Book Title: Apbhramsa Ek Parichaya
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश : एक परिचय डॉ. कमलचन्द सोगाणी प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी राजस्थान Mampi o natomony Higheroine Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश : एक परिचय लेखक डॉ. कमलचन्द सोगाणी पूर्व प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर नारा प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी राजस्थान Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी श्रीमहावीरजी - ३२२२२० (राज.) प्राप्ति-स्थान १. जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी २. अपभ्रंश साहित्य अकादमी । दिगम्बर जैन नसिया भट्टारकजी सवाई रामसिंह रोड जयपुर - ३०२००४ प्रथम बार, ई. सन् २०००, २००० प्रतियाँ मूल्य : ३०.०० रुपये मुद्रक जयपुर प्रिन्टर्स प्रा. लि. एम. आई. रोड जयपुर - ३०२००१ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय डॉ. हीरालाल जैन को सादर समर्पित जिन्होंने भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर जैनसाहित्य-परम्परा के प्राकृत भाषा के ग्रन्थ षट्खण्डागम एवं अपभ्रंश भाषा के अनेक विस्मृत व अप्रकाशित ग्रन्थों का सम्पादन कर नवजीवन प्रदान किया। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भिक प्रकाशकीय पहला अध्याय - अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य अपभ्रंश की भूमिका अपभ्रंश का स्वरूप व विकास अपभ्रंश साहित्य की खोज व उसका क्षेत्र अपभ्रंश साहित्य का वर्गीकरण (i) जैनों की अपभ्रंश रचनाएँ स्वयंभू एवं उनकी रचनाएँ पुष्पदंत एवं उनकी रचनाएँ धनपाल एवं उनकी रचना विषय-सूची वीर एवं उनकी रचना नयनंदि एवं उनकी रचनाएँ कनकामर एवं उनकी रचना हेमचन्द्र एवं उनकी रचनाएँ हरिदेव एवं उनकी रचना रइथू एवं उनकी रचनाएँ (ii) बौद्धों की अपभ्रंश रचनाएँ सरहपा कण्हपा (iii) शैवों की अपभ्रंश रचनाएँ (iv) ऐहिकतापरक अपभ्रंश रचनाएँ दूसरा अध्याय - परवर्ती अपभ्रंश प्राकृत पैंगलम् सिरिथूलभद्द - फागु नेमीनाथ चउपई उक्तिव्यक्ति प्रकरण (v) पृष्ठ संख्या 1-31 1 2 4 7 7 8 10 13 14 17 18 19 20 21 23 24 24 25 25 33-40 34 34 35 35 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43-49 कीर्तिलता पृथ्वीराज रासो विद्यापति पदावली आधुनिक भारतीय भाषाओं का उदय तीसरा अध्याय - अपभ्रंश और हिन्दी परिशिष्ट अपभ्रंश के मूल ग्रंथ सहायक पुस्तकें 'जैनविद्या' शोध-पत्रिका के अपभ्रंश विशेषांक 'अपभ्रंश-भारती' शोध-पत्रिका के अंक (vi) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भिक 'अपभ्रंश : एक परिचय' पुस्तक पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है। यह सर्वविदित है कि तीर्थंकर महावीर ने लोकभाषा प्राकृत में उपदेश देकर सामान्यजन के लिए विकास का मार्ग प्रशस्त किया। लोकभाषा बदलती चलती है । इसके परिणामस्वरूप अपभ्रंश भाषा का जन्म लोक-भाषा के रूप में हुआ और ईसा की पाँचवीं - छठी शताब्दी में वह साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए सशक्त माध्यम बन गई। लम्बे समय तक यह उत्तरी भारत की भाषा बनी रही। पश्चिम से पूर्व तक इसका प्रयोग होता था । इसी से आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ है । 'अपभ्रंश : एक परिचय' पुस्तक अपभ्रंश भाषा के विभिन्न पक्षों को उजागर करने की ओर एक महत्वपूर्ण कदम है। दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी द्वारा जयपुर में सन् 1988 में 'अपभ्रंश साहित्य अकादमी' की स्थापना की गई। देश की यह प्रथम अकादमी है जहाँ मुख्यतः पत्राचार के माध्यम से 'अपभ्रंश भाषा' का अध्यापन किया जाता है । विश्वधर्म प्रेरक आचार्य विद्यानन्दजी मुनिराज के शब्दों में- "दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी द्वारा संचालित अनेक लोक-कल्याणकारी प्रवृत्तियों में अपभ्रंश साहित्य अकादमी एक महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति है । अपभ्रंश भाषा का शिक्षण-प्रशिक्षण देनेवाली और शोध करनेवाली यह एकमात्र संस्था है। यदि इस संस्था के प्रयासों से अपभ्रंश भाषा को भारत में उसके गौरव के अनुकूल सम्मान और उसके अध्ययन को प्रोत्साहन मिल सका तो यह भारतीय संस्कृति की बहुत बड़ी सेवा होगी । " डॉ. कमलचन्द सोगाणी द्वारा रचित 'अपभ्रंश रचना सौरभ', 'अपभ्रंश काव्य सौरभ', 'अपभ्रंश अभ्यास सौरभ' तथा 'प्रौढ़ अपभ्रंश रचना सौरभ भाग - 1' (vii) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकादमी के महत्त्वपूर्ण प्रकाशन हैं । इसी क्रम में डॉ. सोगाणी की 'अपभ्रंश : एक परिचय' पुस्तक प्रकाशित है। इसके लिए हम डॉ. सोगाणी के आभारी हैं। 'अपभ्रंश : एक परिचय' पुस्तक के प्रकाशन में सहयोगी अपभ्रंश साहित्य अकादमी के कार्यकर्त्ता एवं जयपुर प्रिन्टर्स प्राइवेट लिमिटेड धन्यवादार्ह हैं । प्रकाशचन्द्र जैन मंत्री प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी (viii) नरेशकुमार सेठी अध्यक्ष Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय अपभ्रंश भारतीय आर्य परिवार की एक सुसमृद्ध लोक-भाषा रही है। इसका प्रकाशित-अप्रकाशित विपुल साहित्य इसके विकास की गौरवमयी गाथा कहने में समर्थ है। स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, वीर, नयनंदि, कनकामर, जोइन्दु, रामसिंह, हेमचन्द्र, रइधू आदि अपभ्रंश भाषा के अमर साहित्यकार हैं। कोई भी देश व संस्कृति इनके आधार से अपना मस्तक ऊँचा रख सकती है। विद्वानों का मत है - "अपभ्रंश ही वह आर्य भाषा है जो ईसा की लगभग सातवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक सम्पूर्ण उत्तर भारत की सामान्य लोक-जीवन के परस्पर भाव-विनिमय और व्यवहार की बोली रही है।" यह निर्विवाद तथ्य है कि अपभ्रंश की कोख से ही सिन्धी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, बिहारी, उड़िया, बंगला, असमी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी आदि भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ है। इस तरह से राष्ट्रभाषा का मूल स्रोत होने का गौरव अपभ्रंश भाषा को प्राप्त है। यह कहना युक्तिसंगत है - "अपभ्रंश और हिन्दी का सम्बन्ध अत्यन्त गहरा और सुदृढ़ है, वे एक-दूसरे की पूरक हैं। हिन्दी को ठीक से समझने के लिए अपभ्रंश की जानकारी आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है।'' डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार - "हिन्दी साहित्य में (अपभ्रंश की) प्रायः पूरी परम्पराएँ ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं।" अत: राष्ट्र भाषा हिन्दी सहित आधुनिक भारतीय भाषाओं के सन्दर्भ में यह कहना कि अपभ्रंश का अध्ययन राष्ट्रीय चेतना और एकता का पोषक है, उचित प्रतीत होता है। 1. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवर सिंह, सन् 1882, पृष्ठ - 287 2. अपभ्रंश और अवहट्ट : एक अन्तर्यात्रा, डॉ. शंभूनाथ पांडेय, 1979, पृष्ठ - 91 (ix) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अपभ्रंश : एक परिचय' पुस्तक अपभ्रंश का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करती है। इसका मुख्य उद्देश्य अपभ्रंश की बिखरी हुई जानकारियों, सूचनाओं को एक जगह समेटना है जिससे अपभ्रंश से हिन्दी तक की यात्रा स्पष्ट हो सके। इसमें तीन अध्याय हैं - 1. अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य 2. परवर्ती अपभ्रंश 3. अपभ्रंश और हिन्दी। इन तीनों अध्यायों की सामग्री विद्वानों की विभिन्न पुस्तकों से संगृहीत है। इन पुस्तकों के नाम यथास्थान दे दिये गये हैं। अकादमी की शोध-पत्रिका 'अपभ्रंश-भारती' तथा 'जैनविद्या' शोध-पत्रिका के अपभ्रंश-विशेषांकों का भरपूर उपयोग किया गया है। इनकी सामग्री को पुस्तक के रूप में लाने का संभवतः यह प्रथम प्रयास है। मैं आशा करता हूँ कि इस पुस्तक से सामान्यजन, विद्यार्थी और विद्वान् - सभी लाभान्वित हो सकेंगे। इस पुस्तक में अपभ्रंश की कुछ प्रकाशित रचनाओं का ही उपयोग किया गया है। इन रचनाओं के अतिरिक्त जैन ग्रन्थ भण्डारों में अपभ्रंश की अनेक पांडुलिपियाँ अभी अप्रकाशित हैं जिन्हें प्रकाशित कराना अपभ्रंश साहित्य अकादमी का एक प्रमुख उद्देश्य है। . मेरी धर्मपत्नी श्रीमती कमलादेवी सोगाणी ने इस पुस्तक को लिखने में जो सहयोग प्रदान किया, उसके लिए मैं आभार व्यक्त करता हूँ। पुस्तक के प्रकाशन की व्यवस्था के लिए 'जैनविद्या संस्थान समिति' का आभारी हूँ। अकादमी के कार्यकर्ता एवं जयपुर प्रिन्टर्स प्राइवेट लिमिटेड धन्यवादाह हैं। तीर्थंकर विमलनाथ निर्वाणदिवस डॉ. कमलचन्द सोगाणी आषाढ़ कृष्ण षष्ठी, संयोजक वीरनिर्वाण संवत् 2526 जैनविद्या संस्थान समिति दिनांक 23-6-2000 (x) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अध्याय अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य अपभ्रंश की भूमिका भाषा, समाज और संस्कृति का अभिन्न संबंध है। संस्कृति के अपने कोई पैर नहीं होते, वह तो भाषा और समाज के पैरों पर चलती है। यदि भाषा और समाज सशक्त होते हैं तो संस्कृति का तेज दूर-दूर तक फैल जाता है । यदि भाषा और समाज लड़खड़ाता है तो संस्कृति लड़खड़ा जाती है । जिस समाज का ध्यान अपनी सांस्कृतिक भाषा से हटता है उस समाज के सांस्कृतिक मूल्य धीरे-धीरे विस्मृत हो जाते हैं। जिस समाज में हमें सांस्कृतिक भाषा-चेतना कम दिखाई दे वह समाज अपने सांस्कृतिक मूल्यों को छोड़ता दिखाई देगा। वास्तव में भाषा को भूलना संस्कृति को भूलना है । लोक-भाषा ही सांस्कृतिक मूल्यों की वाहक होती है। लोक समुन्नत हो इसके लिए लोक-भाषा का प्रयोग महत्वपूर्ण है । यही कारण है कि तीर्थंकर महावीर ने धर्म-प्रचार के निमित्त तत्कालीन लोक-भाषा 'प्राकृत' का प्रयोग किया। भारत में अति प्राचीनकाल से ही सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के लिए लोक-भाषा में साहित्य लिखा जाता रहा है। जीवन के विविध मूल्यों के प्रति जनता को जागृत करना और लोक-जीवन के विविध पक्षों को लोक-भाषा में अभिव्यक्त करना - ये दोनों ही बातें महत्वपूर्ण समझी जाती रही हैं । अपनी व्यक्तिगत अनुभूति के माध्यम से साहित्यकार जन-चेतना में नये तत्वों का प्रवेश कराने के लिए लोक-भाषा को चुनकर उसमें सांस्कृतिक प्राणों का संचार करता है । यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि वैदिक काल में भी लोकभाषा प्राकृत का अस्तित्व रहा है । यदि हम कहें कि वैदिक भाषा प्राकृत के तत्वों को प्रचुर मात्रा में समेटे हुए है तो अत्युक्ति नहीं होगी। 'प्राकृत' महावीर, बुद्ध और आस-पास के लाखों लोगों की मातृभाषा रही है। कुछ शताब्दियों तक प्राकृत में विभिन्न प्रकार का साहित्य लिखा जाता रहा। यह एक वास्तविकता Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि लोक-भाषा बदलती चलती है और जो बदलती चलती है वही लोकभाषा होती है। धीरे-धीरे एक नई भाषा 'अपभ्रंश' का जन्म लोक-भाषा के रूप में हुआ और ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी में वह अपभ्रंश भाषा साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए सशक्त माध्यम बन गई। "शीघ्र ही उसे स्वयंभू जैसा प्रतिभाशाली कवि प्राप्त हो गया, जिसने भारतीय वाङ्मय के इतिहास में अपभ्रंश-युग का प्रवर्तन किया। विद्वानों का मत है कि अपभ्रंश लम्बे समय तक उत्तरी भारत की भाषा बनी रही। डॉ. चाटुा के अनुसार शौरसेनी अपभ्रंश राष्ट्रभाषा बन गई थी। पश्चिम से पूर्व तक उसी का प्रयोग होता था। यहाँ यह समझना चाहिए कि भारतीय संस्कृति को समग्र रूप से जानने के लिए लोकभाषाओं के साहित्य का अध्ययन एक अनिवार्यता है। जन-जीवन में व्याप्त सांस्कृतिक मूल्यों को आत्मसात् करने की ओर झुकाव लोक-भाषाओं के साहित्य के प्रति रुचि जागृत करने से ही होता है। अपभ्रंश का स्वरूप व विकास __उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अपभ्रंश का अर्थ है - लोक-भाषा या जनबोली । सामान्य लोगों की बोलचाल की भाषा ही जनबोली होती है। आचार्य भरत मुनि (तीसरी शती) ने जिस भाषा को 'उकारबहुला' (अपभ्रंश) कहा है वह हिमालय प्रदेश से लेकर सिंध तथा उत्तर पंजाब तक प्रचलित थी। इस उत्तरपश्चिमी भारतीय बोली को ही संस्कृत वैयाकरणों ने अपभ्रंश नाम दिया; क्योंकि लोक-भाषा में विभिन्न क्षेत्रों में एक ही अर्थ में विभिन्न शब्द थे, जैसे - 'गौ' के लिए गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका इत्यादि लोक-प्रचलित विभिन्न शब्द हैं। संस्कृत ने इन शब्दों को अपभ्रंश नाम दिया। पं. चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' ने अपभ्रंश का अर्थ 'नीचे को बिखरना' (लोक में विकसित होना) बताया है। उन्होंने लिखा कि अपभ्रंश या देशी भाषा और कुछ नहीं बाँध से बचा हुआ पानी है या वह जो नदी-मार्ग पर चला आया, बाँधा न गया। उनका आशय है कि संस्कृत शब्द एक है तो प्यार के प्रवाह में पानी की तरह सरकनेवाले अपभ्रंश शब्द अनेक। 'माता' संस्कृत शब्द है, उसका 'मातु', 'माई' और 'मावो' तक पहुँच जाना अधिक मधुर बनने के लिए है। शब्दों का नया रूप लेना दूषण नहीं, भूषण है। 'गौ' के लिए गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका आदि अनेक अपभ्रंश शब्दों में लोक-जीवन की जीवन्तता है, जन-जीवन की सुगन्ध है। "ध्यान देने अपभ्रंश : एक परिचय Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की बात है, जो 'अपभ्रंश' शब्द ईसा से दो शताब्दी पूर्व अपाणिनीय प्रयोग के लिए प्रयुक्त होता था वही ईसा की छठी शताब्दी तक आते-आते एक साहित्यिक भाषा-संज्ञा बन गया। पं. चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' जिसे 'पुरानी हिन्दी' कहते हैं, डॉ. एल.पी. टैस्सिटरी जिसे 'पुरानी राजस्थानी' कहते हैं, गुजराती जिसे 'जूनी गुजराती' तथा बंग एवं मिथिलावासी जिसे अपनी 'पुरानी भाषा' कहते हैं, वस्तुतः वह अपभ्रंश ही है। यह अपभ्रंश लगभग सभी भारतीय आर्यभाषाओं की जननी कही गयी है। अपने व्यापक अर्थ में अपभ्रंश उस लोक-भाषा की द्योतक है जो संस्कृत से इतर है। इस तरह से अपभ्रंश सभी लोक-बोलियों का सामान्य नाम है । जन-भाषा अपभ्रंश' लगभग छठी शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी तक साहित्यिक भाषा के रूप में प्रयुक्त होती रही और वह हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, सिंधी, पंजाबी और बंगला आदि की मूल भाषा रही है। इसीलिए छठी शताब्दी के काव्यशास्त्री भामह संस्कृत-प्राकृत की भाँति अपभ्रंश का भी काव्यभाषा के रूप में उल्लेख करते हैं; यद्यपि अपभ्रंश का बोली के रूप में उल्लेख ई.पू. लगभग तीसरी शताब्दी में मिलता है । राजा भोज के युग में (1022-63 ई.) प्राकृत की भाँति अपभ्रंश का भी अच्छा प्रचार था। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषा का इस युग में समान रूप से महत्व था। राजशेखर के इस कथन से यही बात भलीभाँति ज्ञात होती है कि राजसभाओं में राजासन (राजा के आसन) के उत्तर की ओर संस्कृत कवि, पूर्व की ओर प्राकृतकवि और पश्चिम की ओर अपभ्रंशकवियों को स्थान दिया जाता था। स्वयंभू और पुष्पदंत जैसे अपभ्रंश के महाकवियों ने अपनी भाषा को देसी भाषा कहा है। डॉ. हीरालाल जैन के अनुसार देसी भाषा और अपभ्रंश एक ही है। पुष्पदंत अपनी भाषा को देसी भाषा कहने के साथ-साथ अवहंस (अपभ्रंश) भी कहते हैं । परिणाम यही है कि अपभ्रंश = अवहंस व देसी भाषा एक ही है। विद्वानों का मत है - "अपभ्रंश ही वह आर्य भाषा है जो ईसा की लगभग सातवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक सम्पूर्ण उत्तर भारत के सामान्य लोक-जीवन के परस्पर भाव-विनिमय और व्यवहार की बोली रही है।'' यह निर्विवाद तथ्य है कि अपभ्रंश से ही सिंधी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, बिहारी, उड़िया, बंगला, असमी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ है। अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत मुनि ने जिस उकारबहुला भाषा का क्षेत्र पश्चिमोत्तर भारत बतलाया है वह आठवीं से तेरहवीं शताब्दी तक समूचे उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा बन गई थी। डॉ. नामवरसिंह के अनुसार - " यह एक भाषा-वैज्ञानिक तथ्य है कि राजनीतिक और आर्थिक उन्मुखता के कारण विविध स्थानीय बोलियाँ एक विशाल राष्ट्रीय भाषा के रूप में ढल जाती हैं। नवीं शताब्दी में उत्तर भारत के राजनीतिक मानचित्र पर दृष्टि डालने से मालूम होता है कि बंगाल में पाल तथा मान्यखेट में राष्ट्रकूट राजाओं ने अपना आधिपत्य जमा लिया था। पाल और राष्ट्रकूट राजा देसीभाषा के संरक्षक थे। सरह, काण्ह आदि चौरासी सिद्ध कवि पालों के शासनकाल में हुए। उधर स्वयंभू और पुष्पदंत जैसे अपभ्रंश कवियों की शक्ति का प्रस्फुटन राष्ट्रकूटों की छत्रछाया में हुआ।