प्रादसहावे सुरो जोई सो लहइ णिब्वाणं ॥ 22 ] . [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 जिस (प्रात्मा) को जानकर (और) लगातार अभिव्यक्त करके ध्यान में स्थित योगी निर्बाध, अनन्त, अनुपम परम शांति को . प्राप्त करता है, (वह आत्मा तीन प्रकार की है)। . 59 निश्चय ही (भिन्न भिन्न) कारणों से वह आत्मा तीन प्रकार __का है-परम (आत्मा), प्रांतरिक (आत्मा) और बहिर - (आत्मा) । (तुम) बहिरात्मा को छोड़ो, (चूंकि) उस (परम) अवस्था में प्रांतरिक (प्रात्मा) के साधन से परम (आत्मा) ध्याया जाता है। 60 (शरीररूपी) इन्द्रियाँ (ही) बहिरात्मा (है)। (शरीर से भिन्न) आत्मा. का विचार ही अंतरात्मा (है), (तथा) कर्म-कलंक (तनाव) से मुक्त (जीव) परम-प्रात्मा देव (है)। (इस प्रकार यह) कहा जाता है। 61 तीन प्रकार (मन-वचन-काय) से बहिरात्मा को छोड़कर . अंतरात्मा को ग्रहण कर परम प्रात्मा ध्याया जाता है । (यह) अरहंतों द्वारा कथित (है)।। 62 इन्द्रियों के माध्यम से बाह्य पदार्थ में (जिसका) मन लगा हुआ है, (उसके द्वारा) (निश्चय ही) निज स्वरूप भूला हुआ (है)। (इस तरह से) खेद ! मूढदृष्टि वाला (व्यक्ति) निज देह (और) आत्मा को (एक) विचारता है। 63 जो देह से उदासीन है, (जो) (मानसिक) द्वन्द्व-रहित (है), ममतारहित (तथा) जीव-हिंसारहित (है), (जो) प्रात्म-स्वभाव में पूरी तरह संलग्न है, वह योगी परम शांति प्राप्त करता है। चयनिका ] [ 23 For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 परदब्वरमो बज्झदि विरमो मुच्चेइ विविहकम्मेहिं । - एसो जिणउवदेसो समासवो . बंधमुक्खस्स ॥ 65 परबव्वादो दुग्गइ सहव्वादो हु सग्गई होई । - इय गाऊरण सदब्वे कुणह रई विरय · इयरम्मि ॥ 66.पावसहावा अण्णं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं हवइ । - तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरसोहि ॥ 67 बुट्टकम्मरहियं अणोवमं रणागविग्गहं पिच्चं । . सुद्ध जिहिं कहियं अप्पाणं हवइ सद्दव्वं ॥ 68 जे झायंति सदव्वं परदव्वपरंमुहा हु सुचरित्ता । ते जिणवराण मग्गे अणुलग्गा लहन्ति मिव्वाणं ॥ 69 वर वयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ जिरइ इयरेहि। .. छायातवट्ठियाणं पडिवालंतारण गुरुभेयं ॥ [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 पर द्रव्य में अनुरक्त (व्यक्ति) विभिन्न प्रकार के कर्मों (तनावों) के द्वारा बांधा जाता (है), (पर द्रव्य से) अनासक्त (व्यक्ति) (विभिन्न प्रकार के मानसिक तनावों से) छुटकारा पाता है। संक्षेप से, बन्ध (प्रशान्ति) और मोक्ष (शान्ति) के विषय में यह जिन-उपदेश है। 65 पर द्रव्य के कारण दुर्गति (होती है), किन्तु स्व-द्रव्य के कारण सुगति होती है। इस तरह (यह) जान कर (तुम सब) स्व द्रव्य में अनुराग करो (तथा) शेष से विरति (करो)।. . 66 आत्म-स्वभाव से अन्य (जो) सचित्त-अचित्त (तथा) मिश्रित (द्रव्य) होता है, वह सर्वज्ञ द्वारा सच्चाईपूर्वक पर द्रव्य कहा गया है। 67 जिन द्वारा कथित (वह) आत्मा (जो) दुष्ट पाठ कर्मों से रहित (है), अनुपम, नित्य, (और) शुद्ध (है), (तथा) (जिसका) ज्ञान ही शरीर (है) (वह) स्वद्रव्य होता है । 68 निश्चय ही पर द्रव्य से विमुख जो (व्यक्ति) सम्यक् प्रकार से आचरण करके स्व द्रव्य का ध्यान करते हैं, उन्होंने जितेन्द्रिय के पथ का अनुसरण किया है । (अतः) (वे) परमशांति प्राप्त · करते हैं। 69 व्रतों और तपों के द्वारा जो स्वर्ग (प्राप्त किया जाता है), (वह) अधिक अच्छा (है), (जिससे) इतरों (अव्रतों और अतपों) के कारण नरक में (जाने का) दुख न होवे। (ठीक ही है) छाया और गरमी में ठहरे हुए प्रतीक्षा करते हुए (व्यक्तियों) में बड़ा .. भेद है। चयनिका ] - [ 25 For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 जो इच्छइ णिस्सरिदु संसारमहण्णवाउ रुहायो । ___कम्मिधरणाण डहणं सो झायइ अप्पयं सुद्ध॥ 71 सम्वे कसाय मोत्तु गारवमयरायदोसवामोहं । _____ लोयववहारविरदो अप्पा झायइ झारपत्थो ॥ 72 जं मया दिस्सदे रूवं तं ण जाणादि सव्वहा । ___ जाणगं दिस्सदे णं तं तम्हा जंपेमि केरण हं ॥ .73 जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि । जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो प्रप्पणो कज्जे ॥ 74 इय जारिणऊरण जोई ववहारं चयइ सम्वहा सव्वं । झायइ परमप्पारणं जह भरिणयं जिरगरिदेहि ॥ । 75 तच्चरुई सम्मत्तं तच्चग्गहणं च हवइ सण्णाणं । . चारित्तं परिहारो पयंपियं जिणवारदेहि ॥ 76 जं जारिणऊरण जोई परिहरं कुणइ पुण्णपावाणं । .. तं चारित्तं भरिणयं प्रवियप्पं कम्मरहिएहि ॥ 26 ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 जो भीषण संसाररूपी महासागर से (बाहर) निकलने की चाह रखता है, वह कर्मोरूपी ईंधन को जलाने वाली शुद्ध प्रात्मा का ध्यान करता है। 71 ध्यान में स्थित (व्यक्ति) लोक में (हिंसात्मक) व्यवहार से . . रुका हुआ (रहता है), (तथा) लालसा, अहंकार, राग-द्वेष, व्याकुलता और सभी कषायों को छोड़ कर प्रात्मा को ध्याता है। 72 जो रूप मेरे द्वारा देखा जाता है, वह बिल्कुल नहीं जानता है, (और) (जो) जानने वाला है वह (मेरे द्वारा) देखा नहीं जाता है, इसलिए मैं किसके (साथ) बोलू। . 73 जो योगी बाह्य लोकाचार (विषमता) में सोया हुप्रा (है) वह आत्मा (तनाव-मुक्तता) के काज में जागता है। जो बाह्य लोकाचार (विषमता) में जागता है, वह प्रात्मा (तनाव-मुक्तता) के काज में सोया हुआ है। ... 74 इस तरह जानकर योगी पूर्णतः सब बाह्य लोकाचार को छोड़ता है, (और) जिस तरह जितेन्द्रियों (अरहंतों) द्वारा कहा . — गया है, (उसी तरह) परमात्मा का ध्यान करता है। 75 अध्यात्म (समता/तनाव-मुक्तता) में रुचि सम्यक्त्व (है), और 'अध्यात्म (मानसिक समता) का ज्ञान सम्यक् ज्ञान होता है, त्याग (अंनासक्ति) चारित्र (है), जितेन्द्रियों (अरहंतों) द्वारा. (यह) कहा गया है। 76 जिस (शुद्ध प्रात्मा) को जानकर योगी पुण्य और पाप का परित्याग करता है, कर्म-रहित (व्यक्तियों) द्वारा वह निर्विकल्प (आत्मानुभव-रूप.) चारित्र कहा गया हैं। चयनिका ] । [ 27 For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77 जो रयणत्तयजुत्तो कुणइ तवं संजदो ससत्तीए । ... सो पावइ परमपयं झायंतो अप्पयं. सुद्ध ॥ .. 78 मयमायकोहरहिनो लोहेण विवज्जिो य जो जीवो । हिम्मलसहावजुत्तो . सो. पावइ उत्तमं. सोक्खं ॥ 79 परमप्पय झायंतो जोई मुच्चेइ मलदलोहेण । गादियदि एवं कम्मं रिणद्दिनें जिणवारदेहि ॥ 80 होऊण दिढचरित्तो दिढसम्मत्तेरण भावियमईयो । - झायंतो अप्पाणं परमपयं पावए जोई ॥ 81 चरणं हवइ सधम्मो धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो । सो रागरोसरहिनो जीवस्स अणण्णापरिणामो ॥ 82 जह फलिहमरिण विसुद्धो परदव्वजुदो हवेइ अण्णं सो । तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु प्रणण्णविहो ॥ 83 तवरहियं जं गाणं गाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो । . तम्हा रणागतवेणं संजुत्तो लहइ रिणव्वारणं ॥ 28 ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77 रत्नों के तिगडु से युक्त जो संयत योगी अपनी शक्ति के ( अनुरूप ) तप करता है, वह शुद्ध आत्मा को ध्याता हुआ उच्चतम स्थिति को प्राप्त करता है । 78 लोभ से रहित तथा अहंकार, जीव निर्मल स्वभाव से युक्त पाता है । कपट, (और) क्रोध से रहित जो (होता है), वह उत्तम सुख को 79 परम आत्मा को ध्याता हुआ 1 योगी अपवित्रता को उत्पन्न करने वाले लोभ से मुक्त हो जाता है, (तथा) नवीन कर्मों को ग्रहण नहीं करता है । (ऐसा ) अरहंतों द्वारा कहा गया है । f 80 दृढ़ सम्यक्त्व से मति विशुद्ध ( होती है) (तथा) चारित्र दृढ़ (होता है) । ( ऐसा ) प्राप्त करके योगी आत्मा को ध्याता हुआ परम पद को प्राप्त करता है । 1 81 चारित्र आत्मा का धर्म होता है, वह धर्म आत्मा की समता होता है ( श्रोर) वह (प्रात्मा की समता) हर्ष और क्रोध रहित जीव का अनुपम परिणाम है । 82 जैसे स्फटिक मणि शुद्ध होती है, से संयुक्त (होती है) (तो) वह अन्य है, वैसे ही जीव रागादि ( दोषों) से ( जब वह ) ( पर द्रव्य से संयुक्त होता है तो ) भिन्न भिन्न प्रकार का हो जाता है । (किन्तु ) ( जब वह ) पर द्रव्य (नाम) को प्राप्त करती रहित (होता है), किन्तु 83 चु कि तपरहित ज्ञान तथा ज्ञान रहित तप (दोनों ही ) असफल (होते हैं), इसलिए (जो व्यक्ति) ज्ञान (श्रीरं ) तप से संयुक्त (होता है ) ( वह ही) परम शान्ति को प्राप्त करता है । * चयनिका ] For Personal & Private Use Only [29 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 ग्राहारासणणिद्दाजयं च काऊण जिणवरमएण । stroat पियवा णाऊणं गुरुपसाएण ॥ 85 ताम ण णज्जइ प्रप्पा विसएसु णरो पवट्टए जाम ! विसए विरतचित्तो जोई जाणे प्रमाणं ॥ 