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न जाननेवाले मुनिकीनी विराधना कदापि नही करना, जैसे तैसेन्नी वेषधारी मुनिको देखके श्रा वकने पुण्य की इच्छा से नक्ति पूर्वक गौतम के समान जान के पूजन करना अर्थात् आहारादि दान से सत्कार करना, मुनिका वेष वंदना करने योग्य है, कुब किसीका शरीर नही, इसलिये वेशधारी मात्रको पर्थात् साधुमात्र को देखके सुकृतीजन सत्कार करे, इनविधि वचनोंसे केवल लिंगधारी की पूजा करने में पुण्य बंधन कहा तो
छ धर्मोपदेशक देत्र देश काल नावा नुसारें चारित्रधर्म पालनेवाले संयती प्रतिबोधक गुरु ओंकी नक्ति करने में पापफल कहना मिथ्या प्रला
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। और जो भगवतीका आठमां शतकके कुठे उद्देशे का पाठ लिखके उस्को शन्यदर्शनी आश्रयी की कल्पना करके उत्तर लिखा सो उसतीनों मागों से लिखनेवाला चौथाही दृष्ट होता है, कारणकी प्राणातिपातादि बकायका सर्वथा शारंन न करे बह साधु प्रथम मार्ग, ऐसा आपही लिखता है परंतु सर्वथा छकायके प्रारजसे वचना दृष्ट नहीं होता है, क्योंकि अंग बंगादि देशोमे विचरते हैं सो क्या युगमात्र भूमीकी प्रमार्जना करके चलते हैं ? वा बयोलीस दूषण रहित आहार लेते हैं ? वा गांव दरगांव मे श्रधालु लोगोंसे असत्प्रला