इसलिए आरंभ में तत्कालीन बोलियों को अपभ्रंश के रूप में केन्द्रित करने और इस तरह उसे विकसित करने का श्रेय मुख्यत: राष्ट्रकूटों को है।" दसवीं शताब्दी का अंत होते-होते मान्यखेट के राष्ट्रकूटों के स्थान पर गुजरात में सोलंकी और चालुक्यों की शक्ति प्रबल हो गई; जिसमें सिद्धराज जयसिंह तथा कुमारपाल अपभ्रंश साहित्य के उन्नायक रहे। अपभ्रंश के प्रसिद्ध विद्वान हेमचन्द्र सूरि को संरक्षण देने का श्रेय सिद्धराज को ही है। साहित्य-सृजन के लिए हेमचन्द्र को धन और जन की जितनी सुविधाएँ राज की ओर से दी गई थीं, वह उस युग में किसी के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता था। कुमारपाल ने भी अपभ्रंश को पर्याप्त संरक्षण दिया।2। ___ "मान्यखेट के राष्ट्रकूटों के बाद पाटण के सोलंकी दूसरे राजा हुए जिन्होंने अपभ्रंश भाषा और साहित्य के उत्थान में बहुत बड़ा कार्य किया। सोलंकियों के शासनकाल में गुजरात का वैभव पराकाष्ठा पर था। वाणिज्य और संस्कृति दोनों में वह भारत का सिरमौर हो रहा था। स्वाभाविक था कि ऐसे राज्य की साहित्यिक भाषा अपभ्रंश उस समय की राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो।'13 अपभ्रंश साहित्य की खोज व उसका क्षेत्र ___ यहाँ यह लिखना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जब पिशेल द्वारा 'प्राकृत भाषाओं का व्याकरण' लिखा जा रहा था तो उन्हें हेमचंद्र के व्याकरण में उद्धृत अपभ्रंश भाषा के नमूनों को छोड़कर अपभ्रंश का अन्य कोई साहित्य उपलब्ध नहीं हो सका था। हर्मन जेकोबी ने अपभ्रंश साहित्य के अस्तित्व का अनुमान लगा लिया था। वे इसकी खोज में लग गए। वे दो बार जर्मनी से भारत आए। अपभ्रंश : एक परिचय Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय बार सन् 1913-14 ई. में अहमदाबाद में एक जैन साधु के पास रखी हुई एक प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ की प्रति देखी। उनको बताया गया कि यह कोई प्राकृत की रचना है। जेकोबी महोदय ने उसे उलट-पलटकर देखा और उस ग्रंथ की दो-चार पंक्तियों को ध्यान से पढ़ा। ग्रंथ पढ़ते ही जेकोबी अत्यन्त चमत्कृत हुए और हर्ष से उछल पड़े। तुरन्त ही उनके मुख से जो शब्द निकल पड़े उनका भाव था - "अरे ! यह तो कोई अपभ्रंश रचना लग रही है।"14 साधु जेकोबी को उस ग्रन्थ को देने के लिए तैयार नहीं थे। अतएव डॉ. जेकोबी कई दिनों तक लगातार बैठकर उसकी नकल करते रहे और बाद में बचे हुए पत्रों की फोटो-कापी तैयार करवाई। यह काव्यग्रंथ अपभ्रंश भाषा के महाकवि धनपाल का लिखा हुआ 'भविसयत्तकहा' था। अपभ्रंश साहित्य का यह महत्वपूर्ण काव्य डॉ. जेकोबी को सबसे पहले प्राप्त हुआ। कुछ दिनों के बाद सौराष्ट्र के प्रवास में उन्हें एक दूसरा काव्यग्रन्थ उपलब्ध हुआ। वह भी राजकोट के एक साधु के पास से प्राप्त हुआ था। इस ग्रन्थ का नाम 'नेमिनाथचरित' था। इसकी पूर्ण हस्तलिखित प्रति ही जर्मन विद्वान को मिल गई थी। इस प्रकार अपभ्रंश ग्रन्थों की पहली जानकारी डॉ. जेकोबी को प्राप्त हुई थी। - सन् 1918 ई. में म्यूनिक रायल एकेडमी से 'भविसयत्तकहा' का प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ जो व्याकरण, शब्द-रचना, शब्दकोष आदि से भलीभाँति अलंकृत था। अपभ्रंश का सर्वप्रथम प्रकाशित होनेवाला यही साहित्यिक ग्रन्थ था। इसके प्रकाशित होने के तीन वर्षों के पश्चात् सन् 1921 में डॉ. जेकोबी ने आचार्य हरिभद्रसूरि विरचित 'नेमिनाथचरित' के अंतर्गत 'सनत्कुमारचरित' का सुसम्पादित संस्करण प्रकाशित किया। सन् 1923 में भारतवर्ष में प्रथम बार गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज बड़ौदा से सी.डी. दलाल और पी.डी. गुणे के द्वारा सुसम्पादित 'भविष्यदत्तकथा' का प्रकाशन किया गया। उसके बाद अनेक अपभ्रंश ग्रन्थों का पता लगता गया। भारतीय विद्वान जिन ग्रन्थों को प्राकृत भाषा का समझते रहे, उनमें से कई ग्रन्थ अपभ्रंश के निकले। अपभ्रंश साहित्य की खोज के बाद अपभ्रंश साहित्य का सम्पादनकाल आरम्भ हो जाता है । डॉ. पी.एल. वैद्य, श्री राहुल सांकृत्यायन, मुनि जिनविजय, डॉ. हीरालाल जैन, डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये आदि विद्वानों ने अपभ्रंश ग्रन्थों के सम्पादन का कार्य प्रारम्भ किया। अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य 5 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ ध्यान देने योग्य है कि आठवीं से तेरहवीं शताब्दी का समय अपभ्रंश साहित्य का उत्कर्ष युग कहा जा सकता है। जिन प्रदेशों में अपभ्रंश साहित्य की रचना हुई उनके आधार पर अपभ्रंश साहित्य का वर्गीकरण डॉ. रामसिंह तोमर ने निम्न प्रकार से किया है - पश्चिमी प्रदेश (शौरसेनी का क्षेत्र) - कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' के अपभ्रंश पद्य, स्वयंभू, योगीन्दु, देवसेन, रामसिंह, धनपाल, नयनन्दी, भोज, धनंजय, जिनदत्त, लक्ष्मणगणि, हरिभद्र, हेमचन्द्र, सोमप्रभ, अब्दुल रहमान, यशकीर्ति, रइधू आदि कवि गुजरात, मध्यप्रदेश की अपभ्रंश के प्रतिनिधि कहे जा सकते हैं। महाराष्ट्र प्रदेश (महाराष्ट्री का क्षेत्र) - पुष्पदंत और कनकामर ने आधुनिक मराठी बोली के समीपवर्ती प्रदेशों में रहकर अपभ्रंश कृतियों की रचना की। इस कारण उनकी कृतियों में मराठी के शब्द मिल सकते हैं । यों इनकी भाषा शौरसेनी क्षेत्र के कवियों से मूलतः भिन्न नहीं है। __ पूर्वी प्रान्तों की अपभ्रंश (मागधी बोलियों का क्षेत्र - पूर्वी हिन्दी, मैथिली, बंगला आदि) - दोहाकोष, चर्यापद, डाकार्णव तंत्र तथा कीर्तिलता, कीर्तिपताका, प्राकृत-पैंगलम् के कुछ पद्य तथा सेकोद्देश टीका आदि के बिखरे पद्यों की रचना पूर्वी प्रान्तों में हुई। इसी कारण दोहाकोष, कीर्तिलता की भाषा यद्यपि शौरसेनी अपभ्रंश है तथापि मागधी के प्रयोग भी उसमें मिल जाते हैं। उत्तरी प्रदेशों की अपभ्रंश (पंजाबी, काश्मीरी भाषाओं का क्षेत्र) - गोरखनाथ के कहे जानेवाले कुछ अपभ्रंश पद्य तथा काश्मीर शैवों की अपभ्रंश मिश्रित कृतियों की इस प्रान्त में रचना हुई जो काश्मीरी से प्रभावित है। "विभिन्न प्रदेशों में रचित इस विशाल अपभ्रंश साहित्य पर शौरसेनी अपभ्रंश का बहुत प्रभाव पड़ा, संभवतः वह काव्य की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी। xx उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य में सबसे अधिक साहित्य जैन सम्प्रदाय के अनुयायियों द्वारा रचित मिलता है। धर्म के साथ-साथ काव्य, रस, समाज और मानव-जीवन का चित्रण, कथा का मनोरंजकत्व - सभी कुछ इसमें मिलता है।"17 अपभ्रंश : एक परिचय Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी प्रदेशों की अपभ्रंश रचनाएँ शैवों द्वारा रचित हैं तथा बौद्ध-सिद्धों ने पूर्व के प्रदेशों में रहकर रचना की। इस तरह से "एक ओर इनमें जैन मुनियों के चिंतन का चिंतामणि है तो दूसरी ओर बौद्ध-सिद्धों की सहज साधना की सिद्धि भी है, यदि एक ओर धार्मिक आदर्शों का व्याख्यान है तो दूसरी ओर लोकजीवन से उत्पन्न होनेवाले ऐहिक रस का रागरंजित अनुकथन है। यदि यह साहित्य नाना शलाका-पुरुषों के उदात्त जीवन-चरित से सम्पन्न है तो सामान्य वणिक पुत्रों के दुःख-सुख की कहानी से भी परिपूर्ण है। तीर्थंकरों की स्तुतियों, अनुभवभरी सूक्तियों, रहस्यमयी अनुभूतियों आदि के विचित्र चित्रों से अपभ्रंश साहित्य की विशाल चित्रशाला सुशोभित है। स्वयंभू जैसे महाकवि के हाथों इसका बीजारोपण हुआ, पुष्पदंत, धनपाल, हरिभद्र, जोइन्दु, रामसिंह, देवसेन, कनकामर, हेमचन्द्र, अब्दुल रहमान, सरह और काण्ह जैसी प्रतिभाओं ने इसे प्रतिष्ठित किया और अंतिम दिनों में इस साहित्य को यश:कीर्ति और रइधू जैसे सर्वतोमुखी प्रतिभावाले महाकवियों का सम्बल प्राप्त हुआ। ऐसे महाकवियों और इतने महाकाव्यों तथा गीतकाव्यों के इस साहित्य का, जो आठवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक (सुदूर दक्षिण को छोड़कर) सम्पूर्ण भारतवर्ष के सामान्य लोक तथा शिक्षित मंडली के हृदय की वाणी थी, भारतीय साहित्य में कितना महत्वपूर्ण स्थान हो सकता है - यह सहज ही अनुमेय है।"18 अपभ्रंश साहित्य का वर्गीकरण सम्पूर्ण अपभ्रंश साहित्य चार भागों में बाँटा जा सकता है - 1. जैनों की अपभ्रंश रचनाएँ 2. बौद्ध-सिद्धों की अपभ्रंश रचनाएँ 3. शैवों की रचनाएँ 4. ऐहिकतापरक अपभ्रंश रचनाएँ 1. जैनों की अपभ्रंश रचनाएँ ईसा की सातवीं शती से लेकर सोलहवीं शती तक जैन कवियों द्वारा रचित अपभ्रंश साहित्य प्राप्त होता है। इस सुदीर्घकाल में जो प्रचुर साहित्य रचा गया है उसका केवल एक अंश इस समय प्रकाश में आया है। जैन ग्रन्थ-भण्डारों में अपभ्रंश भाषा का साहित्य विपुल मात्रा में भरा पड़ा है। धर्म और साहित्य का अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्भुत सफल मिश्रण जैन कवियों ने किया है। जिस समय जैन कवि काव्यरस की ओर झुकता है तो उसकी कृति सरस काव्य का रूप धारण कर लेती है और जब धर्मोपदेश का प्रसंग आता है तो वह पद्यबद्ध धर्म - उपदेशात्मक कृति बन जाती है । 19 मुक्तक काव्य और प्रबन्ध काव्य इन दो प्रकार की रचनाओं से जैनों ने अपभ्रंश साहित्य को समृद्ध किया है। मुक्तक काव्य-परम्परा की रहस्यवादी धारा में जोइन्दु का परमात्मप्रकाश व योगसार, मुनि रामसिंह का पाहुड दोहा, सुप्रभाचार्य का वैराग्यसार आदि कृतियाँ जीवन के आन्तरिक, आत्मिक व आध्यात्मिक पक्ष को सबलरूप से उजागर करती हैं। इसी परम्परा की उपदेशात्मक धारा में देवसेन का सावयधम्म - दोहा सबसे महत्वपूर्ण कृति है । इसमें गृहस्थ-जीवन को समुन्नत करने के लिए अनेक उपदेश दिए गए हैं। इन दोनों धाराओं की कई पाण्डुलिपियाँ जैन भण्डारों में पड़ी प्रकाशन की बाट जोह रही हैं । 1 अपभ्रंश की प्रबंध काव्य - परम्परा में बहुत बड़ी संख्या में काव्य लिखे गये इस परम्परा में स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, वीर, नयनन्दी, कनकामर, रइधू आदि काव्यकार अपभ्रंश भाषा के अमर साहित्यकार हैं । स्वयंभू ( 8वीं शती) - महाकवि स्वयंभू अपभ्रंश के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं । इन्होंने लोक-भाषा अपभ्रंश को उच्चासन पर प्रतिष्ठापित किया । जनसामान्य की भाषा ‘अपभ्रंश' में काव्यों की रचना कर साहित्य के क्षेत्र में उसको गौरवपूर्ण स्थान दिलाया। इन काव्यों का प्रभाव परवर्ती साहित्यकारों पर असंदिग्ध है । अपभ्रंश के महाकवि पुष्पदंत, राजस्थानी कवि हरिषेण (अपभ्रंश भाषा की कृति 'धम्मपरिक्खा' के रचियता), 'जम्बूसामिचरिउ' के रचयिता महाकवि वीर, 'सयलविहिविहाणकव्व' के रचनाकार महाकवि नयनन्दी, अपभ्रंश में सर्वाधिक संख्या में काव्य-निर्माण करनेवाले कवि रइधू, 'सुलोयणाचरिउ' के रचयिता गणि देवसेन आदि ने महाकवि स्वयंभू का कृतज्ञतापूर्वक उल्लेख किया है 120 अपभ्रंश के ही परवर्ती कवि पुष्पदंत ने तो उन्हें व्यास, भास, कालिदास, भारवि, बाण आदि प्रमुख कवियों की श्रेणी में विराजमान कर दिया है। वे 'महाकवि', 'कविराज', 'चक्रवर्ती' आदि अनेक उपाधियों से सम्मानित थे । अपभ्रंश : एक परिचय 4 8 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यदि "स्वयंभू और पुष्पदंत अपने समय की लोक-भाषा अपभ्रंश में नहीं लिखते तो सम्भवतः 'पृथ्वीराज रासो', 'सूरसागर' और 'रामचरितमानस' का सृजन लोक-भाषाओं में संभव नहीं होता। 27 "रचना-प्रक्रिया की दृष्टि से गोस्वामी तुलसीदास भी महाकवि स्वयंभू के काव्य-वैभव एवं भाषिकी गरिमा से पूर्णतः प्रभावित हैं । 22 राहुल सांकृत्यायन का कहना है - "हिन्दी कविता के पाँचों युगों (1. सिद्ध-सामन्त युग, 2. सूफी युग, 3. भक्त युग, 4. दरबारी युग व 5. नवजागरण युग) के जितने कवियों को हमने यहाँ संगृहीत किया है, उनमें यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि स्वयंभू सबसे बड़ा कवि था। वस्तुत: वह भारत के एक दर्जन अमर कवियों में से एक था। आश्चर्य और क्रोध दोनों होता है कि लोगों ने कैसे ऐसे महान् कवि को भुला देना चाहा।' '23 "उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य की ओर देखने पर ध्यान में आता है कि प्रबन्ध काव्य के क्षेत्र में स्वयंभू अपभ्रंश के 'आदिकवि' हैं, अपभ्रंश के रामकथात्मक काव्य के वे 'वाल्मीकि' हैं, अपभ्रंश के कृष्णपाण्डव कथात्मक काव्य के वे 'व्यास' हैं । '24 इस तरह "समूची राम-काव्य और कृष्ण-काव्य परम्परा के लगभग दो हजार वर्ष के इतिहास में स्वयंभू पहिले कवि हैं जिन्होंने दोनों के चरितों पर समानरूप से अधिकारपूर्वक काव्य-रचना की।''25 भाषा की कसावट, प्रभावोत्पादकता, लाक्षणिकता और चित्रात्मकता के साथ-साथ 'अलंकार-प्रयोग' की जो विशिष्ट क्षमता हम कवि स्वयंभू के काव्य-शिल्प में पाते हैं वैसी अन्यत्र सहज ही हमें उपलब्ध नहीं हो पाती। डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा 'अरुण' का कथन है - "इस संदर्भ में उल्लेखनीय बात यह है कि कोई-कोई अलंकार किसी कवि को इतना अधिक 'प्रिय' हो जाता है कि वह उसकी पहचान का माध्यम' बन जाता है । 'उपमा कालिदासस्य' की उक्ति के मूल में महाकवि कालिदास की 'उपमा-प्रियता' ही तो है । मैं निःसंकोच कहना चाहूँगा कि स्वयंभू की पहचान का सशक्त माध्यम है- 'उत्प्रेक्षा', जिसके आधार पर मैं कहूँगा - 'उत्प्रेक्षा स्वयंभुवः'। स्वयंभू तो 'उत्प्रेक्षा-सम्राट' कहे जा सकते हैं"26 स्वयंभू महाराष्ट्र के पूर्वी भाग बराड़/बरार के निवासी थे। उनके तीन ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं - 1. पउमचरिउ, 2. रिट्ठणेमिचरिउ और 3. स्वयंभूछंद। अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) पउमचरिउ - इसमें जैन रामकथा वर्णित है । इसमें पाँच काण्ड हैं (1) विद्याधरकाण्ड, (2) अयोध्याकाण्ड, (3) सुन्दरकाण्ड, (4) युद्धकाण्ड और (5) उत्तरकाण्ड | यह महाकाव्य 90 संधियों में पूर्ण हुआ है। 83 संधियाँ स्वयं स्वयंभू द्वारा रचित हैं और शेष 7 संधियाँ उनके पुत्र त्रिभुवन द्वारा रची गई हैं। रामकथा में " वनगमन पर माताओं का विलाप, भरत की आत्मग्लानि, सीताहरण पर राम की विरह वेदना, वनवास के दुःख के क्षण आदि सभी करुण प्रसंगों का बड़ा मार्मिक चित्रण स्वयंभू ने किया है। पं. रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार कवि की सफलता की कसौटी मार्मिक स्थलों की पहचान और उसकी सक्षम अभिव्यक्ति में परिलक्षित होती है । कहना नहीं है कि कवि स्वयंभू इसमें पूरे खरे उतरे हैं। 27 निष्कर्ष यह है कि भाषा, छन्द, कवित्व और अभिव्यक्ति कौशल सभी दृष्टि से 'पउमचरिउ ' अपभ्रंश साहित्य का सिरमौर ग्रन्थ है 1 28 (2) रिट्ठणेमिचरिउ ( हरिवंशपुराण ) - इसमें तीर्थंकर अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) तथा कृष्ण और कौरव-पांडवों की कथा लिखी गई है। इसमें तीन काण्ड हैं - (1) यादवकाण्ड, (2) कुरूकाण्ड और (3) युद्धकाण्ड। यह ग्रन्थ अभी तक पूरा प्रकाशित नहीं हुआ है । अठारह हजार श्लोकप्रमाण यह महाकाव्य 112 सन्धियों में पूरा होता है । " इसमें कृष्ण जन्म, कृष्ण की बाल लीलाएँ, कृष्ण - विवाहकथा, प्रद्युम्न की जन्म कथा और तीर्थंकर नेमिनाथ के चरित्र का विस्तार से वर्णन किया गया है। साथ ही कौरवों एवं पाण्डवों के जन्म, बाल्यकाल, शिक्षा, उनका परस्पर वैमनस्य, युधिष्ठिर द्वारा द्यूत-क्रीड़ा और उसमें सबकुछ हार जाना तथा पाण्डवों को बारह वर्ष वनवास आदि अनेक प्रसंगों का विस्तार से चित्रण है । ' 129 ( 3 ) स्वयंभूछंद यह प्राकृत - अपभ्रंश छन्दशास्त्रीय - परम्परा के उत्कृष्टतम ग्रन्थों में से एक है। इसमें कुल 13 अध्याय हैं, जिनमें 8 अध्यायों में प्राकृत छन्दों का तथा शेष 5 अध्यायों में अपभ्रंश छन्दों का विवेचन हुआ है । 3066. ' 'ग्रन्थ में लगभग 48 विभिन्न कवियों के छन्दों को उदाहरणरूप में प्रस्तुत किया है। वे सच्चे अर्थों में छन्द-चूड़ामणि सिद्ध हुए हैं । " 1131 10 - - - पुष्पदंत ( 10वीं शती) - अपभ्रंश की प्रबन्ध-काव्य - परम्परा में स्वयंभू के पश्चात् महाकवि पुष्पदंत का नाम गौरव से लिया जाता है। पुष्पदंत असाधारण अपभ्रंश : एक परिचय Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिभाशाली महाकवि थे । " इनकी रचनाओं में ओज, प्रवाह, रस और सौन्दर्य का समायोजन उत्कृष्ट है । भाषा पर कवि का अधिकार उल्लेखनीय है । शब्दों का भण्डार विशाल है और शब्दालंकार एवं अर्थालंकार - दोनों से ही कविकाव्य समृद्ध है । पुष्पदंत नैषधकार श्री हर्ष के समान ही मेधावी महाकवि हैं 1' 132 यदि स्वयंभू और पुष्पदंत की तुलना करें तो ज्ञात होगा कि "स्वयंभू की भाषा में प्रसन्न प्रवाह है तो पुष्पदंत की भाषा में अर्थगौरव की अलंकृत झाँकी । एक सादगी का अवतार है तो दूसरा अलंकरण का श्रेष्ठ निदर्शन। 