86 परमाणुपमारणं वा परदव्वे रदि हवेदि मोहादो । सो मूढो प्रण्णाणी श्रावसहावस्स विवरीनो ॥ 87 जेण रागो परे दव्वे संसारस्स हि कारणं । तेरणा वि जोहरणों रिगच्चं कुज्जा प्रप्पे सभावणा ॥ 88 रिंगदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहएसु य । सत्तूणं चेव बंधूणं चारितं समभावदो । . 89 fresयरयस्स एवं प्रप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो । सो होदि हु सुचरितो जोई सो लहइ णिग्वाणं ॥ 90 ते घण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया । सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे वि रंग महलियं जहि ॥ 30 ] For Personal & Private Use Only [. अष्टपाहुड Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 जितेन्द्रियों के मत से तथा गुरु प्रसाद से ( शुद्ध ग्रात्मा को) जानकर, ग्राहार, ग्रासन श्रौर निद्रा को जीत कर, निज श्रात्मा ध्याया जाना चाहिए ।. 85 जब तक मनुष्य विषयों में प्रवृत्ति करता है, तब तक ( वह ) श्रात्मा को नहीं जानता है, (जिस योगी का ) चित्त विषय से उदासीन है, ( वह ) योगी (ही) श्रात्मा को जानता है । 86 मूर्च्छा के कारण (जिसकी ) पर द्रव्य में परमाणु की माप के समान ( भी ) प्रासक्ति होती है, वह मूढ, प्रज्ञानी (व्यक्ति) ग्रात्मा के (शुद्ध) स्वभाव का विरोधी (होता है) । 87 कि पर द्रव्य में राग निश्चय हीं संसार का कारण है, इसलिए ही योगी आत्मा के विषय में श्रेष्ठ चिन्तनों को सदैव धारण करें | 88 निंदा और प्रशंसा में दुखों और सुखों में तथा शत्रुनों श्रौर मित्रों में समभाव (रखने) से (ही) चारित्र होता है । 89 निश्चयनय के ( अनुसार ) बिल्कुल ऐसा ही है ( कि) आत्मा आत्मा में आत्मा के लिए पूरी तरह से संलग्न (होता है) । वह (स्थिति) ही श्रेष्ठ चारित्र होती है, (और ऐसा ) वह योगी (ही) परम शांति को प्राप्तं करता है । 90 कल्याण करने वाला सम्यक्त्व जिनके द्वारा स्वप्नं में भी मलिन नहीं किया गया (है), वे ही मनुष्य (हैं), वे (ही) धन्य (तथा) पूरी तरह सफल ( हैं ), वे (ही) वीर (श्रौर) पंडित ( हैं ) । चयनिका ] [ 31 For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91 सम्म गुण मिच्छ दोसो मणेण परिभाविऊरण तं कुरणसु । __ जं ते मस्स रुच्चइ कि बहुरणा पलविएणं तु ॥. 92 वेरग्गपरो साहू परदव्वपरम्मुहो य जो होदि । संसारसुहविरत्तो सगसुद्धसुहेसु अणुरत्तो ॥ 93 गुणगणविहूसियंगो हेयोपादेयरिणच्छिनो साहू । __ झारपज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं ॥ 94 अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेट्ठी । . ते वि हु चिहिं प्रादे तम्हा प्रादा हु मे सरणं ॥ 95 सम्मत्तं सपणारणं सच्चारित्तं हि सत्तवं चेव । ___ चउरो चिट्ठहिं प्रादे तम्हा. प्रादा हु मे सरणं ॥ 96 धम्मेण होइ लिगं रण लिंगमसेण धम्मसंपत्ती । ___ जाणेहि भावधम्म कि ते लिंगेण कायस्वो ॥ 97 सोलस्स य रणारणस्स य गस्थि विरोहो बुधेहि रिणदिवो । णवरि य सीलेण विणा विसया गाणं विणासंति ॥ 32 ] [ प्रष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91 सम्यक्त्व गुण (है), मिथ्यात्व दोष (है)। मन से विचार करके जो तुम्हारे मन को रुचे, वह (तुम) ग्रहण करो। बहुत अनर्थक कहने से भी क्या लाभ (है) ? 92 जो साघु वैराग्य में लीन होता है, पर द्रव्य से विमुख (होता है), और संसार-सुखों से विरक्त (होता है), वह (ही) मात्मा के शुद्ध सुखों में अनुरक्त (होता है)। 93 (जिसकी) बुद्धि गुणों के समूह द्वारा अलंकृत (होती है), (जिसके द्वारा) हेय और उपादेय निश्चित कर लिए गए (है), (ऐसा) (जो) साधु ध्यान और अध्ययन में पूरी तरह लीन (होता है), वह उत्तम स्थिति प्राप्त करता है। 94 अरहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु पंच परमेष्ठि (हैं)। चूंकि वे निश्चय ही आत्मा में स्थित (होते हैं), इसलिए प्रात्मा . ही मेरे लिए शरण है। 95 निश्चय ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र तथा सम्यक तप-ये चारों प्रात्मा में स्थित हैं, इसलिये प्रात्मा ही मेरे लिए शरण है। 96 धर्म (समभाव) के कारण (ही) वेश होता है, वेश मात्र से धर्म (समभाव) की प्राप्ति नहीं (होती है), (इसलिए) भाव-धर्म को समझो । तुम्हारे लिए वेश से क्या किया जायगा? 97 विद्वानों (जागृत व्यक्तियों) द्वारा शील (चरित्र) और ज्ञान में विरोध नहीं बतलाया गया है। किन्तु (यह कहा गया कि) केवल शील (चरित्र) के बिना विषय ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। चयनिका ] [ 33 For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 गाणस्स गास्थि दोसो कापुरिसारणं वि मंदबुद्धीणं । जे गाणगन्विदा होऊणं विसएसुः रज्जति ॥ 99 वायरगछंदवइसेसियववहारणायसत्थेसु । वेदेऊण सुदेसु य तेव सुयं उत्तम सोलं ॥ 100 जीवदया दम सच्चं प्रचोरियं बंभचेरसंतोसे । सम्मइंसरण गाणं तमो य सीलस्स परिवारो ॥ 34 ] [ मष्टपाहुर For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 जो (व्यक्ति) ज्ञान से गावत होकर विषयों में प्रासक्त होत है, (इसमें ) ज्ञान का दोष नहीं है, ( वह दोष) (उन) दुष्ट पुरुषों की अकर्मण्य बुद्धि का ही है । 99 व्याकरण, छंद, वैशेषिक, न्याय - प्रशासन (तथा) न्याय - शास्त्रों को जानकर और भागमों को (जानकर ) ( भी ) तुम्हारे लिए शील (चरित्र) ही उत्तम कहा गया ( है ) । 100 जीव दया, इंद्रिय संयम, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, सम्यक् दर्शन, ज्ञान और तप - ( ये सभी) शील के (ही) परिवार हैं । चयनिका ] For Personal & Private Use Only [ 35 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक संकेत-सूची (अ) = अव्यय (इसका अर्थ मूक = भूतकालिक कृदन्त = लगाकर लिखा व = वर्तमानकाल ___ गया हैं) = वर्तमान कृदन्त अक = अकर्मक क्रिया वि = विशेषण अनि = अनियमित विधि = विधि आज्ञा . . - प्राज्ञा विधिक ___= विधि कृदन्त कर्म = कर्मवाच्य = सर्वनाम = सम्बन्ध भूत कृदन्त (क्रिविअ) = क्रिया विशेषण = सकर्मक क्रिया . अव्यय (इसका सवि = सर्वनाम विशेषण अर्थ लगाकर । स्त्री = स्त्रीलिंग लिखा गया है) हेक = हेत्वर्थ कृदन्त ( ) = इस प्रकार के कोष्टक में मूल = तुलनात्मक विशेषण शब्द रक्खा गया पु = पुल्लिग = प्रेरणार्थक क्रिया [( )+( )+( ).......] = भविष्य कृदन्त इस प्रकार के कोष्टक के अन्दर + __= भविष्यत्काल चिह्न किन्हीं शब्दों में संधि का द्योतक भाव = भाववाच्य है। यहां अन्दर के कोष्टकों में गाथा भू . = भूतकाल के शब्द ही रख दिये गये हैं। 36 ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ )( )–( )] )........] इस प्रकार के कोष्टक के अन्दर'चिह्न समास का द्योतक हैं । 2/2 3 / 1 • जहां कोष्टक के बाहक केवल संख्या (जैसे 1/12/1 आदि ) ही लिखी है, वहां उस कोष्टर के 3/2 अन्दर का शब्द 'संज्ञा' है । 4/1 • जहां कर्मवाच्य, प्रादि प्राकृत के नियमानुसार नहीं बने हैं, वहां कोष्टक के बाहर 'अनि' भी लिखा गया हैं । 1 / 1 अक या सक = उत्तम पुरुष / एक वचन 2/1 अक या सक .... 1/2 श्रक या सक = उत्तम पुरुष / L चयनिका ] कृदन्त 5/1 2/2 अक या सक = मध्यम पुरुष / बहुवचन मध्यम पुरुष / * एक वचन 3/1 अक या सक = अन्य पुरुष / एक वचन 1/1 1/2 2/1 3/2 अंक या सक= अन्य पुरुष / बहुवचन 4/2 8/1 बहुवचन 8/2 5/2 6/1 6/2 7 / 1 7/2 = = = -- = = = == = = = = = == = = प्रथमा / एकवचन प्रथमा / बहुवचन द्वितीया / एकवचन द्वितीया / बहुवचन तृतीया / एकवचन तृतीया / बहुवचन चतुर्थी / एकवचन चतुर्थी / बहुवचन For Personal & Private Use Only पंचमी / एकवचन पंचमी / बहुवचन षष्ठी / एकवचन षष्ठी / बहुवचन सप्तमी / एकवचन सप्तमी / बहुवचन संबोधन / एकवचन संबोधन / बहुवचन [ 37 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 सम्मत्तरयणभट्ठा [(सम्मत्त)-(रयरण)-(भट्ठ) 1/2 वि । जाणंता (जाण) वकृ 1/2 । बहुविहाई (बहुविह) 2/2 वि. । सस्थाई (सत्थ) 2/2 । आराहणाविरहिया [(आराहणा)-(विरह) भूकृ 5/1] । भमंति (भम) व 3/2 सक । तत्थेव [(तत्थ) + (एव)] तत्थ' (त) 7/1 सवि एव (अ)=ही . . 1. 'गमन' अर्थ वाली क्रियाओं के योग में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है। 2. कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति __का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135) 2 सम्मत्तसलिलपबहो[ (सम्मत्त)-(सलिल)-(पवह) 1/1] | णिच्चं (अ)= नित्य । हियए (हियग्र) 7/1। पवट्टए (पवट्ट) व 3/1 अक । जस्स (ज) 6/1 स । कम्मं (कम्म) 1/1 । वालुयवरणं [(वालुय)-(वरण) 1/1] । बंधु (बंध) 1/1 अपभ्रश । च्चिय (अ)=निश्चय ही । गासए (णास) व 3/1 अक । तस्स (त) 6/1 स। . 