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प्राच्य विद्यापीठ ग्रन्थमाला पुष्प-7
अनुभूति एवं दर्शन
(मुक्तकाव्य संकलन)
दिव्य कृपा विश्वपूज्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.
आशीर्वाद प्रदाता आचार्यप्रवर श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी म. सा.
दिव्य आशीष समत्व साधिका परम् पूज्य महाप्रभाश्रीजी म.सा.
सम्प्रेरक विद्वतवर्या साध्वी प्रीतिदर्शनाश्रीजी म.सा.
प्रस्तुति साध्वी रूचिदर्शनाश्री
सम्पादक डॉ. सागरमल जैन
-प्रकाशक प्राच्य विद्यापीठ, दुपाड़ा रोड़, शाजापुर (म.प्र.)
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स्वकथ्य
प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर में अपने अध्ययन हेतु प्रयत्नशील रहते हुए मेरे मन में यह प्रेरणा जाग्रत हुई कि जैन धर्म दर्शन के गूढतम् रहस्यों को सहज और सुगम शैली में मुक्तक काव्यों के रुप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जाय कि वे जन-जन के लिए सुग्राह्य और रुचिकर बन सके। इसी सहज प्रेरणा का फल है प्रस्तुत कृति " सत्यानुभूति" । यह कृति कितनी सुबोध और जनग्राही बन सकेगी यह तो पाठको के निर्णय का विषय है । मैंने तो स्वानुभूतियों को सहज रूप में प्रस्तुत करने का एक प्रयत्न किया है । इसे एक सम्यक् आकार दिया है इसके सम्पादक विद्वद् मनीषी डॉ. सागरमल जैन ने साथ ही इसकी काव्यत्मकता को निखारने में परम सहयोगी रहे है डॉ. दूर्गाप्रसाद जी झाला । वस्तुतः मैंने तो जो कुछ सीखा और जाना है, उन्हीं अनुभूत सत्यों को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न भी किया है, इसके पीछे प्रेरणा और आशीर्वाद तो गुरुवर्य एवं गुरुणीवर्या का ही है। इस कृति के प्रकाशन के पुनीत अवसर पर उनका स्मरण करना मेरा अपना दायित्व है । सर्वप्रथम तो मैं कृत्य कृत्य हूँ विश्वपूज्य आचार्य राजेन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. की दिव्यकृपा की एवं अध्ययन हेतु सतत् प्रेरणा प्रदाता वर्तमान आचार्य देवेश की अनुकंपा और अनुशंसा की, जो इस प्रकाशन का सबसे महत्त्वपूर्ण सम्वल है में अभारी हूँ । मातृहृदया पूज्या महाप्रभाश्रीजी म.सा. की जो सन्यास मार्ग में मेरे प्रेरणास्रोत रहे है साथ ही मैं आभारी हूँ पूज्या सरल स्वाभाविनी स्वयंप्रभा श्री म.सा., पूज्या वात्सल्य प्रदात्री विद्वद्वर्या डॉ. प्रियदर्शनाश्री म.सा. पूज्या सरलहृदया कनकप्रभा श्री म.सा., स्नेह सरिता विद्ववर्या डॉ. सुदर्शना श्री म.सा., जीवन निर्मात्री भगिनीवर्या प्रीतिदर्शनाश्री म.सा., जिनकी प्रेरणाएँ मेरी संयमयात्रा एवं विद्योपासना का आधार है । इसके कम्प्यूटरकृत टंकण के लिए संजय सक्सेना और मुद्रण हेतु आकृति प्रेस के प्रति भी हमारी सद्भावनाएँ । साथ ही प्रकाशन कार्य में अर्थसहयोग हेतु श्री संजय कुमार जी रमेशचन्द्र जी ओरा का भी आभार।
साध्वी रुचिदर्शनाश्री |
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विषय सूची खण्ड-1 अनुभूति 1. सत्य सदा अमर
मुक्ति ज्ञानयुक्त आचरण ही मुक्ति का द्वार सम्यक्तव गुणस्थान अपेक्षाओं की बारात मन रुपी घोडा सयम बह्यचर्य
एक यौदा 11. प्रभ से मिलन
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25
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-.-
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31
17
18.
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गुरु
युगपुरुष 14. मा
जीवन का अर्थ खण्ड-2 जैन दर्शन 16. जैन दर्शन
जैन दर्शन में प्रमाण नय
आगम 20.
द्रव्य
गुण 22
पर्याय खण्ड-3 भारतीय दर्शन एवं चिंतन 23. भारतीय चिन्तन में प्रमाण व्यवस्था
चावकि दर्शन बौद्ध दर्शन जैन दर्शन न्याय दर्शन सारव्य दर्शन पेदान्त दर्शन
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भूत
भविष्य
वर्तमान में
खण्ड-1
अनुभूति
सत्य सदा अमर
मैं सत्य हूँ
मुझसे क्यों दूर भागते हो मैं सदा प्रासंगिक
मैं आग्रह- दुराग्रहों की दीवारों से मुक्त खुले आसमान में शाश्वत हूँ मैं पंथ, सम्प्रदाय से परे
न हिन्दू
न मुसलमान
न जैन
न बौध्द
मैं सत्य हूँ
मैं सदा अमर हूँ
चाहे फाँसी हो
चाहे जहर हो
मैं कभी मरता नहीं
क्योंकि
मैं सत्य हूँ
सदा अमर हूँ रादा प्रासंगिक हूँ
अनुभूति
दर्शन / 3
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मुक्ति
मैं मुक्ति हूँ कषाय रूपी ज्वर के उतरने पर प्रकट हुई पूर्ण ज्ञानमय अनिर्वचनीय आनन्दमय स्व के सम्पूर्ण अस्तित्त्व के साथ प्रकट हुई विक्षोभों से रहित सदा अविचल जन्म-जरा-मरण की सरहद के पार वहाँ न चाह है
और न चिन्ता है वहाँ कुछ भी नहीं किन्तु सब कुछ तो है अब कुछ पाना नहीं पाया है जो वह खोना नहीं यही तो मुक्ति है
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ज्ञान युक्त आचरण ही मुक्ति का द्वार
प्राण बिना मृत शरीर पर आभूषण का औचित्य कितना ? आचरण के बिना जीवन में ज्ञान का औचित्य कितना? गर्दभ चंदन का भार ढोता है किंतु सुगंध की भागीदारी उसे कहाँ बिना आचरण के ज्ञान भी बोझ है निरर्थक है वह जो जाना गया
और जीया न जा सका वह ज्ञान मात्र बुद्धिविलास है, अहंकार का ही कारण बनेगा
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आचरण के बिना ज्ञान से मुक्ति की वैसे ही इच्छा मुख में कवल लिए बिना जैसे तृप्ति की इच्छा आचरण ज्ञान का सार वह ज्ञान की परछाई है
ज्ञान युक्त आचरण से ही मोक्ष का द्वार खुलता है ज्ञान और आचरण साधना रूपी रथ के दो पहिएँ है किसी एक से कैसे संभव हो सकेगी मुक्ति मंजिल की यात्रा।