33 डॉ. भायाणी ने स्वयंभू को अपभ्रंश का कालिदास और पुष्पदंत को भवभूति कहा है 34 "उत्प्रेक्षा अलंकार पुष्पदंत को भी स्वयंभू की भाँति प्रिय है । अन्य अलंकारों का भी यथास्थान मनोहारी प्रयोग पुष्पदंत ने किया है।' '35 " पुष्पदंत के काव्यों में वीर, श्रृंगार और शान्त इन तीन रसों की अभिव्यंजना मिलती है, कहीं-कहीं करुण, वीभत्स एवं आश्चर्य रस के दृश्य भी मिलते हैं। 36 पुष्पदंत को अपभ्रंश भाषा का व्यास कहा जाता है। 7 " इनकी प्रतिभा के दर्शन इसी से हो जाते हैं कि इनको अपने महापुराण में एक ही विषय - स्वप्नदर्शन को 24 बार इंगित करना पड़ा, परन्तु सर्वत्र नवीन छन्दों एवं नवीन पदावलियों की योजना मिलती है जो उनका काव्य नैपुण्य है । ' 138 - 44 1 पुष्पदंत द्वारा समझाए गए धर्म का स्वरूप सार्वलौकिक है, सम्प्रदायातीत है । आचार्य ने जिन मानव मूल्यों को इसमें समेटा है वे बहुत ही आधुनिक प्रतीत होते हैं । उनके अनुसार 'जो समस्त जीवों पर दया करता है, झूठ वचन नहीं कहता, सत्य और शौच में रुचि रखता है, चुगलखोरी, अग्नि के समान कर्कश वचन, ताड़न-बन्धन व अन्य प्रकार की पीड़ाविधि का प्रयोग नहीं करता, क्षीणभीरू-दीन और अनाथों पर कृपा करता है, मधुर - करुणापूर्ण वचन बोलता है, दूसरे के धन पर कभी मन नहीं चलाता, बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करता, परायी स्त्री पर दृष्टि नहीं चलाता है, पराये धन को तृण के समान गिनता है और गुणवानों की भक्ति - सहित स्तुति करता है; जो अभंगरूप से इन धर्मों के अंगों का पालन करता है, वही धर्म का पालन करता है; क्योंकि यही धर्म का स्वरूप है और क्या धर्म के सिर पर कोई ऊँचे सींग लगे रहते हैं 39 यहाँ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि पुष्पदंत मूल्यात्मक अनुभूतियों को, जो मानवीय चेतना का विशिष्ट आयाम है, सघन बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं । साहित्यकार अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य - 11 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटनाचक्रों के माध्यम से मूल्यों को समाज के जीवन में प्रविष्ट कराने के लिए तत्पर रहते हैं । साहित्यकार काव्य की विभिन्न विधाओं का प्रयोग करके अभिव्यक्ति को लालित्य प्रदान करते हैं जिससे सौन्दर्य के साथ शिव और सत्य साकार हो सके । अमर साहित्यकार जीवन के शाश्वत मूल्यों को निस्तेज होने से बचाते हैं । महाकवि पुष्पदंत ऐसे ही अमर साहित्यकार हैं जिन्होंने शाश्वत मूल्यों को सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है। उनके काव्य इसके उदाहरण हैं। I पुष्पदंत की तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं ( 1 ) महापुराण (तिसट्ठि - महापुरिस - गुणालंकार), (2) णायकुमारचरिउ और (3) जसहरचरिउ । मान्यखेट (वर्तमान आन्ध्रप्रदेश के हैदराबाद राज्य का मलखेड़) के राजा कृष्णराज तृतीय के मंत्री भरत के आश्रय में रहकर उन्होंने महापुराण की रचना की और फिर भरत के पुत्र नन्न के आश्रय में 'णायकुमारचरिउ' तथा 'जसहरचरिउ' जैसे कालजयी अपभ्रंश खण्ड काव्यों का प्रणयन किया । " राजस्थान में सबसे अधिक लोकप्रियता पुष्पदंत को प्राप्त है। अकेले पुष्पदंत की रचनाओं की 75 से भी अधिक पाण्डुलिपियाँ राजस्थान के ग्रन्थ-भण्डारों में संगृहीत हैं ।' '40 (1) महापुराण - पुष्पदंत की सबसे प्रथम और विशाल रचना है जो 102 संधियों में पूरी हुई है। इसमें जैन परम्परा में प्रख्यात 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलभद्र, 9 नारायण और 9 प्रतिनारायण इन 63 शलाकापुरुषों का चरित्र वर्णित है। सबसे अधिक विस्तार से ऋषभदेव तथा उनके पुत्र भरत का वर्णन है जो 37 संधियों में गुम्फित है। इस खण्ड / भाग का नाम 'आदिपुराण' है । इसके आगे का भाग 'उत्तरपुराण' कहलाता है जिसमें 65 संधियों में शेष तीर्थंकरों तथा अन्य महापुरुषों का चरित्र वर्णित है । उत्तरपुराण के अन्तर्गत ही रामकथा एवं कृष्णकथा सम्मिलित हैं । ( 2 ) णायकुमारचरिउ (नागकुमारचरित्र) पुष्पदंत की दूसरी रचना है । 9 संधियों में लिखित इस काव्य में श्रुतपंचमी का माहात्म्य बतलाने के लिए नागकुमार का चरित्र वर्णित है । मान्यखेट में भरत मंत्री के पुत्र नन्न के आश्रय में पुष्पदंत ने णायकुमारचरिउ लिखा । चरित के नायक नागकुमार हैं जो एक राजपुत्र हैं, किन्तु सौतेले भ्राता श्रीधर के विद्वेषवश वे अपने पिता द्वारा निर्वासित अपभ्रंश : एक परिचय 12 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किये जाने पर नाना प्रदेशों में भ्रमण करते हैं तथा अपने शौर्य, नैपुण्य व कलाचातुर्यादि द्वारा अनेक राजाओं व राजपुरुषों को प्रभावित करते हैं, बड़े-बड़े योद्धाओं को अपनी सेवा में लेते हैं तथा अनेक राजकन्याओं से विवाह करते हैं । अन्तत: पिता द्वारा आमन्त्रित किये जाने पर वे पुनः राजधानी को लौटते हैं और राज्याभिषिक्त होते हैं। फिर जीवन के अन्तिम चरण में संसार से विरक्त होकर मुनि-दीक्षा लेते और मोक्ष प्राप्त करते हैं।" (3) जसहरचरिउ ( यशोधर चरित्र)- चार संधियों में पूर्ण हुआ है। इस काव्य में यह प्रतिपादन किया गया है - "प्रत्येक जीव के अच्छे-बुरे कर्मों का फल उसे इस जन्म में ही नहीं किन्तु भावी जन्म-जन्मान्तरों में भी भोगना पड़ता है। अपने पुण्य-पापरूप भावों और परिणामों के अनुसार उसे मनुष्य से पशु और पश से मनुष्य योनियों में भ्रमण करना पड़ता है और यहाँ भी उसके पूर्वकृत शत्रुमित्र सम्बन्धों की परम्परा चलती रहती है। कथानक का विशेष अभिप्राय है कि जीवहिंसा सबसे अधिक घोर पाप है और जो अपने परलोक को सुधारना चाहते हैं उन्हें जीवहिंसा की क्रिया को ही नहीं किन्तु ऐसी भावना से भी अपने मन को बचाना चाहिए। कथा के इसी उद्देश्य के कारण प्राचीनकाल में यह बहुत लोकप्रिय हुई और अनेक कवियों ने इस पर काव्य रचना की।''42 धनपाल (10वीं शती)- अपभ्रंश प्रबन्ध काव्य-परम्परा में कवि धनपाल 'भविसयत्तकहा' के रचयिता हैं । इस काव्य की विशेषता यह है कि कवि ने "कथानायक के रूप में किसी राजा अथवा राजकुमार को न लेकर साधारण वणिक पुत्र 'भविष्यदत्त' को लिया है जिससे कथा में लोकचेतना को सहज ही अभिव्यक्ति मिली है।''43 "कवि ने इस काव्य को लिखकर परम्परागत ख्यातवृत्त नायक-पद्धति को तोड़कर अपभ्रंश में लौकिक नायक की परम्परा का प्रवर्तन किया है।''44 इस कथा के माध्यम से कवि धनपाल बहुविवाह के दुष्परिणाम को वाणी देता है और साथ ही उसने साध्वी तथा कुटिल स्त्री के अंतर को कमल श्री एवं सरूपा के माध्यम से व्यक्त किया है। कवि सामाजिक मूल्यों को निरन्तर वाणी देने का उपक्रम करता है । परम्परा से प्राप्त त्याग, उदारता, स्नेह, सद्भाव एवं सहानुभूति जैसे मानव मूल्यों को कवि धनपाल यत्र-तत्र कथा के सूत्रों में गूंथ देता है। धार्मिक एवं सद्वृत्ति-प्रधान पात्रों का अभ्युदय 'भविसयत्तकहा' में सर्वत्र दिखाया जाना कवि की महान दृष्टि का परिचायक अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य 13 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही है। यह ध्यान देने योग्य है कि महाकवि धनपाल ने आलंकारिक शैली के स्थान पर सहज कथा कहना अधिक उपयुक्त समझा है। डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन के अनुसार - "अलंकृत शैली की अपेक्षा धनपाल काव्य को मनुष्य-हृदय के निकट रखना अधिक पसन्द करते हैं, थोड़ी सी अतिरंजना और धार्मिक अंश को छोड़कर उनकी रचना लोक-हृदय के बहुत निकट है ।"46 'भविसयत्तकहा' में श्रृंगार, वीर और शांत रस का प्रणयन सजीव शैली में हुआ है। प्रस्तुत काव्य के कथानक में आदर्श और यथार्थ का अपूर्व मिश्रण है। कवि ने लौकिक आख्यान के द्वारा श्रुतपंचमी व्रत की महत्ता प्रदर्शित की है। "वस्तुतः भविसयत्तकहा पद्य-बद्ध धार्मिक उपन्यास है।''47 इस काव्य में कवि ने मात्रिक और वर्णिक दोनों प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है, किन्तु इसमें मात्रिक छन्दों की ही बहुलता है । मात्रिक छन्दों में पज्झटिका, अडिल्ल, दुवई, सिंहावलोकन तथा गाथा मुख्य हैं। यहाँ पर यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि साहित्य में कथा-काव्य जनजीवन में मूल्यों के सम्प्रेषण के लिए एक महत्वपूर्ण विधा है। अपभ्रंश का कथा-साहित्य समृद्ध है । इस विपुल कथा-साहित्य में कुछ तो व्रत-महात्म्यमूलक हैं, कुछ उपदेशात्मक हैं और कुछ प्रेम-आख्यानक हैं । अपभ्रंश कथा-कोश भी उपलब्ध है। श्रीचन्द्र का कथा-कोश प्रसिद्ध है। अपभ्रंश कथा-साहित्य की महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं - भविसयत्तकहा (धनपाल), जिनदत्तकहा (लाखू), विलासवईकहा (सिद्धसाधारण), सिरिपालकहा (रइधू), सत्तवसणकहा (पं. मानिक्यचन्द्र), कहाकोसु आदि। लोक-जीवन के विविध पक्ष इन कथाकाव्यों में सहज ही अनुस्यूत हैं । क्या कथा, क्या भाव और क्या छन्द और शैली सभी लोकधर्मी जीवन के अंग जान पड़ते हैं । डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री का कथन है - "अभी तक इस समग्र साहित्य का सर्वेक्षण तथा अनुशीलन नहीं किया गया है। इन कथाओं के अध्ययन से मध्यकालीन संस्कृति के नवीन रूप प्रकाशित हो सकेंगे।"48 वीर (11वीं शती) - अपभ्रंश की प्रबन्ध-काव्यधारा में महाकवि वीररचित 'जंबूसामिचरिउ' महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह काव्य ग्यारह संधियों में पूर्ण हुआ है। इस चरितात्मक प्रबन्धकाव्य में प्रारंभिक तीन संधियों में ऐतिहासिक महापुरुष जंबूस्वामी के पूर्व भवों का वर्णन है। चौथी संधि में ___अपभ्रंश : एक परिचय 14 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबूस्वामी के जन्म का वर्णन है । पाँचवीं से सातवीं संधि तक जंबू के अनेक वीरतापूर्ण कार्यों का वर्णन है । सुधर्मास्वामी अपने पाँच शिष्यों के साथ उपवन में आते हैं, जंबू उनके दर्शन कर नमस्कार करते हैं। मुनि से वे अपने पूर्व जन्मों का वृतान्त सुनकर विरक्त हो घर छोड़ना चाहते हैं, माता समझाती है, और अन्त में जंबूकुमार की शर्त के अनुसार सागरदत्त आदि चार श्रेष्ठियों की कमलश्री, कनक श्री, विनय श्री और रूप श्री नामक चार कन्याओं से जंबू का विवाह हो जाता है। यहाँ आठवीं संधि समाप्त होती है । 19 नवीं संधि में जंबू के वैराग्य का वर्णन है । वह वैराग्य - प्रतिपादक कथानक कहता है और उसकी पत्नियाँ वैराग्य-विरोधी कथाएँ कहती हैं । इस प्रकार आधी रात हो गई और जंबू का मन विषयों से विरत ही रहा। इसी समय विद्युच्चर चोर वहाँ आता है। जंबू की माँ उससे कहती है कि यदि वह उसके बेटे को वैराग्य से विमुख कर दे तो वह जो चाहे ले जा सकता है। चोर जब जंबू की माता से उसके वैराग्य की बात सुनता है तो वह प्रतिज्ञा करता है कि या तो उसे रागी बना दूँगा अन्यथा स्वयं वैरागी हो जाऊँगा । जंबू की माता विद्युच्चर को अपना छोटा भाई कहकर जंबू के पास ले जाती है ताकि वह उसे रागी बना सके 150 दसवीं संधि में जंबू और विद्युच्चर एक दूसरे को प्रभावित करने के लिए अनेक कथाएँ सुनाते हैं । जंबूस्वामी वैराग्यप्रधान एवं विषय-भोग की निस्सारताप्रतिपादक आख्यान कहते हैं और विद्युच्चर इसके विपरीत वैराग्य की निस्सारता दिखलाने वाले भोग - प्रतिपादक आख्यान प्रस्तुत करते हैं, अंत में जंबूस्वामी की विजय होती है । वे सुधर्मास्वामी से दीक्षा लेते हैं और उनकी चारों पत्नियाँ भी आर्यिकायें बन जाती हैं। जंबूस्वामी ने तपश्चर्या द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करके निर्वाण प्राप्त किया । 1 | ग्यारहवीं संधि में विद्युच्चर दशविध धर्म का पालन करते हुए तपस्या द्वारा सर्वार्थसिद्धि प्राप्त करता है । इस काव्य में सांसारिक विषयों को त्यागकर वैराग्य भाव जाग्रत करने में ही कवि का उत्साह परिलक्षित होता है । शृंगारिक भावों को दबाकर उन पर विजय पाने में ही वीरता दिखाई पड़ती है और इसी दृष्टि से इसे शृंगार-वीर काव्य कहा जा सकता है। डॉ. रामसिंह तोमर ने इसे श्रृंगारवैराग्यपरक चरितकाव्य कहा है ।12 " जंबूसामिचरिउ की भाषा बहुत ही प्रांजल, अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य 15 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोध, सरस और गंभीर अर्थ की प्रतिपादिका है, इसमें पुष्पदंत आदि महाकवियों के काव्यग्रन्थों की भाषा के समान ही प्रौढ़ता और अर्थ-गौरव की छटा यत्र-तत्र बिखरी पड़ी है।''3 इस कृति की भाषा नागर-अपभ्रंश है जिसमें स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल आदि कवियों ने काव्य रचना की है। कविश्री ने अपने भावों को स्पष्ट करने के लिए नाना अलंकारों की योजना की है। शब्दालंकारों में अनुप्रास और यमक तथा अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपकों से काव्य-रचना आद्योपान्त विभूषित है । इस काव्य में मात्रिक और वर्णिक दोनों प्रकार के छन्दों का प्रयोग हुआ है; किन्तु अधिकता मात्रिक छन्दों की है। महाकवि वीर का जन्म मालवा प्रान्त में गुलखेड नामक नगर में हआ। इन्होंने स्वयंभू, पुष्पदंत और अपने पिता कवि देवदत्त का ही अपने काव्य में स्मरण किया है । ग्यारहवीं शती के मुनि नयनन्दी पर वीर कवि का प्रचुर प्रभाव है। 15वीं शती के कवि रइधू ने भी महाकवि वीर का स्मरण किया है।" ___अपभ्रंश के चरितकाव्यों में पौराणिक महापुरुषों या अधिकतर त्रेसठ शलाका पुरुषों का जीवन-चरित्र वर्णित है। ये एक प्रकार से सकल कथाएँ हैं जिनमें पौराणिक शैली से कथानायक का जीवन बचपन से ही असाधारण रूप में चित्रित किया गया है । महापुरुषों का जीवन-चरित्र अति लौकिक तथा धार्मिक तत्वों से अनुरंजित है । आकार की दृष्टि से साधारणत: चरितकाव्य चार संधियों से लेकर बीस-बाईस संधियों तक में निबद्ध है। पूर्व भवान्तरों तथा अन्य अवान्तर घटनाओं से प्रायः सभी चरितकाव्यों का कलेवर वृद्धिंगत हुआ है। फिर भी, चरितकाव्य पौराणिक काव्यों की अपेक्षा आकार में छोटे होते हैं । बारह या तेरह संधियों से लेकर लगभग सवा सौ संधियों तक के पुराण-काव्य उपलब्ध होते हैं।" इनमें प्रमुख पौराणिक महाकाव्य हैं - हरिवंशपुराण (धवल) - 122 संधियाँ, पाण्डवपुराण (यश:कीर्ति) - 34 संधियाँ, हरिवंशपुराण (यश:कीर्ति) - 13 संधियाँ, हरिवंशपुराण (श्रुतकीर्ति) - 44 संधियाँ, हरिवंशपुराण (रइधू) - 14 संधियाँ । अपभ्रंश के कतिपय चरितकाव्य निम्नलिखित हैं - नेमीनाथचरित्र (अमरकीर्तिगणि), प्रद्युम्नचरित्र (सिंह), पार्श्वनाथचरित्र (श्रीधर), मल्लिनाथचरित्र (जिनप्रभसूरि), यशोधरचरित्र (रइधू) आदि।" अपभ्रंश : एक परिचय 16 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयनंदी (11वीं शती) - प्रबन्ध-काव्यों की परम्परा में नयनंदी का 'सुदंसणचरिउ' एक सुविख्यात काव्य है। यह 12 संधियों में पूर्ण हुआ है। णमोकार महामंत्र के महात्म्य प्रतिपादन हेतु यह काव्य लिखा गया है। यह जीवन-मूल्यों के प्रति समर्पित चरितकाव्य है। नयनंदी यह भली भाँति समझते प्रतीत होते हैं कि मनुष्यों का मूल्यात्मक-व्यवहार ही समाज के चहुंमुखी विकास के लिए महत्वपूर्ण है । व्यवहार में मूल्यों का अभाव समाज में अराजकता को जन्म देता है। कर्तव्यहीनता, दुराचार व शोषण की प्रवृत्ति नैतिक मूल्यों में अनास्था का परिणाम है। नैतिक मूल्यों का वातावरण, नैतिक मूल्यों के ग्रहण की प्रथम सीढ़ी है। इस वातावरण के निर्माण में काव्य का बहुत बड़ा योगदान होता है। रस, अलंकार और छन्द काव्यरूपी शरीर को निस्संदेह सौन्दर्य प्रदान करते हैं, किन्तु काव्यरूपी शरीर का प्राण होता है उसमें मूल्यात्मक चेतना की उपस्थिति। काव्य में प्रत्येक रस की अभिव्यक्ति एक विशिष्ट प्रयोजन को लिये हुए होती है, किन्तु काव्य का अंतिम प्रयोजन समाज में शाश्वत मूल्यों को सींचना व उनको जीवित रखना ही होता है । सामयिक मूल्यों के लिए लिखा गया काव्य महत्वपूर्ण हो सकता है पर उसमें प्रतिपादित शाश्वत मूल्य ही उसको अमरता प्रदान करते हैं । व्यसन महामारी की तरह व्यक्ति व समाज को खोखला कर देते हैं। उनका त्याग समाज में आर्थिक व्यवस्था, लैंगिक सदाचार, व्यक्तिगत एवं कौटुम्बिक शांति और अहिंसात्मक वृत्ति को पनपाता है । शील का पालन जीवन का आभूषण है। चरित्र को नष्ट होने से बचाना मूल्यों के प्रति निष्ठा का द्योतक है। अतः कहा जा सकता है कि नयनंदी ने समाज में शाश्वत मूल्यों के प्रसार हेतु ही 'सुदंसणचरिउ' की रचना की है। नयनंदी मालव देश के धारा नगर के निवासी हैं । 