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58 जिस (प्रात्मा) को जानकर (और) लगातार अभिव्यक्त करके
ध्यान में स्थित योगी निर्बाध, अनन्त, अनुपम परम शांति को . प्राप्त करता है, (वह आत्मा तीन प्रकार की है)। .
59 निश्चय ही (भिन्न भिन्न) कारणों से वह आत्मा तीन प्रकार __का है-परम (आत्मा), प्रांतरिक (आत्मा) और बहिर - (आत्मा) । (तुम) बहिरात्मा को छोड़ो, (चूंकि) उस (परम)
अवस्था में प्रांतरिक (प्रात्मा) के साधन से परम (आत्मा) ध्याया जाता है।
60 (शरीररूपी) इन्द्रियाँ (ही) बहिरात्मा (है)। (शरीर से भिन्न)
आत्मा. का विचार ही अंतरात्मा (है), (तथा) कर्म-कलंक (तनाव) से मुक्त (जीव) परम-प्रात्मा देव (है)। (इस प्रकार
यह) कहा जाता है। 61 तीन प्रकार (मन-वचन-काय) से बहिरात्मा को छोड़कर .
अंतरात्मा को ग्रहण कर परम प्रात्मा ध्याया जाता है । (यह) अरहंतों द्वारा कथित (है)।।
62 इन्द्रियों के माध्यम से बाह्य पदार्थ में (जिसका) मन लगा हुआ
है, (उसके द्वारा) (निश्चय ही) निज स्वरूप भूला हुआ (है)। (इस तरह से) खेद ! मूढदृष्टि वाला (व्यक्ति) निज देह (और)
आत्मा को (एक) विचारता है। 63 जो देह से उदासीन है, (जो) (मानसिक) द्वन्द्व-रहित (है),
ममतारहित (तथा) जीव-हिंसारहित (है), (जो) प्रात्म-स्वभाव में पूरी तरह संलग्न है, वह योगी परम शांति प्राप्त करता है।
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