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________________ प्रतिभाशाली महाकवि थे । " इनकी रचनाओं में ओज, प्रवाह, रस और सौन्दर्य का समायोजन उत्कृष्ट है । भाषा पर कवि का अधिकार उल्लेखनीय है । शब्दों का भण्डार विशाल है और शब्दालंकार एवं अर्थालंकार - दोनों से ही कविकाव्य समृद्ध है । पुष्पदंत नैषधकार श्री हर्ष के समान ही मेधावी महाकवि हैं 1' 132 यदि स्वयंभू और पुष्पदंत की तुलना करें तो ज्ञात होगा कि "स्वयंभू की भाषा में प्रसन्न प्रवाह है तो पुष्पदंत की भाषा में अर्थगौरव की अलंकृत झाँकी । एक सादगी का अवतार है तो दूसरा अलंकरण का श्रेष्ठ निदर्शन। 33 डॉ. भायाणी ने स्वयंभू को अपभ्रंश का कालिदास और पुष्पदंत को भवभूति कहा है 34 "उत्प्रेक्षा अलंकार पुष्पदंत को भी स्वयंभू की भाँति प्रिय है । अन्य अलंकारों का भी यथास्थान मनोहारी प्रयोग पुष्पदंत ने किया है।' '35 " पुष्पदंत के काव्यों में वीर, श्रृंगार और शान्त इन तीन रसों की अभिव्यंजना मिलती है, कहीं-कहीं करुण, वीभत्स एवं आश्चर्य रस के दृश्य भी मिलते हैं। 36 पुष्पदंत को अपभ्रंश भाषा का व्यास कहा जाता है। 7 " इनकी प्रतिभा के दर्शन इसी से हो जाते हैं कि इनको अपने महापुराण में एक ही विषय - स्वप्नदर्शन को 24 बार इंगित करना पड़ा, परन्तु सर्वत्र नवीन छन्दों एवं नवीन पदावलियों की योजना मिलती है जो उनका काव्य नैपुण्य है । ' 138 - 44 1 पुष्पदंत द्वारा समझाए गए धर्म का स्वरूप सार्वलौकिक है, सम्प्रदायातीत है । आचार्य ने जिन मानव मूल्यों को इसमें समेटा है वे बहुत ही आधुनिक प्रतीत होते हैं । उनके अनुसार 'जो समस्त जीवों पर दया करता है, झूठ वचन नहीं कहता, सत्य और शौच में रुचि रखता है, चुगलखोरी, अग्नि के समान कर्कश वचन, ताड़न-बन्धन व अन्य प्रकार की पीड़ाविधि का प्रयोग नहीं करता, क्षीणभीरू-दीन और अनाथों पर कृपा करता है, मधुर - करुणापूर्ण वचन बोलता है, दूसरे के धन पर कभी मन नहीं चलाता, बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करता, परायी स्त्री पर दृष्टि नहीं चलाता है, पराये धन को तृण के समान गिनता है और गुणवानों की भक्ति - सहित स्तुति करता है; जो अभंगरूप से इन धर्मों के अंगों का पालन करता है, वही धर्म का पालन करता है; क्योंकि यही धर्म का स्वरूप है और क्या धर्म के सिर पर कोई ऊँचे सींग लगे रहते हैं 39 यहाँ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि पुष्पदंत मूल्यात्मक अनुभूतियों को, जो मानवीय चेतना का विशिष्ट आयाम है, सघन बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं । साहित्यकार अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य Jain Education International - For Private & Personal Use Only 11 www.jainelibrary.org
SR No.002700
Book TitleApbhramsa Ek Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2000
Total Pages68
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size3 MB
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