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सम्यक्त्व
"सम्यक्त्व
आत्मोत्कर्ष के शिखर की प्रथम सीढ़ी है, अध्यात्म वर्णमाला का
प्रथम अक्षर है
आत्म दर्शन की
प्रथम कक्षा है
सम्यक् समझ ही है, सम्यक्त्व
जहाँ आग्रह - दुराग्रह से परे केवल सत्य का ग्रहण होता है सुषुप्त जीवन में
जब सम्यक्त्व की
वीणा बजती है
तो मिथ्यात्व की नींद टूटती है विवेक का सूरज उदित होता है
सम्यक्त्व साधक जीवन की नींव है
जिस पर
साधना का महल
खड़ा होता है
सम्यक्त्व अन्तर्दृष्टि है जिसमें
कर्त्तव्य का बोध होता है
उसमें कर्तृत्त्व भाव भी
विलीन हो जाता है केवल साक्षीभाव रह जाता है
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सम्यक्त्व के परिचय बिना मुक्ति भी संभव नहीं होती सम्यक्त्व आत्मोपलब्धि का वह अनुष्ठान है जहाँ आत्मवत् दृष्टि का विकास होता है।
܀܀܀
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गुणस्थान
आत्मिक गुणों के क्रमिक विकास से पूर्णता का होता दिग्दर्शन है कर्मों के उदय उपशम क्षयोपशम और क्षय के परिणामों के ये चौदह स्थान है इन्हें ही कहते गुणस्थान है
जीव की दृष्टि सत्य से विपरीत हो जब कहलाता मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है अभव्य रहता इसमें अनादि अनंत काल तक भव्य का अनादि सांत काल है सम्यक्त्व के संस्पर्श से पतित होने वाले का
सादि और सांत काल है नदी के पत्थर रगड़-रगड़ कर हो जाते है गौल जैसे होती यथाप्रवृत्तिकरण में सहज परिणाम की शुद्धि वैसे आयुकर्म बिना बाकी की स्थिति होकर जब क्षीण अन्तः कोड़ा-कोड़ी मात्र रहती है फिर न बांधे वह स्थिति ऐसे अपुनर्बधक आगे बढ़कर अपूर्वकरण करते है
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पूर्व में न आए ऐसे अपूर्व भाव राग द्वेष की ग्रंथि भी जब भिद जाए स्थिति घात, रस घात
और गुण श्रेणी कर कर्मों को अपने अनुकूल बनाता यह सारा कार्य करना होता मात्र अन्तर्मुहूर्त काल में जीव तब करता अपूर्व स्थिति बंध
अनिवृत्ति काल में संख्यातवॉ भाग हो जब बाकी उदीरणा अपवर्तना से मिथ्यात्व दलिको को कर क्षय-उपशम अन्तर्मुहूर्त काल तक जब उनका उदय निःशेष हो तब अन्तःकरण में होता जीव का प्रवेश है उपशम सम्यक्त्व की अनुभूति से जीव लांघकर दो सीढ़ी चतुर्थ गुणस्थान में आता है अनंता अनुबंधी के उदय से च्युत होता जब औपशमिक सम्यक्त्व से आस्वादन रहा जैसे वमन हुई खीर का कहलाता यही सास्वादन गुणस्थान है काल इसका मात्र छ: आवलिका है।
मिश्र पुंज के उदय से जीव पाता मिश्र गुणस्थान है जिन धर्म का न रागी न द्वेषी न करता आयु बंध नहीं मृत्यु पाता है इसमें अन्तर्मुहूर्त काल वाला यह तीसरा गुणस्थान है।
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चौथा गुणस्थान सत्य दर्शन रूप सम्यक्त्व है इसमें होते चारों गति के जीव औपशमिक क्षायोपशमिक और क्षायिके तीनों प्रकार से संसार की असारता को जानकर भी जब जीव अप्रत्याख्यान के उदय से विरति में असमर्थ होता है यही अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान है साधिक छासठ सागरोपम इसका उत्कृष्ट काल है
भोगों का कर यत्किंचित त्याग करते हैं व्रत को ग्रहण प्रत्याख्यान के उदय वाले
ऐसे सम्यक्त्व धारी तीर्यच और मनुष्य पाँचवे देशविरति गुणस्थान में होते हैं। देशोनपूर्व क्रोड इसका उत्कृष्ट काल है।
संसार के भोगों और
आरम्भ समारम्भ का
सम्पूर्ण होता है जब त्याग ऐसे पंचमहाव्रतधारी मुनिगण संज्वलन और नो कषाय के उदय से
प्रमत्त गुणस्थान पर होते हैं प्रमाद बिना वही होते सातवें अप्रमत्त गुणस्थान पर अन्तर्मुहूर्त काल वाले इन दोनों गुणस्थान में मुनि झूलता रहता है।
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अपूर्वकरण आठवाँ गुणस्थान है उपशम और क्षपक दो श्रेणी यहाँ से होती प्रारंभ है आठवें गुणस्थान के तीनों काल के जीवों के अध्यवसायों की जब हो तुलना असमानता होने के कारण निवृत्तिकरण इसका दूसरा नाम है।
भाव होते जब अधिक विशुद्ध हैं अध्यवसाय भी प्रथम समय में होते हैं समान तब होता है नौवाँ अनिवृत्ति गुणस्थान। सूक्ष्म लोभ का मात्र रहता उदय दसवें सूक्ष्म संपराय गुणस्थान में है जघन्य से एक समय उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त आठवें नौवें दसवें गुणस्थानों का काल है संसार चक्र में नौ बार एक भव-चक्र में चार बार अधिकतम इन तीनों गुणस्थानों की प्राप्ति संभव है
उपशम श्रेणी वालों का ही जहाँ होता प्रवेश है मोहनीय कर्म पूर्ण उपशान्त किन्तु सत्ता में फिर भी है विद्यमान नियम से होता यहाँ से पतन गिरते हुए पहले तक भी पहुँच जाता जिस गुणस्थानक पर वह रूकता है वहाँ के बंध, उदय, उदीरणा को कर देता प्रारंभ है जघन्य से एक समय उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त ग्यारवें उपशान्त मोह गुणस्थानक का काल है
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मोहनीय कर्म जब सर्वथा होता है क्षय ऐसे क्षपक श्रेणी वालों का होता यहाँ प्रवेश है अति निर्मल भाव होते जीव के काल स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण हैं यह बारहवाँ क्षीणमोह गुणस्थान है
घाती कर्मों को जीव करता है जब क्षय तभी केवल ज्ञान केवल दर्शन होते प्रगट हैं चराचर तत्त्वों को हस्त-कमलवत् जानते और देखते हैं ज्ञान में इन्द्रियों की अपेक्षा भी नहीं है केवल तीनों योग शेष हैं। जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट देशोनपूर्व क्रोड वर्ष है यह सयोगी केवली तेरहवां गुणस्थान है
