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________________ शुभ भाव हैं। दुष्टों के प्रति अनुराग, अनुचित दिशा में दया का प्रवाह, प्राणियों की हिंसा, निर्दयता, इन्द्रिय विषयों में लोलुपता, चित्त में क्रोध, श्रहंकार, कुटिलता, लोभ आदि का रहना अशुभ भाव हैं । भाव, इच्छा और चिन्तनात्मक बुद्धि : ". यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि भाव अपनी तृप्ति के लिए अनेक इच्छाओं को जन्म दे देते हैं जो उद्देश्यात्मक क्रियानों में अभिव्यक्त होती हैं । यह कहा जा चुका है कि 'भाव' संवेग और ज्ञान के मिले-जुले रूप का नाम है । भाव में निहित संवेग चिन्तनात्मक बुद्धि के माध्यम से इच्छात्रों में परिणत होकर अपनी तृप्ति की दिशा में सक्रिय हो जाते हैं। धीरे धीरे इच्छा अपने उद्देश्य की ओर बढ़ने में क्रियाशील बनने लगती है और भाव में स्थित संवेग की तृप्ति को साकार रूप प्रदान करने का संघर्ष करती है । जैसे, किसी के प्रति निर्दयता का संवेग एक अशुभ भाव है । यह संवेग चिन्तनात्मक बुद्धि के माध्यम से संबंधित व्यक्ति की हिंसा करने की इच्छा या उसको भूखे-प्यासे मारने की इच्छा में परिणत होकर अपनी तृप्ति की दिशा में सक्रिय हो जाता है । यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि इच्छा और चिन्तनात्मक बुद्धि एक दूसरे से घनिष्ट रूप में संबंधित रहती हैं । जहाँ इच्छा वर्तमान है वहाँ चिंतनात्मक बुद्धि वर्तमान रहती है और जहाँ चिन्तनात्मक बुद्धि वर्तमान है वहाँ इच्छा वर्तमान रहती है । इच्छा मन में सक्रिय होती है, वचन के माध्यम से दूसरों तक पहुंचाई जा सकती है और शरीर को अनेक प्रकार से क्रियाशील बनाती है और हर स्थिति में वास्तविक बनना चाहती है, जिससे वह तृप्त हो सके । इच्छा की उत्पत्ति और तृप्ति की आकांक्षा सदैव साथ-साथ होती है। तृप्ति के लिए चिन्तनात्मक बुद्धि योजनाएँ बनाती है । इस तरह से हमारा h vi ] [ अष्टपाहुड Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004161
Book TitleAshtapahud Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1998
Total Pages106
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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