3 जे (ज) 1/2 सवि । दंसणेसु (दंसग) 7/2 । भट्ठा (भट्ठ) 1/2 वि । गाणे (गगाण) 7/1 । चरित्तभद्वा । (चरित्त)-(भट्ट) 1/2 वि । य (अ)= तथा। एदे (एद) 1/2 सवि । भविभट्ठा [(भट्ठ) वि(विभट्ठ) 1/2 वि | । सेसं (सेम) 2/1 वि । पि (अ) = भी। जणं (जण) 2/1 । विणासंति (विरणास) व 3/2 सक ।। 3. कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-136) 'दंसरण' सम्मान सूचक होने से यहाँ इसमें बहुवचन का प्रयोग है। 4 सम्मत्तानो (सम्मत्त)5/1 । गाणं (गाग्ग)1/1। णाणादो (णागा) 5/1। सम्वभावउवलती [(सव्व)-(भाव)-(उवलद्धि) 1/1] । उवलउपयत्थे 4. कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135) 38 ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [(उवलद्ध) भूकृ अनि-(पयत्थ)7/1] । पुण (अ)= निश्चय ही। सेयासेयं [(सेय)+ (असेयं)] [(सेय)-(असेय) 2/1] । वियाणेदि (वियाण) व 3/1 सक। 5 सेयासेयविदण्हू (सेय)+ (असेय)+ (विदण्हू)] [(सेय)-(असेय) (विदण्हु)वि1/1] । उखुददुस्सील [(उद्घद) भूकृ अनि-(दुस्सील) मूल शब्द 1/1] । सीलवंतो (सीलवंत) 1/1 वि । वि (अ)= भी । सीलफलेगम्भुदयं [(सील)+ (फलेण)+ (अब्भु दयं)] [(सील)-(फल) 3/1] अब्भुदयं (अब्भुदय) 2/1 । तत्तो (अ) = उस कारण से । पुण (अ) = फिर । लहइ (लह) व 3/1 सक । णिव्वाणं (रिणव्वाण) 2/1। 1. पद्य में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जाता है । (पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ, 517) 6 जिणवयणमोसहमिणं [ (जिण) + (वयणं) + (प्रोसह) + (इणं) ] [(जिण-(वयण) 1/1] प्रोसहं (प्रोसह) 1/1 इणं (इम) 1/1 सवि । विसयसुहविरेयणं [(विसय)-(सुह)-(विरेयण) 1/1 वि]। अमिभूयं [(अमिद)-(भूय) भूकृ 1/1 अनि] । जरमरणवाहिहरणं [(जर)(मरण)-(वाहि)-(हरण) 1/1 वि] खयकरणं [(खय)-(करण) 1/1 वि] । सव्वदुक्खाणं [(सव्व) वि-(दुक्ख) 6/2] । 7 जीवादी' . [(जीव+ (प्रादी)] [(जीव)-(आदि) 2/2] । सद्दहणं' (सद्दहण) 1/1 । सम्मत्तं (सम्मत्त)1/1 । जिरणवरेहिं (जिणवर) 3/2 । पण (पण्णत्त) भूक 1/1 अनि । ववहारा (ववहार) 5/1 । णिच्छयदो (णिच्छय) पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय । अप्पा (अप्प) 1/1। गं (अ)= ही । हवइ (हव) व 3/1 अक । सम्मत्तं (सम्मत्त) 1/1 । - . 2. 'श्रद्धा' के योग में द्वितीया का प्रयोग (अथवा) कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137) । चयनिका]] [ 39 For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 एवं (अ) = इस प्रकार । जिणपण्णत्तं (जिग)-(पणत्त) भूक 1|| अनि । सगरयणं । (दमण)-(रयरण) 1/1]। धरेह (धर) अाज्ञा . 2/2 सक । भावेण (क्रिविन) = भावपूर्वक । सारं (मार) 1/।। गुणरयणत्तय [(गुगण)-(रयग्ग)-(त्तय) मूलणब्द 6/1।। सोवाणं (सोवाग) 1/1 । पढम' (पढम) 1/1 वि । मोक्खस्स (मोक्म) 4/।। 1. अनुस्वार का लोप विकल्प से होता है। (हेम प्राप्त व्याक गा : 1-29) 2. गुण=तीन गुणों से व्युत्पन्न तीन की संख्या । 3. देखें गाथा सं. 5 9 गाणं (गाण) 1/1 | परस्स (गर) 4/1 । सारो (मार) 1|| । वि (अ)=तथापि । होइ (हो) व 3/1 अक। सम्मत्तं (मम्मन) 1/।। सम्मत्ताओ (सम्मत्त 5/1 | चरणं (घरग) 1|| । चरणाओ (चरण) 5/1 । गिव्वाणं (गिव्वागग) 1/।। 10 सुत्तम्मि' (सुत्त) 7/1। जाणमाणो (जाग) व 1|| । भवस्स (भव) 4/1 वि । भवरणासणं । (भव)-(ग्गामण) 1/1] । च (अ) = निश्चय ही सो (त) 1/1 मवि । कुणदि (कुण) व 3/1 सक । सूई (मूई) - 1/1 । जहा (अ)=जैसे । असुत्ता (असुत्ता) 1/1 वि । णासदि (गाम) व 3/1 अक । सुत्ते (सुत) 7/1 । सहा' (सहा) 1/1 वि णो वि (अ) = कभी नहीं। 3. कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135) 4. 'सह' के योग में तृतीया विभक्ति होती है और यहां तृतीया के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग हुआ हैं। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135) 11 पुरिसो (पुरिस) 1/1 । वि (अ) = भी । जो (ज) 1/1 सवि । ससुत्तो (ससुत्त) 1/1 वि । ण (अ)=नहीं। विणासइ (विणास) व 3/1 40 ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक । सो (त) 1/1 सवि । गो (ग) भूकृ 1/1 अनि । वि (अ) = ही। संसारे (संसार) 7/1 । सच्चेयणपच्चक्खं [(सच्चेयण)-(पच्चक्ख)1/1। णासदि (णास) व 3/1. सक । तं (त) 2/1 सवि । सो (त) 1/1 सवि । अविस्समाणो (अदिस्समारण) कर्म व 1/1। वि (अ) = भी। 12 सुत्तत्थं [(सुत्त)+ (अत्थं)] [(सुत्त)-(अत्थ) 2/1)] । जिणभणियं [ (जिण) - (भरण) भूक 2/1] । जीवाजीवादिबहुविहं [ (जीव)+ (अजीव) + (आदि) + (बहुविहं) ] [(जीव)-(अजीव)-(आदि)-. (बहुविह) 2/1 वि । अत्थं (अत्थ) 2/1 । हेयाहेयं [(हेय) + (अहेयं)] [(हेय)-(अहेय) 2/1 वि । च (अ) -- भो । तहा (प्र) = तथा । जो (ज) 1/1 सवि । जाणइ (जाग) व 3/1 मक । सो (त) 1/1 सवि हु (अ) = निश्चय ही । सद्दिट्टी (सद्दिट्ठि) 11 वि । 13 जं (ज) 1/1 सवि । सुत्तं (सुत्त) 1/1। जिणउत्तं [(जिण)-(उत्त) भूक 1/1 अनि । ववहारो (ववहार) 1/1 । तह य (अ)=तथा । जाण (जाण) विधि 2/1 सक। परमत्थो (पर मत्थ) 1/1 । तं (त) 2/1 सवि । जाणिऊण (जाण) संकृ । जोई (जोइ) 1/1 । लहइ (लह) व 3/1 सक । सुहं (सुह) 2/1 । खवइ (खव) व 3/1 सक । मलपुंज [(मल)-(पुज) 2/1] । . 14 अह (अ) = यदि । पुरण (अ) =परन्तु । अप्पा (अप्प) 2/1 अपभ्रंश । .णिच्छदि [(ण)+ (इच्छदि)] । रण (अ) = नहीं इच्छदि (इच्छ) व 3/1 सक । धम्माइं (धम्म) 2/2 । करेइ (कर) व 3/1 सक । जिरवसेसाई . (गिरवसेस) 2/2 वि। तह वि (अ)=तो भी । ण (अ) = नहीं । पावदि (पाव) व 3/1 सक । सिद्धि (सिद्धि) 2/1 । संसारस्थो . (संसा रत्थ) 1/1 वि । पुरणो (अ) = फिर । भणिदो (भण) भूक 1/1 ! 15 एएण (ए) 3/1 सवि । कारण (कारण) 3/1। य (अ) ही। नयनिका ] _[ 41 For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं (त) 2/1 मवि । अप्पा' (अप्प) 2/1 अपभ्रंश । सद्दहेह' (सद्दह) आज्ञा 2/2 सक । तिविहेण (क्रिविअ)-तीन प्रकार से । जेण (ज) 5/1 सवि । य (अ)= चूकि । लहेइ (लह) व 3/1 सक । मोक्खं (मोक्ख) 2/1 । तं (त) 1/1 मवि । जाणिज्जइ (जाण) व कर्म 3/1 सक । पयत्त ण (क्रिविन)= प्रयत्न पूर्वक । 1. 'श्रद्धा' के योग में द्वितीया का प्रयोग होता है। अथवा कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग हो जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137) 2. वर्तमान काल का प्रयोग उपदेश देने में उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार विधि का । 16 अण्णाणं (अण्णारण) 2/1 । मिच्छन (मिच्छत्त) 2/1। वज्जहि (वज्ज) विधि 2/1 सक । पारणे (गाण) 7/1 । विसुद्धसम्मत्त [(विसुद्ध) वि-(सम्मत्त) 7/1] । अह (अ) = और । मोहं (मोह) 2/1। सारंभ (सारंभ) 2/1 वि । परिहर (परिहर) विधि 2/1 सक । धम्मे (धम्म) 7/1 । अहिंसाए (अहिंसा) 7/1 । 17 पाउण (पा) संकृ । णाणसलिलं [(गाण)-(सलिल) 2/1] । णिम्मलसुविसुद्धभावसंजुत्ता [(गिम्मल))-(सुविसुद्ध) वि-(भाव)(सजुत्त) 1/2 वि] । हुंति (हु) व 3/2 अक । सिवालयवासी [(सिवालय)-(वासि) 1/2 वि । तिहुवणचूडामणी [(तिहुवण)(चूडामणि) 1/1] । सिद्धा (मिद्ध) 1/2 । 18 गाणगुलेहि" [(णाण)-(गुण) 3/2] । विहीणा (विहीण) 1/2 वि । ण (अ) = नहीं। लहंते (लह) व 3/2 सक । ते (त) 1/2 सवि । सुइच्छियं [(सु) अ == भली प्रकार से-(इच्छ) भूक 2/1] । लाहं (लाह) 3. कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-136) 42 ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2/। । इय (अ)= इस प्रकार । गाउं (गा) हेक । गुणवोसं [(गुग्ण)(दोस) 2/1 | । तं (त) 2/1 | सण्णाणं (मण्णाण) 2/1। वियाणेहि (वियाग) प्राज्ञा 2|| मक । 19 चारित्तसमारूढ़ो |(चारित्त) + (सम) + (ग्रारू ढो)] (चारित्त)-(सम) अ= पूर्णत:-(प्रारूढ) भूकृ ||| अनि । अप्पा (अप्प)2/1 अपभ्रण । सुपरं | (सु) अ= श्रेप्ठ-(पर) 2/1 वि । ण (अ)= नहीं । ईहए (ईह) व 3/1 मक । णाणी (गागि) I/1 वि । पावइ (पाव) व 3/1 सक । अइरेण (अ) = शीघ्र । अणोवमं (अगोवम) 2/1 वि । जाण (जारण) विधि 2/1 मक । णिच्छयदो (गिाच्छय) पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय । 1. इसका प्रयोग प्राय: कत वाच्य में किया जाता है । 2. कभी कभी मप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का - प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137) 20 संजमसंजुत्तस्स [(संजम)-(संजुत्त) भूक 6/1 अनि] । य (अ)= तथा । सुझाणजोयस्स [(सु) =श्रेप्ठ-(झारण)-(जोय) 6/1 वि] । मोक्खमग्गस्स | (मोक्ख)-(मग्ग) 6/1] । णारगेण (गाण) 3/1 । लहदि (लह) व 3/1 सक । लक्खं (लक्ख) 2/1 । तम्हा (अ) = इसलिये । गाणं (गाग) 1/1 ! च (अ)=निश्चय ही । णायव्वं (णा) विधिक 1/1 । 21 जह (अ) = जैसे । णवि (अ)=नहीं । लहदि (लह) व 3/1 सक । हु (अ)=बिल्कुल ही । लक्खं (लक्ख) 2|| । रहिओ (रहिअ) 1/1 वि । . कंडस्स' (कंड) 6/1 । धेज्झयविहीणो [(वज्झय) 'य' स्वार्थिक वि(विहीण) 1/1 वि] । तह (अ) = वैसे ही । लक्खदि (लक्ख) व 3/1 . मक । लक्खे (लक्ख) 2/1 । अण्णाणी (अण्णागि) 1/1 वि । मोक्खमग्गस्स [(मोक्ख)-(मग्ग) 6/1] । ... 