अयोगी केवली चौदवें गुणस्थान में योगों का होता सर्वथा निरोध है व्युच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती ध्यान वाले इस योगी के आत्म प्रदेश होते स्थिर मेरू पर्वत के समान है पंच ह्रस्व स्वर या व्यंजन के उच्चारण जीतना इसका काल फिर सम्पूर्ण कर्मों का क्षय कर देह त्याग देता है सिद्धावस्था को प्राप्त कर बन जाता परमात्मा है।
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अपेक्षाओं की बरात
व्यक्ति अकेला है अन्यों से भिन्न
किंतु उसे यह स्वीकार कहाँ अपेक्षाओं के टूटने से वह पीड़ित है
अनेक आशाएँ और अपेक्षाएं दूसरों से
क्योंकि उनको
अपना मान बैठा है
उसकी अपूर्ण आकांक्षाएँ अपेक्षाएँ
उसका पीछा नहीं छोड़ती
इसी कारण वह दुखी है पीड़ित है
किन्तु अपने मिथ्या आग्रह को वह छोड़ता नहीं
कौन अपना और कौन पराया मान्यताएं ही
किसी को अपना
किसी को पराया बनाती है,
संयोग हुआ है
वृक्ष पर
पक्षियों की तरह
प्रातः काल
अलग-अलग दिशाओं में
उड़ जाना है
बस एक रात ही तो
बाकी है
अपेक्षाओं की बरात की
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मन रूपी घोड़ा
देखो, देखो लोगों एक अजूबा. अश्व तो सवारी का साधन किंतु आज अश्व ही हुआ है सवार मनुष्य के ऊपर सारे संघर्षो को रचाता दुनिया को वह है नचाता कोईक महारथी ही होता है ऐसा जो इस मन रूपी अश्व पर सवारी करता वायु से भी तेज गति है इसकी एक ही क्षण में देश-विदेश घूमकर आता कितनी ही करो इसकी चौकीदारी फिर भी धोखा देकर यह निकल ही जाता जितना ही हम इसको समझाते उतना ही ऊधम मचाता
ज्ञानी ध्यानी और तपस्वी भी बड़े जतन से इसको मना पाते अगर हो जाए थोड़ी सी भी चूक या प्रमत्तदशा एक क्षण की भी हो वर्षों की साधना पर यह पानी फेर देता मन के बिना इन्द्रियों की भी
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न कोई ताकत है तुम दृष्टा बनकर यदि देखो मन का नाटक यह शेखचिल्ली कितने ही सपने संजोता
और पल में ही उन्हें तोड़ भी देता इसके दास बने लोग। जग में मारे मारे फिरते है किन्तु जिसने इसको दास बनाया उन्नति के सर्वोच्च शिखर को है पाया ध्यानस्थ प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने मन का खेल जो खेला क्षण में नरक के बन्ध जोडे और क्षण में ही उन्हें तोड़े अन्त में मोक्ष का सुख पाया।
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संयम संयम क्या, मात्र मुनिवेश है? वेश तो उसका शरीर है संयम तो पंचमहाव्रतों की प्राण प्रतिष्ठा रूप है। वह बाहर से नहीं, भीतर से होता है प्रगट वह तो मर्यादाओं का परिधान है।
संयम है, कर्त्तव्य के कुरूक्षेत्र की रणभूमि में, गुरू रूप कृष्ण के सानिध्य में, अर्जुन बन मोह सेना को परास्त करना, संयम तो अनुकूलता एवं प्रतिकूलता की बगिया में मर्यादा का महोत्सव है
समत्व का परीक्षण है वह तो स्व का स्वमें अनुसंधान है संयम मे ममत्व का विसर्जन और समत्व का सृजन है जड़ से भिन्न स्व का स्व में संवेदन है
संयम क्या है ? वह तो मीरा के भक्त हृदय की थिरकन है वह तो बुद्ध का सम्यक् संबोधि ध्यान है और महावीर के आचार मार्ग का संविधान है।
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ब्रह्मचर्य
ब्रह्मचर्य तो है सदा निज मे रमण किंतु मन सदा करता रहता है इन्द्रियों के विषयों में विचरण; यह है इसके अनादि के संस्कार बलिष्ट और प्रगाढ़ा, निमित्त मिलते ही इन्द्रियां भी अपने विषयों में हो जाती हैं तत्पर संयम के सर्व प्रयत्न तब होते हैं निष्फल इन्द्रिय दमन भी नहीं है, इसका कोई हल दमन में भी आग्रहवश निरोध है, विषय रस तो यहाँ भी अवशेष हैं स्व हिंसा का ही वहाँ है भाव सतत सजगता और वैराग्य से ही संभव होता है कुसंस्कारों का परिमार्जन
ब्रह्मचर्य नहीं है त्याग का प्रदर्शन नहीं है वह मात्र बाहरी आरोपण ब्रह्मचर्य है बोधपूर्वक आचरण नहीं किसी का अनुकरण, अनुसरण आत्म बोध से प्रज्ञा चक्षु जब खुल जाते हैं तब रूप, रस, गंध, स्पर्श सब पुदगल का खेल नजर आते हैं विषयासक्ति के हास से ही ब्रह्मचर्य विकास पाता है
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तब देहासक्ति से परे पक में कमलवत् निज जीवन होता है तब अनुराग के हेतु भौतिक पदार्थ भी निर्लिप्त चेतना में बन जाते हैं विराग के हेतु अंतर की सहजता और सरसता की सौरभ बिखेरती होती है स्वयं की अभिव्यक्ति।
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हे भगवान!
मैं तेरा भक्त
एक सौदा
तेरा उपासक
तेरे मेरे बीच
हो जाए
एक सौदा
देना प्रॉफिट पूरा
उसमें एक परसेन्ट तेरा
साथ में एक मिठाई का डिब्बा
पर सौदा तो
सौदा ही है
तू
प्रॉफिट न देगा
तो परसेन्टेज भी
न मिल पाएगा जरा विचार करले
हे भगवान
मैं तेरा भक्त तेरा उपासक
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प्रभु से मिलन
प्रियतम प्रभु मेरे तुम्हें पाने को हूँ मैं अधीर सजकर संयम सोलह श्रृंगार कर रही हूँ बस इंतजार वैराग्य के रंग की चूनर ओढ़ आज्ञा का है तिलक भाल पर मर्यादाओं की है पायल पैरों में शील के कंगन पहन संयम का अंजन नयनों में आंजकर मिलने को हूँ बेचैन
पर यह मिलन कैसे होगा संभव तुम अशरीरी मैं सशरीरी तुम अविकारी मैं विकारी तुम कर्म रज से रहित मैं कर्म-रज के सहित किन्तु यह सब भी तो मेरा स्वरूप नहीं स्वभाव को छोड़कर विभाव में भटकी कहीं
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मैं भी और तुम भी हैं शुद्ध स्वरूपी तुममें और मुझमें कहाँ है कोई दूरी? दूरी तो कल्पना में है सत्ता में नहीं जब स्वरूप की समझ जगे भेद की दीवारें हटें तब दूरी की बात ही कहाँ?
