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________________ अभाव में समाज में चलती रहती है। इन प्रवृत्तियों से असहयोग भी शुभ भाव है, किन्तु इनके प्रति उदासीनता प्रशुभ भाव है । समाज का लाभ तो उनके दमन से ही होता है । हमने ऊपर यह समझने का प्रयास किया है कि सामाजिक दृष्टिकोण से शुभ भाव सामाजिक विकास के लिए हितकारी होते हैं और व्यक्ति समाजोन्मुख होकर अपने में सामाजिक चेतना का उचित पोषण करता है जिससे वह अपनी संकुचित स्वार्थपूर्ण वृत्तियों पर विजय प्राप्त करने में सफल होता है । अब हम वैयक्तिक दृष्टिकोण से शुभ भाव के संबंध में विचार करेंगे । (iv) वैयक्तिक दृष्टिकोण से इन्द्रिय संयम शुभ भाव है। इससे व्यक्ति में जहां एक प्रोर त्याग और अनासक्तता जैसे उच्च कोटि के गुणों का विकास होता है, वहां दूसरी श्रोर मन वचन और काय की अशुभ प्रवृत्तियों के स्थान पर शुभ प्रवृत्तियां विकसित होने लगती हैं । इससे स्पष्ट है कि यदि समाजोन्मुखता व्यक्ति को विकसित करती है तो वैयक्तिक विकास सामाजिक विकास के लिए हितकर होता है । इन्द्रिय संयम से अभिप्राय है विभिन्न इन्द्रियों को ( प्रांख, कान, नाक आदि को ) उत्तेजनापूर्ण सामग्री से दूर रखना । उत्तरेजनापूर्ण इन्द्रिय-सामग्री व्यक्ति को अल्पकालीन सुखों का श्रादी बना देती है जो उसके विकास में अड़चन पैदा करते हैं। बार-बार ऐसे सुखों को भोगने की भूख जब बढ़ती जाती है तो त्याग प्रौर अनासक्तता काल्पनिक हो जाते हैं। यहां यह समझना चाहिए कि सामान्यतया इन्द्रिय- संयम कठिन होता है, क्योंकि इन्द्रियों का संयम मानसिक तनाव उत्पन्न करता है । स्वाद का संयम तनाव है, रूप का संयम तनाव है, कोमल स्पर्श का संयम तनाव है, खुशबू और सुरीली आवाज का संयम तनाव है, यद्यपि रूप विज्ञान सुर विज्ञान, व्यंजन विज्ञान, गंध विज्ञान तथा स्पर्श विज्ञान इन्द्रियों के इर्द गिर्द xvi ] [ अष्टपाहुड Jain Education International ". For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004161
Book TitleAshtapahud Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1998
Total Pages106
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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