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लिए प्रान्तरिक जीवन का विकास । - यहां प्रश्न यह है : क्या यह संभव है कि व्यक्ति वैयक्तिक-सामाजिक मूल्यों में आस्थावान होकर मूल्यों का . जीवन जीए, किन्तु किसी प्रकार का मानसिक तनाव उसे न हो ? क्या यह संभव है कि व्यक्ति अपने प्रान्तरिक जीवन में तनाव-मुक्त होकर आगे बढ़े
और उसके माध्यम से समाज भी विकसित हो ? क्या व्यक्तिगत विकास तथा लोक-कल्यारण करते हुए व्यक्ति तनाव-मुक्त रह सकता है ? अष्टपाहुड के अनुसार व्यक्ति दोनों पायामों में जीता हुआ भी तनाव-मुक्त रह सकता है (88) । तनाव मुक्तता=समभाव या मानसिक समता । यह कहा गया है कि मानसिक समता प्राप्त व्यक्ति के लिए काम-वासना से मुक्ति स्वाभाविक होती है, इन्द्रियों की आसक्ति जनित प्रवृत्ति से मुक्तता स्वाभाविक होती है तथा वस्तुओं के प्रति अनासक्ति भी स्वाभाविक होती है । ऐसे व्यक्ति के शरीर को खण्डित किया जा सकता है, किन्तु मानसिक समता को नहीं । कोई भी आन्तरिक व बाह्य परिस्थिति उसमें तनाव उत्पन्न नहीं कर सकती है। ऐसा व्यक्ति समाज में मूल्यों की स्थापना करते हुए तनाव-मुक्त रहता है। जिसे हम मानसिक समता या समभाव कहते हैं, वही शुद्ध भाव है (41), वही सम्यक् चारित्र है (9, 19), वही परमज्ञान है (20), वही मुक्त अवस्था है (17), वही निर्वाणपरमशान्ति है (89), वही आत्मा है (81), वही निर्विकल्प चारित्र है (76), वही परमात्म-अवस्था है (60), वही परम पद (उच्चतमस्थिति) है (77), वही उत्तम सुख है (78), वही साधु अवस्था है (92), तथा वही सन्यास है (25, 26, 27)। समतावान व्यक्ति लोकोपकार के लिए असमानता, गरीबी, तथा अशिक्षा को मिटाने का संघर्ष करता हुआ निंदा और प्रशंसा से प्रभावित नहीं होता है (25, 85)। ऐसा करते हुए लोक में उसके शत्र और मित्र दोनों ही बन जाते हैं, पर उसे एक से निराशा और दूसरे से उत्साह नहीं xviii ]
[ अष्टपाहुड
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