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अपूर्वयं धनुर्विद्या नवता शिक्षिता कुलः । मार्गणौघः समभ्येति गुणोयातिदिगंतरम् २॥ हेराजन् ! यह अपूर्व धनुषकी विद्या तुमने क हांसे सीखी जो मार्गणतो समीपाते हैं और ग ण दूर जाताहै, धनुर्विद्यामे जब गुणडोरी कानके पास आवतीहै तब मार्गण बाण दर जाताहै, इ हां प्रापके धनुर्विद्यामेतो मार्गण याचकपास श बतेहैं, तब गुण दानकीर्ति दूर दिशायरोमे जाती है यही पूर्वताहै । दक्षिण दिशाकाराज इसको दिया ऐसा मनमेकरके राजा पश्चिमदिशा सन्मुख होबैठे, सूरीने सन्मुखहो तीसरा श्लोक पढा ॥
सरस्वतीस्थितावन लदनीःकरतलेस्थिता। कीर्तिःकिंकुपिताराजन्येन देशांतरंगता ॥ ३॥ हेराजन् सरस्वती तुमारे मुखमे रहती है, और लक्ष्मी तुमारे हस्तकमलमेहै, परंतु कीर्ति क्यों कु पितहुई जो देशांतरमे चलीगई ॥ पूर्वोक्त विचार से राजा उत्तरमुख होबैठे, सूरीने उसमुखहो चौथा श्लोक पढा ॥ सर्वदा सर्वदोसीति मिथ्यासंस्तूयसे बुधैः । नारयोलेभिरे पृष्टं नवदः परयोषितः ॥४॥ हेराजन्! पंडितलोग तुमारी स्तुति करतेहैं कि राजाविक्रम सदा सर्व वस्तु देताहै यह मिथ्याहै, कारण तुमने शत्रुशोको पीठनहीं दिया और पर स्त्रियोंकों अपने हृदयका आलिंगन ॥ प्रसन्न हो