तुम तो हो वीतरागी करूं मैं तुमसे कैसी अभिलाषा कार्य की सिद्धि तो स्वयं करने से होती स्व सामर्थ्य से जब होगी स्व-सत्ता की पहचान फिर न रहेगा कोई भेद तुममें और मुझमें हम होंगे अभेद, अद्वैत
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गुरू
मिट्टी के ढेर को कहाँ पता होता है कि, उसमें कितनी संभावनाओं का भंडार है उससे सुंदर वस्तुएं गढता है कुम्हार वैसे ही सुसंस्कारो से कर अलंकृत श्रेष्ठ शिक्षाओं से कर अभिमण्डित अथक परिश्रम से गुरू करता है शिष्य के जीवन का उत्थान श्रीफल सम होता है गुरू ऊपर से कठोर किन्तु अन्दर से कोमल जैसे कुम्हार ऊपर से थाप देता है किन्तु अन्दर से कोमल हाथ से सहेजता जब होता अनुशासन का उल्लंघन गुरू भास्कर बन तमतमाता किन्तु आज्ञाओं के अनुपालन में मयंक की शीतलता बरसाता।
गुरू अज्ञानतम को हरता है दीपशिखा बन मन का कलुष पखाल कर सदगुणों की सौरभ देता शिष्य के मनोभावों का वह होता है विज्ञाता विचलन में भी राह दिखाता।
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हृदय में निर्भयता का संचार कर आत्म विश्वास का बन अधिष्ठाता जीव से शिव बनने का मार्ग भी गुरू ही बतलाता।
स्वयं को स्वयं के प्रति सजग सावधान वह बनाता उसके मार्गदर्शन में उठने-बैठने खाने-पीने चलने-बोलने का सारा ढंग ही बदल जाता वह तो जीवन में आमूलचूल परिवर्तन लाता जीवन जीने की कला भी गुरू ही सिखाता
प्रत्यक्ष चाहे न भी हो परोक्ष में भी उस पर श्रद्धा का फल लगता है विस्मयकारी एकलव्य ने जब मन में ठानी गुरू प्रतिमा से ही सारी विद्या जानी
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युग पुरूष
भारत की धर्म वसुधा पर जिन शासन के नभ में आलोकित हे ज्ञानपुंज! दुबली-पतली और प्रलम्ब काया में अवतरित हे युगस्रष्टा तुमको है कोटि-कोटि वन्दन अभिनन्दन तेरे दिव्य गमन से हुआ एक युग का अंत
हे सत्य के अन्वेषक ! विच्छिन्न हुए त्रिस्तुतिक सिद्धान्त का तुमने पुनर्सधान किया और मनुष्य को देवों की गुलामी से मुक्त किया स्वाभिमान से जीने का मार्ग प्रशस्त किया हे आगमों के गहन अध्येता! आगमों का मंथन कर तुमने जो नवनीत दिया वह बन गया अभिधान राजेन्द्र विद्वत् जनों की दुर्लभ निधि
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हे लौह पुरूष ! तुम सदा रहे पर्वत से अटल विघ्न बाधाओं में कभी न झुकने वाले समस्याओं से जूझती मानवता को समाधान की रोशनी देने वाले हे तपस्वी योगी ! गिरि कंदराओ और गुफाओं में ध्यान-साधना से कर्म क्षरण करने वाले आत्मा को तराश कर मन का. कलुष पखारने वाले यति परम्परा का उन्मूलन कर श्रमण संस्कृति को बचाने वाले तेरे अमूल्य अवदानों को सदियाँ याद करती रहेगी हे अभिधान राजेन्द्र कोष के महाप्रणेता! तेरे कालजयी आलेख इतिहास मे सदा अंकित रहेंगे तेरे पावन चरणों में जन-जन के श्रद्धा सुमन सदैव अर्पित होगें
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"माँ"
कोमलता और करूणा श्रद्धा और विश्वास की प्रतीक है " माँ " शिशु पालन में माता सेवा करती सन्तान की पूर्णत: वात्सल्य भाव से वह भेद नहीं करती काले – गौरे का सुंदर असुंदर का वह तो सदा ही करती है अपनी ममता का विस्तार स्वयं कितने ही कष्टों को सहती किंतु सन्तान पर दुःख का साया न पड़ने देती संतान को सुलाने कितनी राते वह जागती संतान को हो गर कोई कष्ट वह कभी चेन की नींद न लेती।
हो संतान का भविष्य उज्ज्वल और खुशहाल जीवन कछ बन जाए दस आस में सारी उम्र ही दाँव पर लगा देती संतान का सुख ही माँ का सुख होता, उसका हमेशा एक ही सपना होता संतान का मंगल उसका अपना होता।
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लगता है आघात कहीं सन्तान के व्यवहार से मौन रहकर वह भी सह लेती है नादान समझकर उसकी हर भूल माफ कर देती अपने उपकारों को वह कभी न जतलाती
माँ का वात्सल्य सदैव असीम और अनुपम होता वह तो त्याग और बलिदान की प्रतिमूर्ति बन सदैव अपना सुख लुटाती संतान पर
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जीवन का अर्थ
तुम डरो मत उससे यह निश्चित है वह आएगी
तुम कैसे उससे बच सकते हो
कोई स्थान नहीं ऐसा
जहाँ उसका प्रवेश नहीं तुम भयभीत हो जिस मृत्यु से
वह हर क्षण तुम्हारे साथ है उन सुनिश्चित श्वांसों में हर श्वांस के साथ वह आती है जितनी श्वांस तुम ले चुके उतने ही तुम मर चुके जितनी श्वांस बाकी है उतना ही जीवन इस शरीर में बाकी है
तुम मृत्यु को अपना अंत मत समझो
वह तो मात्र देह का परिवर्तन
यदि पहनने की इच्छा हो तो
जीर्ण वस्त्र उतारकर
नया वस्त्र धारण करना ही पडता है ।
इस महायात्रा में
तुमने अनन्त बार पड़ाव डाले और फिर शुरू करदी नयी यात्रा अनन्त बार तुमने मृत्यु को पाया और अनन्त बार ही
नया शरीर धारण कर, नव जीवन पाया
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जन्म और मृत्यु के बीच मिला है जो अवसर उसमें तुम ढूंढलो जीवन का वह अर्थ जो तुम्हें बनादे अजर-अमर जो नष्ट होता है वह तुम नहीं हो
और जो जन्मता है वह भी तुम नहीं हो जन्म-मरण तो शरीर का है इस भेद ज्ञान को जानलो मिली जितनी श्वांस उनको सार्थक कर लो पंच महाभूत से बनी देह का पंच महाभूत में मिल जाना वह तुम्हारी मृत्यु नहीं हो सकती तुम नहीं मरते हो नही जन्म लेते हो तुम तो हो शाश्वत भूत भविष्य वर्तमान में कोई काल ऐसा नहीं जब तुम नही थे नहीं होंगे नही हो तुम अनादि अनंत हो
