Book Title: Vasudevhindi Part 2 Author(s): Sanghdas Gani, Chaturvijay, Punyavijay Publisher: Atmanand Jain SabhaPage 24
________________ २२० वसुदेवहिंडीए [रत्तवती-लसुणिकापुरभवो पुष्पदंता देवी सह पंडितिकाए अणुपवइया रायाणं । ततो पुप्फकेऊ अणगारो अपरिवडियवेरग्गो अहिगयसुत्त-ऽत्थो तर्बुजतो विहरिऊण विहुयकम्मो निव्वुओ। ततो पुप्फर्दता य अजा जाइ-कुल-रूव-ईसरियमएण पंडियं अनं अवजाणंति निब्भत्थेइ-वीसरिता ते जाई, अवसर त्ति, पूइमुही मा मे अभिमुही ठाहि, मा य आसण्णा पडिवयणं देहि, 5वत्थाच्छण्णमुही परिसकसु मे समीवं ति । तओ सा पंडितिका एवमवि गरहिया चिंतेति-सञ्चं भणाति देव(वि)-त्ति पडिति से पाएसु 'खमसु मे अवराह' ति । तह वि पणयं वंदति । ततो तीय अहियासेमाणी सम्मं हीलणं पंडितिका णीयागोयं कम्मं खवेति, सुहवण्ण-गंध-रस-फासाओ आदेजवयणा उच्चागोयं च णिवत्तिया । पुप्फदंताए पुण गबियाए पूतिमुहता णीयागोयया णिबत्तिया। जं च पुप्फदंता तवं पगेण्हति तं पंडिका वि 10 अणुक्त्तए। ततो [दो] वि कालं काऊण सकस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो अग्गमहिसीओ जायाओ। ठितिक्खएण चुया जा पंडितिका सा तव धूया रत्तवती जाया, जा पुण्फदंता सा लसुणिका जाया । रत्तवई अद्धभरहाहिवइपियभारिया भविस्सति ।। मया पुणो पुच्छिओ-कह(हिं) सोरत्तवतिभत्ता? कहं वा वियाणियबो त्ति नं। ततो भणति-जम्मि णे आवणे गयस्स पायणिसण्णे तक्खणादेव सयसहस्सलामो भविस्सति, 16 लसुणगंधि च दारियं सुगंधमुहिं च काहिति सो 'अद्धभरहसामिपिउ' त्ति । एवं कहिए वंदिऊण तं महरिसिं अइगओ । तप्पभितिं च लसुणिका चेडी आवणे साहीणा अच्छत्ति । लाभो य मे जहा संदिहो साहुणा तहा अज जातो । एवं च मया विण्णक्यं ति। तओ सोहणे मुहुत्ते(प्रन्थानम्-६२००) रत्तवतीए पाणिं गाहिओ सत्यवाहेण विहिणा। 20ततो रत्तवतीए रत्तंत-कसिणमज्झ-धवललोयणामयभूयवयणचंदाए चंदप्पभावदायाऽऽहरियसिरीय सिरीअ विय पउमवणविहारदइयाए सह विसयसुहमणुभवंतो सुहं वसामि त्ति । ॥ इति सिरिसंघदासगणिविरइए वसुदेवहिंडीए रत्तवतीलंभो एक्कादसमो सम्मत्तो॥ रत्तवतीलभग्रन्थानम्-९२-१४. सर्वग्रन्थानम्-६२०४-३. बारसमो सोमसिरिलंभो कयाइं च भणति में सत्थवाहो वाससमए--सामिपाया ! महापुरे नयरे इंदमहो अईव पमुदिओ. जइ इच्छह वच्चामु पस्सिउ ति । मया पडिवणं-एवं भवउ ति । ततो उवगया महापुरं नयरं सुरपुरसरिच्छं । बहिया य नयरस्स पासाया बहुविहा । ते दटूण मया पुच्छिओ सत्थवाहो-किं एयं पडिनयरं? ति । सो भणति १ सहिया पं० शां० विना ॥ २ ०डिका कसं० उ० मे० विना ॥ ३ °वुज्जोवो वि° ली ३ विना ।। ४रिकमसु कसं० उ० मे० विना ॥ ५ रत्तवतीलंभो एकादसमो सम्मत्तो इति शां० पुष्पिका। 000000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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