'सुदंसणचरिउ' की रचना धारा नगर के जैन मंदिर के महाविहार में हुई। "सुदंसण इस चरितात्मक महाकाव्य का धीर प्रशान्त नायक है। इसी के नाम पर महाकाव्य का नामकरण भी किया गया है। उसका चरित्र केन्द्रीय है और अन्य पात्र उसके सहायक हैं । वह अनेक गुणों से मंडित, दृढव्रती, आचारनिष्ठ, सुन्दर मानव है। भावुकता उसका स्वभाव है। वह प्रेमी है, जिसके वशीभूत हो वह मनोरमा की ओर आकृष्ट होता है, परन्तु अपने ऊपर आसक्त रानी अभया और कपिला के प्रति वह सर्वथा उदासीन है। यही गतिशीलता और स्थिरता उसके चरित्र को उत्थित करती है।''60 अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य 17 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 'कवि नयनंदी उदात्त भाव के कवि हैं। इनकी कृति में आत्मा के उत्थान का परमोदात्त रूप चित्रित हुआ है। बारह संधियों में रचित 'सुदंसणचरिउ ' को पढ़ लेने के बाद भारतीय संस्कृति का वह उदात्त रूप स्पष्ट होता है जो भोग के स्थान पर त्याग एवं वैराग्य को समेट कर चलता है । व्यक्ति इच्छाओं एवं वासनाओं की पूर्ति का अधम साधन मात्र नहीं है वरन् है आत्म-शक्ति से सम्पन्न प्रज्ञा - पुरुष । " सुदंसणचरिउ' में जहाँ एक ओर विलास की अपकर्षता है वहाँ दूसरी ओर एक महामानव के चरमोत्कर्ष की गाथा भी है । "61 'सुदंसणचरिउ' में जिस जीवन-दर्शन को स्वीकार किया गया है वह वासना की विडम्बना, इन्द्रिय-विजय की सुफलता, धर्म की दुर्लभता एवं सम्यक्ज्ञान का प्रतिपादक है 12 भाषा की दृष्टि से कवि श्री नयनंदी की भाषा शुद्ध साहित्यिक अपभ्रंश है । तत्सम तद्भव और देशी शब्दों के व्यवहार से भाषा में सरलता और सरसता का संचार हुआ है । उसमें भी देशी शब्दों की बहुलता कवि-काव्य की अपनी विशेषता है। महाकवि नयनंदी अलंकारयुक्त काव्य को ही संसार की सर्वाधिक सरस उपलब्धि बतलाता है । सुदंसणचरिउ में उपमा, उत्प्रेक्षा एवं उदाहरण अलंकार की तो भरमार है ही, अन्य अलंकार भी यथास्थान प्रयुक्त हुए हैं। छन्दों की विविधता की दृष्टि से अपभ्रंश काव्यों में 'सुदंसणचरिउ' का महत्व उल्लेखनीय है । इसमें 85 छन्दों का व्यवहार हुआ है । जितने अधिक छन्दों का प्रयोग इस रचना में हुआ है उतना अन्यत्र नहीं दिखाई देता । विविध वर्णों का ऐसा सुन्दर संयोजन बहुत कम रचनाओं में उपलब्ध होता है । इस काव्य की यह भी विशेषता है कि कवि ने अनेक स्थलों पर छन्द का नाम सूचित किया है । कई छन्द नये हैं जिनके नाम और लक्षण तक अन्यत्र नहीं मिलते 164 नयनंदी की दूसरी रचना 'सयलविहिविहाणकव्व' है जो अभी तक अप्रकाशित है । कनकामर ( 11वीं शती) अपभ्रंश की प्रबन्धधारा में महाकवि मुनि कनकामर का 'करकंडचरिउ ' एक लोकप्रिय काव्य है । यह 10 संधियों में पूर्ण हुआ है। बुन्देलखण्ड की आसाइय नगरी में इनका जन्म हुआ था। इनके गुरु का नाम पं. मंगलदेव था । इन्होंने अपने काव्य में सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकलंक, जयदेव, स्वयंभू और पुष्पदंत का उल्लेख किया है। इस काव्य की रचना श्रुतपंचमी के फल तथा पंचकल्याणक विधि की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखकर की है। इसमें कई कथाओं का संग्रह है तथा मंदिर के शिल्प का वर्णन भी है। अपभ्रंश : एक परिचय 18 - Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-काव्य का प्रमुख पात्र करकण्डु है। उसका चरित्र शक्तिशाली और सौन्दर्य से अनुप्राणित है। मातृभक्ति और विनय-सम्पन्नता इस चरित्र की अतिरिक्त विशेषता है। इस काव्य में शृंगार और वीर रस की प्रधानता है। 10 संधियों के इस प्रबन्ध काव्य में तीन-चौथाई भाग में करकण्डु की मुख्य कथा है और शेष चौथाई भाग में 9 अवान्तर कथाएँ हैं। ये अवान्तर कथाएँ करकण्डु को नीति की शिक्षा देने के बहाने कही गई हैं । मुनि कनकामर ने भाषा में तत्सम, तद्भव तथा देशज शब्दों के साथ-साथ लोकप्रिय तथा सरल लोकोक्तियों का प्रयोग किया है। "युद्धवर्णन में भाषा ओजगुण-प्रधान है व शृंगार-वर्णन में माधुर्य गुण से अनुप्राणित है । कनकामर ने भाषा को भावानुकूल बनाने के लिए ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग किया है।''67 काव्य में अनेक छन्दों का प्रयोग हुआ है । कवि ने शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों ही प्रकार के अलंकारों को काव्य में स्थान दिया है। डॉ. त्रिलोकीनाथ प्रेमी के अनुसार - "करकण्डचरिउ के सम्पूर्ण कथानक में प्राय: 50 से अधिक कथानक-रूढ़ियों का प्रयोग हुआ है। इन कथानक-रूढ़ियों के प्रयोग से मुनि कनकामर के 'करकंडचरिउ' में उसके कथा-संगठन, वस्तु-निरूपण, मौलिक प्रसंगोद्भावना, शिल्प एवं प्रयोजनसिद्धि आदि में जो कलात्मक-सौन्दर्य और काव्य का औदात्य उभरकर आया है वह अनूठा और अन्यतम है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि किस कथानक-रूढ़ि* का कहाँ, कब और कैसे प्रयोग होना है, इस कला में वह पारंगत है, निष्णात है। तभी इतनी अधिक रूढ़ियों का प्रयोग वह सफलता के साथ कर सका है।''69 हेमचन्द्र (12वीं शती) - अपभ्रंश के क्षेत्र में आचार्य हेमचन्द्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य है अपभ्रंश भाषा के व्याकरण की रचना। 'सिद्धहेम शब्दानुशासन' के आठवें अध्याय के चतुर्थ पाद में अपभ्रंश व्याकरण के सूत्र रचित हैं । “सूत्रों में नियमों के उदाहरण के रूप में जो अपभ्रंश के दोहे दिए गए हैं वे आज अपभ्रंश की अमूल्य निधि हैं। इनके चयन और संकलन में हेमचन्द्राचार्य की तलस्पर्शी काव्य-मर्मज्ञता, सारग्राहिणी प्रतिभा और सहृदयता * "लोककथा में रोचकता की सृष्टि के लिए प्रयुक्त हुए विविध कला-तन्तु पुनः पुनः प्रयोग में आने से रूढ़ हो जाते हैं, तब उन्हें कथानक-रूढ़ि या अभिप्राय कहा जाता है।''68 अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य - 19 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का स्पष्ट पता चलता है।''70 'देशीनाममाला' में हेमचन्द्र ने अपभ्रंश में प्रयुक्त देशी शब्दों का चयन करके एक अपूर्व कार्य किया है । हेम-व्याकरण में संकलित अपभ्रंश के दोहे अपभ्रंश साहित्य का गौरव बढ़ानेवाले हैं । "इनका काव्यसौन्दर्य निराला है, अपने आपमें बेजोड़ है। इनकी आधार-भूमि आध्यात्मिक नहीं, इहलौकिक है । लौकिक जीवन में भी कितना प्रचुर रस उत्पन्न किया जा सकता है, लोगों को उससे आप्लावित किया जा सकता है, ये दोहे इसके स्पष्ट प्रमाण हैं। इन दोहों में शौर्य और श्रृंगार का, संयोग और वियोग का, दान और मान का, विश्वास और स्वाभिमान का, पुरुष के पौरुष और वीर रमणी के दर्प का जैसा श्लाघनीय रूप मिलता है, अन्यत्र दुर्लभ है। 71 आचार्य हेमचन्द्र का जन्म गुजरात के धक्कलपुर, धन्धूका नामक गाँव में हुआ था। इनको सोलंकी चालुक्य राजा सिद्धराज जयसिंह व उनके भतीजे कुमारपाल का संरक्षण प्राप्त था। हरिदेव (15वीं शती) - अपभ्रंश की प्रबन्धात्मक रचनाओं की परम्परा में कवि हरिदेव द्वारा रचित 'मयणपराजयचरिउ' दो संधियों का एक रूपककाव्य है । "अपभ्रंश के उपलब्ध रूपक-काव्यों में यह सर्वश्रेष्ठ है।''72 "इस रचना में प्रतीक रूप से जीव के मोक्ष-प्राप्ति का प्रयत्न और उस प्रयत्न में कामादि विकारों द्वारा बाधा डाले जाने का वृतान्त है।''73 कथा संक्षेप में इस प्रकार है - "राजा कामदेव, मोह नामक मंत्री और अहंकार, अज्ञान आदि सेनापतियों के साथ भवनगर में राज करते हैं । चरित्रपुर के राजा जिनराज उनके शत्रु हैं, क्योंकि वे मुक्ति अंगना से विवाह करना चाहते हैं । कामदेव, राग-द्वेष नामक दूत के द्वारा उनके पास यह संदेश भेजते हैं कि या तो आप अपना यह विचार छोड़ दें और अपने तीन रत्न - दर्शन, ज्ञान और चारित्र मुझे सौंप दें या युद्ध के लिए तैयार हो जाएँ। जिनराज ने कामदेव से लोहा लेना स्वीकार किया। अंत में काम परास्त होता है।''74 कवि हरिदेव ने आचार्य शुभचन्द्र द्वारा रचित ज्ञानार्णव को अपनी रचना का आधार बनाया है। मदन (कामदेव) इस काव्य का नायक है। वह उत्कृष्ट अभिलाषी और महत्वाकांक्षी है, क्रियाशील है और घटनाचक्र के केन्द्र में है । उसके प्रतिपक्षी नायक जिनेन्द्र हैं और नायिका सिद्धि है । कवि ने इन तीन मुख्य पात्रों के आधार से काव्य को रोचक बनाने का सफल प्रयास किया है। ___ अपभ्रंश : एक परिचय 20 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मयणपराजयचरिउ' की भाषा प्रायः टकसाली अपभ्रंश है जिसका प्रयोग स्वयंभू, पुष्पदंत आदि महाकवियों की रचनाओं में मिलता है । जो थोड़ा बहुत भेद दिखाई देता है उसे डॉ. हीरालाल जैन ने 'मयणपराजयचरिउ' की प्रस्तावना में विस्तार से दिया है और यह निष्कर्ष निकाला है कि यह ग्रंथ आधुनिक आर्य भाषाओं के विकास को समझने के लिए विशेष महत्वपूर्ण है। 75 'मयणपराजयचरिउ' में रूपक, उपमा, अतिशयोक्ति, श्लेष आदि सादृश्यमूलक अलंकारों का प्रयोग हुआ है । इन अर्थालंकारों के अतिरिक्त शब्दालंकारों का प्रयोग भी काव्य में समाविष्ट है। अनुप्रास और यमक अलंकारों के उदाहरण ग्रंथ में सर्वत्र हैं । वस्तु (रड्डा ) *76 छंद का प्रयोग काव्य में सबसे अधिक है । दुवई छंद का प्रयोग भी काव्य में पाया जाता है। कड़वकों में अडिल्ला छंद सबसे अधिक मिलता है । पज्झटिका एवं पादाकुलक के उदाहरण काव्य में दिखाई देते हैं ।” रइधू ( 15वीं शती) - रइधू ने विपुल अपभ्रंश साहित्य की रचना की । इनके पिता का नाम साहू हरिसिंह तथा माता का नाम विजयश्री था। इनकी धर्मपत्नी का नाम सावित्री था और पुत्र का नाम हृदयराज था । कवि का जन्म गोपाचल (ग्वालियर) या उसके आस-पास हुआ । गोपाचल एवं दुर्ग उनका निवास एवं साहित्य-साधना का प्रमुख स्थल था । कवि ने जिन भट्टारकों को गुरु के रूप में स्मरण किया है वे हैं 78 1. गुणकीर्ति, 2. यशकीर्ति, 3. पाल्हब्रह्म, 4. कमलकीर्ति, 5. शुभचन्द्र एवं 6. कुमारसेन । कवि की निम्नलिखित कृतियाँ उपलब्ध हैं" 1. बलहद्दचरिउ, 2. मेहेसरचरिउ, 3. कोमुइकहपवंधु, 4. जसहरचरिउ, 5. पुण्णासवकहा, 6. अप्पसंबोहकव्व, 7. सावयचरिउ, 8. सुकोसलचरिउ, 9. पासणाहचरिउ, 10. सम्मइजिणचरिउ, 11. सिद्धचक्कमाहप्प, 12. वित्तसार, 13. सिद्धन्तत्थार, 14. धण्णकुमारचरिउ, 15. अरिट्ठनेमिचरिउ, 16. जीमंधरचरिउ, - 19. सम्मतगुणणिहाणकव्व, 20. संतिणाहचरिउ एवं 21. बाराभावना । * 17. सोलहकारणजयमाल, 18. दहलक्खणजयमाल, रड्डा छंद में प्रथम चरण में 15 मात्रा, दूसरे चरण में 12 मात्रा, तीसरे चरण में 15 मात्रा, चौथे चरण में 11 मात्रा और पाँचवें चरण में 15 मात्रा होती हैं ( कुल 68 मात्रा ) । इसके आगे दोहा छंद आता है । अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य 21 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनमें से निम्नलिखित रचनाओं की सचित्र प्रतियाँ भी उपलब्ध हैं - 1. जसहरचरिउ, 2. पासणाहचरिउ, 3. संतिणाहचरिउ 180 जो रचनाएँ अनुपलब्ध हैं उनके नाम इस प्रकार हैं 1. महापुराणु, 2. पज्जुण्णचरिउ, 3 सुदंसणचरिउ, 4. भविसयत्तकहा, 5. करकंडचरिउ, 6. रत्नत्रयी एवं 7. उवएसरयणमाला । महाकवि रइधू को उक्त विशाल साहित्य निर्माण की प्रेरणा अपने पिता हरिसिंह संघवी से मिली थी । रइधू- साहित्य के विशेषज्ञ डॉ. राजाराम जैन के अनुसार - " रइधू अपभ्रंश साहित्य के जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। विपुल साहित्यरचनाओं की दृष्टि से उनकी तुलना में ठहरनेवाले अन्य प्रतिस्पर्धी कवि या साहित्यकार के अस्तित्व की सम्भावना अपभ्रंश साहित्य में नहीं की जा सकती । रस की अमृत - स्रोतस्विनी प्रवाहित करने के साथ-साथ श्रमण संस्कृति में चिरन्तन आदर्शों की प्रतिष्ठा करनेवाला यह प्रथम सारस्वत है जिसके व्यक्तित्व में एक प्रबन्धकार, दार्शनिक, आचारशास्त्र - प्रणेता एवं क्रांतिदृष्टा का समन्वय हुआ है। इधू के प्रबन्धात्मक आख्यानों में सौन्दर्य की पवित्रता एवं मादकता, प्रेम की निश्छलता एवं विवशता, प्रकृतिजन्य सरलता एवं मुग्धता, श्रमण संस्था का कठोर आचरण एवं उसकी दयालुता, माता-पिता का वात्सल्य, पाप एवं दुराचारों का निर्मम दण्ड, वासना की माँसलता का प्रक्षालन, आत्मा का सुशान्त निर्मलीकरण, रोमांस का आसव एवं संस्कृत के पीयूष का मंगलमय सम्मिलन, प्रेयस् और श्रेयस् का ग्रन्थिबन्ध और इन सबसे ऊपर त्याग एवं कषाय-निग्रह का निदर्शन समाहित है । 81 22 - प्रबन्ध-काव्य की धारा के कवियों में धाहिल (पउमसिरीचरिउ), पदमकीर्ति (पासणाहचरिउ ), श्रीधर ( सुकुमालचरिउ, पासणाहचरिउ, भविसयतचरिउ ), देवसेनगणि (सुलोचनाचरिउ ), सिंह (पंजुण्णचरिउ ), लाखू (जिणदत्तचरिउ ), लक्खमदेव (मिणाहचरिउ ), अमरकीर्ति ( छक्कमोवएस), यश: कीर्ति (चंदप्पहरचरिउ), नरसेन ( श्रीपालचरित), जयमिहल ( वर्द्धमानचरिउ ), माणिक्यराज ( अमरसेनचरिउ, (मृगांक लेखाचरित्र) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। णायकुमारचरिउ ), भगवतीदास अपभ्रंश : एक परिचय Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश के जैन साहित्य का जो परिचय यहाँ प्रस्तुत किया गया है वह अपूर्ण है। अधिकांश साहित्य ग्रन्थ-भण्डारों में पड़ा हुआ सम्पादन, अध्ययन व प्रकाशन की बाट जोह रहा है । उस साहित्य को प्रकाश में लाने का कार्य सामान्यरूप से भारतीय विद्वानों का और विशेषरूप से जैन विद्वानों का है । इस साहित्य को प्रकाश में लाना सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा के लिए आवश्यक है । प्रान्तीय भाषाओं और राष्ट्र भाषा के संदर्भ में अपभ्रंश साहित्य का महत्व समझना राष्ट्रहित में है । 2. बौद्धों की अपभ्रंश रचनाएँ बौद्धों की अपभ्रंश रचनाएँ मुक्तक काव्य की कोटि में आती हैं। इन रचनाओं के कर्ता बौद्ध सिद्ध हैं जिनके द्वारा रचित अनेक दोहे और गीत मिलते हैं । सिद्धों के अनेक दोहों और गीतों का संग्रह राहुलजी ने 'हिंदी काव्यधारा' में दिया है। इनकी रचनाएँ दो रूपों में मिलती हैं - (1) धर्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन और (2) कर्मकाण्ड का खण्डन । यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि सिद्धों का आविर्भाव जिस भूमिका में हुआ उसके कारण बौद्ध-साधना के नये आयाम प्रकट हुए। इसको निम्न प्रकार से समझा जा सकता है 1 बौद्धधर्म हीनयान और महायान इन दो धाराओं में विभक्त हो गया । हीनयान और महायान में एक मुख्य भेद निर्वाण के स्वरूप के विषय में है । महायानी नागार्जुन ने इसे (निर्वाण को) 'शून्य' कहा और लोक-मंगल के लिए चित्तवृत्ति को पाना 'बोधिचित्त' कहा गया । शून्य के सूक्ष्म विचार को समझना कठिन था । धर्मगुरुओं ने शून्य के लिए 'निरात्मा' शब्द का आविष्कार किया । बोधिचित्त इसी निरात्मा में लीन होकर महासुख में डूबा रहता है। निरात्मा शब्द स्त्रीलिंग है अतः निरात्मा देवी मानी गई है । उसी के आलिंगन में बोधिचित्त लीन रहता है । इस प्रकार महासुखवाद के परिणामस्वरूप महायान से वज्रयान की उत्पत्ति हुई । धीरेधीरे वज्रयान की इस धारा में अनाचार व्याप्त हो गया। इसमें से ही एक शाखा 'सहजयान' के नाम से प्रसिद्ध हुई, जो इस शाखा के साधक हुए वे 'सिद्ध' कहलाये । सहजयान के अनुसार चित्त-शुद्धि से सहजावस्था प्राप्त होती है और यही 'सहज' हमारा परम लक्ष्य है । 2 सिद्ध चौरासी कहे गये हैं । उनमें से सरहपा व कण्हपा मुख्य हैं। सरहपा व कण्हपा के दोहा-कोष तथा गीत उपलब्ध हैं । अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य - 23 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरहपा ( 8वीं शती) - सिद्धों की परम्परा में सरहपा आदिसिद्ध माने जाते हैं । इनका काल आठवीं शती है। इनकी कविता के विषय हैं - रहस्यवाद, पाखंडों का खण्डन, मंत्र - देवता आदि की व्यर्थता, सहज मार्ग पर बल, योग से निर्वाण - प्राप्ति, गुरुमहिमागान आदि । चित्त शुद्धि पर सरहपा ने विशेष ध्यान दिया । " चित्त ही सबका बीज रूप है । भव या निर्वाण भी इसी से प्राप्त होता है । उसी चिंतामणिरूप चित्त को प्रणाम करो। वही अभीष्ट फल देता है । चित्त शुद्ध होने पर मानव 'बुद्ध' कहा जाता है। उसके मुक्त होने पर वह निस्संदेह मुक्त होता है । जिस चित्त से जड़ - मूर्ख बद्ध होते हैं उसी से विद्वान शीघ्र ही मुक्त हो जाता है । यह चित्त ही सब कुछ है । इस सर्वरूप चित्त को आकाश के समान शून्य अथवा निर्लेप बना देना चाहिये । मन को भी शून्य स्वभाव का बना देना चाहिये । इस प्रकार वह मन अमन हो जाए अर्थात् अपने चंचल स्वभाव के विपरीत निश्चल हो जाए, तभी सहज स्वभाव की प्राप्ति होती है । 