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भी धारा प्रवाहित रही जिसमें परिनिष्ठित अपभ्रंश के नियमों का कड़ाई से पालन करने की अपेक्षा लोकप्रचलित भाषा का उपयोग होता था । इस मिश्रित भाषा में रचे हुए ग्रन्थ काव्य की दृष्टि से तो उत्कृष्ट हैं हीं, आधुनिक देशी भाषाओं के आरम्भिक रूप में अध्ययन की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण हैं । भारतीय आर्यभाषा के इतिहास अथवा विकास की दृष्टि से परवर्ती अपभ्रंश का यह देश्यमिश्रित साहित्य विशेष महत्व का है और सच्चे अर्थों में परवर्ती अपभ्रंश यही है । 2 11वीं शती से 14वीं शती तक परवर्ती अपभ्रंश का काल माना जाता है ।
परवर्ती अपभ्रंश की कतिपय रचनाएँ निम्नलिखित हैं- (1) प्राकृत-पैंगलम् (12वीं से 15वीं शती), (2) सिरि थूलिभद्द फागु (14वीं शती), (3) नेमिनाथ चउपई (13वीं शती), (4) उक्तिव्यक्तिप्रकरण ( 12वीं शती), (5) कीर्तिलता (14वीं शती), (6) पृथ्वीराज रासो (12वीं शती), (7) विद्यापति पदावली ( 14वीं शती) ।
(1) प्राकृत - पैंगलम् - यह छन्दशास्त्र का एक संग्रह - ग्रन्थ है । इसमें प्राकृत, अपभ्रंश तथा परवर्ती अपभ्रंश के छन्दों का संग्रह हुआ है । ग्रन्थ का नाम प्राकृत - पैंगलम् है किन्तु अधिकांश भाग में परवर्ती अपभ्रंश की रचनाएँ दी गई हैं । इस ग्रन्थ के संग्राहक के संबंध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है । यह संग्रह 14वीं शती में तैयार हुआ होगा । इसमें बब्बर, विद्याधर, जज्जल, हरिब्रह्म और कई अज्ञात कवियों की रचनाओं का संग्रह है । " प्राकृत - पैंगलम् में अनेक विषयों से संबंधित पद्य मिलते हैं । वीरता, श्रृंगार ( संयोग- शृंगार, वियोगश्रृंगार ), राजस्तुति, नीति, भक्ति, देवस्तुति, प्रकृति-चित्रण, सुखी- जीवन, दुः खी- जीवन, जीवन- निःसारता, क्षणभंगुरता, सेना-प्रयाण, युद्धवर्णन, कीर्ति, प्रशंसा, वीर क्षत्राणी का ओजस्वी चित्र, सामन्ती समाज का चित्रण आदि विषय भिन्न-भिन्न पद्यों में चित्रित हैं।
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(2) सिरिथूलिभद्द - फागु ( श्री स्थूलिभद्र - फागु) - यह रचना गुजरात के जैन आचार्य जिनपद्म सूरि की है। यह 27 पद्यों में रचित एक लघु काव्य है । इस सरस काव्य में मुनि स्थूलिभद्र ( थूलिभद्द) की चारित्रिक दृढ़ता की कहानी वर्णित है । काम पर विजय का एक सुन्दर चित्रण इसमें हुआ है । काव्य में दोहा और रोला छंद का प्रयोग किया गया है। भाषा में गुजराती का प्रभाव स्वाभाविक है और सरलीकरण प्रवृत्ति है । तत्सम शब्दों के प्रयोग काव्य में मिलते हैं ।
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अपभ्रंश : एक परिचय
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