3. 'लह' का अर्थ यहाँ 'देखना' है । 4. कभी कभी तृतीय विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग - पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) चयनिका ] [ 43 For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 गाणं (णाण) 1/1। पुरिसस्स' (पुरिस) 6/1 । हववि (हव) व. 3/1 अक । लहदि (लह) व 3/1 सक । सुपुरिसो (सु-पुरिस). 1/1 । वि (अ) = ही । विणयसंजुत्तो [(विरणय)-(संजुत्त) 1/1 वि गारोण (सारण) 3/1 । लहदि (लह) व 3/1 सक । लक्खं (लक्ख) 2/1 | लक्खंतो (लक्ख) वकृ 1/1 । मोक्खमग्गस्स [(मोक्ख)-(मग्ग) 6/1] | ___ 1. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) .. 23 मइधणुहं [(मइ)-(धणुह) 1/1] । जस्स (ज) 4/1 स । थिरं (थिर) 1/1 वि । सुदगुण [(सुद)-(गुण)मूलशब्द 1/1] । बाणा (बाण)1/2 । सुअस्थि (अ)= श्रेष्ठ । रयणत (रयणत्त) 1/1। परमत्थबद्धलक्खो [(परमत्थ)-(बद्ध)भूक अनि-(लक्ख)1/1] । वि (अ) = कभी नहीं। चुक्कदि (चुक्क) व 3/1 अक । मोक्खमग्गस्स [(मोक्ख)-(मग्ग) 6/1] 2. कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) 24 धम्मो (धम्म) 1/1 । क्याविसुद्धो [(दया)-(विसुद्ध) 1/1 वि] । पव्व ज्जा (पव्वज्जा) 1/1 । सव्वसंगपरिचत्ता [(सव्व)वि-(संग)-(परिचत्ता) भूकृ 1/1 अनि । देवो (देव) 1/1 । ववगयमोहो [(ववगय) भूक अनि -(मोह) 1/1] । उदययरो (उदययर) 1/1 वि । भग्वजीवाणं [(भव्व) -(जीव) 6/2] । 25 सत्तू मित्त' [(सत्तू)-(मित्त) 7/1] । य (अ) = निश्चय ही। समा (समा)1/1 वि । पसंसणिवाअलदिलद्धिसमा[(पसंस')-(रिंणदा)-(अलद्धि) -[(लद्धि)-(समा) 1/1 वि] । तणकणए [(तण)-(कण) 7/1] । समभावा [(सम)-(भावा) 1/1] । पव्वज्जा (पव्वज्जा) 1/1 । एरिसा (एरिसा) 1/1 वि । भणिया (भरण) भूक 1/1। 3. छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'तु' को 'त' किया गया है। 4. छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'पसंसा' को पसंस किया गया है । 44 ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 उत्तममज्झिमगेहे [(उत्तम) वि-(मज्झिम) वि-(गेह) 7/1] । दारिद (दारिद्द) 7/1 । ईसरे (ईसर) 7/1 । णिरावेक्खा (रिणरावेक्खा) 1/1 वि। सम्पत्य (प्र) = प्रत्येक स्थान में । गिहिवपिडा [(गिहिद)-(पिंडा) 1/1] । पम्बन्जा (पव्वज्जा) 1/1। एरिसा (एरिसा) 1/1 वि । भगिया (भण) भूकृ 1/11 27 निम्लेहा (णिण्णेहा) 1/1 वि । गिल्लोहा (गिल्लोहा) 1/1 वि। निम्मोहा (रिणम्मोहा) 1/1 वि । णिक्कलुसा (णिक्कलुसा) 1/1 वि । णिग्मय (रिणब्भय) अपभ्रश 1/1 वि । रिणरासभावा [(णिरास) वि(भावा) 1/1] । पव्वज्जा (पव्वज्जा) 1/1 । एरिसा (एरिसा) 1/1 वि । मणिया (भरण) भूकृ 1/1। 28 भावो (भाव) 1/1 | हि (अ) = निस्संदेह । पढमलिगं [(पढम) वि (लिंग) 1/1] । (प्र) = नहीं । बव्वलिंगं [(दव्व)-(लिंग) 1/1] च (अ) = किन्तु । जाण (जाण) विधि 2/1 सक । परमत्थं (परमत्थ) 1/1। कारणभूदो [(कारण)-भूद भूक 1/1 अनि] । गुणदोसाणं [[गुण)-(दोस) 6/2] । जिणा (जिंण) 1/2 । बिति' (बू) व 3/2 सक । 1. प्राकृतमार्गोपदे शिका, पृष्ठ 152. 29 भावविसुधिणिमित्त [(भाव)-(विसुद्धि)-(णिमित्त) 1/1] । बाहिरगंधस्स [(बाहिर) वि-(गंथ) 6/1] । कोरए (कीरए) व कर्म 3/1 सक । चामो (चाय) 1/1 । बाहिरचाप्रो [(बाहिर) वि-(चाय) 1/1] । विहलो (विहल) 1/1 वि । अम्भंतरगंथजुत्तस्स [(अभंतर) वि-(गंथ)-(जुत्त) 6/1 वि] । 30. जाणहि (जाण) विधि 2/1 सक । भावं (भाव) 2/1 । पढम (प्र) = सर्व प्रथम कि (किं) 1/1 सवि । ते (तुम्ह) 4/1 स । लिंगेण (लिंग) 3/1 । भावरहिएण [(भाव)-(रह)भूकृ 3/1] । पंथिय (पंथिय) 8/11 चयनिका-] .. [45 For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवपुरिपंथं [(सिवपुरि)- (पंथ) 1/1] । जिणउवइ8 [(जिण) (उवइ8) 1/1 वि] । पयत्तण (क्रिवित्र) = सावधानी पूर्वक । . 31 रयणत्तये [(ग्यग)-(त्तय) 7/1] । प्रलो (अलद्ध) भूक 7/1 अनि । एवं (अ) = इस प्रकार । भमिओ (भम) भूक 1/1.। सि (अस) व 21 अक । दोहसंसारे [(दीह) क्रिवित्र = दीर्घकाल तक-(संसार) 7/1] । इय (अ) = इस प्रकार । जिणवरेहिं (जिणवर) 3/2। भणियं (भण) भूक 1/1 । तं (अ) = इसलिए ! रयणत्त (रयगत्त) 2/1। समायरह (ममायर) विधि 2/2 मक । 1. गत्यार्थक क्रियाओं के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। तथा गत्यार्थक क्रिया से भूतकालिक कृदन्त कतृवाच्य में भी होता है। 2. कमी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी का प्रयोग होता है (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135) 32 भावविमुत्तो [(भाव)-(विमुत्त) भूकृ 1/1 अनि । मुत्तो(मुत्त)1/1 वि । ण (अ)=नहीं । य (अ)= परन्तु । मुत्तो (मुत्त) 1/1 वि । बंधवाइमितण [(बंधव) + (आइ)+ (मित्तेण)] [(बंधव)-(प्राइ)-(मित्त)3/1] इय (अ) = इस प्रकार । भाविऊण (भाव) संकृ । उज्झसु (उज्झ) विधि 2/1 सक । गंधं (गंध) 2/1 । अम्भंतरं (अभंतरं) 2/1 वि धीर (धीर) 8/1 । __3. कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का - प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-136) 33 देहादिसंगरहिओ' [(देह) + (आदि) + (संग) + (रहियो)] [(देह) (ग्रादि)-(संग)-(रह) भूक 1/1] । माणकसाएहि [(माण)-(कसान) 3/2] । सयलपरिचत्तो [(मयल) वि-(परिचत्त) भूकृ 1/1 अनि] । 4. करण के साथ या समास के अन्त में इसका अर्थ होता है मुक्त, वंचित, रहित । 46 1 . . . [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पा (अप्प) 1/1 । अप्पम्मि (अप्प) 7/1। रओ (रअ) भूक 1/1 . अनि । स (त) 1/1 सवि । भावलिंगो [(भाव)-(लिंगि) 1/1 वि] । हवे (हव) व 3/1 अक । साहू (साहु) 1/1। 34 मत्ति (ममत्ति) 2/1 । परिवज्जामि (परिवज्ज) व 1/1 सक । णिम्म मत्तिमुवद्विवो [(रिणम्मत्ति) + (उवट्ठिदो)] णिम्ममत्ति (रिणम्ममत्ति) 2/1 । उवडिवो (उवट्ठिद) भूकृ 1/1 अनि । आलंवणं (प्रालंबण) 1/1। च (अ) = ही । मे (अम्ह) 6/1 स । आवा (पाद) 1/1। अवसेसाई (अवसेम) 2/2 वि । वोसरे (वोसर) व 3/1 सक । 1. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137)। 35 भावेह (भाव) अाज्ञा 2/2 सक । भावसुद्धं [(भाव)-(सुद्ध) 2/1 वि] । अप्पा (अप्प) 2/1 अपभ्रंश । सुविसुखणिम्मलं [(सु) =पूर्ण-(विसुद्ध) -(रिणम्मल) 2/1 वि] । चेव (अ) = निश्चय ही। लहु' (लहु) मूलशब्द वि 2/2 । चउगइ [(चउ)-(गइ)मूल शब्द 2/2] । चइऊण (चय→च अ) संकृ । जइ (अ) = यदि । इच्छह (इच्छ) व 2/2 सक ।सासयं (सासय) 2/1 वि सुक्खं (सुक्ख) 2/1। 2. पद्य में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है । (पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, , पृष्ठ, 517) 36. जो (ज) 1/1 सवि । जीवो (जीव) 1/1 । भावंतो (भाव) व 1/1। जीवसहावं [(जीव)-(सहाव) 2/1] । सुभावसंजुत्तो [(सु) =श्रेष्ठ-: - (भाव)-(संजुत्त) 1/1 वि] । सो (त) 1/1 सवि । जरमरणविणासं [(जर)-(मरगा)-(विग्गासं) 2/1] । कुणइ (कुण) व 3/1 सक । फुडं - (अ) = निश्चय ही । लहइ (लह) व 3/1 मक । रिणवाणं (रिणवाण) 2/1 | .. चयनिका ] ... [ 47 For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 बीवो (जीव) 1/1 । जिणपणत्तो [(जिण)-(पण्णत्त) भूक 1/1 अनि] गागसहाओ [(णाण)-(सहाअ) 1/1] । य (अ) = तथा । चेयणासहिओ [(चेयणा)-(सहिअ) 1/1 वि] । सो (त). -1/1 सवि । जीवो (जीव) 1/1। गायव्यो (णा)-विधिक 1/1 | कम्मक्खयकरणणिमित्तो [(कम्म) -(क्खय)-(करण) वि-(रिणमित्त) 1/1। । 38 अरसमस्वमगंध [(अरस) + (अरूव) + (अगंध)] । अरस (अरस) 1/1 वि । अरूवं (अरूब) 1/1 वि । अगंधं (अगंध) 1/1 वि। अव्वत्त (अव्वत्त) 1/1 वि । चेयगागुणमसइं [(चेयरणा)+ (गुणं)+ (असद्द)] [(चेयणा)-(गुण) 1/1] । असद्द (असद्द) 1/1 वि । जाणलिंगरगहणं [(जाणं)+ (अलिंग)+ (ग्गहणं)] जाणं (जाण) 1/1 [(अलिंग) वि(ग्गहण) 1/1] जीवमणिहिट्टसंगणं [(जीव)+(अणि ट्ठि)+ (संठाणं)] जीवं (जीव) 1/1 [(अणिद्दिट्ठ) वि-(संठाण) 1/1] . 39 पढिएन (पढ) भूक 3/1 । वि (अ) = भी । किं (किं) 1/1 सवि । कीरइ (कीरइ) व कर्म 3/1 सक अनि । कि (किं) 1/1 सवि । वा (अ)= अथवा । सुणिएण (सुण) भूक 3/1। भावरहिएण [(भाव)-(रहिअ) 3/1 वि] । भावो (भाव) 1/1 | कारणभूदो [(कारण)-(भूद) भूक 1/1 अनि] । सायारणयारभूदारणं [(सायार)+(अरणयार)+ (भूदाणं)] [(सायार) वि-(अणयार) वि-(भूद) 6/2 वि] । 