183 कण्हपा (9वीं शती) कण्हपा कहते हैं - व्यर्थ ही मनुष्य गर्व में डूबा रहता है और समझता है कि मैं परमार्थ में प्रवीण हूँ । करोड़ों में से कोई एक निरंजन में लीन होता है । आगम, वेद, पुराणों से पण्डित अभिमानी बने हैं किंतु वे पक्व श्रीफल के बाहर ही बाहर चक्कर काटते हुए भौंरे के समान आगमादि के बाह्यार्थ में ही उलझे रहते हैं 184 छन्द का सिद्धों ने अपने सिद्धांतों को दोहों और गीतों में अभिव्यक्त किया है । " इन सिद्धों की रचनाएँ कुछ तो दोहों में मिलती हैं और कुछ भिन्न-भिन्न नये पदों के रूप में । चर्यापद में संगृहीत सिद्धों के प्रत्येक पद के प्रारम्भ में किसी न किसी राग का निर्देश मिलता है । इन नये पदों में कहीं-कहीं पादाकुलक, अडिल्ला, पज्झटिका, रोला आदि छन्द भी मिल जाते हैं। ''85 रचनाओं में विशेष प्रयोग हुआ है । दोहा-कोष में दोहा छन्द की प्रथाता है। "इन रचनाओं की भाषा में दो प्रकार के रूप मिल एक जिसमें पूर्वी अपभ्रंश का रूप मिलता है लेकिन जिसमें पश्चिमी अपभ्रंश के भी शब्दरूप मिलते हैं तथा दूसरा रूप पश्चिमी अपभ्रंश का मिलता है । चर्यागीतों में पूर्वीरूप की प्रधानता है और दोहा -कोष के पद्यों का रूप पश्चिमी अपभ्रंश का है।' 1 1186 24 - अपभ्रंश : एक परिचय Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. शैवों की अपभ्रंश रचनाएँ काश्मीर शैव सम्प्रदाय की कुछ कृतियाँ ऐसी हैं जिनमें अपभ्रंश का प्रयोग किया गया है - (1) अभिनवगुप्त के 'तन्त्रसार' (1014 ई.) में प्राकृत-अपभ्रंश के पद्य मिलते हैं । अपभ्रंश के 16 पद्य हैं । तन्त्रसार में बताया गया है कि व्यक्ति स्वयं परमशिव है । मल के कारण, अज्ञान-प्रच्छन होने के कारण वह परमशिव को देख नहीं पाता। व्यक्ति ज्ञान की सहायता से अपने में परमशिव का अनुभव करता है ।87 अभिनवगुप्त-कृत तन्त्रसार उनकी वृहत् कृति 'तन्त्रालोक' का सार है। (2) भट्ट वामदेव माहेश्वराचार्य की 'जन्ममरण विचार' (11वीं शती) में एक पद्य (दोहा छन्द) अपभ्रंश का मिलता है। (3) शितिकण्ठाचार्य की कृति 'महानयप्रकाश' (15वीं शती) में अपभ्रंश के 94 पद्य हैं । "कृति की भाषा उस समय की अपभ्रंश है जब अपभ्रंश धीरे-धीरे काश्मीरी का रूप ले रही थी। इस कृति में मात्रिक छन्दों का प्रयोग हुआ है। इन रचनाओं से अपभ्रंश भाषा के प्रयोग के क्षेत्र के विस्तार की सूचना मिलती है। भाषा और साहित्य की दृष्टि से भी उनका महत्व है।' 88 4. ऐहिकतापरक अपभ्रंश रचनाएँ - अपभ्रंश की कुछ रचनाएँ ऐसी प्राप्त होती हैं जो किसी धर्म विशेष से संबंधित नहीं हैं। इनको दो वर्गों में रखा जा सकता है - (1) एक वर्ग में वे अपभ्रंश पद्य रखे जा सकते हैं जो काव्य-समीक्षकों द्वारा उदाहरणस्वरूप चुने गए हैं। ऐसे पद्य अलंकार, छन्द व व्याकरण के ग्रंथों में उदाहरणस्वरूप दिये गये हैं। (2) दूसरे वर्ग में प्रबन्धात्मक रचनाएँ हैं। (1) कालिदास रचित 'विक्रमोर्वशीय' नाटक के चतुर्थ अंक में कुछ अपभ्रंश पद्य प्राप्त होते हैं । वैयाकरणों में सर्वप्रथम चण्ड ने अपभ्रंश भाषा का उल्लेख किया है तथा अपभ्रंश के दो दोहे उद्धत किये हैं। आनन्दवर्धन के 'ध्वन्यालोक' में अपभ्रंश का एक दोहा मिलता है। भोज द्वारा रचित 'सरस्वतीकंठाभरण' व 'शृंगार प्रकाश' में अपभ्रंश पद्य उद्धृत हैं। रुद्रट के 'काव्य अलंकार' में अपभ्रंश के कुछ दोहे मिलते हैं। 'प्राकृत-पैंगलम्', मेरूतुंगाचार्य द्वारा रचित 'प्रबन्ध चिन्तामणि', राजशेखर सूरिकृत 'प्रबंध कोष' आदि में भी अपभ्रंश के दोहे मिलते हैं । हेमचन्द्र ने अपभ्रंश व्याकरण के सूत्रों को समझाने के लिए अपभ्रंश के दोहे उद्धृत किये हैं । इन दोहों में श्रृंगार, वीरता, प्रेम, नीति, भक्ति आदि से संबंधित कई विषय प्रस्तुत किये गये हैं। अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य 25 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) प्रबन्धात्मक रचनाओं में अब्दुल रहमान/अद्दहमाण का संदेशरासक' (12-13वीं शती) महत्वपूर्ण काव्य है। कवि मुलतान का निवासी था। इस काव्य में लौकिक प्रेम-भावना को अभिव्यक्त किया गया है। 223 पद्यों में रचित यह काव्य तीन भागों में विभक्त है, इन्हें प्रक्रम कहा गया है। प्रथम प्रक्रम में मंगलाचरण, आत्म-परिचय, ग्रंथ लिखने का औचित्य तथा पाठक चयन है। द्वितीय प्रक्रम में कथा आरम्भ होती है। इसकी तुलना मेघदूत', 'ढोला-मारूरा दूहा' तथा 'वीसलदेवरासो' से की जा सकती है। इस कथा में बताया गया है कि नायिका परदेश गये हुए अपने पति के विरह में दु:खी है। पथिक से यह जानकर कि वह खम्भात जा रहा है, वह पति को संदेश भेजने के लिए आतुर हो उठती है। इस प्रक्रम में नायिका की आकुलता तथा पति को संदेश भेजने की उत्कंठा का चित्रण है। जब पथिक नायिका से उसके पति के परदेश जाने का समय पूछता है तो उत्तर में तीसरा प्रक्रम प्रारम्भ हो जाता है। इस प्रक्रम में नायिका छहों ऋतुओं में अनुभूत दुःख का वर्णन करके पथिक को जाने की अनुमति देती है। इतने में उसका पति परदेश से लौटता हुआ दिखाई देता है। 'संदेशरासक' शृंगाररस-प्रधान काव्य है। इसकी भाषा परिनिष्ठित, परिमार्जित और साहित्यिक है। किंतु दोहों में बोलचाल में प्रयुक्त होनेवाली परवर्ती अपभ्रंश भाषा का रूप है । अपभ्रंश भाषा का उत्तरकालीन रूप जिस पर प्रांतीय भाषाओं का प्रभाव भी पड़ने लग गया था, इसमें देखा जा सकता है। "इस प्रकार कवि ने भाषा के इन दोनों रूपों का बड़ी सुन्दरता से प्रयोग किया है।''११ काव्य में उपमा, उत्प्रेक्षा आदि सादृशमूलक अलंकारों का ही अधिकता से प्रयोग हुआ है। इसमें कई प्रकार के छन्द प्रयुक्त हुए हैं किन्तु सर्वाधिक मात्रा में 'रासा' छन्द का ही प्रयोग किया गया है। नायिका की चेष्टाओं का वर्णन रासा छन्द में किया गया है। "सन्देशरासक के अधिकांश छन्दों का सौन्दर्य कथा-सूत्र से अलग करके पढ़ने से भी ज्यों का त्यों बना रहता है। इनके छन्दों की तुलना उन मुक्तामणियों से की जा सकती है जो एक सूत्र में ग्रंथित होने पर कंठहार के रूप में भी सुशोभित होते हैं और बिखरकर अलग हो जाने पर भी सुन्दर और मूल्यवान बने रहते हैं।'' 26 अपभ्रंश : एक परिचय Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. महाकवि स्वयंभू, डॉ. सङ्कटाप्रसाद उपाध्याय, पृ. 5, 1969, भारत प्रकाशन मन्दिर, अलीगढ़। 2. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवरसिंह, पृ. 26, 1982, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद। 3. अपभ्रंश की विशिष्ट विधा दोहा में लोकसंपृक्ति, डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, पृ. 2, __ अपभ्रंश भारती, अंक 2, अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर। 4. हिन्दी काव्यधारा, राहुल सांकृत्यायन, पृ. 5, 1945, किताब महल, इलाहाबाद। 5. अपभ्रंश भाषा साहित्य की शोधप्रवृत्तियाँ, डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, पृ. 41, 1996, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली। 6. महाकवि पुष्पदंत की काव्यप्रतिभा, डॉ. वृद्धिचन्द्र जैन, पृ. 77, __ जैनविद्या, पुष्पदंत विशेषांक : खण्ड-2, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। 7. पाहुड दोहा, मुनि रामसिंह, संपादक - डॉ. हीरालाल जैन, भूमिका, पृ. 35, 1933, अम्बादास चवरे दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, 3, कारंजा। 8. हिन्दी के विकास के अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवरसिंह, पृ. 287, 1982, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद। 9. वही, पृ. 50 10. वही, पृ. 50 11. वही, पृ. 50 12. वही, पृ. 51 13. वही, पृ. 51 14. अपभ्रंश भाषा साहित्य की शोधप्रवृत्तियाँ, डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, पृ. 83, 1996, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली। 15. वही, पृ. 84 16. प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य तथा उनका हिन्दी साहित्य पर प्रभाव, डॉ. रामसिंह तोमर, पृ. 67, 1963, हिन्दी परिषद्, प्रयाग विश्वविद्यालय, प्रयाग। 17. वही, पृ. 68 18. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवरसिंह, पृ. 179-80, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद। 19. प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य तथा उनका हिन्दी साहित्य पर प्रभाव, डॉ. रामसिंह तोमर, पृ. 69, हिन्दी परिषद्, प्रयाग विश्वविद्यालय, प्रयाग। 20. अपभ्रंश साहित्य में महाकवि स्वयंभू, डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल, पृ. 20-21, जैनविद्या-अंक 1, स्वयंभू विशेषांक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य 27 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. रिट्ठणेमिचरिउ, महाकवि स्वयंभू, सम्पादक : डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, प्राक्कथन, पृ. 12, 1985, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।। 22. अपभ्रंश रामायण पउमचरिउ के हनुमान, डॉ. श्रीरंजनसूरिदेव, पृ. 65, जैनविद्या-अंक-1, स्वयंभू विशेषांक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। 23. हिन्दी काव्यधारा, राहुल सांकृत्यायन, पृ. 50, 1945, किताब महल, इलाहाबाद। 24. महाकवि स्वयंभूदेव का व्यक्तित्व, डॉ. गजानन नरसिंह साठे, पृ. 9, जैनविद्या, अंक-1, स्वयंभू विशेषांक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। 25. रिट्ठणेमिचरिउ, महाकवि स्वयंभू, सम्पादक : डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, पृ. 13, 1985, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली। स्वयंभू में प्रयुक्त अलंकार, डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा 'अरुण', पृ. 42, जैनविद्या, अंक 1, स्वयंभू विशेषांक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। 27. अपभ्रंश और अवहट्ट : एक अन्तर्यात्रा, डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, पृ. 53, 1979, चौखम्भा ओरियन्टालिया, वाराणसी। 28. वही, पृ. 53 29. रिट्ठणेमिचरिउ, महाकवि स्वयंभू, सम्पादक : डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, प्रधान सम्पादकीयः पं. कैलाशचन्द शास्त्री, पृ. 7, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली। 30. स्वयंभू छन्द : एक विश्लेषण, डॉ. गदाधरसिंह, पृ. 71, अपभ्रंश भारती अंक 2, अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर। 31. महाकवि स्वयंभूदेव का व्यक्तित्व, डॉ. गजानन नरसिंह साठे, पृ. 14, जैनविद्या, अंक-1, स्वयंभू विशेषांक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। 32. महाकवि पुष्पदंत : व्यक्तित्व और कर्तृत्व, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति' पृ. 13, जैनविद्या, अंक-2, पुष्पदंत विशेषांक, खण्ड-1, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। 33. वही, पृ. 13 34. वही, पृ. 13 35. महाकवि पुष्पदंत और उनका काव्य, डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा 'अरुण', पृ. 30, जैनविद्या, अंक-2, पुष्पदंत विशेषांक, खण्ड-1 जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। 36. महाकवि पुष्पदंत और उनकी रसाभिव्यक्ति, डॉ. प्रेमचन्द राँवका, पृ. 64, जैनविद्या, अंक-3, पुष्पदंत विशेषांक खण्ड-2, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। 37. वही, पृ. 67 38. वही, पृ. 67 39. णायकुमारचरिउ में प्रतिपादित जीवनमूल्य, डॉ. कमलचन्द सोगानी, पृ. 19, __ जैनविद्या, अंक-3, पुष्पदंत विशेषांक खण्ड-2, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। 28 अपभ्रंश : एक परिचय Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40. महाकवि पुष्पदंत की रचनाओं की राजस्थान में लोकप्रियता, पं. अनूपचन्द न्यायतीर्थ, पृ. 102, जैनविद्या, अंक-2, पुष्पदंत विशेषांक, खण्ड-1, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। 41. णायकुमारचरिउ, महाकवि पुष्पदंत, सम्पादक : डॉ. हीरालाल जैन, प्रस्तावना, पृ. 20, 1972, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली। 42. वही, पृ. 20 43. महाकवि धनपाल की काव्य प्रतिभा, डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा 'अरुण', पृ. 24, जैनविद्या, अंक-4, महाकवि धनपाल विशेषांक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। 44. भविसयत्तकहा का साहित्यिक महत्व, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया, 'दीति', पृ. 37, जैनविद्या, अंक-4, महाकवि धनपाल विशेषांक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। 45. महाकवि धनपाल की काव्य प्रतिभा, डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा 'अरुण', पृ. 24, जैनविद्या, अंक-4, महाकवि धनपाल विशेषांक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। 46. वही, पृ. 25 47. भविसयत्तकहा का साहित्यिक महत्व, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', पृ. 31,, जैनविद्या, अंक-4, महाकवि धनपाल विशेषांक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। 48. अपभ्रंश भाषा साहित्य की शोधप्रवृत्तियाँ, डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, पृ. 67, 68, 1996, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली। 49. महाकवि वीर और उनका जंबूसामिचरिउ का एक समीक्षात्मक अध्ययन, डॉ. जयकिशनप्रसाद खण्डेलवाल, पृ.-17, जैनविद्या, अंक 5-6, वीर विशेषांक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। 50. वही 51. वही 52. प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य तथा उनका हिन्दी साहित्य पर प्रभाव, डॉ. रामसिंह तोमर, पृ. 124, हिन्दी परिषद्, प्रयाग विश्वविद्यालय, प्रयाग। 53. जंबूसामिचरिउ का साहित्यिक मूल्यांकन, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', पृ. 37, जैनविद्या, अंक 5-6, वीर विशेषांक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी। 54. जंबूसामिचरिउ, महाकवि वीर, सम्पादक, डॉ. विमलप्रकाश जैन, पृ. 97, 98, 1968, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली। 55. वही, पृ. 10 56. वही, पृ. 130, 131, 135, 137 57. अपभ्रंश भाषा साहित्य की शोधप्रवृत्तियाँ, डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, पृ. 69, 1996, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली। 58. वही 59. वही अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य 29 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ. 3, 60. सुदंसणचरिउ का साहित्यिक मूल्यांकन, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', जैनविद्या, अंक- 7, मुनि नयनन्दी विशेषांक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी । 61. सुदंसणचरिउ : उदात्त की दृष्टि से, डॉ. गदाधरसिंह, पृ. 64, जैनविद्या, अंक- 7, मुनि नयनन्दी विशेषांक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी । 62. वही, पृ.65 63. सुदंसणचरिउ में अलंकार-योजना, डॉ. गंगाराम गर्ग, पृ. 17, जैनविद्या, अंक-7, मुनि नयनन्दी विशेषांक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी । 64. सुदंसणचरिउ का काव्यात्मक वैभव, डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, पृ. 15, जैनविद्या, अंक- 7, मुनि नयनन्दी विशेषांक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी । 65. मुनि कनकामर - व्यक्तित्व और कृतित्व, डॉ. (श्रीमती) अलका प्रचण्डिया 'दीति', पृ. 3, जैनविद्या, अंक- 8, कनकामर विशेषांक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी । 66. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवरसिंह, पृ. 215, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद । 67. मुनि कनकामर - व्यक्तित्व और कृतित्व, डॉ. (श्रीमती) अलका प्रचण्डिया 'दीति', पृ. 5, जैनविद्या, अंक- 8, कनकामर विशेषांक, जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी । 68. करकंडचरिउ में कथानक रूढ़ियाँ, डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी', पृ. 54, अपभ्रंश भारती, अंक 9-10, अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर । 69. वही, पृ. 55, 63, 64 70. अपभ्रंश और अवहट्ट : एक अन्तर्यात्रा, डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, पृ. 87, 1979, चौखम्भा ओरियन्टालिया, वाराणसी । - 71. वही, पृ. 88 72. अपभ्रंश भाषा साहित्य की शोधप्रवृत्तियाँ, डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, पृ. 73, 1996, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली। 73. मयणपराजयचरिउ, हरिदेव, सम्पादक : डॉ. हीरालाल जैन, प्रस्तावना, पृ. 62, 1962, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली। 74. अपभ्रंश साहित्य, प्रो. हरिवंश कोछड़, पृ. 