Book Title: Vasudevhindi Part 2
Author(s): Sanghdas Gani, Chaturvijay, Punyavijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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वसुदेवहिंडी। कण्हं आसंकमाणेण य कसिणजक्खा आदिट्ठा पत्ता नंदगोवगोहे । विसज्जिया खरतुरय-वसहा । ते य जणं पीलेंति । कण्हेण य विणासिया । मया य वंचेऊण संकरिसणो सस्स सारक्खणनिमित्तं 'उवज्झाय' त्ति निक्खित्तो । तेण य कलाओ गाहिओ । कंसेण य नेमित्तिवयणं पमाणं करेंतेण धणुं सच्चहामाय कण्णाय घरे ठवियं-जो एयं आरुहेइ 5 तस्स कण्णा सच्चभामा दिजइ।
अण्णया य अणाहिट्ठी कण्णाकंखी वयमझेण आगतो पूइतो बलदेव-कण्हेहिं । पत्थाणकाले य कण्हो से दरिसेइ रहस्स(सं)। (प्रन्थानम्-१०४७५) नग्गोहपायवे से लग्गो किर रहधयो । भंजिउं सालमचाएतस्स से कण्हेण य सो भग्गो । 'आरसियं' ति य णेण रहो पवेसिओ नयरं । पत्ता य सञ्चभामाघरं । न चाएइ तं धणुं आरुहे अणाहिट्ठी । 10 कण्हेण आरुहियं । आगंतूण य मम समीवेणिवेएति–ताय ! मया सच्चहामाघरे धj विलइयं ति । मया भणियं-पुत्त ! सुहु कयं ते धणुं सजीवयं करेंतेण. एवं पुवविवत्थियं-जो एयं धणुं सजीवं करेइ तस्स एसा दारिया दायब त्ति ॥
- ॥ वसुदेवहिंडीए पढमखंडं सम्मत्तं ॥
देवकीलंभमन्थानम्-श्लोक ९९ अक्षर ४.
सर्वग्रन्थानम्-श्लोक १.४८० अक्षर २०.
वसुदेवहिंडीए पढमखंडं
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सम्मत्तं
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अक्षर २०
१य नि° शां० विना ॥ २°वे एसि ताय शां० विना ॥ ३ क ३ गो ३ विनाऽन्यत्र-°ढीपढम ली ३ । डीप्रथमखंड समाप्तम् उ० मे० ॥ ४ सर्वास्वपि प्रतिषु ग्रन्थाग्रं ११००० एकादश सहस्त्राणि इति दृश्यते ॥
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