40 भावं (भाव) 1/1 । तिविहपयारं [(तिविह) वि-(पयार) 1/1] । . सुहासहं [(सुह) + (असुहं)] [(सुह)वि-(असुह) वि] । सुखमेव [(सुद्ध)+(एव)] सुद्ध (सुद्ध) 1/1 एव (अ)=ही । णायब्वं (णा) विधिक 1/1 । असुहं (असुह)1/1 वि । च (अ)= और । अट्टरदं [(अट्ट)1. गुण इत्यादि शब्द विकल्प से नपुंसक लिंग में और पुल्लिग में प्रयुक्त किए जाते हैं। यहां पु., नपुसंक लिंग में प्रयुक्त है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 1-34) 48 ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( रुद्ध) 1 / 1 ] | सुहधम्मं [ ( सुह) वि - ( धम्म) 1 / 1 ] । जिणवरदेहि ( जिरणवरिद ) 3 / 21 । ( अ ) 41 सुद्धं (सुद्ध) 1 / 1 वि । सुद्धसहावं' [ ( सुद्ध) वि - ( सहाव ) 1 / 1 ] ( अप्प ) 2 / 1 अपभ्रंश । अप्पम्मि ( श्रप्प ) 7 / 1 च (प्र) = ही । नायव्वं (गा) विधिकृ 1 / 1 | इदि जिनवरेह (जिरणवर) 3 / 2 | भणियं ( भरण) भूकृ सवि । सेयं (सेय) 1 / 1 वि । तं (त) 2 / 1 विधि 2 / 2 सक | 1 । अप्पा तं (त) 1 / 1 सवि । = इस प्रकार । 1 / 1 । जं (ज) 1/1 सवि । समायरह ( समायर) 1. गुरण इत्यादि शब्द विकल्प से नपुंसक लिंग में और पुल्लिंग में प्रयुक्त किए जाते हैं यहाँ पु·, नपुंसक लिंग में प्रयुक्त हैं । ( हेम प्राकृत व्याकररण : 1-34 ) 2. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 1-137) 3. कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-135) For Personal & Private Use Only 42 अह ( अ ) = यदि । पुण (न) = किन्तु । अप्पा (अप्प ) 2 / 1 अपभ्र ंश | च्छिवि [ ( ग ) + (इच्छदि ) ] ग ( प्र ) = नहीं इच्छदि ( इच्छ) व 3 / 1 सक । पुण्णाई (पुण्ण) 2 / 2 | करेदि (कर) व 3 / 1 सक । णिरवसेसाई (रिगरवसेस) 2 / 2 वि । तह वि ( अ ) = तो भी । रण (श्र ) = नहीं । पावदि (पाव) व 3 / 1 सक | सिद्धि (सिद्धि) 2 / 1 | संसारस्यो ( संसारत्थ) 1 / 1 वि । पुरणो (प्र) = ही । भणिदो ( भरण) भूकृ 1 / 1 । 43 बाहिरसंगच्या [ ( बाहिर) वि - ( संग ) - (च्चा ) 1 / 1 ] | गिरिसरिदरिकंदराइ [ ( गिरि) - (सरि) - ( दरि ) - (कंदरा ) 7 /1] । आवासो (प्रावास) 1 / 1। सयलो (सयल) 1 / 1 वि । कागज भयणो [ ( भारण) + (प्रज्झयण ) ] [ ( झाण) - ( प्रज्भयरण ) 1 / 1 ] । णिरत्यचो ( गिरत्थन) 1 / 1 वि । भावरहियाणं [ (भाव) - ( रहिय) 4 / 2 वि ] । | चयनिका ] [ 49 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 भंजसु (भंज) विधि 2/1 सक । इंदियसेणं [(इंदिय)-(सेणा).2/1] । भंजसु (भंज) विधि 2/1 सक । मणमक्कडं [(मण)-(मक्कड) 2/1] । पयत्तण (क्रिविन) = प्रयत्नपूर्वक । मा (अ) = मत । जरणरंजणकरणं [(जण)-(रंजण)-(करण) 2/1] । बाहिरवयवेस [(बाहिर) वि(वय)-(वेस) मूलशब्द 2/1] । तं (तुम्ह) 1/1 सवि । कुणसु (कुण) विधि 2/1 सक। 1. पद्य में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है । (पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) 45 जह (अ) = जैसे । पत्थरो (पत्थर) 1/1 ण । (प्र) = नहीं । भिज्जइ (भिज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि । परिट्ठियो(परिट्ठि) भूकृ 1/1 अनि । दोहकालमुदएण [(दीहकालं)+ (उदएण)] दोहकालं (अ) = दीर्घ काल तक । उदएण (उदय) 3/1 । तह (अ) = वैसे ही । साहू (साहु)1/1 । वि (अ) = भी। उवसग्गपरीसहेहितो [(उवसग्ग)-(परीसह) 5/2] । 2. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीय विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137) 3. किसी कार्य का कारण बतलाने वाली संज्ञा में तृतीया या पंचमी का __ प्रयोग किया जाता है । 46 पावं (पाव) 1/1 । हवइ (हव) व 3/1 अक । असेसं (असेस)1/1 वि । पुण्णमसेसं [(पुण्णं) + (असेस)] पुण्णं (पुण्ण) 1/1 असेसं (असेस) 1/1 वि । च (अ) = और । परिणामा (परिणाम) 5/1 । परिणामादो (परिणाम) 5/1 । बंधो (बंध) 1/1 । मुक्खो (मुक्ख) 1/1 जिणसासणे [(जिण)-(सासण) 7/1] । विट्ठो (दिट्ठ) 1/1 वि । 47 जह (अ)= जिस प्रकार । दीवो (दीव) 1/1 । गम्भहरे (गन्भहर) 7/1। - मारुयबाहाविवज्जिो [(मारुय)-(वाहा)-(विवज्जिअ) 1/1 वि] । जलइ (जल) व 3/1 अक । तह (अ) = उसी प्रकार । रायानिलरहिओ 50 ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [(राय) + (अनिल) + (रहियो)] [(राय)-(अनिल)-(रहिअ) 1/1 वि] । झाणपईवो [(झाण)-(पईव) 1/1] । वि (अ) = भी । पज्जलइ (पज्जल) व 3/1 अक । 48 झायहि (झा) विधि 2/1 सक । पंच (पंच) 2/2 वि । वि (अ)= हो । गुरवे (गुरव) 2/2 । मंगलचउसरणलोयपरियरिए [(मंगल) वि(चउ) वि-(सरण)-(लोय)-(परियरिप्र) 2/2वि । परसुरखेयरमहिए [(गर)-(सुर)-(खेयर)--(मह) भूक 2/2] । आराहणणायगे [(पाराहण)-(गायग) 2/2] वीरे (वीर) 2/2 वि । 1. अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त अन्य स्वरान्त धातुनों में विकल्प से __ अ (य) जोड़ने के पश्चात् प्रत्यय जोड़ा जाता है । 49 उत्थरइ (उत्थर) व 3/1 सक । जा (अ) = जब तक । ण (य) = नहीं।' जर (जर) 1/1 वि अपभ्रंश । प्रो (अ)=मंबोधन। रोयग्गी [(रोय) + (अग्गी)] [(रोय)-(अग्गि) 1/1] । उहइ (डह) व 3/1 मक । देहडि [(देह)-(उडि) 2/1] इंदियबलं [(इंदिय)-(बल) 1/1] । वियलइ (वियल) व 3/1 अक । ताव (अ) = तब तक । तुर्म (तुम्ह) 1/1 म । कुणहि (कुगा) विधि 2/1- मक । अप्पहियं [(अप्प)-(हिय)2/1] । 50 जीवविमुक्को [(जीव)-(विमुक्क) भृकृ 1/1 अनि] । सवओ (सव) स्वार्थिक 'अ' प्रत्यय 1/1 । दंसणमुक्को [(दंसग)-(मुक्क) 1/1 वि] । य (य) = किन्तु । होइ (हो) व 3/1 अक । चलसवओ [(चल)(मव) स्वार्थिक 'अ' प्रत्यय 1/1] । लोयअपुज्जो [(लोय)-(अपुज्ज) 1/1 वि] । लोउत्तरयम्मि [(लोग्र) -! (उत्तग्यम्मि)] [(लोग्र)-(उत्तर) स्वाथिक 'य' प्रत्यय 7/1]। .. 51 जह (अ) = जैसे । तारायण' (तारय) 6/2। चंदो (चंद) 1/1 । मयराओ (मय राय) 1/1। मयउलाण' [(मय)-(उल) 6/2] । सव्वाण' (मव्व) 6/2 वि । अहिलो (अहिन) 1/1 वि । तह (ग्र)= चयनिका ] । 51 For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैसे ही । सम्मत्तो (सम्मत्त) 1/1 । रिसिसावयविहषम्माणं [(रिसि)(सावय)-(दुविह) वि-(धम्म) 6/2] । 1. जिस समुदाय में से एक को छाँटा जाता है, उस समुदाय में षष्ठी अथवा सप्तमी होती है । ... 52 इय (अ) = इस प्रकार । गाउं (णा) संकृ । गुणवोस [(गुण)-(दोस) ..2/1] । सणरयणं [(दंसण)-(रयण) 2/1] । धरेह (धर) प्राज्ञा 2/2 सक । भावेण (क्रिविअ) = भावपूर्वक सारं (सार) 1/1। गुणरयणाणं [(गुण)-(रयण) 6/2] । सोवाणं (सोवाण) 1/1। पढम' (पढम) 1/1 वि । मोक्खस्स (मोक्ख) 6/11 : . 2. अनुस्वार का लोप विकल्प से होता हैं। (हेम प्राकृत व्याकरण 1-29) । 53 गाणी (णाणि) 1/1 वि । सिव (सिव) मूलशब्द 1/1। परमेट्ठी (परमेट्ठि) 1/1। सव्वण्हू (सव्वण्हु) 1/1 वि । विण्ड (विण्हु) मूलशब्द 1/1। चउमुहो (चउमुह) 1/1 । बुद्धो (बुद्ध) 1/1। अप्पो (अप्प) 1/1 । वि (अ) = ही । य (अ) = और । परमप्पो (परमप्प) 1/1 । कम्मविमुक्को [(कम्म)-(विमुक्क) 1/1 वि] । य (अ) = भी । होइ (हो) व 31 अक । फुडं (अ)=निस्संदेह । 54 जह (अ) = जैसे । सलिलेण (सलिल) 3/1 । ण (अ)= नहीं। लिप्पइ (लिप्पइ) व कर्म 3/1 सक अनि । कमलिणिपत्त [(कमलिणी)-(पत्त) 1/1] । सहावपयडीए [(म-हाव)-(पयडि) 3/1] । तह (अ) = वैसे हो । भावेण (भाव) 3/1 । कसायविसएहिं [(कसाय)-(विसघ) 3/2] । सप्पुरिसो (सप्पुरिम) 1/1। 55 ते (त) 1/2 सवि । धीरवीरपुरिसा [(धीर) वि-(वीर) वि-(पुरिस) 1/2] । खमवमखग्गेण [(खम)-(दम)-(खग्ग) 3/1] । विप्फुरतेण (विप्फुर) वकृ 3/1 । दुज्जयपबलबलुखरकसायभर [(दुज्जय)+(पबल) 52 ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + (बल) + (उद्धर) + ( कसाय) + (भड ) ] [ ( दुज्जय) वि - ( पबल) वि 1 (बल) - (उद्धर) वि - ( कसाव ) - (भड ) 1 (रिगज्जय ) 1 / 2 वि । जहि (ज) 3 / 1 सवि । मूलशब्द 1/2] । णिज्जिया 1. • पद्य में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है । (पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517 ) 56 मायावेल्लि [ ( माया ) - ( वेल्लि ) ' मूलशब्द 2 / 2 ] । असेसा (असेसा ) 2 / 2 वि । मोहमहातरवरम्मि [ ( मोह ) - (महा) - (तरुवर) 7 / 1 ] । आहढ़ा ( प्रारूढ ) भूकृ 2/2 श्रनि । विसर्याविसपुप्फफुल्लिय [ ( विसय ) - (विस) - ( पुप्फ) - ( फुल्ल ) 2 भूक मूलशब्द 2 / 2] । लुणंति ( लुण) व 3 / 2 सक। मुणि ( मुरिण) मूलशब्द 1 / 2 | णाणसत्थे ह [ ( गाण) - ( सत्थ) 3/2] । 2. पद्य में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है । (पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517 ) 3. कर्ताकारक के स्थान में केवल मूल संज्ञा शब्द भी काम में लाया जा सकता है (पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 518 ) 57 मोहमयगारहि [ ( मोह) - (मय ) - ( गारव) 3 / 2 ] । य ( अ ) = तथा । मुक्का ( मुक्क) 1/2 वि । जे (ज) 1 / 2 सवि । करुणभाव संजुत्ता [(करुरण) - (भाव) - (संजुत्त ) 1/2 वि ] ते (त) 1 / 2 सवि । सव्ववुरियखंभं [ ( सव्व). वि- (दुरिय ) - (खंभ ) 2 / 1] | हरणंति ( हण) व 3 / 2 सक | चारितखग्गेण [ ( चारित) - (खग्ग) 3 / 1 ] | 58 जं (ज) 2 / 1 सवि । जाणिऊणं (जाण) संकृ जोई (जोइ ) 1 / 1 1 - जोअत्थो (जोप्रत्थ) 1 / 1 वि । जोइऊण (जोन) संकृ । अणवरयं (त्रिवि) = लगातार । अब्बा बाहमणंतं [ ( अव्वाबाहं) + (प्रणंतं)] अव्वाबाहं (प्रव्वाबाह) 2 / 1 वि । प्रणतं ( अनंत ) 2 / 11 प्रणोवमं चयनिका ] [ 53 For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अणोवम) 2/1 । लहइ (लह) व 3/I. सकः। णिव्वाणं (णिव्वाण) 2/1। 