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द्रव्य
सत्ता के स्वरूप पर
सभी दर्शनों में जब हुआ विचार विमर्श
कुछ ने कहा
सत् कूटस्थ नित्य है, परिवर्तन प्रतिभासिक है,
इसके विपरीत
दूसरों ने कहा परिवर्तन ही सत् है नित्यता काल्पनिक है किन्तु जैन चिंतकों ने सत् को
उत्पाद व्यय धौव्यात्मक
बतलाया
विभिन्न अवस्थाओं में होने वाले
परिवर्तनों के बीच वह जो अविच्छिन्न नियामक तत्त्व है वही तो सत् है और सत् ही द्रव्य है स्व स्वरूप का
त्याग किये बिना ही
विभिन्न अवस्थाओं को
धारण करने वाला
वही तो नित्य है
प्रतिक्षण उत्पन्न और नष्ट होने वाली
अपनी पर्यायों की अपेक्षा से वह अनित्य भी है
अनुभूति एवं दर्शन / 41
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