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के कहा कि, एहथकी जे विपरीतवेष रजोहरण मुखपत्ती धारणकर जे बकायना आरंन करे परि ग्रहादिक राखे तेहने मिथ्याद्रष्टि जाणवो इत्यादि, सो रजोहरणादिवेष धारण करके बकायका प्रा रंभ परिग्रहादिक रखना, मिथ्या दृष्टीका लक्षण नही होसकता, कारणकी मिथ्यादृष्टीका लक्षणतो औरही है सो प्रीहेमचंद्र सूरीजीने लिखा है “अ देवागुर्वधर्मषु यादेवगुरु धर्मधीः,, इत्यादि वचन से अदेव १ अगुरु २ अधर्म ३, इनमे देव गुरु धर्मबुद्धि, सो मिथा दृष्टीपना होता है, परिग्रहा दिक से मिथ्या दृष्टिपन नही हाता है, परिग्रह रखने से मिथ्यादृष्टी होगा तो प्रावक कामदेव
आदिकों नी मिथ्यादृष्टी मानना पड़ेगा, तथा अ संयती अविरती होजाना नी मिथ्या दृष्टित्वका कारण नहीं है क्योंकि चोथे गण ठाणेवाला शसंय ती अविरती मिथ्यादृष्टी होगा तो कृघ्नश्रेणिका दिककों सम्यग्दृष्टि कदापि नही कहसकेंगे, ग्रंथोमे तो उनको सम्यग्दृष्टी कहा है, चौथे गुण ठाणेवाले असंयती अविरती रजोहरणादि साधुवेष रहित जीवोंकों सम्यग्दृष्टि कहते हैं तो रजोहरणादिन गवानका वेष तथा शुछ धर्म मार्गापदेशकों को मिथ्याद्रष्टी कहना अति शनचित और मिथ्याद्रष्टी होजाने का कारण है ॥
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॥ भर उनकों मिथ्याद्रष्टी कहना निश्चयनयसे वा
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