59 ति गरो [(ति) वि-(पयार) 1/1] । सो (त) 1/1. सवि । अप्पा (अप्प) 1/1/। परभितरबाहिरो [(पर) + (अभितर)+ (बाहिरो)] [(पर) वि-(अभितर) वि-(बाहिर) 1/1 वि] । हु .(अ) = निश्चय ही । हेऊण' (हेउ) 6/2 । तत्थ (अ) = उस अवस्था में । परो (पर) 1/1 वि । झाइज्जइ (झा) व कर्म 3/1 सक । अंतोवायेण [(अंत)+ (उवायेण)] अंत (अ)=प्रांतरिक उवायेण (उवाय) 3/1। चयहि (चय) विधि 2/1 सक । बहिरप्पा (बहिरप्प) 2/1 अपभ्रंश । . 1. कभी-कभी ततोया के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) 60 अक्खाणि (अक्ख) 1/2 । बहिरप्पा (बहिरप्प) 1/1। अंतरप्पा (अंत रप्प) 1/1 । हु (अ) = ही। अप्पसंकप्पो [(अप्प)-(संकप्प) 1/1] । कम्मकलंकविमुक्को [(कम्म)-(कलंक)-(विमुक्क) 1/1 वि । परमप्पा (परमप्प) 1/1। भग्णए (भण्ण) व कर्म 3/1 सक अनि । देवो (देव) 1/1। 61 आरुहवि' (आरुह) संकृ अपभ्रंश । अंतरप्पा (अंतरप्प) 2/1 अपभ्रंश)। बहिरप्पा (बहिरप्प) 2/1 अपभ्रंश । छरिऊण (छंड) संकृ। तिविहेण (तिविह) 3/1 । झाइज्जइ (झा) व कर्म 3/1 सक । परमप्पा (परमप्पा) 1/1। उवइट्ठ (उवइट्ठ) 1/1 वि.। जिणरिवेहि (जिरणवरिंद) 3/2 । 2. 'या' पूर्वक 'रुह' धातु के अर्थ प्रयुक्त संज्ञा के अनुसार विभिन्न प्रकार के होते हैं। (पारुह+अवि) =पारुहवि यहाँ 'अवि' प्रत्यय जोड़ा गया है। 62 बहिरत्थे [(बहिर) + (अत्थे)][(बहिर) वि-(प्रत्थ) 7/1] । फुरियमणो [(फुरिय) भूकृ-(मण) 1/1] । इंदियवारेण [(इंदिय)-(दार) 3/1] । णियसरूवचुओ [(रिणय) वि-(सरूव)-(चुअ) भूकृ 1/1 अनि] । 54 ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णियदेहं [(रिणय) वि-(देह) 2/1] । अप्पाणं (अप्पाण) 2/1। अज्झवसवि (अज्झवस) व 3/1 सक। मूढविट्ठी [(मूढ) वि-(दिट्ठि) 1/1 वि] । ओ (प्र) = खेद ।। 63 जो (ज) 1/1 सवि । देहे1 (देह) 7/1। णिरवेक्खो (रिणरवेक्ख) 1/1 वि । णिइंदो (रिणद) 1/1 वि । णिम्ममो (णिम्मम) 1/1 वि । गिरारंभो (रिणरारंभ) 1/1 वि । आवसहावे [(पाद)-(स-हाव) 7/1] । सुरओ [(सु) =पूरी तरह-(रअ) भूक 1/1 अनि । जोई (जोइ) 1/1। सो (त) 1/1 सवि । लहइ (लह) व 3/1 सक । णिव्वाणं (रिणव्वाण) 2/11 1. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का - प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-136) 64 परदव्वरमो [(पर) वि-(दव्व)-(रअ) भूक 1/1 अनि । बज्झवि (बज्झदि) व कर्म 3/1 सक अनि । विरओ (वि-रत्र) भूकृ 1/1 अनि । मुच्चेइ (मुच्चेइ) व कर्म 3/1 सक अनि । विविहकम्मेहि [(विविह) वि-(कम्म) 3/2] । एसो (एत) 1/1 सवि । जिउवदेसो [(जिण)(उवदेस) 1/1] । समासदो (समास) पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय । बंधमुक्खस्स [(बंध)-(मुक्ख) 6/1] । 2. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का . प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-136) ।। 3. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का - प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) 65 परवव्वादो [(पर) वि-(दव्व) 5/1] । दुग्गइ (दुग्गइ) मूलशब्द" 1/1 । सव्वादो [(स)-(दव्व) 5/1] । हु (अ)=किन्तु । सग्गई (सग्गइं) 4. किसी कार्य का कारण बतलाने वाली संज्ञा में तृतीया या पंचमी .. का प्रयोग किया जाता है। 5. पद्य में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिंशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) चयनिका ] [ 55 For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1/1 । होई1 (हो) व 3/1 अक इय (अ) = इस तरह । गाऊण (णा) संकृ । सदग्वे [(स)वि-(दव्व) 7/1] । कुनह (कुरण) विधि 2/2 सक। रई (रइ) 2/1 अपभ्रंश । विरय (विरय) 2/1 अपभ्रंश । इयरम्मि' (इयर) 7/1 वि। 1. छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को 'ई' किया गया है। 2. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-136)। 66 आवसहावा [(आद)-(सहाव) 5/1] अण्णं (अण्णं) 1/1 सवि । सच्चित्ताचित्तमिस्सियं [ (सच्चित्त) + (अचित्तं) + (मिस्सियं)] [(सच्चित्त)-(अचित्त) 1/1 वि] मिस्सियं (मिस्सिय) 1/1 वि । हवइ (हव) व 3/1 अक । तं (त),1/1] सवि । परवव्वं [(पर) वि(दव्व) 1/1] भणियं (भरण) भूक 1/1 । आवितस्थं (क्रिविन)= सच्चाई पूर्वक । सव्वदरसोहिं (सव्वदरसि) 3/2 वि.। . 67 बुदृढकम्मरहियं [(दुट्ठ) + (अट्ठ) + (कम्म) + (रहियं)] [(दुट्ठ) वि-(अट्ठ) वि--(कम्म)-(रहिय) 2/1 वि.] । अणोवमं (अणोवम) (प्रणोवम) 2/1. वि. । णाणविग्गह' [(णाण)-(विग्गह) 2/1] । पिच्चं(रिगच्च) 2/1 वि. । सुर (सुद्ध) 2/1 वि, । जिलेहि (जिरण) 3/2 कहियं (कह) भूक 2/11 अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 । हवदि (हव) व 3/1 अक । सद्दव्वं [(स)-(हव्व) 1/1] । 3: कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137 वृत्ति)। 68 जे (ज) 1/2 सवि । झायंति (झा) व 3/2 सक । सदव्वं [(स)वि (दव्व) 2/1] । परदण्वपरंमुहा [(पर) वि-(दव्व)-(परंमुह) 1/2 वि] । हु (अ) = निश्चय ही । सुचरित्ता [(सु) = सम्यक् प्रकार से-(चर) 4. अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त अन्य स्वरान्त धातुओं में विकल्प से अ (य) जोड़ने के पश्चात् प्रत्यय जोड़ा जाता है । 56 ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकृ] । ते (त.) 1/2 सवि । जिणवराण (जिणवर) 6/2। मग्गे' (मग्ग) 7/1 । अणुलग्गा (अणुलग्ग) भूकृ 1/2 अनि । लहन्ति (लह) व 3/2 सक । गिब्वाणं (रिणव्वाण) 2/1। 1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135) 69 वर(अ)= अधिक अच्छा । वयतवेहि [(वय)-(तव) 3/2] । सग्गो (सग्ग) 1/1। मा (प्र)=नहीं। दुक्खं (दुक्ख) 1/1 । होउ (हो) विधि 3/1 अक। जिरह (रिणरम) 7/1 अपभ्रश । इयरेहिं (इयर) 3/2 वि. । छायातवठ्ठियाण' [(छाया)-(तव)-(ट्ठिय) 6/2] । पडिवालताण (पडिवाल) वक 6/2। गुरुमेयं [(गुरु) वि-(भेय) 1/1] । 2. अनुस्वार का लोप विकल्प से होता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 1-29) 3. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) 70 जो (ज) 1/1 सवि । इच्छइ' (इच्छ) व 3/1 सक । णिसरितु (रिणस्सर) हेकृ । संसारमहण्णवाउ [(संसार)-(महण्णव) 5/1] । रद्दाओ (रुद्द) 5/1 वि। कम्मिधणाण [(कम्म)+ (इंधणाण)] [(कम्म)-(इंधण) 6/2] [.म्हणं (डहण) 2/1 वि.। सो (त) 1/1 सवि । झायई (झा) व 3/1 सक । अप्पयं (अप्पय) 2/1। सुद्ध (सुद्ध) 2/1 वि। 4. 'इच्छा' अर्थ में हेकृ का प्रयोग होता है। ... 5. अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त अन्य स्वरान्त धातुओं में विकल्प से म (य) जोड़ने के पश्चात् प्रत्यय जोड़ा जाता है। 71 सम्वे (सव्व). 2/2 वि । कसाय (कसाय) मूलशब्द 2/2 । मोत्त (मोतु) संकृ अनि । गारवमयरायदोसवामोहं [(गारव)-(मय)-(राय) (दोस)-(वामोह). 2/1] । लोयववहारविरवो [(लोय)-(ववहार)चयनिका ] [ 57 For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (विरद) 1/1 वि] । अप्पा (अप्प) 2/1 अपभ्रंश । झायइ (झा)' व 3/1 सक । झाणत्यो (झाणत्थ) 1/1 वि। ____ 1. देखें गाथा 70 72 जं (ज) 1/1 सवि । मया (मया) 3/1 स अनि । (विस्सवे) व कर्म . 3/1 सक अनि । रूवं (रूव)1/1 । तं (त)1/1 सवि । ग (अ)=नहीं। जाणादि (जाणादि) व 3/1 सक अनि । सव्वहा (अ) = बिल्कुल । जाणगं (जाणग) 1/1 वि । गं' (अ) = नहीं । तम्हा (प्र) = इसलिए । जंपेमि' (जंप) व 1/1 सक । केण* (क) 3/1 सवि । हं (अम्ह) 1/1 सं । 2. छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु यहाँ 'ण' पर अनुस्वार लगाया गया - है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 1-26 वृत्ति) 3. 'सह' के योग में तृतीया का प्रयोग होता है। यहां 'सह' अर्थ - छुपा है। 4. प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमान काल का प्रयोग प्रायः इच्छा र्थक रूप में भविष्यत् काल के अर्थ में होता है। 73 जो (ज) 1/1 सवि । सुत्तो (सुत्त) भूक 1/1 अनि । ववहारे (ववहार) 7/1। सो (त) 1/1 सवि । जोई (जोइ) 1/1। जग्गए (जग्ग) व 3/1 अक । सकज्जम्मि [(स)वि-(कज्ज) 7/1] । जग्गदि (जग्ग) व 3/1 अक । अप्पणो (अप्पण) 6/1। कज्जे (कज्ज) 7/1 । 74 इय (अ) = इस तरह । जाणिऊण (जाण) संकृ । जोई (जोइ) 1/1 । वव हारं (ववहार) 2/1 | चयइ (चय, व 3/1 सक। सव्वहा (अ) = पूर्णतः । सव्वं (सव्व) 2/1 वि । चयह (चय) व 3/1 सक । झायइ (झा) व 3/1 सक। परमप्पाणं [(परम)-+-(अप्पाणं)] [(परम) वि-(अप्पारण) 2/1] । जह (अ) = जैसे । भणियं (भण) भूकृ 1/1। जिणवारदेहि (जिणवरिंद) 3/2। 