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________________ आदि अनिष्टकारी होती हैं तथा व्यक्ति को चिन्ताग्रस्त बना देती है। ये अनिष्टकारी संयोग प्रगति के मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं। ऐसे अनिष्ट संयोगों का भय भी मानसिक तनाव उत्पन्न करता है। (२) (ख) कुछ अशुभ भाव ऐसे होते हैं जो अल्प समय के लिए सुखदायी होते हैं, किन्तु वे व्यक्ति की रुचियों को इस प्रकार प्रभावित करते रहते हैं कि व्यक्ति की चिन्तनात्मक बुद्धि सदैव उनके जाल में ही फंसी रहती है, वे व्यक्ति में नई इच्छानों को जन्म देते रहते हैं और बुद्धि उनके चंगुल में ही रहती है। उसका बहुत-सा समय व्यक्तिगत सुखों के चिन्तन में ही चला जाता है । ये भाव इसलिए अशुभ कहे गए हैं कि इनके कारण व्यक्ति में सामाजिक मूल्यों की चेतना पैदा नहीं होती और उसके स्वयं का मूल्यात्मक विकास अवरुद्ध ही रहता है । इसके अतिरिक्त इन्द्रिय-सुख व्यक्ति को अपने में ही इस तरह समेट लेते हैं कि उसकी 'दूसरे' के प्रति चेतना कम होती जाती है जो सामाजिकता को खतरा पैदा करती है। दो इन्द्रिय-सुखों में लिप्त व्यक्ति एक दूसरे की सहायता करना भी बोझ समझेंगे । अपने ही सुख में लोन व्यक्ति परम स्वार्थी होता जाता है और परार्थ उसके लिए असंभव या आकस्मिक रहता है। (२) (ख) (i) कई मनुष्य विज्ञापन, रेडियो. टी. वी. सिनेमा, पत्र-पत्रिका आदि के माध्यमों से भौतिक सुख-साधन की वस्तुओं की तथा इन्द्रियों को रुचने वाली वस्तुओं की जानकारी पा कर उनके प्रति आकर्षित होने लगते हैं। उनमें वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा पैदा होती है। सामान्यतया वस्तुओं की इच्छा और उनकी प्राप्ति में आर्थिक कठिनाइयों के कारण विलम्ब होता ही है और कभी कभी तो कई वस्तुएँ जीवन में नहीं मिल पाती हैं । यह स्थिति कुण्ठा पैदा करती है और मानसिक तनाव का कारण बनती है । [ अष्टपाहुड Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004161
Book TitleAshtapahud Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1998
Total Pages106
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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