यदि तुम इस देह के जन्म-मृत्यु की यात्रा से थक गये हो तो इस जन्म-मरण के चक्र से उपर उठ जावो तुममे है वह पुरूषार्थ तुम अंत कर डालो इस चक्र का और वह अंतिम मृत्यु ही तुम्हारी मुक्ति बन जाये
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खण्ड-2
जैन दर्शन
अनेकान्त/ अनाग्रह
सत्य को विभिन्न एवं परस्पर विरोधी आयामों से देखना है अनेकान्त नहीं है यह कोई अनर्गल, पागलों का प्रलाप सभी विरोधों का होता यहाँ मिलाप इसी से जगत का व्यवहार जारी है अपेक्षा भेद से माँ, बहन, पत्नी होती एक ही नारी है केवल तार्किक ही नहीं व्यावहारिक भी है अनेकान्त
वस्तु तत्त्व की अनंतधर्मात्मकता इसका है आधार वस्तु है विविध और विरोधी गुणों का पुंज भाव और अभाव से युक्त अस्तित्त्व नास्तित्त्व से संपृक्त था आम खट्टा, हो जाता मीठा वही काल बीतने पर सुगन्ध दुर्गन्ध में बदलती रही आज जो प्रतीत होता है कल वह स्वतः ही बदल जाता है। बदल करके भी वह वही रहता है यही अनेकान्त बतलाता है।
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उत्पाद--व्यय--ध्रौव्यता एक ही वस्तु में रही जो उत्पन्न हुआ, विनष्ट होता भी है वही इन्हीं दोनों के बीच में ध्रौव्यता रही द्रव्य है नित्य पर्याय अनित्य फिर भी दोनों एक ही एकत्व अनेकत्व भेद और अभेद एक ही वस्तु में है अनुस्यूत इसी सत्य से है अभिभूत अनेकान्त
सीमित क्षमता और भाषा वाला मानव कैसे कर सकता है वस्तु तत्त्व का सम्पूर्ण ज्ञान यदि जान भी ले तो कैसे करेगा आख्यान सर्वज्ञ सम्पूर्ण सत्य का करता है साक्षात्कार किंतु निरपेक्ष अभिव्यक्ति उससे भी संभव नहीं वाचक है स्याद्वाद वाच्य है अनेकान्त
वेदों और उपनिषदों में भी मिलते इसके संकेत न सत् था न असत् भी उससे उत्पन्न हुआ जगत कभी यह बात वेद का अनेकान्त बताता तदेजति तन्नेजति तदूरे तद्वन्तिके यह उपनिषद् का कथन भी वाचक है अनेकान्त दष्टि का स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति स्यात् अवक्तव्य यह विचित्र वचन विन्यास यही तो है अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी का गूढतम अर्थ विन्यास
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विरोधाभासपूर्ण वस्तु के निषेध-मुखी कथन से जन्मा शून्यवाद है तो विधि मुख से वही बना अनेकान्त है एकान्त से बचना दोनों को इष्ट है, फिर भी विधि और निषेधमुख से एक कहलाया अनेकान्तवाद और दूसरा शून्यवाद
आग्रह और दुराग्रह से बचाता सभी दर्शनों के विरोध को मिटाता विरोध में अविरोध का समाहार कर सत्य का उपहार देता अनेकान्त है।
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जैनदर्शन में प्रमाण
सम्यक हो वस्तु तत्त्व का निर्णय, अनध्यवसाय, संशय
और विपर्यय से रहित निर्णय वही प्रमाण कहलाता
प्रत्यक्ष और परोक्ष द्विविध है प्रमाण स्पष्ट ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता वह भी पुन: द्विविध होता। इन्द्रिय और मन से अवग्रह, ईहा अपाय धारणा रूप ज्ञान सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहलाता इन्द्रिय और मन के बिना केवल आत्मा से ही जो होता है पारमार्थिक प्रत्यक्ष माना जाता इस वर्ग में आते अवधि, मनःपर्यव
और केवल ज्ञान अस्पष्ट ज्ञान ही परोक्ष प्रमाण है स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, ऊह अनुमान और आगम है इसके पाँच प्रकार
धारणात्मक ज्ञान से उत्पन्न होती 'स्मृति है प्रत्यक्ष और स्मरण से उत्पन्न होता है जो ज्ञान यही प्रत्यभिज्ञा नाम का है परोक्ष प्रमाण सहउपलब्धि या अनुपलब्धि निमित्त से होने वाला व्याप्ति ज्ञान ही 'ऊह' कहलाता
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इस व्याप्ति ज्ञान के आधार पर होता है जब दूसरा ज्ञान प्रत्यक्ष से परोक्ष का साधन से साध्य का यही है अनुमान प्रमाण स्वार्थ और परार्थ जिसके दो हैं प्रकार अविनाभाव संबंध वाले साधन से साध्य का हो जब ज्ञान, तब होता है स्वार्थानुमान
दूसरों को बतलाने के लिए वचन के उपचार से होता है परार्थ अनुमान। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण उपनय और निगमन ये पाँच हैं इसके अंग। साध्य का निर्देश करना ही प्रतिज्ञा है, साध्य की सिध्दि का साधन हेतु कहलाता है, साधन के सद्भाव में साध्य का सद्भाव अन्वय हेतु है साध्य के अभाव में साधन का अभाव व्यतिरेक हेतु है असिध्द, विरूद्ध, अनैकान्तिक यह तीन हेत्वाभास कहलाते हैं
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उदाहरण को दृष्टान्त भी कहते साधर्म्य वैधर्म्य भेद से दो प्रकार के होते पक्ष में साधन को दोहराना उपनय तथा साध्य की सिध्दि निगमन है
सर्वज्ञ एवं हो वीतराग ऐसे आप्त पुरूष के वचनों का संग्रह शब्द या आगम प्रमाण के रूप में जाना जाता ये है कुल छह प्रमाण सम्पूर्ण जैनदर्शन की खान
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नय
