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न कोई ताकत है तुम दृष्टा बनकर यदि देखो मन का नाटक यह शेखचिल्ली कितने ही सपने संजोता
और पल में ही उन्हें तोड़ भी देता इसके दास बने लोग। जग में मारे मारे फिरते है किन्तु जिसने इसको दास बनाया उन्नति के सर्वोच्च शिखर को है पाया ध्यानस्थ प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने मन का खेल जो खेला क्षण में नरक के बन्ध जोडे और क्षण में ही उन्हें तोड़े अन्त में मोक्ष का सुख पाया।
अनुभूति एवं दर्शन / 16
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