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उत्तरी प्रदेशों की अपभ्रंश रचनाएँ शैवों द्वारा रचित हैं तथा बौद्ध-सिद्धों ने पूर्व के प्रदेशों में रहकर रचना की। इस तरह से "एक ओर इनमें जैन मुनियों के चिंतन का चिंतामणि है तो दूसरी ओर बौद्ध-सिद्धों की सहज साधना की सिद्धि भी है, यदि एक ओर धार्मिक आदर्शों का व्याख्यान है तो दूसरी ओर लोकजीवन से उत्पन्न होनेवाले ऐहिक रस का रागरंजित अनुकथन है। यदि यह साहित्य नाना शलाका-पुरुषों के उदात्त जीवन-चरित से सम्पन्न है तो सामान्य वणिक पुत्रों के दुःख-सुख की कहानी से भी परिपूर्ण है। तीर्थंकरों की स्तुतियों, अनुभवभरी सूक्तियों, रहस्यमयी अनुभूतियों आदि के विचित्र चित्रों से अपभ्रंश साहित्य की विशाल चित्रशाला सुशोभित है। स्वयंभू जैसे महाकवि के हाथों इसका बीजारोपण हुआ, पुष्पदंत, धनपाल, हरिभद्र, जोइन्दु, रामसिंह, देवसेन, कनकामर, हेमचन्द्र, अब्दुल रहमान, सरह और काण्ह जैसी प्रतिभाओं ने इसे प्रतिष्ठित किया और अंतिम दिनों में इस साहित्य को यश:कीर्ति और रइधू जैसे सर्वतोमुखी प्रतिभावाले महाकवियों का सम्बल प्राप्त हुआ। ऐसे महाकवियों
और इतने महाकाव्यों तथा गीतकाव्यों के इस साहित्य का, जो आठवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक (सुदूर दक्षिण को छोड़कर) सम्पूर्ण भारतवर्ष के सामान्य लोक तथा शिक्षित मंडली के हृदय की वाणी थी, भारतीय साहित्य में कितना महत्वपूर्ण स्थान हो सकता है - यह सहज ही अनुमेय है।"18 अपभ्रंश साहित्य का वर्गीकरण
सम्पूर्ण अपभ्रंश साहित्य चार भागों में बाँटा जा सकता है - 1. जैनों की अपभ्रंश रचनाएँ 2. बौद्ध-सिद्धों की अपभ्रंश रचनाएँ 3. शैवों की रचनाएँ
4. ऐहिकतापरक अपभ्रंश रचनाएँ 1. जैनों की अपभ्रंश रचनाएँ
ईसा की सातवीं शती से लेकर सोलहवीं शती तक जैन कवियों द्वारा रचित अपभ्रंश साहित्य प्राप्त होता है। इस सुदीर्घकाल में जो प्रचुर साहित्य रचा गया है उसका केवल एक अंश इस समय प्रकाश में आया है। जैन ग्रन्थ-भण्डारों में अपभ्रंश भाषा का साहित्य विपुल मात्रा में भरा पड़ा है। धर्म और साहित्य का अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य
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