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गुणस्थान
आत्मिक गुणों के क्रमिक विकास से पूर्णता का होता दिग्दर्शन है कर्मों के उदय उपशम क्षयोपशम और क्षय के परिणामों के ये चौदह स्थान है इन्हें ही कहते गुणस्थान है
जीव की दृष्टि सत्य से विपरीत हो जब कहलाता मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है अभव्य रहता इसमें अनादि अनंत काल तक भव्य का अनादि सांत काल है सम्यक्त्व के संस्पर्श से पतित होने वाले का
सादि और सांत काल है नदी के पत्थर रगड़-रगड़ कर हो जाते है गौल जैसे होती यथाप्रवृत्तिकरण में सहज परिणाम की शुद्धि वैसे आयुकर्म बिना बाकी की स्थिति होकर जब क्षीण अन्तः कोड़ा-कोड़ी मात्र रहती है फिर न बांधे वह स्थिति ऐसे अपुनर्बधक आगे बढ़कर अपूर्वकरण करते है
अनुभूति एवं दर्शन /9
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