338, 1957, भारती साहित्य मन्दिर, दिल्ली । 75. मयणपराजयचरिउ, हरिदेव, सम्पादक, डॉ. हीरालाल जैन, 30 पृ. 78, 79, 80, 1962, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली। 79. वही, पृ. 7 76. वही, पृ. 74 77. वही, पृ. 73 78. रइधू ग्रन्थावली, भाग 1, सम्पादक : डॉ. राजाराम जैन, भूमिका, पृ. 10, 1975, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर । प्रस्तावना, अपभ्रंश : एक परिचय Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80. रइधू ग्रन्थावली, भाग 1, सम्पादक : डॉ. राजाराम जैन, भूमिका,1975, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, पृ. 7 81. वही, पृ. 4 82. अपभ्रंश साहित्य, प्रो. हरिवंश कोछड़, पृ. 300 से 305, 1957, भारती साहित्य मन्दिर, दिल्ली। 83. वही, पृ. 308 84. वही, पृ. 313 85. वही, पृ. 318 86. प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य तथा उनका हिन्दी साहित्य पर प्रभाव, डॉ. रामसिंह तोमर, पृ. 183, हिन्दी परिषद, प्रयाग विश्वविद्यालय, प्रयाग। 87. वही, पृ. 185 88. वही, पृ. 188 89. अपभ्रंश और अवहट्ट : एक अन्तर्यात्रा, डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, पृ. 115, चौखम्भा ओरियन्टालिया, वाराणसी। 90. वही, पृ. 116 91. वही, पृ. 116 92. संदेश-रासक में शृंगार-व्यंजना, डॉ. इन्द्रबहादुर सिंह, पृ. 38, अपभ्रंश भारती, अंक 5-6, अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर। 93. वही, पृ. 38 94. वही, पृ. 38 अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य 31 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहन्तु वुद्ध तुहुँ हरि हरु......... जय तुहुँ गइ तुहुँ मइ तुहुँ माय वप्पु तुहुँ तुहुँ तुहुँ परम-पक्खु सव्वहुँ परहुँ तुहुँ तुहुँ सिद्धन्ते तुहुँ सयल - सुरासुरेहिँ मन्ते सज्झाएँ झा तुहुँ अरहन्तु वुद्ध तुहुँ हरि हरु वि तुहुँ अण्णाण - तमोह - रिउ । तुहुँ सुहुमु णिरञ्जणु परमपउ तुहुँ रवि वम्भु सयम्भु सिउ ॥ (पउमचरिउ, 43.19.5-9) - महाकवि स्वयंभू दंसणें णार्णे 32 तुहुँ सरणु । वन्धु-जणु ॥ परमत्ति हरु । पराहिपरु ॥ थिउ । णमिउ ॥ वायरर्णे । तवचरणें ॥ जय हो, तुम (मेरी) गति हो, तुम (मेरी) बुद्धि हो, तुम (मेरे) रक्षक हो, तुम (मेरे) माँ-बाप हो, तुम बंधुजन हो। तुम परमपक्ष ( तर्क के परम आधार) हो, तुम दुर्मति को दूर करनेवाले हो । तुम सब अन्यों से ( भिन्न हो), तुम परम आत्मा हो । चरित् तुम दर्शन, ज्ञान और चारित्र में स्थित हो । सकल सुर-असुर तुम्हें नमन करते हैं । सिद्धान्त, मन्त्र, व्याकरण, स्वाध्याय, ध्यान और तपश्चरण में तुम हो । अरिहन्त, बुद्ध तुम हो, विष्णु और महादेव तुम हो, अज्ञानरूपी अंधकार के शत्रु तुम हो। तुम सूक्ष्म, निरंजन और मोक्ष हो, तुम सूर्य, ब्रह्मा, स्वयंभू और शिव हो । अपभ्रंश : एक परिचय Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय परवर्ती अपभ्रंश I 'अपभ्रंश' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग वैयाकरण पतंजलि ( 150 ई. पू.) ने महाभाष्य में किया। उनका उद्देश्य संस्कृत के एक शब्द के प्रचलित कई रूपान्तरों को बताना ही था । जैसे 'गौ' शब्द के गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका आदि विविध रूप हैं । यह विविधता ही उनकी दृष्टि में अपभ्रंश थी । किन्तु भामह और दंडी (छठी शती) के समय तक अपभ्रंश साहित्यिक भाषा बन गई थी और इसमें काव्य-रचना होने लगी थी । इसका अभिप्राय यह है कि अपभ्रंश पतंजलि के समय से भामह तक लोक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी और उसमें साहित्य-रचना होने लग गई थी। यह एक भाषा वैज्ञानिक तथ्य है कि लोकभाषा ही साहित्यिक भाषा के लिए आधार बनती है। लोक- भाषा अपने परिवर्तनशीलता के नियम को नहीं छोड़ती। वह कभी प्राकृत हो जाती है, कभी अपभ्रंश और कभी कोई अन्य भाषा । डॉ. नामवरसिंह के अनुसार " प्रत्येक युग में साहित्यारूढ़ भाषा के समानान्तर कोई न कोई देशी भाषा (लोक - भाषा) अवश्य रही है और यही देशी - भाषा ( लोक भाषा) उस साहित्यिक भाषा को नया जीवन प्रदान कर सदैव विकसित करती चलती है ।"" — यहाँ यह बताना आवश्यक है कि अपभ्रंश का विकास प्राकृत - काल की लोक-भाषा से हुआ और यह भाषा साहित्यारूढ़ होकर 1000 ई. तक काव्यरचना का माध्यम रही। बाद में भी इसी भाषा में काव्य-रचना होती रही । किन्तु हेमचन्द्र ( 12वीं शती) के समय तक साहित्य में अपभ्रंश का एक रूप स्थिर व परिनिष्ठित हो चुका था । अपभ्रंश के परवर्ती कवियों ने अपभ्रंश व्याकरण को सामने रखकर ही साहित्य-निर्माण किया। ऐसे प्रयत्न हेमचन्द्र के तीन सौ वर्ष बाद तक होते रहे। इधर परिनिष्ठित अपभ्रंश में काव्य लिखे जा रहे थे और उधर लोक- भाषा परिवर्तनशीलता के आधार पर नया रूप ग्रहण कर रही थी । डॉ. नामवरसिंह के अनुसार - "हेमचन्द्र के बाद अपभ्रंश काव्य की एक और Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी धारा प्रवाहित रही जिसमें परिनिष्ठित अपभ्रंश के नियमों का कड़ाई से पालन करने की अपेक्षा लोकप्रचलित भाषा का उपयोग होता था । इस मिश्रित भाषा में रचे हुए ग्रन्थ काव्य की दृष्टि से तो उत्कृष्ट हैं हीं, आधुनिक देशी भाषाओं के आरम्भिक रूप में अध्ययन की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण हैं । भारतीय आर्यभाषा के इतिहास अथवा विकास की दृष्टि से परवर्ती अपभ्रंश का यह देश्यमिश्रित साहित्य विशेष महत्व का है और सच्चे अर्थों में परवर्ती अपभ्रंश यही है । 2 11वीं शती से 14वीं शती तक परवर्ती अपभ्रंश का काल माना जाता है । परवर्ती अपभ्रंश की कतिपय रचनाएँ निम्नलिखित हैं- (1) प्राकृत-पैंगलम् (12वीं से 15वीं शती), (2) सिरि थूलिभद्द फागु (14वीं शती), (3) नेमिनाथ चउपई (13वीं शती), (4) उक्तिव्यक्तिप्रकरण ( 12वीं शती), (5) कीर्तिलता (14वीं शती), (6) पृथ्वीराज रासो (12वीं शती), (7) विद्यापति पदावली ( 14वीं शती) । (1) प्राकृत - पैंगलम् - यह छन्दशास्त्र का एक संग्रह - ग्रन्थ है । इसमें प्राकृत, अपभ्रंश तथा परवर्ती अपभ्रंश के छन्दों का संग्रह हुआ है । ग्रन्थ का नाम प्राकृत - पैंगलम् है किन्तु अधिकांश भाग में परवर्ती अपभ्रंश की रचनाएँ दी गई हैं । इस ग्रन्थ के संग्राहक के संबंध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है । यह संग्रह 14वीं शती में तैयार हुआ होगा । इसमें बब्बर, विद्याधर, जज्जल, हरिब्रह्म और कई अज्ञात कवियों की रचनाओं का संग्रह है । " प्राकृत - पैंगलम् में अनेक विषयों से संबंधित पद्य मिलते हैं । वीरता, श्रृंगार ( संयोग- शृंगार, वियोगश्रृंगार ), राजस्तुति, नीति, भक्ति, देवस्तुति, प्रकृति-चित्रण, सुखी- जीवन, दुः खी- जीवन, जीवन- निःसारता, क्षणभंगुरता, सेना-प्रयाण, युद्धवर्णन, कीर्ति, प्रशंसा, वीर क्षत्राणी का ओजस्वी चित्र, सामन्ती समाज का चित्रण आदि विषय भिन्न-भिन्न पद्यों में चित्रित हैं। - (2) सिरिथूलिभद्द - फागु ( श्री स्थूलिभद्र - फागु) - यह रचना गुजरात के जैन आचार्य जिनपद्म सूरि की है। यह 27 पद्यों में रचित एक लघु काव्य है । इस सरस काव्य में मुनि स्थूलिभद्र ( थूलिभद्द) की चारित्रिक दृढ़ता की कहानी वर्णित है । काम पर विजय का एक सुन्दर चित्रण इसमें हुआ है । काव्य में दोहा और रोला छंद का प्रयोग किया गया है। भाषा में गुजराती का प्रभाव स्वाभाविक है और सरलीकरण प्रवृत्ति है । तत्सम शब्दों के प्रयोग काव्य में मिलते हैं । 34 अपभ्रंश : एक परिचय Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) नेमीनाथ चउपई - यह गुजरात के विनयचन्द्र सूरि द्वारा 40 पद्यों में रचित एक छोटी रचना है जिसमें राजुल के विरह का वर्णन है । राजुल का विवाह नेमिनाथ से होने जा रहा था किन्तु वहाँ मांस-भोजन के निमित्त मारे जानेवाले पशुओं की चीत्कार सुनकर नेमिनाथ को वैराग्य हो गया। राजुल विरह में जलने लगी। "कवि ने बारहमासे के माध्यम से उसके विरह का बड़ा मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। बारहमासे के माध्यम से विरहवर्णन की परम्परा सर्वप्रथम यही परिलक्षित होती है, जिसका अच्छा विकास 'बीसलदेवरासो' और जायसी के 'पद्मावत' में दिखाई पड़ता है। नेमिनाथ चउपई' का बारहमासा वर्णन 'श्रावण' से शुरू होता है।'' काव्य में चौपाई छन्द का प्रयोग हुआ है। (4) उक्तिव्यक्तिप्रकरण - काशी के दामोदर पण्डित द्वारा रचित उक्तिव्यक्तिप्रकरण मध्यदेशीय अपभ्रंश की एकमात्र उपलब्ध कृति है। इससे पश्चिमी और पूर्वी अपभ्रंश के बीच मध्यदेश की अपभ्रंश के स्वरूप का ज्ञान होता है। पाँच प्रकरणों में गुम्फित यह एक व्याकरण ग्रन्थ है। उक्ति का अर्थ है - 'सामान्य जन की भाषा'। मुनि जिनविजयजी ने लिखा है - "उक्ति शब्द का अर्थ है लोकोक्ति अर्थात् लोक-व्यवहार में प्रयुक्त भाषा-पद्धति जिसे हम हिन्दी में 'बोली' कह सकते हैं। लोकभाषात्मक उक्ति की जो व्यक्ति अर्थात् व्यक्तता - स्पष्टीकरण करे - वह है उक्तिव्यक्ति शास्त्र।" मध्यदेश का आधुनिक प्रतिनिधि उत्तरप्रदेश है । डॉ. वर्मा के अनुसार इसमें पाँच प्रधान महाजन पदों का संघ मिला हुआ है, वे ये हैं - कुरु जनपद (खड़ी बोली प्रदेश), पांचाल जनपद (कन्नौजी प्रदेश), शूरसेन जनपद (ब्रजभाषा प्रदेश), कौशल जनपद (अवधी प्रदेश) तथा काशी जनपद (भोजपुरी प्रदेश) । खड़ी बोली प्रदेश - खड़ी बोली का उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश के उत्तरी रूप से हुआ है तथा इसका क्षेत्र देहरादून का मैदानी भाग, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, दिल्ली का कुछ भाग, बिजनौर, रामपुर तथा मुरादाबाद है। परवर्ती अपभ्रंश 35 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्नौजी प्रदेश - कन्नौजी इटावा, फर्रुखाबाद, शाहजहाँपुर, कानपुर, हरदोई, पीलीभीत आदि में बोली जाती है। यह भी शौरसेनी अपभ्रंश से ही निकली है। ब्रजभाषा प्रदेश - ब्रजभाषा आगरा, मथुरा, अलीगढ़, धौलपुर, मैनपुरी, एटा, बदायूँ, बरेली तथा आसपास के क्षेत्र में बोली जाती है । इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश के मध्यवर्ती रूप से हुआ है। अवधी प्रदेश - अवधी का क्षेत्र लखनऊ, इलाहाबाद, फतेहपुर, मिर्जापुर, उन्नाव, रायबरेली, सीतापुर, फैजाबाद, गोंडा, बस्ती, बहराइच, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, बाराबंकी आदि है । अधिकांश विद्वान इस भाषा का संबंध अर्धमागधी अपभ्रंश से मानते हैं। __ भोजपुरी प्रदेश - इस बोली का क्षेत्र बनारस, जौनपुर, मिर्जापुर, गाजीपुर, बलिया, गोरखपुर, देवरिया, आजमगढ़, बस्ती, शाहाबाद, चम्पारन, सारन तथा आसपास का कुछ क्षेत्र है। इसका विकास मागधी अपभ्रंश के पश्चिमी रूप से हुआ है। (5) कीर्तिलता - विद्यापति-रचित 'कीर्तिलता' में आश्रयदाता कीर्तिसिंह के यश का गान किया गया है। बिहार के दरभंगा जिले के अंतर्गत विसपी ग्राम विद्यापति का जन्म-स्थान था। महाराजा कीर्तिसिंह की दानशीलता, वीरता और राजनैतिक कुशलता का वर्णन इस काव्य में मिलता है । कीर्तिलता चार पल्लवों (भागों) में लिखी गई है । विद्यापति कहते हैं कि देशी वचन सबको मीठे लगते हैं, अत: अवहट्ट (अपभ्रंश) में रचना करता हूँ । कीर्तिसिंह के वंश और पराक्रम के वर्णन से कथा प्रारम्भ होती है । कीर्तिसिंह के पिता राजा गणेश्वर को नवाब असलान ने छल से मार दिया था। कीर्तिसिंह ने अपने पिता का बदला लेने की भावना से असलान के साथ युद्ध करने का निश्चय किया। इस युद्ध में कीर्तिसिंह विजयी हुए। उनका राज्याभिषेक हुआ। आशीर्वाद व मंगल-कामना के साथ काव्य समाप्त होता है। विद्यापति ने जौनपुर नगर का वर्णन बड़े सजीव ढंग से किया है। कीर्तिलता में प्रेरणादायी कथन भी प्राप्त होते हैं - "जन्म मात्र से कोई पुरुष नहीं होता। पुरुष वही है जिसका मान हो, जिसमें धनोपार्जन की शक्ति हो, जो धर्म-परायण हो, आपत्ति-विपत्ति में दीन वचन न बोलनेवाला हो।'' ___अपभ्रंश : एक परिचय 36 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिलता की भाषा परवर्ती अपभ्रंश है। इसमें मैथिली का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है । अरबी-फारसी के शब्दों का, तत्सम तद्भव व देशज शब्दों का प्रयोग भी इसमें मिलता है। काव्य में स्थान-स्थान पर गद्य का प्रयोग भी देखा जा सकता है । इस दृष्टि से इसे चम्पू-काव्य भी कह दिया जाता है । इस काव्य में मात्रिक व वर्णिक दोनों प्रकार के छन्दों का प्रयोग हुआ है। __(6) पृथ्वीराज रासो - चन्दबरदाई द्वारा रचित 'पृथ्वीराज रासो' परवर्ती अपभ्रंश का उत्कृष्ट काव्य है। यह राजस्थान का महत्वपूर्ण लोकप्रिय काव्य रहा है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी पृथ्वीराज रासो को प्रेमकाव्य ही मानते हैं। राससाहित्य की परम्परा अपभ्रंश काल से लेकर 18वीं-19वीं शती तक चलती रही। कुछ उल्लेखनीय रासो ग्रन्थ हैं - शालिभद्रसूरि का भरतेश्वर बाहुबलिरास (12वीं शती) 203 पद्यों में निर्मित है; आसुग कवि की दो रचनाएँ - जीवदया रास व चन्दनबाला रास (12वीं शती); धर्मसूरि का जम्बूस्वामी रास; देल्हणि का गयसुकुमाल रास (13वीं शती); नरपति नाल्ह का बीसलदेव रास (14वीं शती); जल्ह कवि का बुद्धि रास (14वीं शती) आदि अनेक रासो ग्रन्थ प्राप्त होते हैं । इन सबमें पृथ्वीराज रासो उत्कृष्ट काव्य है। इसमें चन्दबरदाई ने अपने आश्रयदाता पृथ्वीराज चौहान के शौर्य, शृंगार व प्रेम की कथा वर्णित की है। रासो के तीन विवाह-प्रसंगों - इंछिनी का, शशिव्रता का और संयोगिता का - में से विद्वानों की दृष्टि में शशिवता-विवाह प्रसंग काव्यात्मक दृष्टि से पृथ्वीराज रासो का उत्कृष्ट प्रसंग है । शृंगार और वीर रस इस काव्य में प्रधान हैं। वैसे शृंगार रस रसों का राजा माना गया है पर भवभूति ने करुण रस को भी यह स्थान प्रदान किया है। __ करुण रस का चित्रण चन्दबरदाई बड़ी मार्मिकता से करते हैं - "क्या विचित्र विडम्बना है कि जिस पृथ्वीराज ने मुहम्मद गौरी को कई बार परास्त कर छोड़ दिया था उसे एक बार भी छोड़ने का मौका गौरी ने नहीं दिया। वह गजनी के लोहे के शिकंजों में बंद है, वह भी अंधा बनाकर। बीते दिनों के सुख और वैभव की याद में दुःख की काली छाया और गहरी हो जाती है। आज वह अपने सूरसामंतों, परिवार और देश से दूर है। घोड़ों, हाथियों और भण्डारों का राजा दीन हो गया है। प्राण से भी प्यारी संयोगिता, सुन्दरियों से चित्रित चित्रसारी नहीं है और विरुद बखाननेवाला कवि चन्द भी उससे दूर है। आज दान देने के लिए हाथ में फूटी कौड़ी तक उसके पास नहीं है।" परवर्ती अपभ्रंश 37 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार - "वस्तुत: मूल पृथ्वीराज रासो शौरसेनी अपभ्रंश में लिखा गया था जो परिनिष्ठित साहित्यिक अपभ्रंश से थोड़ी भिन्न और आगे बढ़ी हुई थी। मुनि जिनविजयजी इसकी भाषा को परवर्ती अपभ्रंश ही मानते हैं।''१० रासो की भाषा में तत्सम, तद्भव, देशज तथा विदेशज सभी प्रकार के शब्दों का प्रयोग हुआ है। रासो में अलंकारों का स्वाभाविक और सुन्दर प्रयोग मिलता है। शब्दालंकारों में - अनुप्रास, यमक, श्लेष और वक्रोक्ति तथा अर्थालंकारों में - उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि कवि के प्रिय अलंकार हैं। इसमें अनेक प्रकार के छन्दों का प्रयोग हुआ है। इसमें 72 प्रकार के छन्द मिलते हैं। शिवसिंह सेंगर ने चन्द कवि को 'छप्पय छन्द का राजा' कहा है।12 (7) विद्यापति पदावली - विद्यापति द्वारा समय-समय पर गाये जानेवाले पदों का संग्रह ही विद्यापति पदावली' है । मिथिला में तो ये घर-घर में गाये जाते हैं। इन पदों को भिन्न-भिन्न भागों में रखा जा सकता है। कुछ पद प्रकृति-संबंधी हैं, तो कुछ पद स्तुतिपरक हैं । किन्तु अधिकांश पद राधाकृष्ण के प्रेम-संबंधी हैं। विद्यापति के गीतों की विशेषता है - 'लोकाभिमुखता'। ये लोकजीवन से जुड़े हुए गीत हैं। ___आधुनिक भारतीय भाषाओं का उदय - पिछले पृष्ठों में अपभ्रंश भाषा और साहित्य का जो विवेचन प्रस्तुत किया गया है उससे ज्ञात होगा कि साहित्य के क्षेत्र में 6ठी शती से 14वीं शती तक अपभ्रंश के दो रूप हमारे सामने उपस्थित होते हैं। पहला रूप स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, कनकामर, सरहपा, कण्हपा आदि कवियों की रचनाओं में मिलता है और दूसरा रूप अब्दुल रहमान, विद्यापति, चन्दबरदाई, दामोदर पण्डित आदि की रचनाओं में देखा जा सकता है। इस तरह से साहित्य के क्षेत्र में क्रमशः परिनिष्ठित अपभ्रंश और परवर्ती की रचनाएँ प्राप्त होती हैं। यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि परवर्ती अपभ्रंश के मूल में परिनिष्ठित अपभ्रंश ही है। परिनि । अपभ्रंश का जब लौकिक भाषाओं के साथ मिश्रण हुआ तो वह परवर्ती अपभ्रंश बन गई। परवर्ती अपभ्रंश का साहित्य पश्चिम, पूर्व और मध्यदेश में प्राप्त होता है। देश-भेद से लोक-भाषाओं में भेद होता ही है। 