Book Title: Viveksar
Author(s): Shravak Hiralal Hansraj
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 193
________________ एगविह दुविहतिविहं चउहापंचविहदसविहं सम्मं । होईजिणणायगेहिं इइभणियमणंतना णीहिं ॥१॥ श्रीजिनेंद्रके कहेहए जीवाजीवादि नवपदा में सच्चीत्रछा यह एकविध १ द्रव्यसम्यक्त १ अरना वसम्यक्त यहद्विविध २ विशोधि विशेषकरके मि थ्यात्वषुझलोंको ठकरना यह द्रव्यसम्यक्त और उसके सहायतासे उत्पन्लन्नया जिनोक्ततत्वोंपर रु चिरूप परिणाम सोभावसम्यक्त, अथवा निश्चयनय अर व्यवहारनयसेभी द्विविध होताहै ज्ञानदर्शन चारित्ररूप आत्माका परिणाम अथवा ज्ञानादि परिणतिसेजुदामात्माहै यह निश्चयसम्यक्त यहीमो दका मुख्यकारणहै, देवप्रहंतहीहैं, गुरु वधधर्मो पदेशसे मोदमार्गका देखावनेवालाहीहै, केवली काकहा दयामूलही धर्म है, इनतीनोका नय७ प्रा माण २ निक्षेपा ४ इनसे जोत्रछा सोनिश्चयसम्य क्तका कारण व्यवहार सम्यक्त है, कारकी रोचकर दीपक ३ यहत्रिविध, जीवोंकी अच्छीतरहसे अनु ष्ठानमे प्रतिकरावे सो कारकसम्यक्त, यहविशिष्ट पंचमहाव्रत धारियोकोही होताहै, केबल अनुष्ठा नमे रुचिकरावे वहरोचक, यहअविरत सम्यग्दृष्टि योंको होताहै, कोई आपमिथ्यावृष्टि शभव्य अथ वा दूरन्तव्य अंगारमईककी तरह रहे, धर्मकथासे जिनोक्तजीवाजीवादि पदार्थ दूसरोंकों देखावे वह

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