अनन्ततिम्क वस्तु के एक अंश को ग्रहण कर उसके सापेक्ष कथन की शैली का नाम है नय निरपेक्ष या एकांतिक कथन दुर्नय है सापेक्ष कथन सुनय है सिद्धसेन कहते हैं जितने कथन के तरीके उतने ही नय प्रकार किंतु मुख्य नय तो सात हैं नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द और समभिरूढ़ अंतिम है एवंभूत नैगम नय सामान्य और विशेष उभय पक्ष से वस्तु को जानता और कहता है भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों को ग्रहण करता है संग्रह नय द्रव्य और पर्याय दोनों का ग्रहण करते हुए भी द्रव्य को प्रमुख तथा पर्याय को गौण करके कथन करता है। व्यवहार नय वस्तु में भेद-प्रभेद करता है
और सामान्य को गौण कर विशेष को मुख्य बनाता वस्तु की व्यक्तिगत विशेषताओं पर अधिक ध्यान देता है
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ऋजु सूत्र नय द्रव्य को गौणकर केवल पर्याय को ग्रहण करता है भूत, भविष्य को भी नहीं केवल वर्तमान पर्यायों को मुख्य बनाता। शब्द नय लिंग विभक्ति कारक की भिन्नता से अर्थ भेद मानता है किंतु पर्यायवाची नामों को एक ही अर्थ का वाचक मानता है। समभिरूढ़ नय शब्द के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ को ही प्रधानता देता है राजा और नृप में भी अर्थ भेद करता है एवंभूत नय कहता है व्युत्पत्तिपरक अर्थ जिस समय जिस वस्तु पर्याय में घटित होता है उस समय ही वह वस्तु उस शब्द से वाच्य हो सकती है प्रथम तीन द्रव्यार्थिक नय है जिनमें द्रव्य प्रमुख पर्याय गौण है शेष चार नय पर्यायार्थिक है पर्याय प्रमुख और द्रव्य गौण है एकान्त के आग्रह से कोई भी नय दुर्नय बन जाता है किंतु प्रतिपक्षी नय का निरसन किये बिना तटस्थता से जब कथन करता है तो वही नय सुनय बन जाता है।
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आगम
अगम आगम के उज्ज्वल प्रकाश से
वस्तु स्वरूप के दर्शन होते हैं जग को चमकाने वाले रवि शशि भी मिटा नहीं सके जो अज्ञानांधकार उसे मिटाता है।
महावीर का यह ज्ञान
उत्पाद - व्यय और ध्रौव्य मात्र तीन पदों से
गणधरों ने किया द्वादशांगी का सृजन स्वामी सुधर्मा से प्रवाहित हुई निर्मल ज्ञान धारा चौदपूर्व और बार अंगों का ज्ञान जिसे अपनी प्रखर प्रज्ञा में पांच - श्रुतकेवलियों ने समेटा फिर हुए दशपूर्व के धारक ग्यारह ज्ञानी
विच्छिन्न हुई जब इनकी परम्परा वीर के तीन सौ पैंतालीस वर्ष बाद
तब दुष्काल के प्रवाह से मौखिक श्रुत परम्परा भी विश्रृंखलित होने लगी
काल के प्रवाह से तब उस अनमोल निधि का संकलन करने में
उठे कदम आर्य जनों के काल क्रम से हुई आगमों की पाँच वाचनाएँ अन्तिम वाचना वल्लभी में हुई वीर के नौ सौ अस्सी वर्ष बाद देवर्धिगणि ने किया
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आगमों के स्वरूप का निर्धारण और उनका पुस्तक रूप में लेखन पाठ भेद हुआ कहीं पर अर्थ भेद नहीं
हुआ दृष्टिवाद का उच्छेद ग्यारह अंग बारह उपांग चार मूल, छ: छेद दस प्रकर्णिक दो चूलिका यह है पैतालीस परम आगमों का निधान ज्योतिर्मय श्रुत साधन का विधान वीर की उस चिन्तन धारा के ये चिन्मय कण आज भी हैं सुरभित और पावन जैसे नवनीत
अगम आगम को सुगम बनाने सुन्दर व्याख्या ग्रन्थ लिखे प्रज्ञाशील उन ज्ञानियों ने नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका में स्याद्वादमयी वाणी में नय निक्षेप और श्रुत व्यवहार से अनुपम निरूपण है किया मोक्ष मार्ग का
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द्रव्य
सत्ता के स्वरूप पर
सभी दर्शनों में जब हुआ विचार विमर्श
कुछ ने कहा
सत् कूटस्थ नित्य है, परिवर्तन प्रतिभासिक है,
इसके विपरीत
दूसरों ने कहा परिवर्तन ही सत् है नित्यता काल्पनिक है किन्तु जैन चिंतकों ने सत् को
उत्पाद व्यय धौव्यात्मक
बतलाया
विभिन्न अवस्थाओं में होने वाले
परिवर्तनों के बीच वह जो अविच्छिन्न नियामक तत्त्व है वही तो सत् है और सत् ही द्रव्य है स्व स्वरूप का
त्याग किये बिना ही
विभिन्न अवस्थाओं को
धारण करने वाला
वही तो नित्य है
प्रतिक्षण उत्पन्न और नष्ट होने वाली
अपनी पर्यायों की अपेक्षा से वह अनित्य भी है
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स्वलक्षण उसका नित्य पक्ष तो परिवर्तनशील पर्याय ही उसका अनित्य पक्ष है
मृत्तिका स्वलक्षण का परित्याग किये बिना भी घट अवस्था को प्राप्त हुई घट की उत्पत्ति में
पिण्ड अवस्था का
नाश हुआ फिर भी मृत्तिका तो
यथावत बनी रही
इस सत्य को स्वीकारने में भला किसी को
क्या हो सकती परेशानी है सत् के स्वरूप को समझने और समझाने की बस यही एक कहानी है
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गुण
द्रव्य, गुण और पर्यायों से युक्त है गुण द्रव्य का सहभावी धर्म है जबकि पर्याय क्रमभावी धर्म है गुण सन्तति द्रव्य के समान ही होती अविनाशी जिस द्रव्य का जो गुण वह उसमें सदैव रहता द्रव्य गुण का आश्रय है किंतु गुण तो सदा निर्गुण है ये गुण भी द्विविध होते है जो गुण सभी द्रव्यों में पाये जाते है ऐसे सामान्य गुण अस्तित्त्व, वस्तुत्त्व, द्रव्यत्त्व, प्रमेयत्त्व, अगुरूलघुत्त्व और प्रदेशत्त्व छ: प्रकार के होते विशिष्ट गुण द्रव्य को एक को दूसरे से पृथक करते जीव द्रव्य में चैतन्य पुद्गल द्रव्य में स्पर्श रस गंध वर्ण धर्म द्रव्य में गति सहायकत्व अधर्म द्रव्य में स्थिति सहायकत्व आकाश में अवगाहन का लक्षण
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काल द्रव्य में परिवर्तनशीलता