38 अपभ्रंश : एक परिचय Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. नामवरसिंह का कथन है - "अपभ्रंश में आधुनिक देशी बोलियों का जितना प्रगाढ़ मिश्रण पूर्वी प्रदेशों में दिखाई पड़ता है, उतना पश्चिमी में नहीं। पश्चिमी प्रदेश की साहित्यिक भाषा बहुत दिनों तक परिनिष्ठित अपभ्रंश से प्रभावित रही, किन्तु पूर्व के लिए वह शुरू से ही मात्र साहित्यिक भाषा होने के कारण स्थानीय बोली से अलग रही है। फलतः पूरब में देशी बोलियों का उभार बहुत तेजी से हुआ।"13 यह देश-भेद धीरे-धीरे इतना बढ़ा कि तेरहवीं शताब्दी में जाते-जाते अपभ्रंश के सहारे ही पूरब और पश्चिम के देशों ने अपनी बोलियों का स्वतंत्र रूप प्रकट कर दिया। इस तरह से परवर्ती अपभ्रंश नयेनये रूप धारण करती गई और 14वीं शती से नई-नई भाषाओं की सत्ता दिखाई देने लगी। इन आधुनिक भाषाओं का उदय और विकास अपभ्रंश के ही गर्भ में धीरे-धीरे सैकड़ों वर्षों से होता आ रहा था। एक ओर साहित्यिक अपभ्रंश के रूप धीरे-धीरे अप्रचलित होते गये और दूसरी ओर आधुनिक भाषाओं के नये रूप प्रचलन में आते रहे। क्रमशः प्राचीन रूपों के ह्रास और नवीन रूपों के विकास की प्रक्रिया से ही आधुनिक भाषाओं का उदय हुआ। आधुनिक भाषाओं के नये-नये रूप निश्चय ही उनकी प्रादेशिक बोलियों से आते रहे हैं।''15 उपर्युक्त विवेचन की पृष्ठभूमि में कहा जा सकता है कि आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास अपभ्रंश के विभिन्न स्थानीय भेदों से हुआ है । ये भाषाएँ निम्नलिखित हैं16 - (क) पूर्वी भाषाएँ (1) पूर्वी हिन्दी, (2) बिहारी, (3) उड़िया, (4) बंगला, (5) असमिया (ख) पश्चिमी भाषाएँ (1) गुजराती, (2) राजस्थानी (ग) उत्तरी भाषाएँ (1) सिंधी, (2) लहन्दा, (3) पंजाबी (घ) दक्षिणी भाषा (1) मराठी (ङ) मध्यदेशीय भाषा (1) पश्चिमी हिन्दी परवर्ती अपभ्रंश 39 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार अपभ्रंश भाषा ही हिन्दी और अन्य आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के विकास के मूल में है। "जहाँ तक हिन्दी भाषा का प्रश्न है यह अपभ्रंश की साक्षात उत्तराधिकारिणी है। 17 अपभ्रंश भाषा और साहित्य की समस्त परम्पराएँ हिन्दी में सुरक्षित हैं । डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार शायद ही किसी प्रांतीय साहित्य में ये सारी की सारी विशेषताएँ इतनी मात्रा में सुरक्षित हों। डॉ. शंभूनाथ पाण्डेय लिखते हैं - "अपभ्रंश और हिन्दी का संबंध अत्यन्त गहरा और समृद्ध है। वे एक-दूसरे की पूरक हैं । हिन्दी को ठीक से समझने के लिए अपभ्रंश की जानकारी आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। हिन्दी ही नहीं, अन्य नव्य भारतीय आर्यभाषाओं की आधारशिला अपभ्रंश ही है। उसी की क्रोड़ से इन भाषाओं का विकास हुआ।19 40 अपभ्रंश : एक परिचय Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवरसिंह, पृ. 27, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद। 2. वही, पृ. 68 3. अपभ्रंश और अवहट्ट : एक अन्तर्यात्रा, डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, पृ. 120, चौखम्भा ओरियन्टालिया, वाराणसी। 4. वही, पृ. 142 5. आदिकालीन हिन्दी साहित्य, डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, पृ. 204, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी। 6. वही, पृ. 40 7. हिन्दी साहित्य का इतिहास, सम्पादक, डॉ. नगेन्द्र, पृ. 23, 24, 25, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली। 8. अपभ्रंश और अवहट्टः एक अन्तर्यात्रा, डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, पृ. 208, चौखम्भा ओरियन्टालिया, वाराणसी। 9. वही, पृ. 150 10. वही, पृ. 189 11. वही, पृ. 193 12. वही, पृ. 196 13. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवरसिंह, पृ. 75, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद। 14. वही, पृ. 68 15. वही, पृ. 99, 100 16. भारतीय आर्यभाषाओं का इतिहास, श्री जगदीशप्रसाद कौशिक, पृ. 161, अपोलो प्रकाशन, जयपुर। 17. अपभ्रंश और अवहट्ट : एक अन्तर्यात्रा, डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, पृ. 5, चौखम्भा ओरियन्टालिया, वाराणसी। 18. हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास, डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृ. 25, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली। 19. अपभ्रंश और अवहट्ट : एक अन्तर्यात्रा, डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, पृ. 9, 10, चौखम्भा ओरियण्टालिया, वाराणसी। परवर्ती अपभ्रंश 41 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय रिसह रिसीसरणवियपाय.... जय रिसह रिसीसरणवियपाय जय अजिय जियंगयरोसराय। जय संभव संभवकयविओय जय अहिणंदण णंदियपओय। जय सुमइ सुमइसम्मयपयास जय पउमप्पह पउमाणिवास। जय जयहि सुपास सुपासगत्त जय चंदप्पह चंदाहवत्त। जय पुष्फयंत दंतंतरंग जय सीयल सीयलवयणभंग। जय सेय सेयकिरणोहसुज जय वासुपुज पुजाणुपुज्ज। जय विमल विमलगुणसेढिठाण जय जयहि अणंताणतणाण। जय धम्म धम्मतित्थयर संत जय संति संतिविहियायवत्त। जय कुंथु कुंथुपहुअंगिसदय जय अर अरमाहर विहियसमय। जय मल्लि मल्लियादामगंध जय मुणिसुव्वय सुव्वयणिबंध। जय णमिणमियामरणियरसामि जय णेमि धम्मरहचवणेमि। जय पास पासछिंदणकिवाण जय वड्ढमाण जसवड्ढमाण। इय जाणियणामहि दुरियविरामहि परिहिवि णवियसुरावलिहिं॥ अणिहणहि अणाइहि समियकुवाइहि पणविवि अरहंतावलिहिं॥ जसहरचरिउ, 2.2 महाकवि पुष्पदन्त जय हो आपकी, हे ऋषभ, जिनके चरणों में ऋषीश्वर भी नमन करते हैं। जय हो, हे अजित, जिन्होंने शरीर के दोषों तथा राग-द्वेष आदि विकारों को जीता है। सम्भव की जय हो जिन्होंने जन्म-मरण की परम्परा को विनष्ट किया, तथा अभिनन्दन की जय हो जिन्होंने जीव के आचार-व्यवहार को आनन्दप्रद बनाया। जय हो, हे सुमति, जिन्होंने सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूपी प्रकाश प्रदान किया।लक्ष्मी के निवास पद्मप्रभ, आपकी जय हो। जिनका शरीर सुन्दर पार्यों से सुशोभित है ऐसे हे सुपार्श्व, जय हो आपकी, तथा जय हो उन चन्द्रप्रभ की जिनका मुख चन्द्र की आभायुक्त है। जिन्होंने अपने अन्तरंग शत्रुओं का दमन किया है वे पुष्पदन्त जयवन्त हों तथा प्रवचन की शीतल शैली के विधाता शीतल की जय हो। उज्ज्वल किरणसमूहयुक्त सूर्यरूप हे श्रेयांस, आपकी जय हो और जय हो पूज्यों द्वारा पूज्य वासुपूज्य की। हे निर्मल गुणों की श्रेणी के आश्रय विमल, जय हो आपकी, एवं जय हो उन अनन्त की जो अनन्त ज्ञान के धारक हैं । हे धर्मरूपी तीर्थ के संस्थापक धर्मनाथ, जय हो आपकी तथा जय हो उन शान्तिनाथ की जिन्होंने लोक की शान्ति के लिए धर्मरूपी छत्र का विधान किया है । कुन्थु आदि शरीरधारी जीवों पर दया करनेवाले कुन्थुनाथ, आपकी जय हो, एवं जय हो उन अरहनाथ की जिन्होंने अलक्ष्मी का अपहरण तथा सम्यग्ज्ञान का विधान किया है। चमेली की पुष्पमाला समान सुगन्धयुक्त मल्लिनाथ, जय हो तथा जय हो मुनिसुव्रत की जिन्होंने उत्तम व्रतों की मर्यादा बाँधी है। जिन्हें देवसमूहों के इन्द्र भी नमन करते हैं ऐसे हे नमि; आपकी जय हो एवं जय हो हे नेमि, आपकी जो धर्मरूपी रथ के चक्र की नेमि हैं। संसार के बन्धनों को काटनेवाले कृपाण हे पार्श्वनाथ, जय हो आपकी तथा जय हो वर्धमान तीर्थंकर की जिनका यश अब भी वृद्धिशील है। इस प्रकार मैं उन तीर्थंकरों के समूह का आश्रय लेता हूँ व उनको प्रणाम करता हूँ जिनके नाम सुविख्यात हैं, जो पापों का शमन करते हैं, देवसमूहों द्वारा वन्दित हैं, जो अनादि-निधन हैं, तथा कुवादियों को शान्त करनेवाले हैं। अनु. - डॉ. हीरालाल जैन 42 अपभ्रंश : एक परिचय Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अध्याय अपभ्रंश और हिन्दी यह कहा जा चुका है कि स्वयंभू आदि की परिनिष्ठित अपभ्रंश विद्यापति आदि की परवर्ती अपभ्रंश में गतिशील हुई। लोकभाषा अपभ्रंश के स्थानीय प्रदेश-भेदों के परवर्ती अपभ्रंश में मिश्रण से आधुनिक आर्य भाषाओं का विकास हुआ। इस प्रकार अपभ्रंश भाषा ही हिन्दी और अन्य आधुनिक आर्य भाषाओं के मूल में स्थित है। "हिन्दी भाषा का क्षेत्र हिमाचल प्रदेश, पंजाब का कुछ भाग, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश तथा बिहार है जिसे हिन्दीभाषी प्रदेश कहते हैं। इस पूरे क्षेत्र में हिन्दी की पाँच उपभाषाएँ हैं, जिनके अन्तर्गत मुख्यतः 17 बोलियाँ हैंभाषा उपभाषाएँ बोलियाँ हिन्दी 1. पश्चिमी हिन्दी 1. खड़ी बोली, 2. ब्रज भाषा, 3. हरियाणवी 4. बुंदेली, 5. कन्नौजी 2. पूर्वी हिन्दी 1. अवधी, 2. बघेली, 3. छत्तीसगढ़ी 3. राजस्थानी 1. पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी) 2. पूर्वी राजस्थानी (जयपुरी) (ढूँढारी) 3. उत्तरी राजस्थानी (मेवाती) 4. दक्षिणी राजस्थानी (मालवी) 4. पहाड़ी 1. पश्चिमी पहाड़ी, 2. मध्यवर्ती पहाड़ी (कुमायूंनी गढ़वाली) 5. बिहारी 1. भोजपुरी, 2. मगही, 3. मैथिली'' परिनिष्ठित हिन्दी जो पूरे भारत की राजभाषा है, वह खड़ी बोली हिन्दी है। इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि अपभ्रंश भाषा और साहित्य का ही विकसित रूप हिन्दी है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- "साहित्यिक परम्परा की दृष्टि से विचार किया जाय तो अपभ्रंश के प्रायः सभी काव्यरूपों की परम्परा हिन्दी में ही सुरक्षित है।'' डॉ. सकलदेव शर्मा लिखते हैं- "हिन्दी काव्य का विषय ही नहीं, उसकी रचना शैली और छन्दों पर भी अपभ्रंश साहित्य का प्रभाव है। अलंकारों के लिए भी हिन्दी अपभ्रंश की ऋणी है। ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग भी हिन्दी में अपभ्रंश से आया। अपभ्रंश की अनेक लोकोक्तियों, मुहावरों और कथानक रूढियों को भी हिन्दी ने सहर्ष अपना लिया है। इस तरह भावपक्ष और कलापक्ष दोनों ही दृष्टियों से हिन्दी साहित्य अपभ्रंश साहित्य से प्रभावित है।''3. __ अपभ्रंश की पृष्ठभूमि में हिन्दी साहित्य के चार कालों -(1) आदिकाल (7वीं से 14वीं शती), (2) भक्तिकाल (14वीं से 17वीं शती), (3) रीतिकाल (शृंगार काल) (17वीं से 18वीं शती) और (4) आधुनिक काल (18वीं से...) की प्रवृत्तियों को समझने का प्रयास करेंगे। विद्वानों ने आदिकाल का समय 10वीं शती से 14वीं शती तक स्वीकार किया है। जो साहित्य आदिकाल में संगृहीत है वह परवर्ती अपभ्रंश का है। इसकी चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। मेरे विचार से भाषा के दृष्टिकोण से यह काल परवर्ती अपभ्रंश का काल है । यह साहित्य परिनिष्ठित अपभ्रंश से प्रेरणा ग्रहण करता हुआ आगे बढ़ गया। दूसरे शब्दों में "10वीं से 14वीं शताब्दी के समय में लोक-भाषा में लिखित जो साहित्य उपलब्ध हुआ है उसमें परिनिष्ठित अपभ्रंश से कुछ आगे बढ़ी हुई भाषा का रूप दिखाई देता है । 10वीं शताब्दी की भाषा के गद्य में तत्सम शब्दों का व्यवहार बढ़ने लगा था परन्तु पद्य की भाषा में तद्भव शब्दों का ही एकछत्र राज था।" 14वीं शताब्दी तक के साहित्य में इसी प्रवृत्ति की प्रधानता मिलती है। यह परवर्ती अपभ्रंश का साहित्य आदिकालीन साहित्य है। विद्वानों द्वारा देवसेन कृत सावयधम्म दोहा (10वीं शती) आदिकालीन हिन्दी का सर्वप्रथम ग्रन्थ स्वीकार किया गया है। हिन्दी साहित्य की निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ अपभ्रंश साहित्य में देखी जा सकती हैं- (1) प्रेम और श्रृंगार की प्रवृत्ति, (2) वीरता और शौर्य की प्रवृत्ति, (3) धर्म, नीति तथा उपदेशमूलक प्रवृत्तियाँ, (4) अध्यात्म, भक्ति और गुरु के अपभ्रंश : एक परिचय 44 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्व की प्रवृत्ति, (5) प्रगतिशीलता की प्रवृत्ति जिसमें नारी का सम्मान, जातिवाद का विरोध, दलित वर्ग के प्रति सहानुभूति, पारलौकिकता का विरोध आदि सम्मिलित हैं। (1) अपभ्रंश के प्रेमाख्यान काव्यों में नायक-नायिका के प्रेम-व्यापारों का निर्द्वन्द्व भाव से चित्रण हुआ है। हेमचन्द्र के दोहे प्रेम-शृंगार से भरे हैं । मुंज के दोहों में भी प्रेम-श्रृंगार का भाव देखा जा सकता है । संदेशरासक प्रेम-श्रृंगार की प्रवृत्ति से भरा हुआ काव्य है । अपभ्रंश साहित्य की यह प्रवृत्ति हिन्दी साहित्य में रीतिकाल के काव्य की आधारभूमि प्रतीत होती है । अपभ्रंश के प्रमुख प्रेमाख्यान काव्य हैं - (1) विलासवई कहा (11 संधि), साधारण सिद्धसेन (10वीं शती), (2) जिणदत्तकहा (11 संधि), लाखू (13वीं शती), (3) जिणदत्तचउपई, दल्हकवि (13वीं शती), (4) पउमसिरिचरिउ, धाहिल (11वीं शती), (5) सुदंसणचरिउ (नयनन्दी), (6) सुदर्शनचरित्र (माणिक्यनन्दी)। __(2) पृथ्वीराज रासो, भरतेश्वर बाहुबली रास, कीर्तिलता आदि ग्रन्थों में वीरता और शौर्य का रूप मिलता है। (3) धर्म और नीति के उपदेश अपभ्रंश के ग्रन्थों में भरे पड़े हैं। देवसेन का सावयधम्मदोहा, हेमचन्द्र के दोहे, स्वयंभू-कृत पउमचरिउ, पुष्पदंत का महापुराण, प्राकृत पैंगलम् आदि इन सभी ग्रन्थों में धर्म-नीति के वचन प्रचुरता से मिलते हैं । हिन्दी साहित्य में अपभ्रंश की यह प्रवृत्ति भक्तिकाल के कवियों में देखी जा सकती है। (4) अपभ्रंश में जैन भक्ति की रचनाएँ अनेक हैं । श्रुतपंचमी कथा (धनपाल, 11वीं शती) का मूल स्वयं जिन-भक्ति से युक्त है । उपदेश रसायन रास (जिनदत्त सूरि, 13वीं शती) में गुरुभक्ति के अनेक दृष्टांत हैं। थूलिभद्द फाग (जिनपद्म सूरि) आचार्य स्थूलभद्र की भक्ति में लिखा गया है। योगीन्दु का परमात्मप्रकाश (छठी शती), मुनि रामसिंहकृत दोहापाहुड रहस्यवादी कृतियाँ हैं। हिन्दी के भक्तिकालीन रहस्यवाद पर इनका प्रभाव देखा जा सकता है। महात्मा आनन्दतिलक-कृत आणंदा (14वीं शती) में सद्गुरु का स्थान-स्थान पर महत्व बताया गया है। कबीर, दादू, रैदास आदि संतों पर योगीन्दु, मुनि रामसिंह आदि आध्यात्मिक कवियों का पूरा प्रभाव है। गुरु की महिमा का भी इन कवियों ने भरपूर वर्णन किया है। अपभ्रंश और हिन्दी 45 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) अपभ्रंश साहित्य में प्रगतिशीलता की प्रवृत्ति का जो रूप मिलता है वह परवर्ती साहित्य को प्रेरणा दे सकता है। स्वयंभू और पुष्पदंत ने नारियों के प्रति पूर्ण सम्मान प्रदर्शित किया है । अपभ्रंश के रहस्यवादी कवियों ने तथा सिद्धों ने पाखण्ड का खण्डन, जाति-पाँति की भावना का तिरस्कार, मंदिर-मठ आदि की व्यर्थता बताने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। काव्यरूप - अपभ्रंश साहित्य में अनेक प्रकार के काव्यरूप मिलते हैं । इन अनेक काव्यरूपों का विकास हिन्दी साहित्य में भी दिखाई पड़ता है। चरिउ - चरिउ (चरित्र) अपभ्रंश का सर्वाधिक लोकप्रिय काव्यरूप रहा है। इन चरित्र-काव्यों में अधिकतर त्रेसठ शलाका पुरुषों का जीवन-चरित्र वर्णित है। स्वयंभू का पउमचरिउ और रिट्ठणेमिचरिउ, पुष्पदंत का णायकुमारचरिउ और जसहरचरिउ श्रेष्ठ चरित्र-काव्य हैं। अन्य चरित्र काव्य हैं - वीर कवि का जंबुसामिचरिउ, नयनंदी का सुदंसणचरिउ, मुनि कनकामर का करकंडचरिउ, धाहिल कवि का पउमसिरीचरिउ, श्रीधर के पासणाहचरिउ, सुकमालचरिउ और भविसयत्तचरिउ नामक तीन ग्रन्थ हैं; देवसेनगणि का सुलोचनाचरिउ, हरिभद्र का नेमिनाथचरित्र, पण्डित लक्खण कवि का जिनदत्तचरिउ, रइधू का सुकौशलचरिउ उल्लेखनीय हैं । तुलसीदास का रामचरित्रमानस और केशवदास का वीरसिंह देवचरित्र ऐसे ही चरित्र-काव्य हैं जिसमें चरिउ-परम्परा के दर्शन होते हैं।' हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार - "इन चरित्र-काव्यों के अध्ययन से परवर्ती काल के हिन्दी साहित्य के कथानकों, कथानक-रूढ़ियों, काव्यरूपों, कविप्रसिद्धियों, छन्दोयोजना, वर्णनशैली, वस्तुविन्यास, कवि-कौशल आदि की कहानी बहुत स्पष्ट हो जाती है । इसलिए इन काव्यों से हिन्दी साहित्य के विकास के अध्ययन में बहुत महत्वपूर्ण सहायता प्राप्त होती है।'' कहा-काव्यरूप - कहा-काव्यरूप अपभ्रंश का महत्वपूर्ण काव्यरूप है। "कथा-काव्य का नायक आदर्श पुरुष ही नहीं; राजा, राजकुमार, बनिया, राजपूत आदि कोई भी साधारण पुरुष अपने पुरुषार्थ से अग्रसर हो अपने व्यक्तित्व तथा गुणों को प्रकट कर यशस्वी परिलक्षित होता है।'' "कथा-काव्यों में एक विशेष प्रवृत्ति यह है कि वे धार्मिक तत्वों से भरित नहीं है। उनमें लोकजीवन का उन्मुक्त प्रकाश है। धनपाल की भविसयत्तकहा कथा-काव्य का केन्द्रीय ग्रंथ है। अपभ्रंश का कथा-साहित्य विपुल मात्रा में मिलता है। "लगभग एक सौ से भी अपभ्रंश : एक परिचय 46 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक स्वतन्त्र कथात्मक रचनाएँ उपलब्ध हैं।"