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मोहनीय कर्म जब सर्वथा होता है क्षय ऐसे क्षपक श्रेणी वालों का होता यहाँ प्रवेश है अति निर्मल भाव होते जीव के काल स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण हैं यह बारहवाँ क्षीणमोह गुणस्थान है
घाती कर्मों को जीव करता है जब क्षय तभी केवल ज्ञान केवल दर्शन होते प्रगट हैं चराचर तत्त्वों को हस्त-कमलवत् जानते और देखते हैं ज्ञान में इन्द्रियों की अपेक्षा भी नहीं है केवल तीनों योग शेष हैं। जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट देशोनपूर्व क्रोड वर्ष है यह सयोगी केवली तेरहवां गुणस्थान है
अयोगी केवली चौदवें गुणस्थान में योगों का होता सर्वथा निरोध है व्युच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती ध्यान वाले इस योगी के आत्म प्रदेश होते स्थिर मेरू पर्वत के समान है पंच ह्रस्व स्वर या व्यंजन के उच्चारण जीतना इसका काल फिर सम्पूर्ण कर्मों का क्षय कर देह त्याग देता है सिद्धावस्था को प्राप्त कर बन जाता परमात्मा है।
अनुभूति एवं दर्शन / 13
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