इन विशिष्ट गुणों से ही एक द्रव्य का दूसरे से अन्तर होता
सामान्य और विशिष्ट गुणों से रहित
कोई द्रव्य नहीं होता विचार के स्तर पर
वे भिन्न हैं
किंतु पृथक् सत्ता नहीं किसी की
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पर्याय
द्रव्य में घटित विभिन्न परिवर्तन ही पर्याय कहलाते प्रत्येक द्रव्य प्रति समय अपने पूर्व अवस्था का परित्याग कर नित नूतन अवस्था पाता और इसी तरह तो सृष्टि का क्रम यह चलता इन पर्यायों का अधिष्ठान या उत्पादन तो द्रव्य स्वयं ही है किन्तु पर्याय के बिना द्रव्य की कल्पना भी व्यर्थ है पर्याय द्रव्य से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है बन-बन कर मिटना
और मिट-मिट कर बनना यही तो है सृष्टि का क्रम सृष्टि, विनाश और नवसृष्टि यही खेल तो जैन दर्शन में पर्याय परिवर्तन कहलाता है
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खण्ड-3
भारतीय दर्शन एवं चिन्तन
भारतीय चिन्तन में प्रमाण-व्यवस्था
चार्वाक दर्शन में
प्रत्यक्ष ही हैं
एक मात्र प्रमाण
बौद्धों के लिए प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो हैं प्रमाण,
प्रत्यक्ष अनुमान और आगम सांख्य दर्शन में
ये तीन हैं प्रमाण, नैयायिको को है स्वीकार उपमान सहित चार प्रमाण, अर्थापत्ति सहित पाँच प्रमाण प्रभाकर मीमांसको को है मान्य, भट्ट मीमांसक और वेदान्त अभाव सहित षट् प्रमाण हैं मानते भारतीय दर्शन की
यह प्रमाण व्यवस्था
सभी दर्शन अपने अपने ढंग से हैं स्वीकारते ।
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चार्वाक दर्शन
बृहस्पति है प्रणेता चार्वाक दर्शन के इस दर्शन में
पृथ्वी, अप, तेज और वायु इन चार तत्वों के स्वाभाविक संयोग से
जगत है उत्पन्न हुआ
अमूर्त आत्मा और आकाश तत्व को
ये नहीं है मानते
सृष्टि कर्ता ईश्वर को भी
नहीं स्वीकारते
इस मत में अनुभूत मूर्त तथ्यों के अलावा किसी भी अमूर्त तत्व की सत्ता नहीं है वे अपने को देहात्मवादी मानते
और चैतन्य को शरीर का ही गुण बताते इस दर्शन में
काम ही एक मात्र पुरूषार्थ हैं?
धर्म और मोक्ष भी
क्या कोई पुरूषार्थ है जब तक जीयो सुखपूर्वक जीयो
कर्ज करके भी घी पीयो क्योंकि यही जीवन तो तुम्हारा आदि और अन्त है, मृत्यु ही मोक्ष है।
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बौद्ध दर्शन
बौद्ध दर्शन के हैं प्रणेता
भगवान बुद्ध उनकी चिंतनधारा कहती है
ईश्वर की कोई सत्ता नहीं ईश्वर जगत का स्रष्टा भी नहीं सम्पूर्ण विश्व
कार्य कारण की
एक व्यवस्था है
उत्पत्ति और विनाश के स्वाभाविक नियम से
संचालित है
सत्ता स्वभावतः
अनित्य और परिवर्तनशील है शाश्वत आत्मा में विश्वास भ्रामक है
चित्त - संतति का प्रवाह ही आत्मा की भ्रान्ति कराता है। शरीर, मन आदि पंचस्कन्धों का संकलन मात्र है आत्मा अतः निरपेक्ष कोई चैतन्य सत्ता नहीं
सत्ता सतत् परिवर्तनशीन है
और आत्मा भी चित्त धारा का एक प्रवाह है
बुद्ध कहते है
चार आर्य सत्य है
संसार दुखमय है यह प्रथम सत्य किन्तु यह दुख भी अकारण नहीं दुःख का कारण ही है द्वितीय आर्य सत्य
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तृतीय आर्य सत्य है दुख का विनाश सम्भव है क्योंकि वह सहेतुक है तृष्णा के क्षयरूप है निर्वाण अनिर्वचनीय वर्णातीत दुख से मुक्ति का, निर्वाण की प्राप्ति का, मार्ग है अष्टांगिक इसी मार्ग पर चलकर व्यक्ति मुक्ति पा सकता है। यही है चतुर्थ आर्य सत्य
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जैन दर्शन
जैन दर्शन के प्रवर्तक तीर्थंकर कहलाते विशिष्ट पुण्य के धनी स्वयं कर्मक्षय कर सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो जीवों को जगत का स्वरूप
और मुक्ति मार्ग बताते पंच अस्तिकाय, नवतत्त्व
और षद्रव्य का प्रतिपादन करते उनके दृष्टि पथ में समूचा विश्व जीव अजीव धर्म अधर्म आकाश और काल इन छ: द्रव्यों का खेल है जगत का न कोई आदि है
और न कोई अन्त है न कोई स्रष्टा है और न संहारक यह तो है अनादि अनन्त काल चक्र के अनुरूप इसमें उत्थान-पतन का क्रम है चलता जगत् में जीवों के हैं दो प्रकार बध्द और मुक्त कर्म के अनादि संयोग से अनादि काल से संसार चक्र में परिभ्रमण जो कर रहे
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ही बद्ध जीव है सम्यक दर्शन, ज्ञान और चारित्र्य से अंहिसा सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह रूप पंचमहाव्रतों के पालन में कर्मो का आवरण तोडकर
वही बद्ध जीव मुक्त बन जाता है फिर वही भगवान / परमात्मा कहलाता है
जैन दर्शन सभी जीवों को
भगवान बनने का अधिकार देता है।
मोक्षावस्था में जीव
पुद्गल से पृथक् हो
केवल दुख का ही अन्त नहीं करता अपने शुद्ध स्वरूप को
प्रकट कर
अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन
अनन्त वीर्य एवं अनन्त आनन्द को पाता और पुनः संसार में लौटकर नहीं आता आस्रव और बंध संसार के है कारण संवर और निर्जरा से मुक्ति का होता वरण यही जैन दर्शन का है सार शेष मात्र इसका विस्तार |
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न्याय दर्शन
न्याय दर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम हैं यह दर्शन ईश्वरवादी है। ईश्वर नित्यमुक्त, ज्ञान युक्त