10 कथा-काव्य एक प्रकार से पद्यबद्ध उपन्यास है । "वस्तुत: आज के कथा-साहित्य (उपन्यास और कहानी) का विकास इन्ही काव्यरूपों से हुआ है।" रासो अथवा रासक - इस काव्य-रूप का मूल स्रोत लोक गेय नृत्य ही प्रतीत होता है। यह काव्य-रूप अत्यन्त लोकप्रिय रहा है। इसकी परम्परा अपभ्रंश भाषा से ही प्रारम्भ हुई है। "इस काव्य-रूप में विषय-वस्तु, रस और शैली आदि का कोई प्रतिबंध नहीं रहा। इसके विषय कहीं धार्मिक एवं आध्यात्मिक हैं, तो कहीं लौकिक। रस कहीं शान्त है तो कहीं शृंगार। कहीं वीर है तो कहीं वीर-शृंगार मिश्रित । कथानक भी धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और काल्पनिक सभी प्रकार के हैं । छन्दों की दृष्टि से भी कोई रचना बहुत ही कम छन्दों की है तो कोई अधिक छन्दों की है। यथा संदेशरासक' और 'वीसलदेव रास' शुद्ध लौकिक प्रेमभावापन्न संयोग और वियोग शृंगार के काव्य हैं, वहीं शालिभद्र सूरि का 'भरतेश्वर बाहुबलिरास' शुद्ध वीररस प्रधान रास है। चन्दवरदायी के 'पृथ्वीराज रासो' में वीर और शृंगार का मिश्रित रूप दिखाई पड़ता है।'12 डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री ने रास साहित्य की एक लम्बी सूची दी है जो महत्वपूर्ण है। ___फाग या फागु-'फागु' शब्द फाल्गुन महीने से जुड़ा है। यह बसन्त ऋतु का काव्य है । फाल्गुन महीने में फाग रचना गाई जाती है। रासक की भाँति इसका मूल स्रोत बसन्त ऋतु में गाये जानेवाले लोकगीत हैं। 14वीं शती का 'थूलिभद्द फागु' इस परम्परा की सर्वप्रथम कृति है । फागु-काव्य का विकास रासक-काव्य के समान नृत्य-गीतपरक रहा है। डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी' के विश्लेषण के अनुसार – “फागु-काव्यों के तीन रूप दर्शनीय हैं – एक, जैन मुनियों द्वारा रचे गये फागु-काव्य, जिनमें बसंतश्री की आधारभूमि पर लौकिक शृंगार की पराकाष्ठा अंत में निर्वेद में बदल जाती है; दूसरे, जैनेतर कवियों द्वारा रचे गये फागु-काव्य, जिनमें प्रकृति के उद्दीप्त परिवेश में लोक-शृंगार की व्यंजना बड़ी मधुर और मार्मिक बन पड़ी है; एवं तीसरे, कृष्णभक्त वैष्णव कवियों द्वारा रचे गये बसंत तथा फागु संबंधी पद जो आध्यात्मिक मधुर रस से परिपूर्ण हैं । फागुकाव्यों के ये तीनों प्रकार लौकिक-श्रृंगार की पृष्ठभूमि पर टिके होने पर भी उद्देश्य और अंत की दृष्टि से परस्पर भिन्न हैं । एक वैराग्योन्मुख करता है तो अपभ्रंश और हिन्दी 47 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रकृति के उन्मुक्त वातावरण में आह्लादित और तीसरा लौकिक परिवेश में भी अलौकिक आनन्द से तन-मन को सराबोर करता है। 14 विकास-परम्परा की दृष्टि के कुछ उल्लेखनीय फागु-काव्य निम्न हैं - बसन्तविलास-फागु (अज्ञात), नारायण-फागु, चतुर्भुज कवि का भ्रमरगीतफागु, हरिविलासु-फागु, विरह देसाउरी-फागु, चुपइ-फागु-ये सभी जैनेतर फागु ग्रंथ हैं जिनमें कृष्ण, गोपियों, राधा, रुक्मिणी आदि से संबंधित गान हैं। जैन फागु ग्रन्थों में जिनपद्म सूरि का थूलिभद्द-फागु, राजशेखर सूरि का नेमिनाथ-फागु, प्रसन्नचन्द सूरि का रावणि पार्श्वनाथ-फागु, जिनदत्तसूरि-फागु, जयशेखर सूरि का नेमिनाथ-फागु, पुरुषोत्तम पाँच पाण्डव-फागु, कीर्तिरत्नसूरिफागु, पद्म कवि का नेमिनाथ-फागु, गुणचन्द गणि का बसन्त-फागु, अज्ञात कवि का मोहिनी-फागु आदि। चर्चरी - फागु की भाँति यह भी लोकगीत ही है। इसका सही व यथार्थ स्वरूप फाल्गुन के दिनों में गाये जानेवाले लोकगीतों में देखा जा सकता है। ये चर्चरी गीत चंग बाजे पर गाये जाते हैं जो बसन्त की शोभा कहे जा सकते हैं। चर्चरी काव्यरूप में निर्मित रचनाएं संख्या में अधिक नहीं हैं । जिनदत्त सूरि ने अपनी कृति चांचरि अथवा चच्चरी में अपने गुरु जिनवल्लभसूरि का गुणगान किया है । यह 47 पद्यों की छोटी रचना है। 14वीं शती के कवि सोलण की कृति चर्चरी में गिरनार तीर्थ पर ध्यानस्थ नेमिनाथ का यशगान है। इसी प्रकार समाज के कष्ट-निवारणार्थ लिखित जिनेश्वर सूरि की चाचरि, चाचरि-स्तुति तथा गुरुस्तुति-चाचरि आदि रचनाएँ ही प्राप्त होती हैं । दोहा-काव्य - मात्रिक छन्दों में दोहा अपभ्रंश का सर्वाधिक प्रिय छन्द रहा है। अपभ्रंश की अनेक रचनाओं के दोहा छन्द में रचित होने के कारण दोहा काव्य के रूप में प्रसिद्ध हुआ। अत: काव्य-रूप में दोहा-काव्य महत्वपूर्ण बन गया। यह अपभ्रंश का मौलिक छन्द है और पश्चिमी अपभ्रंश की उपज है। डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी' लिखते हैं- "विकास की दृष्टि से दोहों की मुक्तक परम्परा बौद्धों की पूर्वी परम्परा न होकर जैन तथा जैनेतर कवियों की पश्चिमी अपभ्रंश की चिरंतन परम्परा है और परवर्ती हिन्दी साहित्य में मध्यकालीन 48 अपभ्रंश : एक परिचय Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्गुणपंथी कबीर आदि संत कवियों में दर्शनीय है। तथा बाद में तुलसीदास की दोहावली, मतिराम दोहावली और रहीम आदि के दोहों में होती हुई सत्रहवींअठारहवीं सदी के मध्य से आधुनिक काल तक बढ़ जाती है । मुक्तक काव्यरूप की अभिव्यक्ति में जितना दोहा छन्द सफल रहा है, उतना कोई अन्य छन्द नहीं।''19 अपभ्रंश के दोहों का प्रयोग हिन्दी में कबीर, तुलसी, रहीम आदि भक्तिकाल के कवियों ने तथा बिहारी आदि शृंगार काव्य के कवियों ने दोहा छन्द का भरपूर उपयोग किया है। __ उपर्युक्त तीन अध्यायों में अपभ्रंश भाषा का एक सामान्य और संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है, इससे अपभ्रंश के अध्ययन के महत्त्व को सहजतया समझा जा सकता है। साथ ही राष्ट्रभाषा हिन्दी तथा प्रान्तीय भाषाओं के परिप्रेक्ष्य में अपभ्रंश की भूमिका की भी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। अपभ्रंश और हिन्दी 49 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. हिन्दी साहित्य का इतिहास, सम्पादक : डॉ. नगेन्द्र, पृ. 23, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली। 2. हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास, डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृ. 22, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली। 3. अपभ्रंश साहित्य का पुनरवलोकन, डॉ. सकलदेव शर्मा, पृ. 15, अपभ्रंश भारती, अंक-7, अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर। 4. हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास, डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृ. 38, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली। 5. अपभ्रंश और अवहट्टः एक अन्तर्यात्रा, डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, पृ. 232, चौखम्भा ओरियन्टालिया, वाराणसी। 6. वही, पृ. 289, 290, 291 7. हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास, डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृ. 28, 29, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली। 8. अपभ्रंश भाषा साहित्य की शोध-प्रवृत्तियाँ, डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, पृ. 67, 68, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली। 9. वही 10. वही 11. अपभ्रंश और अवहट्ट : एक अन्तर्यात्रा, डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, पृ. 308, चौखम्भा ओरियन्टालिया, वाराणसी। 12. आदिकालीन हिन्दी साहित्य, डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, पृ. 220, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी। 13. अपभ्रंश भाषा साहित्य की शोध-प्रवृत्तियाँ, डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, पृ. 72, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली। 14. फागु-काव्य : विधा और व्याख्या, डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी', पृ. 32, अपभ्रंश भारती, अंक-5, 6, अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर । 15. अपभ्रंश और अवहट्ट : एक अन्तर्यात्रा, डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, पृ. 324, 325, चौखम्भा ओरियन्टालिया, वाराणसी। 16. वही, पृ. 325 17. वही, पृ. 325 18. वही, पृ. 326, 327 19. अपभ्रंश का लाड़ला छन्द दोहा और उसकी काव्य यात्रा, डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी', पृ. 23, अपभ्रंश भारती, अंक-8, अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर। 50 अपभ्रंश : एक परिचय Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. स्वयंभू (783 ई.) (1) पउमचरिउ - भाग 1, 2, 3 संपादक - डॉ. हरिवल्लभ चूनीलाल भायाणी प्रकाशक - सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ, भारतीय विद्या भवन, मुम्बई (ii) पउमचरिउ संपादक - डॉ. हरिवल्लभ चूनीलाल भायाणी अनुवादक - डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली (iii) रिट्ठणेमिचरिउ (i) यादवकाण्ड संपादक - डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली - (iv) स्वयंभू छन्द परिशिष्ट अपभ्रंश के मूल ग्रंथ संपादक - प्रो. एच.डी. वेलणकर (ii) कुरुकाण्ड संपादक - रामसिंह तोमर प्रकाशक प्राकृत टैक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद 2. पुष्पदंत ( 10वीं शती ई.) (i) महापुराण प्रकाशक राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर (राजस्थान) संपादक - डॉ. पी. एल. वैद्य 1 (ii) णायकुमारचरिउ अनुवादक - डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली- 110003 संपादक - डॉ. हीरालाल जैन प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली (iii) जसहरचरिउ - संपादक - डॉ. हीरालाल जैन प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली अपभ्रंश : एक परिचय 110003 110003 - - 110003 110003 51 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. धनपाल (10वीं शती ई. ) भविसयत्तकहा संपादक - सी. डी. दलाल एवं पी. डी. गुणे प्रकाशक • गायकवाड़ ओरियन्टल सिरीज, बड़ौदा 4. मुनि रामसिंह (10वीं शती ई.) पाहुडदोहा संपादक हीरालाल जैन प्रकाशक कारंजा जैन पब्लिकेशन्स सोसायटी, कारंजा 5. देवसेन (10-11वीं शती ई.) - 52 सावयधम्मदोहा संपादक - डॉ. हीरालाल जैन प्रकाशक कारंजा जैन पब्लिकेशन्स सोसायटी, कारंजा - 6. वीर (11वीं शती ई.) जंबूसामिचरिउ संपादक प्रकाशक 7. मुनि नयनंदी (11वीं शती ई.) सुदंसणचरिउ ― संपादक डॉ. हीरालाल जैन प्रकाशक 8. कनकामर ( 11वीं शती ई.) करकंडचरिउ डॉ. विमलप्रकाश जैन भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली - - संपादक डॉ. हीरालाल जैन प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली - - 9. हेमचन्द्र ( 12वीं शती ई.) सिद्धहेमशब्दानुशासन 8, पाद 4) अपभ्रंश प्रकरण (अध्याय हिन्दी व्याख्याकार श्री प्यारचंद महाराज संपादक पं. रतनलाल संघवी प्रकाशक प्राकृत, जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली ( बिहार ) 110003 110003 श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, मेवाड़ी बाजार, ब्यावर (राज.) अपभ्रंश : एक परिचय Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. अब्दुल रहमान ( 12वीं शती ई.) संदेश रासक संपादक - हजारीप्रसाद द्विवेदी एवं विश्वनाथ त्रिपाठी प्रकाशक - हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर ( प्राइवेट) लिमिटेड, मुम्बई - 4 11. हरिदेव ( 15वीं शती ई.) मयणपराजय चरिउ संपादक प्रकाशक 12. रइधू ( 15वीं शती ई.) - प्रकाशक 13. योगीन्दु इधू ग्रन्थावली (भाग-1, 2 ) संपादक - डॉ. राजाराम जैन डॉ. हीरालाल जैन भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली- 110003 जैन संस्कृति संघ, शोलापुर (महाराष्ट्र ) (i) परमप्पयासु (11) योगसार संपादक डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये प्रकाशक श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास उपर्युक्त प्रकाशित ग्रन्थों के अतिरिक्त अपभ्रंश साहित्यकारों के अनेक ग्रन्थ अभी अप्रकाशित हैं । अपभ्रंश : एक परिचय 53 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक पुस्तकें 1. अपभ्रंश और अवहट्ट : डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, 1979, एक अन्तर्यात्रा चौखम्भा ओरियन्टालिया, वाराणसी 2. अपभ्रंश भाषा साहित्य डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, 1996, की शोध प्रवृत्तियाँ भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली - 110003 3. अपभ्रंश और हिन्दी देवेन्द्रकुमार जैन, 1983 राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर 4. अपभ्रंश काव्य सौरभ डॉ. कमलचन्द सोगाणी, 1992 अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जैनविद्या संस्थान, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी. जयपुर 5. अपभ्रंश रचना सौरभ डॉ. कमलचन्द सोगाणी, 1991, अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जैनविद्या संस्थान, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी, जयपुर 6. अपभ्रंश साहित्य प्रो. हरिवंश कोछड़, 1957, भारती साहित्य मंदिर, दिल्ली 7. आदिकालीन हिन्दी साहित्य डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, 1970 विश्वविद्यालय प्रकाशन, चौक, वाराणसी 8. जैन शोध और समीक्षा डॉ. प्रेमसागर, 1970, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी, जयपुर १. प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य डॉ. रामसिंह तोमर, 1963 तथा उनका हिन्दी साहित्य न्दिी परिषद्, पर प्रभाव ए.am विश्वविद्यालय, प्रयाग 10. प्राकृत भाषाओं का आर. पिशल व्याकरण अनुवादक - डॉ. हेमचन्द्र जोशी, 1950, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना-3 माक्षा 54 अपभ्रंश : एक परिचय Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. प्रौढ़ अपभ्रंश रचना सौरभ, डॉ. कमलचन्द सोगाणी, 1997, भाग-1 अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जैनविद्या संस्थान, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी, जयपुर 12. भारतीय आर्य भाषाओं का श्री जगदीशप्रसाद कौशिक, 1969, इतिहास अपोलो प्रकाशन, सवाई मानसिंह हाइवे, जयपुर-3 13. महाकवि पुष्पदन्त डॉ. राजनारायण पांडेय, 1968, चिन्मय प्रकाशन, चौड़ा रास्ता, जयपुर-3 14. महाकवि स्वयंभू डॉ. संकटाप्रसाद उपाध्याय, 1969, भारत प्रकाशन मंदिर, अलीगढ़ 15. हिन्दी के आदिकालीन रास डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी', 1993, और रासक काव्यरूप शिखर प्रकाशन, नई दिल्ली 16. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश डॉ. नामवर सिंह, 1952, का योग लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद-1 17. हिन्दी काव्यधारा राहुल सांकृत्यायन, 1945, किताब महल, इलाहाबाद 18. हिन्दी साहित्य : उद्भव और डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, 1952, विकास राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, 1बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली - 110002 19. हिन्दी साहित्य का डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, 1952, - आदिकाल बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, सम्मेलन भवन, पटना-3 20. हिन्दी साहित्य का इतिहास । संपादक - डॉ. नगेन्द्र, 1988, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 23, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002 अपभ्रंश : एक परिचय 55 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनविद्या-शोध पत्रिका के अपभ्रंश विशेषांक क्र.सं. पत्रिका अंक विशेषांक सत्र का नाम 1. जैनविद्या 1 स्वयंभू विशेषांक अप्रेल '84 2. जैनविद्या 2 पुष्पदंत विशेषांक खण्ड-1 अप्रेल '85 जैनविद्या 3 पुष्पदंत विशेषांक खण्ड-2 नवम्बर '85 जैनविद्या 4 धनपाल विशेषांक अप्रेल '86 जैनविद्या 5-6 वीर विशेषांक अप्रेल '87 जैनविद्या 7 मुनि नयनन्दी विशेषांक अक्टूबर '87 7. जैनविद्या 8 कनकामर विशेषांक मार्च '88 8. जैनविद्या 9 योगीन्दु विशेषांक नवम्बर '88 सत्र अपभ्रंश भारती शोध पत्रिका क्र.सं. पत्रिका का नाम अंक अपभ्रंश भारती (स्वयंभू विशेषांक) जनवरी '90 अपभ्रंश भारती जुलाई '92 अपभ्रंश भारती 3-4 जन.-जून '93 अपभ्रंश भारती 5-6 जनवरी-जुलाई '94 अपभ्रंश भारती अक्टूबर '95 अपभ्रंश भारती नवम्बर '96 अपभ्रंश भारती 9-10 नवम्बर '97-98 56 अपभ्रंश : एक परिचय | Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________