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- यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यदि "स्वयंभू और पुष्पदंत अपने समय की लोक-भाषा अपभ्रंश में नहीं लिखते तो सम्भवतः 'पृथ्वीराज रासो', 'सूरसागर' और 'रामचरितमानस' का सृजन लोक-भाषाओं में संभव नहीं होता। 27 "रचना-प्रक्रिया की दृष्टि से गोस्वामी तुलसीदास भी महाकवि स्वयंभू के काव्य-वैभव एवं भाषिकी गरिमा से पूर्णतः प्रभावित हैं । 22 राहुल सांकृत्यायन का कहना है - "हिन्दी कविता के पाँचों युगों (1. सिद्ध-सामन्त युग, 2. सूफी युग, 3. भक्त युग, 4. दरबारी युग व 5. नवजागरण युग) के जितने कवियों को हमने यहाँ संगृहीत किया है, उनमें यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि स्वयंभू सबसे बड़ा कवि था। वस्तुत: वह भारत के एक दर्जन अमर कवियों में से एक था। आश्चर्य और क्रोध दोनों होता है कि लोगों ने कैसे ऐसे महान् कवि को भुला देना चाहा।' '23 "उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य की ओर देखने पर ध्यान में आता है कि प्रबन्ध काव्य के क्षेत्र में स्वयंभू अपभ्रंश के 'आदिकवि' हैं, अपभ्रंश के रामकथात्मक काव्य के वे 'वाल्मीकि' हैं, अपभ्रंश के कृष्णपाण्डव कथात्मक काव्य के वे 'व्यास' हैं । '24 इस तरह "समूची राम-काव्य
और कृष्ण-काव्य परम्परा के लगभग दो हजार वर्ष के इतिहास में स्वयंभू पहिले कवि हैं जिन्होंने दोनों के चरितों पर समानरूप से अधिकारपूर्वक काव्य-रचना की।''25 भाषा की कसावट, प्रभावोत्पादकता, लाक्षणिकता और चित्रात्मकता के साथ-साथ 'अलंकार-प्रयोग' की जो विशिष्ट क्षमता हम कवि स्वयंभू के काव्य-शिल्प में पाते हैं वैसी अन्यत्र सहज ही हमें उपलब्ध नहीं हो पाती। डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा 'अरुण' का कथन है - "इस संदर्भ में उल्लेखनीय बात यह है कि कोई-कोई अलंकार किसी कवि को इतना अधिक 'प्रिय' हो जाता है कि वह उसकी पहचान का माध्यम' बन जाता है । 'उपमा कालिदासस्य' की उक्ति के मूल में महाकवि कालिदास की 'उपमा-प्रियता' ही तो है । मैं निःसंकोच कहना चाहूँगा कि स्वयंभू की पहचान का सशक्त माध्यम है- 'उत्प्रेक्षा', जिसके आधार पर मैं कहूँगा - 'उत्प्रेक्षा स्वयंभुवः'। स्वयंभू तो 'उत्प्रेक्षा-सम्राट' कहे जा सकते हैं"26
स्वयंभू महाराष्ट्र के पूर्वी भाग बराड़/बरार के निवासी थे। उनके तीन ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं - 1. पउमचरिउ, 2. रिट्ठणेमिचरिउ और 3. स्वयंभूछंद।
अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य
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