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________________ 16 (तू) ज्ञान से होने पर अज्ञान को, निर्दोष सम्यक्त्व के होने पर मिथ्यात्व को, और अहिंसा-धर्म के होने पर हिंसा सहित मूर्छा को त्याग। 17 (जो) (व्यक्ति) ज्ञानरूपी जल को पीकर निर्मल, शुद्ध भावों से युक्त (है), (वे) त्रिभुवन के आभूषण (होते हैं), (तथा) शिवालय में रहने वाले मुक्त (व्यक्ति) होते हैं। 18 (जो) (सम्यक्) ज्ञान-गुण से रहित (है), वे भली प्रकार से (भी) चाहे हुए लाभ को प्राप्त नहीं करते हैं, इस प्रकार गुण-दोष को जानने के लिए (तू) उस सम्यग्ज्ञान को समझ । 19 जो ज्ञानी चारित्र पर पूर्णतः प्रारूढ़ (है), (वह) (अपनी) प्रात्मा में श्रेष्ठ (भी) पर वस्तु को नहीं देखता है। (अतः) (वह) शीघ्र अनुपम सुख प्राप्त करता है, (तुम) निश्चय से जानो। 20 संयम से जुड़े हुए तथा श्रेष्ठ ध्यान के लिए उपयुक्त (ऐसे) मोक्ष मार्ग (समता मार्ग) के लक्ष्य को (कोई भी) परम ज्ञान से प्राप्त ___ . करता है (कर सकता है), इसलिए परम ज्ञान निश्चय ही समझा जाना चाहिए। 21 जैसे बींधने योग्य (निशाने) रहित बाण के द्वारा रथिक लक्ष्य . को बिल्कुल ही नहीं देखता है वैसे ही ज्ञान रहित (व्यक्ति) - (प्रज्ञान के द्वारा) मोक्ष मार्ग (समता-मार्ग) में लक्ष्य को (बिल्कुल ही) नहीं, देखता है। 22 ज्ञान प्रात्मा में होता है, विनय से जुड़ा हुआ सत् पुरुष ही . (उसको) प्राप्त करता है। (वह) मोक्ष मार्ग (समता-मार्ग) के चयनिका ] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004161
Book TitleAshtapahud Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1998
Total Pages106
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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