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________________ सरहपा ( 8वीं शती) - सिद्धों की परम्परा में सरहपा आदिसिद्ध माने जाते हैं । इनका काल आठवीं शती है। इनकी कविता के विषय हैं - रहस्यवाद, पाखंडों का खण्डन, मंत्र - देवता आदि की व्यर्थता, सहज मार्ग पर बल, योग से निर्वाण - प्राप्ति, गुरुमहिमागान आदि । चित्त शुद्धि पर सरहपा ने विशेष ध्यान दिया । " चित्त ही सबका बीज रूप है । भव या निर्वाण भी इसी से प्राप्त होता है । उसी चिंतामणिरूप चित्त को प्रणाम करो। वही अभीष्ट फल देता है । चित्त शुद्ध होने पर मानव 'बुद्ध' कहा जाता है। उसके मुक्त होने पर वह निस्संदेह मुक्त होता है । जिस चित्त से जड़ - मूर्ख बद्ध होते हैं उसी से विद्वान शीघ्र ही मुक्त हो जाता है । यह चित्त ही सब कुछ है । इस सर्वरूप चित्त को आकाश के समान शून्य अथवा निर्लेप बना देना चाहिये । मन को भी शून्य स्वभाव का बना देना चाहिये । इस प्रकार वह मन अमन हो जाए अर्थात् अपने चंचल स्वभाव के विपरीत निश्चल हो जाए, तभी सहज स्वभाव की प्राप्ति होती है । 183 कण्हपा (9वीं शती) कण्हपा कहते हैं - व्यर्थ ही मनुष्य गर्व में डूबा रहता है और समझता है कि मैं परमार्थ में प्रवीण हूँ । करोड़ों में से कोई एक निरंजन में लीन होता है । आगम, वेद, पुराणों से पण्डित अभिमानी बने हैं किंतु वे पक्व श्रीफल के बाहर ही बाहर चक्कर काटते हुए भौंरे के समान आगमादि के बाह्यार्थ में ही उलझे रहते हैं 184 छन्द का सिद्धों ने अपने सिद्धांतों को दोहों और गीतों में अभिव्यक्त किया है । " इन सिद्धों की रचनाएँ कुछ तो दोहों में मिलती हैं और कुछ भिन्न-भिन्न नये पदों के रूप में । चर्यापद में संगृहीत सिद्धों के प्रत्येक पद के प्रारम्भ में किसी न किसी राग का निर्देश मिलता है । इन नये पदों में कहीं-कहीं पादाकुलक, अडिल्ला, पज्झटिका, रोला आदि छन्द भी मिल जाते हैं। ''85 रचनाओं में विशेष प्रयोग हुआ है । दोहा-कोष में दोहा छन्द की प्रथाता है। "इन रचनाओं की भाषा में दो प्रकार के रूप मिल एक जिसमें पूर्वी अपभ्रंश का रूप मिलता है लेकिन जिसमें पश्चिमी अपभ्रंश के भी शब्दरूप मिलते हैं तथा दूसरा रूप पश्चिमी अपभ्रंश का मिलता है । चर्यागीतों में पूर्वीरूप की प्रधानता है और दोहा -कोष के पद्यों का रूप पश्चिमी अपभ्रंश का है।' 1 1186 24 - Jain Education International For Private & Personal Use Only अपभ्रंश : एक परिचय www.jainelibrary.org
SR No.002700
Book TitleApbhramsa Ek Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2000
Total Pages68
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size3 MB
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