5. देखें गाथा 70 58 ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75 तच्चरई [(तच्च)-(रुइ) 1/1] । सम्मत्त (सम्मत्त) 1/1 । तच्चग्गहरणं [(तच्च)-(ग्गहण) 1/1] । च (अ) = और । हवइ (हव) व 3/1 अक । सल्याणं (सं-पणाण) 1/1 । चारित्त (चारित) 1/1 । परिहारो (परिहार) 1/1 । पयंपियं (पयंपिय) 1/1 वि । जिरणवरिदेहि (जिणवरिंद) 3/2। 76 जं (ज) 2/1 सवि । जाणिऊण (जाण) संकृ । जोई (जोइ) 1/1 । परिहरं (परिहर) 2/1। कुणइ (कुण) व 3/1 सक। पुग्णपावाणं [(पुण्ण)-(पाव) 6/2] | तं (त) 1/1 सवि । चारित्त (चारित्त) 1/1 । भणियं (भण) भूकृ 1/1 । प्रवियप्पं (अवियप्प) 1/1 वि । कम्मरहिएहि [(कम्म)-(रहिअ) 3/2 वि] । 77. जो (ज) 1/1 सवि । रयणतयजुत्तो [(रयण)-(त्तय)-(जुत्त) 1/1 वि] । कुणइ (कुण) व 3/1 सक । तवं (तव) 2/1 । संजवो (संजद) 1/1 वि । ससत्तीए [(स) वि-(सत्ति) 6/1] । सो (त) 1/1 सवि । पावइ (पाव) व 3/1 सक। परमंपयं [(परम) वि-(पय) 2/1] । झायंतो (झा) व 1/1 । अप्पयं (अप्प) 'य' स्वार्थिक प्रत्यय 2/1 । सुखं (सुद्ध) 2/1। . 1. देखें गाथा 70 .. 78 मयमायकोहरहिओ [(मय)-(माय)-(कोह)-(रहिन) 1/1वि] । लोहेण (लोह) 3/1 । विवज्जियो (विवज्जिप) 1/1 वि । य (प्र) = तथा जो . (ज) 1/1 सवि । जीवो (जीव) 1/1 । हिम्मलसहावजुत्तो [(रिणम्मल)-(सहाव)-(जुत्त) 1/1 वि] । सो (त) 1/1 सवि पावह ... (पाव) व 3/1 सक । उत्तमं (उत्तम) 2/1 वि सोक्खं (सोक्ख) 2/1 । 2. देखी गाथा 33. चयनिका ] [ 59 For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79 परमप्पय (परमप्पय) मूलशब्द 2/1। मायंतो (झा) वकृ 1/11 जोई (जोइ)1/1 । मुच्चेइ(मुच्चेइ) व कर्म 3/1 सक अनि । मलवलोहेण [(मल)-(द) वि-(लोह) 3/1] । गावियदि [(ण)+ (प्रादियदि)] ण (अ) = नहीं आदियदि (आदिय) व 3/1 सक। एवं (णव) 2/1 वि। कम्मं (कम्म) 2/1। णिद्दिढें (णि ट्ठि) भूक 1/1 अनि । जिपरिवेहि (जिणवरिंद) 312 । 1. पद्य में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा . सकता है । (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517.) 2. देखो गाथा 70. 80 होऊण (हो) संकृ । विढचरित्तो [ (दिढ) वि- (चरित्त) 1/1) ] विठसम्मत्तण [(दिढ) वि-(सम्मत्त) 311] । भावियमईओ [(भाविय) वि-(मइ) 1/2] । झायंतो (झा) व 1/1। अप्पाणं (अप्पाण) 2/1। परमपयं [(परम) वि-(पय) 2/1] । पावए (पाव) व 3/1 सक । जोई (जोइ) 1/1। 3. देखो गाथा 70 81 चरणं (चरण) 1/1 । हवइ (हव) व 3/1 अक । सधम्मो [(स)-(धम्म) 1/1] धम्मो (धम्म) 1/1। सो. (त) 11 सवि । अप्पसमभावो [(अप्प) -(समभाव) 1/1] । रागरोसरहिओ* [(राग)-(रोस)-(रहिन) 1/1 वि] । जीवस्स (जीव) 6/1 । अणष्णपरिणामो [(अणण्ण) वि(परिणाम) 1/11 4. देखो गाथा 33 82 जह (अ) = जैसे । फलिहमणि (फलिहमणि) मूलशब्द 1/1 । विसुखो (विसुद्ध) 1/1 वि । परवम्वजुबो [(पर) वि-(दव्व)-(जुद) 1/1 वि] । हवेइ (हव) व 3/1 सक। अगं (अण्ण) 2/1 वि । सो (त) 1/1 5. कर्ता कारक के स्थान में केवल मूल संज्ञा शब्द भी काम में लाया जा सकता है । (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 518) 60 ] [ अष्टपाहुए For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवि । तह (अ) = वैसे ही । रागादिविजुत्तो [(राग)+ (प्रादि)+ (विजुत्तो)] [(राग)-(आदि)-(विजुत्त)1/1 वि] । जीवो (जीव) 1/1 । हववि (हव) व 3/1 अक। हु (अ) = किन्तु । अणणविहो [(अण) + (अण्ण)+ (विहो)] अणण्णविहो (अणण्णविह) 1/1 वि.। 83 तवरहियं [(तव)-(रहिय) 1/1 वि] । जं (अ) = चूकि । पारणं (णाण) 1/1। गाणविजुत्तो [(णाण)-(विजुत्त) 1/1 वि] । तवो . (तव) 1/1 । वि (म) = भी । अकयत्थो (अकयत्थ) 1/1 वि । तम्हा (अ) = इसलिए । णाणतवेणं [(गाण)-(तव) 3/1] । संजुत्तो (संजुत्त) 1/1 वि । लहइ (लह) व 3/1 सकः । णिव्वाणं (णिव्वाण) 2/1 । 84 आहारासणणिद्दाजयं [(आहार)+ (आसण) + (रिणद्दा) + (जयं)] . [(प्राहार)-(प्रासण)-(रिणद्दा)-(जय) 2/1] । च (अ)=तथा। काऊण (काऊण) संकृ अनि । जिणवरमएण [(जिणवर)-(मप्र) 3/1] । झायन्यो (झा) विधिक 1/1। णियअप्पा [(रिणय) वि-(अप्प) 1/1] । गाऊणं (णा) संकृ । गुरुपसाएण [(गुरु)-(पसाप) 3/1] । 1. देखो गाथा 70. . 85. ताम (अ) = तब तक। प (प्र) = नहीं। रणज्जइ (गज्ज) व 3/1 सक । अप्पा (अप्प) 2/1 अपभ्रश । विसएसु (विस) 7/2 । गरो ... (णर) 1/1 । पवट्टए (पवट्ट) व 3/1 अक । जाम (अ)=जब तक । विसए (विस) 7/1। विरत्तचित्तो [(विरत्त)-(चित्त) 1/1] । जोई (जोइ) 1/1 । जाणेइ (जाण) व 3/1 सक । अप्पारणं (अप्पारण) 2/11 . 2. कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। . 86 परमाणुपमाणं [(परमाणु)-(पमाण) 1/1] । वा (अ) = के समान । परवब्वे [(पर) वि-(दव्व) 7/1] । रवि (रदि) मूलशब्द 1/1 3. देखों गाथा 82 . . चयनिका ] [ 61 For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवेदि (हव) व 3/1 अक । मोहादो (मोह) 5/1 । सो (त) 1/1 सवि । मूढो (मूढ) 1/1 वि । अण्णाणी (अण्णाणि) 1/1. वि । प्रादसहावस्स [(प्राद)-(सहाव) 6/1] । विवरीमो (विवरी) 1/1 वि। 1. किसी कार्य का कारण व्यक्त करने वाली संज्ञा में तृतीया या पंचमी होती है। 87 जेण (अ) = चूकि । रागो (राग) 1/1। परे (पर) 7/1 वि । दब्वे (दब्व) 7/1 । संसारस्स (संसार) 6/1 । हि (अ) = ही । कारणे(कारण) 1/1। तेणावि [(तेण)+ (अवि)] तेण (अ) = इसलिए अवि (अ) = ही। जोइणो (जोइ) 1/2 णिच्चं (अ) = सदैव । कुज्जा (कु) विधि 3/2 सक । अप्पे (अप्प) 7/1 । समावणा [(स) वि-(भावणा) 2/2] । 88 णिदाए (रिंगदा) 7/1। य (अ) = और । पसंसाए- (पसंसा) 7/1 । दुक्खे (दुक्ख) 2/2। य (अ) = और । सुहएसु (सुह) 'अ' स्वार्थिक प्रत्यय 7/2। य (अ) = तथा। सत्तणं (सत्त) 6/2। चेव (अ) = और । बंपूर्ण (बंधु) 6/2 । चारित्त (चारित्त) 1/1 । समभाववो (समभाव) पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय । 2. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137) 3. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) 89 णिच्छयणयस्स (रिणच्छयणय) 6/1। एवं (अ)=बिल्कुल ऐसा ही। अप्पा (अप्प) 1/1। अप्पम्मि (अप्प) 7/1। अप्पणे (अप्पणे) 4/1 अनि । सुरदो [(सु) अ= पूरी तरह से-(रद) भूकृ 1/1 अनि । सो (त) 1/1 सवि । होवि (हो) व 3/1 अक । हु (अ) =ही। सुचरित्तो [(सु) अ=श्रेष्ठ-(चरित्त) 1/1] जोई (जोइ) मूलशब्द 1/1 । सो (त) 1/1 सवि । लहइ (लह) व 3/1 सक । णिव्वाणं (णिन्वाव) 2/1 । 62 ] [ अष्टपाहुंड For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 ते (त) 1/2 सवि । धण्णा (धण्ण) 1/2 वि । सुकयत्था [(सु) अ = पूरी तरह-(कयस्थ) 1/2 वि] । सूरा (सूर) 1/2 वि । वि (अ) = हो । पंडिया (पंडिय) 1/2 वि । मणुया (मणुय) 1/2 । सम्मत्त (सम्मत्त) 1/1 | सिद्धियरं (सिद्धियर) 1/1 वि । सिविणे (सिविण) 7/1। वि (अ)=भी। ण (अ) = नहीं। मइलियं (मइल) भूक 1/1 जेहिं (ज) 3/2 सवि। 91 सम्म' (सम्म) मूलशब्द 1/1। गुण' (गुण) मूलशब्द 1/1। मिच्छ । (मिच्छ) मूलशब्द 1/1। दोसो (दोस) 1/1 | मरोण (मरण) 3/1 । परिभाविऊण । (परिभाव) संकृ । तं (त) 2/1 सवि । कुणसु (कुण) विधि 2/1 सक । जं (ज) 1/1 सवि । ते (तुम्ह) 6/1। मणस्स' (मण) 4/1 । रुच्चइ (रुच्च) व 3/1 अक । किं (किं) 1/1 सवि । बहुणा (बहु) 3/1 वि । पलविएणं (पलविअ) 3/1 तु (अ) = भी। __ 1. देखो गाथा 82 । ___ 2. रुचि-अर्थक क्रियायों के साथ रुचि रखते वाले व्यक्ति में चतुर्थी ___ विभक्ति का प्रयोग होता है । ' 92 वेरग्गपरो [(वेरग्ग)-(पर) 1/1 वि] । साहू (साहु) 1/1। पर दव्वपरम्मुहो [(पर) वि-(दव्व)-(परम्मुह) 1/1 वि] । य (अ)= और । जो (ज) 1/1 सवि । होदि (हो) व 3/1 अक । संसारसुहविरत्तो [(संसार)-(सुह)-(विरत्त) 1/1 वि । सगसुखसुहेसु [(सग) 'ग' स्वार्थिक प्रत्यय-(सुद्ध) वि-(सुह) 7/2] । अणुरत्तो (अणुरत्त) 1/1 वि । ____ 3. समास के अन्त में होने से एक अर्थ 'लीन' होता है। 93 गुणगणविहूसियंगो [(गुण) + (गण) + (विहूसिय)+ (अंगो)] [(गुण) (गण)-(विहूसिय)-(अंग) 1/1] । हेयोपादेयणिच्छिओ [(हेय)+ • (उपादेय) + (रिणच्छियो)] [(हेय)-(उपादेय) (णिच्छिअ) भूक 1/1 अनि] । साहू (साहु) 1/1 । झाणज्झयणे [(झाण)+ (अज्झयणे)] चयनिका ] [ 63 For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [(झाण)-(अज्झयणे)] [(झाण)-(अज्झयण) 7/1] | सुरवो [(सु) अपूरी तरह-(रद) 1/1 वि] । सो (त) 1/1 सवि । पावह (पाव) व 3/1 सक । उत्तमं (उत्तम) 2/1 वि ठाणं (ठाण) 2/1। 94 अल्हा (अरुह) 1/21 सिवायरिया [ [(सिद्ध)+ (प्रायरिया] [सिद्ध) (प्रायरिय) 1/2] । उज्झाया (उज्झाय) 1/2 । साहु' (साहु) मूलशब्द 1/2 । पंच (पंच) 1/2 वि । परमेट्ठी (परमेट्ठि) 1/2 । ते (त) 1/2 सवि । वि (अ)= निश्चय ही। ह (अ)= चूकि । चिहिं (चिठ्ठ) व 3/2 अक अपभ्रंश । प्रादे (पाद) 7/1 4. तम्हा (अ)=इसलिए । प्रादा (पाद) 1/1 हु (अ)=ही । मे (अम्ह) 4/1 स । सरणं (सरण) 1/1 । ____ 1. देखो गाथा 82. 