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सो धर्मोपदेष्टा साधुओंका निषेधक नहीं होसक ता कारणकी धर्मोपदेष्टा पार्श्वस्थ नही हो सकते, पार्श्वस्थ पदका अर्थ तो ज्ञानादिरहित का बो धक है, केवल लिंगी पार्श्वस्थ हैं तथापि पूर्वोक्त विशेष वचनों से निषेध बचनोका अत्यंत निषि ठाचारी पार्श्वस्थो को वंदन करनेमे तात्पर्य है, ग्राहारादिदान तो प्राप्तही है क्योंकि उस्का निषेध नही है पाप फलका उत्तर तो होचुका है ॥
औरजी "नमोलोएस साहूणं,, इस परमेष्ठी मंत्र मे लोक और सर्व शब्द पढा है इससे मनुष्यलोक में यावत्साधुमात्र वंदनीय हैं यहप्रज्ञापित होता है, इसी तात्पर्यसे श्रीप्रभयदेव सूरीने जगवती टीकामे लोके इस्का अर्थ ' मनुष्यलोके नतुगच्छा दो येसाधव ऐसा कहा, और सर्व शब्द से प्रमत्ता दि, पुलाकादि, जिनकल्पिकादि, प्रत्येम्बुझादि, भारतादि, और सुखम दुःखमादि विशेषित सक ल साधुच्छोंका ग्रहण किया, और सर्वशब्दसे गुण वान् सकल साधुओं का ग्रहण है ऐसा कहा, अर सर्व शब्द से प्रत्यय कर्के सार्वशब्दसिद्ध कर्के सकल जीवके हित, अरिहंतके भक्त, जिनाज्ञा पालक, प्राराधक, प्रतिष्ठापक और दुर्नयके दूरकरनेवा ले इत्यादि अर्थ किये हैं, ऐसा अर्थ न करते तो नमो साहूणं इतना कहने से मंत्र सिद्ध होजाता लोके, सर्व शब्द कहना जगवान् का निष्फल होजा