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________________ की बात है, जो 'अपभ्रंश' शब्द ईसा से दो शताब्दी पूर्व अपाणिनीय प्रयोग के लिए प्रयुक्त होता था वही ईसा की छठी शताब्दी तक आते-आते एक साहित्यिक भाषा-संज्ञा बन गया। पं. चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' जिसे 'पुरानी हिन्दी' कहते हैं, डॉ. एल.पी. टैस्सिटरी जिसे 'पुरानी राजस्थानी' कहते हैं, गुजराती जिसे 'जूनी गुजराती' तथा बंग एवं मिथिलावासी जिसे अपनी 'पुरानी भाषा' कहते हैं, वस्तुतः वह अपभ्रंश ही है। यह अपभ्रंश लगभग सभी भारतीय आर्यभाषाओं की जननी कही गयी है। अपने व्यापक अर्थ में अपभ्रंश उस लोक-भाषा की द्योतक है जो संस्कृत से इतर है। इस तरह से अपभ्रंश सभी लोक-बोलियों का सामान्य नाम है । जन-भाषा अपभ्रंश' लगभग छठी शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी तक साहित्यिक भाषा के रूप में प्रयुक्त होती रही और वह हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, सिंधी, पंजाबी और बंगला आदि की मूल भाषा रही है। इसीलिए छठी शताब्दी के काव्यशास्त्री भामह संस्कृत-प्राकृत की भाँति अपभ्रंश का भी काव्यभाषा के रूप में उल्लेख करते हैं; यद्यपि अपभ्रंश का बोली के रूप में उल्लेख ई.पू. लगभग तीसरी शताब्दी में मिलता है । राजा भोज के युग में (1022-63 ई.) प्राकृत की भाँति अपभ्रंश का भी अच्छा प्रचार था। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषा का इस युग में समान रूप से महत्व था। राजशेखर के इस कथन से यही बात भलीभाँति ज्ञात होती है कि राजसभाओं में राजासन (राजा के आसन) के उत्तर की ओर संस्कृत कवि, पूर्व की ओर प्राकृतकवि और पश्चिम की ओर अपभ्रंशकवियों को स्थान दिया जाता था। स्वयंभू और पुष्पदंत जैसे अपभ्रंश के महाकवियों ने अपनी भाषा को देसी भाषा कहा है। डॉ. हीरालाल जैन के अनुसार देसी भाषा और अपभ्रंश एक ही है। पुष्पदंत अपनी भाषा को देसी भाषा कहने के साथ-साथ अवहंस (अपभ्रंश) भी कहते हैं । परिणाम यही है कि अपभ्रंश = अवहंस व देसी भाषा एक ही है। विद्वानों का मत है - "अपभ्रंश ही वह आर्य भाषा है जो ईसा की लगभग सातवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक सम्पूर्ण उत्तर भारत के सामान्य लोक-जीवन के परस्पर भाव-विनिमय और व्यवहार की बोली रही है।'' यह निर्विवाद तथ्य है कि अपभ्रंश से ही सिंधी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, बिहारी, उड़िया, बंगला, असमी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ है। अपभ्रंश : उसके कवि और काव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002700
Book TitleApbhramsa Ek Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2000
Total Pages68
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size3 MB
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