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77 रत्नों के तिगडु से युक्त जो संयत योगी अपनी शक्ति के ( अनुरूप ) तप करता है, वह शुद्ध आत्मा को ध्याता हुआ उच्चतम स्थिति को प्राप्त करता है ।
78 लोभ से रहित तथा अहंकार, जीव निर्मल स्वभाव से युक्त पाता है ।
कपट, (और) क्रोध से रहित जो (होता है), वह उत्तम सुख को
79 परम आत्मा को ध्याता हुआ
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योगी अपवित्रता को उत्पन्न करने वाले लोभ से मुक्त हो जाता है, (तथा) नवीन कर्मों को ग्रहण नहीं करता है । (ऐसा ) अरहंतों द्वारा कहा गया है ।
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80 दृढ़ सम्यक्त्व से मति विशुद्ध ( होती है) (तथा) चारित्र दृढ़ (होता है) । ( ऐसा ) प्राप्त करके योगी आत्मा को ध्याता हुआ परम पद को प्राप्त करता है ।
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81 चारित्र आत्मा का धर्म होता है, वह धर्म आत्मा की समता होता है ( श्रोर) वह (प्रात्मा की समता) हर्ष और क्रोध रहित जीव का अनुपम परिणाम है ।
82 जैसे स्फटिक मणि शुद्ध होती है, से संयुक्त (होती है) (तो) वह अन्य है, वैसे ही जीव रागादि ( दोषों) से ( जब वह ) ( पर द्रव्य से संयुक्त होता है तो ) भिन्न भिन्न प्रकार का हो जाता है ।
(किन्तु ) ( जब वह ) पर द्रव्य (नाम) को प्राप्त करती रहित (होता है), किन्तु
83 चु कि तपरहित ज्ञान तथा ज्ञान रहित तप (दोनों ही ) असफल (होते हैं), इसलिए (जो व्यक्ति) ज्ञान (श्रीरं ) तप से संयुक्त (होता है ) ( वह ही) परम शान्ति को प्राप्त करता है ।
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