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किन्तु तनाव-पूर्ण जीवन (मिथ्यात्व) में रुचि ही दोष है (91) । यहाँ यह कहना उचित ही है कि जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन रूपी रत्न से वंचित है, वह शास्त्रों का अध्येता होता हुआ भी मानसिक तनाव में चक्कर काटता रहता है और दूसरों को भी इसी भटकाने वाले मार्ग पर ले जाता है (1, 2)। समता के महत्व को समझ, सम्यग्ज्ञान : ___ यह कहा जा चुका है कि पूर्ण तनाव-मुक्तता में रुचि, समता में या प्रात्मा या अध्यात्म में रुचि सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर व्यक्ति का ज्ञान या उसकी चिन्तनात्मक बुद्धि एक नया आयाम ग्रहण कर लेती है, जिससे शुभ-अशुभ भावों से उत्पन्न प्रवृत्तियों को देखने की उसे एक नई दृष्टि मिलती है। इसे ही सम्यग्ज्ञान कहते हैं (4)। इस तरह से अध्यात्म का (समता का) ज्ञान सम्यज्ञान होता है (75)। ऐसा व्यक्ति दुराचरण को नष्ट करता हुआ आगे बढ़ता है (5)। आध्यात्मिक ज्ञान से व्यक्ति स्व की तनाव-मुक्तता को महत्व देने लगता है और लोक कल्याण में प्रवृति चाहने लगता है (11) । वह व्यवहार नय और परमार्थ नय में समन्वय करके चलता है (13)। इस तरह से सम्यकज्ञान लोक कल्याण के लिए समता के महत्व की समझ है । जो इस ज्ञान से रहित है, वह उचित लाभ को प्राप्त नहीं कर सकता है (18)। समता की प्राप्ति का लक्ष्य सम्यक ज्ञान के द्वारा ही देखा जा सकता है (20, 21)। समता की प्राप्ति और उसकी प्रक्रिया, सम्यकचारित्र :
मनुष्य इस संसार में वस्तुओं और व्यक्तियों के मध्य रहता है । वह वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा और व्यक्तियों से आशाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति का प्रयास करता है। इस कारण वह मानसिक तनाव का अनुभव करता है । अज्ञान, मूर्छा और आत्मविस्मरण के कारण वह इस तनाव में ही चक्कर काटता रहता है। जब गुरु-प्रसाद से उसमें प्रात्म-रुचि उत्पन्न होती है (84), तो इन्द्रियों चयनिका ]
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