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किये जाने पर नाना प्रदेशों में भ्रमण करते हैं तथा अपने शौर्य, नैपुण्य व कलाचातुर्यादि द्वारा अनेक राजाओं व राजपुरुषों को प्रभावित करते हैं, बड़े-बड़े योद्धाओं को अपनी सेवा में लेते हैं तथा अनेक राजकन्याओं से विवाह करते हैं । अन्तत: पिता द्वारा आमन्त्रित किये जाने पर वे पुनः राजधानी को लौटते हैं
और राज्याभिषिक्त होते हैं। फिर जीवन के अन्तिम चरण में संसार से विरक्त होकर मुनि-दीक्षा लेते और मोक्ष प्राप्त करते हैं।"
(3) जसहरचरिउ ( यशोधर चरित्र)- चार संधियों में पूर्ण हुआ है। इस काव्य में यह प्रतिपादन किया गया है - "प्रत्येक जीव के अच्छे-बुरे कर्मों का फल उसे इस जन्म में ही नहीं किन्तु भावी जन्म-जन्मान्तरों में भी भोगना पड़ता है। अपने पुण्य-पापरूप भावों और परिणामों के अनुसार उसे मनुष्य से पशु और पश से मनुष्य योनियों में भ्रमण करना पड़ता है और यहाँ भी उसके पूर्वकृत शत्रुमित्र सम्बन्धों की परम्परा चलती रहती है। कथानक का विशेष अभिप्राय है कि जीवहिंसा सबसे अधिक घोर पाप है और जो अपने परलोक को सुधारना चाहते हैं उन्हें जीवहिंसा की क्रिया को ही नहीं किन्तु ऐसी भावना से भी अपने मन को बचाना चाहिए। कथा के इसी उद्देश्य के कारण प्राचीनकाल में यह बहुत लोकप्रिय हुई और अनेक कवियों ने इस पर काव्य रचना की।''42
धनपाल (10वीं शती)- अपभ्रंश प्रबन्ध काव्य-परम्परा में कवि धनपाल 'भविसयत्तकहा' के रचयिता हैं । इस काव्य की विशेषता यह है कि कवि ने "कथानायक के रूप में किसी राजा अथवा राजकुमार को न लेकर साधारण वणिक पुत्र 'भविष्यदत्त' को लिया है जिससे कथा में लोकचेतना को सहज ही अभिव्यक्ति मिली है।''43 "कवि ने इस काव्य को लिखकर परम्परागत ख्यातवृत्त नायक-पद्धति को तोड़कर अपभ्रंश में लौकिक नायक की परम्परा का प्रवर्तन किया है।''44 इस कथा के माध्यम से कवि धनपाल बहुविवाह के दुष्परिणाम को वाणी देता है और साथ ही उसने साध्वी तथा कुटिल स्त्री के अंतर को कमल श्री एवं सरूपा के माध्यम से व्यक्त किया है। कवि सामाजिक मूल्यों को निरन्तर वाणी देने का उपक्रम करता है । परम्परा से प्राप्त त्याग, उदारता, स्नेह, सद्भाव एवं सहानुभूति जैसे मानव मूल्यों को कवि धनपाल यत्र-तत्र कथा के सूत्रों में गूंथ देता है। धार्मिक एवं सद्वृत्ति-प्रधान पात्रों का अभ्युदय 'भविसयत्तकहा' में सर्वत्र दिखाया जाना कवि की महान दृष्टि का परिचायक
अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य
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