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ही विकसित होते हैं । इनका असंयमित प्रयोग अल्प सुखों के प्रति आकर्षण पैदा करता है और इनका संयम मानसिक तनाव उत्पन्न करता है।
जो ऊपर कहा गया है उससे कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं : (i) अशुभ भाव जब वे समाजोन्मुखी होते हैं, तो समाज को पतन की ओर ले जाते हैं और जब वे वैयक्तिक होते हैं, तो व्यक्ति के समुचित विकास को रोक देते हैं । दोनों ही अवस्थाओं में व्यक्ति असहनीय मानसिक तनाव अनुभव करता है। इस तरह से अशुभ भाव व्यक्ति व समाज दोनों के लिए अहितकर होते हैं। (ii) शुभ भाव जब वे समाजोन्मुखी होते हैं, तो समाज को उन्नति की ओर ले जाते हैं और जब वे वैयक्तिक होते हैं, तो व्यक्ति को विकासोन्मुख करते हैं। इस तरह से शुभ भाव समाज के लिए तो पूर्ण रूप से हितकारी होते हैं, किन्तु व्यक्ति के लिए आंशिक रूप से ही हितकारी होते हैं, क्योंकि व्यक्ति उनकी उपस्थिति में भी मानसिक तनाव अनुभव करता है,यद्यपि यह मानसिक तनाव अशुभ भाव से उत्पन्न मानसिक तनाव से भिन्न प्रकार का होता है । (iii) अशुभ भाव में लीन व्यक्ति की सामाजिक भूमिका निन्दनीय होती है, पर शुभ भाव में लीन व्यक्ति की सामाजिक भूमिका प्रशंसनीय होती है। अशुभ भाव में लीन व्यक्ति की वैयक्तिक भूमिका पशुवत् एवं तनावपूर्ण होती है, शुभ भाव में लीन व्यक्ति की वैयक्तिक भूमिका मानवीय होते हुए भी तनावपूर्ण रहती है । यह तनाव भी व्यक्ति के अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ही होता है, किन्तु वैयक्तिक व सामाजिक मूल्यों में. प्रास्था का भाव उसे इस तनाव में टिकाए रखता है। ऐसे व्यक्ति समाज के लिए तो बहुत ही उपयोगी होते हैं, पर उनका मानसिक स्वास्थ्य कुछ ऐसा हो जाता है कि वे अन्तर मन के रहस्यों को जानने में असमर्थ ही रहते हैं । यहाँ यह समझना चाहिए कि व्यक्ति के लिए समाज का उत्थान उतना हो महत्वपूर्ण है, जितना उसके चयनिका ]
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