Book Title: Vajjalagga me Jivan Mulya
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 11
________________ भावी संकट पर पड़ी और उन्होंने श्रेष्ठ रचनाओं को एकत्र कर उन्हें नष्ट होने से बचा लिया, साथ ही पाठकों को एक ही ग्रन्थ में निर्दिष्ट विषयों पर विभिन्न कवियों की इन्द्रधनुषी कल्पनाओं से मंडित मनोहर सूक्तियों के रसास्वादन का अमूल्य अवसर भी प्रदान किया।" (वज्जालग्गं भूमिका पृ. 17) टीकायें एवं अनुवाद-इस ग्रन्थ पर दो संस्कृत टीकायें प्राप्त हैं:1. बृहद्गच्छीय श्रीभानभद्रसूरि के प्रपौत्र शिष्य, श्री हरिभद्रसूरि के पौत्र शिष्य, श्री धर्मचन्द्र के शिष्य श्री रत्नदेव ने वि. सं. 1393 में संस्कृत टीका लिखी थी। यह टीका प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद द्वारा 1969 में वज्जालग्गं ग्रन्थ में प्रकाशित हो चुकी है। 2. उपकेशगच्छीय श्री सिद्धसूरि के शिष्य उपाध्याय धनसार ने "विषमार्थ। पदप्रदीप" नामक संस्कृत टीका की रचना वि. सं. 1553 में की थी। यह टीका अभी तक अप्रकाशित है । अन्य अनुवादों में सर्वप्रथम जर्मन विद्वान वेबर द्वारा अंग्रेजी अनुवाद के साथ इसे प्रकाशित किया गया था जो 1944 में बिब्लियोथिका इण्डिका क्रमांक 227 पर प्रकाशित हुआ था। तत्पश्चात् प्रो. माधव वासुदेव पटवर्धन ने अंग्रेजी में विस्तृत भूमिका एवं अंग्रेजी अनुवाद के साथ संपादन किया था, जो प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, " अहमदाबाद द्वारा सन् 1969 में प्रकाशित हुआ था। तदनन्तर विश्वनाथ पाठक ने हिन्दी अनुवाद के साथ विस्तृत भूमिका लिखी, जो पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी से सन् 1984 में प्रकाशित हुई। इसी संस्करण के प्रकाशकीय एवं सम्पादकीय (पृ.ख) के अनुसार पं. बेचरदासजी दोषी ने इसका गुजराती अनुवाद किया था जो अभी तक : प्रकाशित नहीं हो पाया है। घ ] * Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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