95 सम्मत्तं (सम्मत्त) 1/1 । सण्णाणं [(स) वि-(ण्णाण) 1/1] । सच्चा रित्तं [(स) वि-(च्चारित्त) 1/1] । हि (अ) = निश्चय ही । सत्तवं [(स) वि-(त्तव) 1/1] । चेव (अ) = तथा । चउरो (चउर) 1/2 वि । चिट्ठाह (चिट्ठ) व 3/2 अक अपभ्रंश । आवे (पाद) 7/1। तम्हा (प्र) = इसलिए । आदा (पाद) 1/1 हु (प्र) = ही। मे (अम्ह) 4/1 स । सरणं (सरण) 1/11 96 धम्मेण (धम्म) 3/1 । होइ (हो) व 3/1 अक । लिगं (लिंग) 1/1 । ण (अ) = नहीं। लिंगमत्तेण [(लिंग)-(मत्त) 3/1] । धम्मसंपत्ती[(धम्म)-(संपत्ति) 1/1] । जाणेहि (जाण) प्राज्ञा 2/1 सक। भावधर्म [(भाव)-(धम्म) 2/1] । किं (कि) 1/1 सवि । ते (त) , 4/1 सवि । लिंगेण (लिग) 3/1 | कायव्वों (का) विधिक 1/1। 2. यहाँ विधि का प्रयोग भविष्य अर्थ में हुआ है। 97 सीलस्स' (सील) 6/1 । य* (अ) = और । गाणस्स' (णाण) 6/1 । 3. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का ... प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) 4. कभी-कभी 'और' अर्थ को प्रकट करने के लिए 'य' का प्रयोग दो बार किया जाता है। 64 ] [ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णत्थि नहीं । विरोहो ( विरोह) 1 / 1 । बुह ( बुध) 3 / 2 वि । 1=3 पिट्ठिो (रिगद्दिट्ठ) भूकृ 1 / 1 अनि । णवरि ( अ ) = केवल । य ( अ ) किन्तु । सीलेरा' (सील) 3 / 1 | विणा 1 (श्र ) = बिना । विसया ( विसय) 1/2 | जाणं (गाण) 2 / 1 । विणासंति (विरणास ) व 3 / 2 सक | 1 1. 'बिना ' के योग में तृतीय, द्वितीया या पंचमी विभक्ति होती है । = ( प्र ) = नहीं । दोसो (दोस) 1 / 1 । वि 98 णाणस्स (गाग) 6 / 1 | णत्थि कापुराणं (कापुरिस) 6 / 2 | (बुद्धि) 6/2 । जे (ज) 1 / 2 सवि 1/2 सवि ] । होऊणं ( हो ) संकृ । विसएसु (विस) 7/2। रज्जंति (रज्ज) व 3 / 2 अक । ( अ ) = ही । मंदबुद्धीर्ण [(मंद) - णाण गव्विदा [ ( गाणं ) - (गव्विद ) । 2 99 वायरण छंबवइसे सियववहा रणायसत्येसु [ (वायरण) - (छंद) - ( वइसे सिय) - ( ववहार) - (गाय) - ( सत्थ) 7 / 2] । वेदेऊण (वेद) संकृ । सुदेसु (सुद) 7 / 21 य (प्र) = और। तेव [ (ते) + (एव) ] । ते ( तुम्ह) 4 / 1 सवि एव ( अ ) = हो । सुयं ( सुय) भूकृ 1 / 1 अनि । उत्तमं (उत्तम) 1 / 1 वि । सी (सील) 1 / 1। 2. कभी कभी द्वितीय विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-135 ) 100 जीवदया [ (जीव ) - (दया) 1 / 1 ] | दम' (दम) मूलशब्द 1 / 1 | सच्चं ( सच्च) 1 / 1 | अचोरियं ( प्रचोरिय) 1 / 1 | बंभचेरसंतोसे [(बंभचेर)( संतोस) 1 / 1 ] | सम्महंसण ( सम्मद सण ) 3 मूलशब्द 1 / 1 | गाणं (पारण) 1 / 1 ] । तओ (तन) 1 / 1 य ( अ ) = श्रौर। सोलस्स (सील) 6/1 । परिवारों (परिवार ) 1 / 1 । 3. देखो गाथा 82 चयनिका ] For Personal & Private Use Only [ 65 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ सुधार पाठ पाठ अष्टपाहुड पाठ चयनिका क *सुत्तत्थं *सुत्तं . 1 सम्मत्तरयणभठ्ठा सम्मत्तरयणभट्टा सम्मत्तरयणभट्ठा 2 बन्धुच्चिय 'बंधुच्चिय *बंधुच्चिय 3 भट्ट वि भट्ठा. "भट्ठविभट्ठा *भट्ठविभट्ठा 7 अप्पाणं अप्पाणं *अप्पाणं 10 ससुत्ता *असुत्ता "असुत्ता 12 सूत्तत्थं *सुत्तत्थं 13 सूत्तं *सुतं ... 14 णिरव सेसाई *रिणरवसेसाई 'रिणरवसेसाई 17 ""भारणसंजुत्ता *भावसंजुत्ता 'भावसंजुत्ता 18 णाऊं *णाउं *णाउं 19 अप्पासु परं *अप्पासु परं *अप्पा सुपरं 21 रण वि *णवि *णवि 'मोक्खमग्गस *मोक्खमग्गस्स *मोक्खमग्गस्स क अष्टपाहुड सं. पं. जयचंदजी छाबड़ा (श्री पाटनी दि. जैन ग्रन्थमाला, मारोठ 1950 राजस्थान) ख कुन्दकुन्दभारती सं. पं. पन्नालालजी (श्रुत भण्डार व अन्य प्रकाशन (अष्टपाहुड)' साहित्याचार्य समिति, फल्टण (महाराष्ट्र) 1970 ग अष्टपाहुड सं. पं. मोतीलाल गौतमचंद कोठारी (श्री प्राचार्य शांतिसागर दि. जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक * स्वीकृत पाठ संस्था, फल्टण (महाराष्ट्र) 661 [ अष्टपाहड For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाट पाठ अष्टपाहुड पाठ चयनिका क ग क्रम *पसंसरिंगदा *बिति *भमिनो सि पसंसरिणद्दा विति भमिग्रोसि इच्छसि *रिणमित्तो *जाणम *सुधम्म *इदि जिण *पुरण 25 पसंसरिगद्दा 28 विन्ति 31 भमिग्रोसि 35 इच्छसि 37 णिम्मित्तो 38 प्राणम 40 सुह धम्म 41 इदिजिण 42 पुणु 43 गाणज्झयणो 59 परमंतरवाहिरी देहीणं अंतोवाएण. 62 चो 66 प्रादसहावादण्णं 68 लहइ 71 मुत्तं 94 परमेठी आधे 95 य . 97 णिद्दिठो ... 98 कप्पुरिसाणो... __मंदबुद्धीणो गाणज्झयणो परभितर बाहिरो *हेऊणं *अंतोवायेण *गिग मित्तो *जाणम *सुह धम्म *इदि जिण पुणः *झागाझयणो *परभितरबाहिरो *हेऊणं *अंतोवायेण *चुग्रो *प्रादसहावा अण्णं *लहन्ति *चुप्रो प्रादसहावादण्णं लहदि *मोत्तु “परमेट्ठी 'प्रादे 'मोत्तु "रिणद्दिट्ठो कापुरिसाणो . मंदबुद्धीणो *परमेट्ठी *आदे *हि "रिणद्दिट्ठो *कापुरिसाणं . *मंदबुद्धीणं [ 67 चयनिका ] For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टपाहुड चयनिका एवं अष्टपाहुए . गाथा-क्रम अष्टपाहुड चयनिका क्रम गाथा क्रम दर्शनपाहु अष्टपाहुड चयनिका क्रम 19 चारित्रपाहुड गाथा क्रम 43 . बोषपाहुन 2020 सूत्रपाहुन भावपाहु 10 5 13. 14 . 15 . 15 6 . चारित्रपाहर 16 15 1741 18 68 ] . [ भष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टपाहुड चयनिका क्रम अष्टपाहुड चयनिका क्रम मोक्षपाहुड गाथा क्रम भावपाहुड गाथा क्रम 64 66 38 61 39 40 76 64 12 41 77 h4. 13 42 "86 65 16 89 66 17 90 67. 18 45 95 68 19 46 116 25 47 123 70 26 124 71 - 132 .72 29 50 143 73 31 .51 144 74 32 147 75 38 151 76 42 54 154 77 43 SS 156 45 48 . 80 . 56 158 159 मोक्षपाहा 3 51 83 59 60. . 5 . 84 63 चयनिका ] [69 For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टपाहुड चयनिका क्रम 85 मोक्षपाहुड गाथा क्रम 66. 86 69 अष्टपाहुड़ मोक्षपाहुड चयनिका क्रम गाथा क्रम 94 . 104 95 . 105 . लिंगपाहर 96 ... 2 शोलपार 97. 2 98 10 87 89 83 90 91 96 92 101 99. - 16 93 102 ___100 19 अष्टपाहुड सं. पं. जयचन्द जी छाबड़ा (श्री पाटनी दि. जैन ग्रंथमाला, मारोठ. राजस्थान) 1950 गाथा संख्या चयनित गाथाएँ 36 27 45 62 1. दर्शनपाहुड 2. सूत्रपाहुड 3. चारित्रपाहुड 4. बोधपाहुड 5. भावपाहुड 6. मोक्षपाहुड 7. लिंगपाहुड, 8. शीलपाहुड. 165 30 106 22 ____40 503 ION 70] [ प्रष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक पुस्तकें एवं कोश 1. अष्टपाहु : सम्पादक : पं. जयचन्दजी छाबड़ा (श्री पाटनी दि. जैन ग्रन्थमाला, मारोठ, राजस्थान) 2. गुम्बद भारती : सम्पादक : पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य (अष्टपाहु) (श्रुत भण्डार व अन्य प्रकाशन समिति, फल्टण, महाराष्ट्र) 3. अष्टपास : सम्पादक : पं. मोतीलाल गौतमचन्द कोठारी (श्री प्राचार्य शांतिसागर दि. जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था, . फल्टण, महाराष्ट्र) 4. समनसुरी : (सर्व-सेवा-संघ प्रकाशन, वाराणसी) 5. हेमचम प्राकृत व्याकरण : व्याख्याता श्री प्यारचंदजी महाराज भाग 1-2 .(श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति • कार्यालय, मेवाड़ी बाजार, ब्यावर, राजस्थान) 6. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण : डा. आर. पिशल (बिहार-राष्ट्र-भाषा-परिषद, पटना) 7. अभिनव प्राकृत व्याकरण : डा. नेमिचन्द्र शास्त्री (तारा पब्लिकेशन, वाराणसी) १. प्राकृत भाषा एवं साहित्य : डा. नेमिचन्द्र शास्त्री का.मालोचनात्मक इतिहास (तारा पब्लिकेशन, वाराणसी) [71 For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. प्राकृत मार्गोपदेशिका 10. संस्कृत निबन्ध-दर्शिका 11. प्रौढ़-रचनानुवाद कौमुदी 12. पाइन-सह-महन्णवो 13. संस्कृत - हिन्दी कोश 14. Sanskrta-English Dictionary 15. बृहत् हिन्दी कोश 72] : पं. बेचरदास जीवराज दोशी(मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) : वामन शिवराम प्राप्टें ( रामनारायण बेनीमाधव, इलाहबाद ) : डा. कपिलदेव द्विवेदी ( विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी) : पं. हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द सेठ ( प्राकृत ग्रंथ परिषद, वाराणसी) : वामन शिवराम श्राप्टे (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) : M. Monier Williams (Munshiren Manoharlal, New Delhi) : सम्पादक : कालिकाप्रसाद श्रादि ( ज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस) For Personal & Private Use Only [ अष्टपाहुड Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only www.jamelibrary.org