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डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार - "वस्तुत: मूल पृथ्वीराज रासो शौरसेनी अपभ्रंश में लिखा गया था जो परिनिष्ठित साहित्यिक अपभ्रंश से थोड़ी भिन्न और आगे बढ़ी हुई थी। मुनि जिनविजयजी इसकी भाषा को परवर्ती अपभ्रंश ही मानते हैं।''१० रासो की भाषा में तत्सम, तद्भव, देशज तथा विदेशज सभी प्रकार के शब्दों का प्रयोग हुआ है। रासो में अलंकारों का स्वाभाविक और सुन्दर प्रयोग मिलता है। शब्दालंकारों में - अनुप्रास, यमक, श्लेष और वक्रोक्ति तथा अर्थालंकारों में - उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि कवि के प्रिय अलंकार हैं। इसमें अनेक प्रकार के छन्दों का प्रयोग हुआ है। इसमें 72 प्रकार के छन्द मिलते हैं। शिवसिंह सेंगर ने चन्द कवि को 'छप्पय छन्द का राजा' कहा है।12
(7) विद्यापति पदावली - विद्यापति द्वारा समय-समय पर गाये जानेवाले पदों का संग्रह ही विद्यापति पदावली' है । मिथिला में तो ये घर-घर में गाये जाते हैं। इन पदों को भिन्न-भिन्न भागों में रखा जा सकता है। कुछ पद प्रकृति-संबंधी हैं, तो कुछ पद स्तुतिपरक हैं । किन्तु अधिकांश पद राधाकृष्ण के प्रेम-संबंधी हैं। विद्यापति के गीतों की विशेषता है - 'लोकाभिमुखता'। ये लोकजीवन से जुड़े हुए गीत हैं। ___आधुनिक भारतीय भाषाओं का उदय - पिछले पृष्ठों में अपभ्रंश भाषा और साहित्य का जो विवेचन प्रस्तुत किया गया है उससे ज्ञात होगा कि साहित्य के क्षेत्र में 6ठी शती से 14वीं शती तक अपभ्रंश के दो रूप हमारे सामने उपस्थित होते हैं। पहला रूप स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, कनकामर, सरहपा, कण्हपा आदि कवियों की रचनाओं में मिलता है और दूसरा रूप अब्दुल रहमान, विद्यापति, चन्दबरदाई, दामोदर पण्डित आदि की रचनाओं में देखा जा सकता है। इस तरह से साहित्य के क्षेत्र में क्रमशः परिनिष्ठित अपभ्रंश और परवर्ती की रचनाएँ प्राप्त होती हैं। यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि परवर्ती अपभ्रंश के मूल में परिनिष्ठित अपभ्रंश ही है। परिनि । अपभ्रंश का जब लौकिक भाषाओं के साथ मिश्रण हुआ तो वह परवर्ती अपभ्रंश बन गई। परवर्ती अपभ्रंश का साहित्य पश्चिम, पूर्व और मध्यदेश में प्राप्त होता है। देश-भेद से लोक-भाषाओं में भेद होता ही है।
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अपभ्रंश : एक परिचय
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