और सृष्टिकर्ता है पालक और नियामक भी है पंचमहाभूत परमाणु, दिक् काल आत्मा और मन इन नव द्रव्यों के द्वारा ईश्वर जगत की सृष्टि करता है वह निमित्त कारण है इस जगत का उपादान तो इसके हैं नव द्रव्य, चौबीस गुण, पंचकर्म सामान्य, विशेष
और समवाय संबंध। मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है वह ईश्वर प्रेरणा से ही कार्य करता है यद्यपि ईश्वर को भी मनुष्य के पाप पुण्य के अनुसार चलना पड़ता है फिर भी ईश्वर सर्वशक्तिमान है मोक्ष के विषय में न्यायदर्शन का चिंतन है
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तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती जन्म मरण के दुख से विमुक्ति होती मुक्ति की अवस्था में सुख दुख की ज्ञान चेतना का भी अभाव है क्योंकि चेतना आत्मा का आकरिमक गुण है। और मोक्ष तो स्वरूप स्थिति है। वहाँ सुख-दुख ज्ञान-अज्ञान की पूर्ण निवृत्ति है।
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सांख्य दर्शन
सांख्य दर्शन के प्रणेता
महिष कपिल है । सांख्य ईश्वर को
जगत का स्रष्टा नहीं मानता बल्कि प्रकृति - पुरूष के संयोग की फलश्रुति मानता
पुरुष का सान्निध्य पा प्रकृति से ही होता
जगत का विकास है सत्व रज एवं तमो गुण की साम्यावस्था है प्रकृति
पुरुष का सान्निध्य पाकर जड़ प्रकृति में विक्षोभ है होता सृष्टिक्रम में
सर्वप्रथम आविर्भूत तत्त्व महत है
महत् से अहंकार
और अहंकार से एक ओर पांच ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच कर्मेन्द्रियाँ एवं मन की उत्पत्ति होती है । तथा दूसरी ओर पंचतन्मात्राएं उनसे फिर क्रमशः पंचभूत का होता है विकास
इस सृष्टि का आधार उपर्युक्त पच्चीस तत्व हैं प्रलय का अर्थ है प्रकृति के तीनों गुणों का साम्यावस्था में चले जाना संसार दुःखमय है औौर दुखों की आत्यंतिक
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निवृत्ति ही मोक्ष है सांख्य की मोक्ष की अवधारणा में सुख या आनन्द का कोई अवकाश नहीं सुख का संबंध दुख के साथ है पुरूष निष्क्रिय उदासीन चैतन्य है बन्धन और मोक्ष से अस्पृष्ट है पुरूष, प्रकृति की प्रसूति बुद्धि में पड़ने वाले अपने प्रतिबिम्ब से स्वयं को अभिन्न मान लेता है
और इस प्रकार भ्रमवश प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर बन्धन का सृजन करता है बन्धन और मुक्ति तो बुद्धि में पड़ने वाले इस प्रतिबिम्ब की होती है प्रकृति और पुरूष का भेद ज्ञान होने पर शरीर में ही जीवन मुक्ति है प्रकृति जन्य शरीर के त्यागने पर विदेह मुक्ति ही आत्यन्तिक मुक्ति है
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वेदान्त दर्शन
अद्वैत वेदान्त दर्शन के
प्रवर्तक शंकराचार्य है उनका सिद्धान्त है माया के कारण ब्रह्म ही विश्वरूप में
प्रतिभासित होता है माया न सत् है न असत् ब्रह्म से भिन्न उसकी
कोई सत्ता भी नहीं
फिर भी वह ब्रह्म नहीं
माया तो ब्रह्म की वह शक्ति हैं
जिससे नाना रूपात्मक विश्व की
प्रतीति होती है
ब्रह्म और आत्मा में
कोई भेद नहीं
ब्रह्म आत्मा रूप है
और आत्मा ही ब्रह्म रूप है
ब्रह्म एकमात्र सत्य है
शेष सभी मात्र मिथ्या आभास हैं
माया सहित ब्रह्म ही
ईश्वर है जो सर्वज्ञ
जगत का स्रष्टा पालक एवं संहारक है
आत्मा स्वभावतः
नित्य मुक्त शुद्ध चैतन्य है
किन्तु अज्ञान के वशीभूत
स्वयं को बन्धन ग्रस्त मानता है
शरीर से आसक्त होकर
शारीरिक अनुभूतियों को अपनी समझना ही बन्धन है एक मात्र ज्ञान ही मोक्ष का साधन है
ज्ञान के फलस्वरूप
जब जीव और ब्रह्म का
द्वैत भाव समाप्त होता है बन्धन का अन्त हो
अद्वैत की अनुभूति होती है ।
܀܀܀
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________________ रचनाकार परिचय साध्वी रुचिदर्शनाश्रीजी का जन्म दिनांक 1 मार्च 1977 को बड़नगर (म.प्र.) में हुआ। आपके पिता श्री रमेशचन्द्र जी ओरा एवं माता श्रीमती प्रेमलता ओरा प्रारंभ से ही धार्मिक संस्कारों से ओतप्रोत रहे है। इसका प्रभाव उनकी संतानों पर भी पड़ा। आपकी ज्येष्ठ पुत्री साध्वी महाप्रभाजी म. सा. के सान्निध्य में साध्वी में प्रीतिदर्शनाश्रीजी के रूप में दीक्षित हो गई। अपनी ज्येष्ठ भगिनी के दीक्षित होने से कनिष्ठ भगिनी में भी वैराग्य का बीज अंकुरित हुआ / वह भी ज्येष्ठ भगिनी साध्वी प्रीतिदर्शनाश्रीजी के सान्निध्य में प.पू. आचार्य जयंतसेन सूरीश्वर के वरद हस्त से दीक्षित हो गई। दीक्षित अवस्था में आपका नाम साध्वी रूचिदर्शनाश्री रखा गया / गृहस्थावस्था में आपने बी.कॉम. तक अध्ययन किया था, दीक्षित होने के पश्चात् जैन धर्म दर्शन का गम्भीर अध्ययन किया। आप आध्यात्मरूचि सम्पन्न साध्वी है। प्राच्यविद्यापीठ शाजापुर के प्रकाशन 1. जैन दर्शन के नव तत्व - डॉ. धर्मशीलाजी 2. Peace & Re;ogopis Harmony-Dr. Sagarmal Jain 3. अहिंसा की प्रासंगिकता - डॉ. सागरमल जैन 4. जैन धर्म की ऐतिहासिक विकास यात्रा - डॉ. सागरमल जैन 5. जैन गृहस्थ को षोडशसंस्कार - अनु. साध्वी मोक्षरत्नाश्री 6. जैन मुनि जीवन के विधी-विधान - अनु. साध्वी मोक्षरत्नाश्री 7. सत्यानुभूति - साध्वी रूचिदश श्री 400/50/50/20/ 40/ 50/20/ उद्धक आकृति कॉफासेट, उज्जैन फोन-073.4.25 15 1720