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'मयणपराजयचरिउ' की भाषा प्रायः टकसाली अपभ्रंश है जिसका प्रयोग स्वयंभू, पुष्पदंत आदि महाकवियों की रचनाओं में मिलता है । जो थोड़ा बहुत भेद दिखाई देता है उसे डॉ. हीरालाल जैन ने 'मयणपराजयचरिउ' की प्रस्तावना में विस्तार से दिया है और यह निष्कर्ष निकाला है कि यह ग्रंथ आधुनिक आर्य भाषाओं के विकास को समझने के लिए विशेष महत्वपूर्ण है। 75 'मयणपराजयचरिउ' में रूपक, उपमा, अतिशयोक्ति, श्लेष आदि सादृश्यमूलक अलंकारों का प्रयोग हुआ है । इन अर्थालंकारों के अतिरिक्त शब्दालंकारों का प्रयोग भी काव्य में समाविष्ट है। अनुप्रास और यमक अलंकारों के उदाहरण ग्रंथ में सर्वत्र हैं । वस्तु (रड्डा ) *76 छंद का प्रयोग काव्य में सबसे अधिक है । दुवई छंद का प्रयोग भी काव्य में पाया जाता है। कड़वकों में अडिल्ला छंद सबसे अधिक मिलता है । पज्झटिका एवं पादाकुलक के उदाहरण काव्य में दिखाई देते हैं ।”
रइधू ( 15वीं शती) - रइधू ने विपुल अपभ्रंश साहित्य की रचना की । इनके पिता का नाम साहू हरिसिंह तथा माता का नाम विजयश्री था। इनकी धर्मपत्नी का नाम सावित्री था और पुत्र का नाम हृदयराज था । कवि का जन्म गोपाचल (ग्वालियर) या उसके आस-पास हुआ । गोपाचल एवं दुर्ग उनका निवास एवं साहित्य-साधना का प्रमुख स्थल था । कवि ने जिन भट्टारकों को गुरु के रूप में स्मरण किया है वे हैं 78 1. गुणकीर्ति, 2. यशकीर्ति, 3. पाल्हब्रह्म, 4. कमलकीर्ति, 5. शुभचन्द्र एवं 6. कुमारसेन ।
कवि की निम्नलिखित कृतियाँ उपलब्ध हैं"
1. बलहद्दचरिउ, 2. मेहेसरचरिउ, 3. कोमुइकहपवंधु, 4. जसहरचरिउ, 5. पुण्णासवकहा, 6. अप्पसंबोहकव्व, 7. सावयचरिउ, 8. सुकोसलचरिउ, 9. पासणाहचरिउ, 10. सम्मइजिणचरिउ, 11. सिद्धचक्कमाहप्प, 12. वित्तसार, 13. सिद्धन्तत्थार, 14. धण्णकुमारचरिउ, 15. अरिट्ठनेमिचरिउ, 16. जीमंधरचरिउ,
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19. सम्मतगुणणिहाणकव्व, 20. संतिणाहचरिउ एवं 21. बाराभावना ।
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17. सोलहकारणजयमाल, 18. दहलक्खणजयमाल,
रड्डा छंद में प्रथम चरण में 15 मात्रा, दूसरे चरण में 12 मात्रा, तीसरे चरण में 15 मात्रा, चौथे चरण में 11 मात्रा और पाँचवें चरण में 15 मात्रा होती हैं ( कुल 68 मात्रा ) । इसके आगे दोहा छंद आता है ।
अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य
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