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आरम्भिक
'अपभ्रंश : एक परिचय' पुस्तक पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है।
यह सर्वविदित है कि तीर्थंकर महावीर ने लोकभाषा प्राकृत में उपदेश देकर सामान्यजन के लिए विकास का मार्ग प्रशस्त किया। लोकभाषा बदलती चलती है । इसके परिणामस्वरूप अपभ्रंश भाषा का जन्म लोक-भाषा के रूप में हुआ और ईसा की पाँचवीं - छठी शताब्दी में वह साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए सशक्त माध्यम बन गई। लम्बे समय तक यह उत्तरी भारत की भाषा बनी रही। पश्चिम से पूर्व तक इसका प्रयोग होता था । इसी से आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ है । 'अपभ्रंश : एक परिचय' पुस्तक अपभ्रंश भाषा के विभिन्न पक्षों को उजागर करने की ओर एक महत्वपूर्ण कदम है।
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी द्वारा जयपुर में सन् 1988 में 'अपभ्रंश साहित्य अकादमी' की स्थापना की गई। देश की यह प्रथम अकादमी है जहाँ मुख्यतः पत्राचार के माध्यम से 'अपभ्रंश भाषा' का अध्यापन किया जाता है ।
विश्वधर्म प्रेरक आचार्य विद्यानन्दजी मुनिराज के शब्दों में- "दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी द्वारा संचालित अनेक लोक-कल्याणकारी प्रवृत्तियों में अपभ्रंश साहित्य अकादमी एक महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति है । अपभ्रंश भाषा का शिक्षण-प्रशिक्षण देनेवाली और शोध करनेवाली यह एकमात्र संस्था है। यदि इस संस्था के प्रयासों से अपभ्रंश भाषा को भारत में उसके गौरव के अनुकूल सम्मान और उसके अध्ययन को प्रोत्साहन मिल सका तो यह भारतीय संस्कृति की बहुत बड़ी सेवा होगी । "
डॉ. कमलचन्द सोगाणी द्वारा रचित 'अपभ्रंश रचना सौरभ', 'अपभ्रंश काव्य सौरभ', 'अपभ्रंश अभ्यास सौरभ' तथा 'प्रौढ़ अपभ्रंश रचना सौरभ भाग - 1'
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