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________________ 84 जितेन्द्रियों के मत से तथा गुरु प्रसाद से ( शुद्ध ग्रात्मा को) जानकर, ग्राहार, ग्रासन श्रौर निद्रा को जीत कर, निज श्रात्मा ध्याया जाना चाहिए ।. 85 जब तक मनुष्य विषयों में प्रवृत्ति करता है, तब तक ( वह ) श्रात्मा को नहीं जानता है, (जिस योगी का ) चित्त विषय से उदासीन है, ( वह ) योगी (ही) श्रात्मा को जानता है । 86 मूर्च्छा के कारण (जिसकी ) पर द्रव्य में परमाणु की माप के समान ( भी ) प्रासक्ति होती है, वह मूढ, प्रज्ञानी (व्यक्ति) ग्रात्मा के (शुद्ध) स्वभाव का विरोधी (होता है) । 87 कि पर द्रव्य में राग निश्चय हीं संसार का कारण है, इसलिए ही योगी आत्मा के विषय में श्रेष्ठ चिन्तनों को सदैव धारण करें | 88 निंदा और प्रशंसा में दुखों और सुखों में तथा शत्रुनों श्रौर मित्रों में समभाव (रखने) से (ही) चारित्र होता है । 89 निश्चयनय के ( अनुसार ) बिल्कुल ऐसा ही है ( कि) आत्मा आत्मा में आत्मा के लिए पूरी तरह से संलग्न (होता है) । वह (स्थिति) ही श्रेष्ठ चारित्र होती है, (और ऐसा ) वह योगी (ही) परम शांति को प्राप्तं करता है । 90 कल्याण करने वाला सम्यक्त्व जिनके द्वारा स्वप्नं में भी मलिन नहीं किया गया (है), वे ही मनुष्य (हैं), वे (ही) धन्य (तथा) पूरी तरह सफल ( हैं ), वे (ही) वीर (श्रौर) पंडित ( हैं ) । चयनिका ] [ 31 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004161
Book TitleAshtapahud Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1998
Total Pages106
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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