Book Title: Viveksar
Author(s): Shravak Hiralal Hansraj
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

View full book text
Previous | Next

Page 234
________________ - - - महाभूतोंका धर्महै, जैसे पृथिवीमेकठिनपना इस्का खंडन, यदि चैतन्य पंचमहानूतोंका धर्महोतातो ढेलेमे और मरेमनुष्यादिमेभी चैतन्य होता पंच महाभूतोंसे चैतन्य पैदा होताहै यहनी नहीकह सकते, दोनो विलक्षणहैं इस्से कार्यकारणभाव न ही होसकता. प्रत्यदही पृथिवी कठिन स्वनावहै जल द्रवस्वभावहै इत्यादि' चैतन्यतो इनसे विल कणहै, तो कैसा इनका कार्य कारण नाव होगा इसवास्ते चैतन्य पंचभूतोंका धर्म और कार्यनही है। केवल सब प्राणियोमे स्वसंवेदन प्रमाणसिद्ध है, इसलिये जिस्कों चैतन्यहै वह जीव है, जहां चैतन्यनही वह अजीवहै, इसवास्ते जीव और जीव दोद्रव्य कहे जातेहैं। जीव नित्यहै २ अर्थात् पैदा नहीं होता और नष्टनी नही होताहै उसके पैदा और नाश होनेमे कोईकारण नहीहै। यदि एनित्य कहेंगेतो बंध और मोदादोनो इसएकमे आश्रय नहीं होगा कोई नास्तिक कहताहै जीव दिणकहै ऐसा कहेंगेतो एकको नूकलगेगी दूसरा बनावेगा तीसरा खायगा चौथा तृप्तहोगा क्योंकि उस्कमतमे जीवका दणदणमे उत्पत्ति और नाश है ॥ जीव कर्मकर्ताहै।३ वहजीव मिथ्यात्व अवि रति और कषायादि बंध हेतुयुक्त होकरके उन उन कर्माको करताहै, ऐसा नकहेंगे तो प्राणिप्रा णीमे विचित्र विचित्र सुख दुःखादिका अनुभव - - -

Loading...

Page Navigation
1 ... 232 233 234 235 236 237